देवी प्रसाद (Devi Prasad)
भाजपा की स्थापना 6 अप्रैल 1980 में हुई थी. यह वही दौर था, जब मंडल कमीशन ने 27 प्रतिशत आरक्षण पिछड़े वर्ग यानि देश की लगभग आधी आबादी को सामाजिक न्याय देने का सुझाव दिया था.
हालांकि, ‘सॉफ्ट’ हिंदुत्वा’ की राह पर चलने वाली कांग्रेस ने कमंडल के डर से एक दशक तक मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने का राजनीतिक जोखिम नही उठाया. जिसके कारण पिछड़े वर्ग ने कांग्रेस से सामाजिक न्याय की उम्मीद लगाना बंद कर दिया. 1990 में सत्ता परिवर्तन हुआ तथा जनता दल की सरकार बनी. प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने का फैसला किया. जिससे वी.पी. सिंह सरकार की सहयोगी दल भाजपा को चुनावी खतरा महसूस हुआ और भाजपा ने धार्मिक और राजनीतिक ‘रथ यात्रा’ के माध्यम से मंडल कमीशन के प्रभाव को कम करने का प्रयास किया. आपको यह बताते चलें कि राम रथ यात्रा एक राजनीतिक और धार्मिक रैली थी जो सितंबर से अक्टूबर 1990 तक चली थी. सत्ता की चाभी को हथियाने के लिए भाजपा ने अयोध्या विवाद को बढ़ा-चढ़ा कर सुनियोजित व आक्रामक तरीके से पेश किया. जिसके फलस्वरूप, उसे मुस्लिम विरोधी भावना को लामबंद करने में सफलता भी मिली.
सामाजिक न्याय बनाम आक्रामक हिंदुत्वा की राह
भाजपा और उसके फ्रंटल (आगे रहने वाले) संगठनों ने हिन्दू तुष्टिकरण की राजनीतिक डगर पर चलते हुए धार्मिक धुर्वीकरण के बल पर लोकतंत्र के मंदिर में जगह बनाने के लिए एक आक्रामक राजनीति की नींव डाली. भाजपा अपने राजनीतिक प्रयोग में सफल भी रही. उदाहरण स्वरूप, भारत में जब भी हिन्दू और मुस्लिम समाज के बीच दंगे हुए, उसका सीधा लाभ भाजपा को मिलता दिखाई दिया.
आक्रामकता बनाम सहजता
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पिछले पाँच वर्षो से अखिलेश यादव पर काफ़ी आक्रामक रहे हैं. वे कभी कहते हैं कि ‘10 मार्च के बाद ये पूरी गरमी शाँत करवा देंगे’, तो कभी उन्हें ‘टोंटी चोर’ भी कहते नज़र आते हैं. इसके साथ ही विकास की बात करते हुए वे अचानक हिन्दू बनाम मुस्लिम, कब्रिस्तान, श्मशान और पाकिस्तान पर बात करने लगते हैं. असमाजिक तत्वों से निपटने के लिए संवैधानिक व कानूनी प्रक्रिया के इतर ‘ठोंक देने’ की बात दोहराते नज़र आते हैं. हाल ही में ‘यह चुनाव अस्सी बनाम बीस का है’ का भड़काऊ बयान देकर हिन्दू मतदाताओं का धुर्वीकरण करने का प्रयास भी किया.
पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी बड़े सधे हुए लहजे में योगी आदित्यनाथ की बातों का प्रत्युत्तर भी देते रहे हैं. ऐसा प्रतीत होता है कि अखिलेश यादव की बातों को तिल का ताड़ बनाने के लिए बीजेपी के आईटी सेल से लेकर #गोदी_मीडिया तक पीछे पड़ी रहती है. अखिलेश यादव द्वारा दिए गए पिछले कुछ महीनों के साक्षात्कारों का गहराई से अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि आज वे अपना पुराना नरम रवैया छोड़कर भाजपा पर आक्रामक तरीके से प्रहार करने के साथ ही सत्ता के प्रति नतमस्तक रहने वाले पत्रकारों पर भी तंज कसते नज़र आ रहे हैं. जिसे सोशल मीडिया पर वायरल होते देखा जा सकता है.
अखिलेश यादव की छबि
अखिलेश यादव के ऊपर अभी तक किसी प्रकार के गंभीर मुकदमें नही हैं. वे अब समाजवादी पार्टी के संरक्षक व सुप्रीम लीडर बनकर उभर चुके हैं. वर्तमान में आजमगढ़ से सांसद होने के बाद भी इस बार करहल से यूपी विधानसभा चुनाव के लिए अपना नामांकन पत्र भरे हैं. यह क्षेत्र मैनपुरी लोकसभा सीट में आती है, जहाँ से समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव मौजूदा सांसद हैं. करहल का अखिलेश यादव के परिवार का पुराना रिश्ता रहा है, क्योंकि यहीं से ही उनके पिता मुलायम सिंह यादव ने अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की थी और यहीं कुछ समय तक अध्यापन कार्य भी किया था.
चुनावी जुगलबंदी और खींचतान
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रियंका गाँधी इस बार यूपी विधानसभा के चुनाव में दमदार तरीके से दस्तक दे चुकी हैं और कांग्रेस के परंपरागत दलित वोटर पर वे भरपूर निशाना साध रही हैं. सन 1990 के दशक के बाद कांग्रेस का जनाधार यूपी में दिन-प्रतिदिन घटता गया. हालांकि, पिछले कई चुनावों में बसपा बहुत संघर्ष करने के बावजूद नतीजों को अपने हित में नहीं कर पाई है. जिस तरह का माहौल बना या बनाया गया है उसमें आज यूपी का चुनाव भाजपा बनाम सपा ही नज़र आ रहा है. ऐसे में प्रियंका गाँधी और चंद्रशेखर का यूपी में आगाज़ तथा पिछले तीन-चार वर्षो से काफ़ी सक्रिय होना बहुजन समाज पार्टी के लिए खतरे की घंटी साबित हो सकता है. इधर मुस्लिम वोटर तथा एंटी-इनकम्बेंसी (सत्ता-विरोधी) वोटर के पास सिर्फ सपा ही एक मात्र विकल्प नज़र आ रही है. कम से कम अखिलेश यादव की रैलियों में उमड़ी भीड़ देखकर तो ऐसा ही लगता है. इसका फायदा वर्तमान चुनाव में अखिलेश यादव को मिल सकता है. हालाँकि यह देखना अभी बाकि है कि कुमारी मायावती इन परिस्थितियों को कैसे ‘एड्रेस’ करती हैं.
भाजपा की चुनावी घेरेबंदी
इस विधानसभा के चुनाव में अब भाजपा अपना मुख्य प्रतिद्वंदी सपा को ही मानकर चल रही है. इसीलिए भाजपा के आलाकमान – अमित शाह, नरेंद्र मोदी, जेपी नद्दा, योगी आदित्यनाथ आदि भ्रष्टाचार, जातिवाद, गुंडागर्दी आदि मुद्दों पर एक रणनीति के तहत अखिलेश यादव को चारों तरफ़ से राजनीतिक घेराबंदी करने का प्रयास कर रहे हैं. हालांकि, अखिलेश यादव भी गठबंधन के नेताओं के साथ उतनी ही मुस्तैदी के साथ सत्ता पक्ष को जबाब देते नज़र आ रहे हैं.
आरोप-प्रत्यारोप का राजनीतिक सिलसिला
योगी आदित्यनाथ के ‘गरमी शांत करवाने’ वाले बयान पर अखिलेश यादव ने पलटवार करते हुए कहा कि ‘गरमी खत्म हुई तो हम सब मर जाएंगे. अगर गर्म खून नही बहेगा तो हम सब जिंदा कैसे रहेंगे. अखिलेश यादव का कहना है कि योगी आदित्यनाथ इस तरह की असंसदीय भाषा का प्रयोग पहले भी करते आये हैं, जिस पर चुनाव आयोग को संज्ञान लेना चाहिए.’
अखिलेश यादव इस बार भाजपा पर आक्रामक होने के साथ ही #गोदी_मीडिया पर भी प्रश्नवाचक चिन्ह लगाते हुए तंज कसते नज़र आ रहे हैं. ऐसे वीडियोस को सोशल मीडिया पर बहुत बार देखा जा रहा है. वे यह इलज़ाम भी लगाते दिखते हैं कि इस बार मेनस्ट्रीम मीडिया द्वारा यूपी में विधानसभा चुनाव को सपा बनाम भाजपा ध्रुवीकृत करने का प्रयास किया जा रहा है.
इस संदर्भ में हाल ही में एक वायरल वीडियो किसान नेता राकेश टिकैत का भी सोशल मीडिया पर शेयर किया जा रहा है, जिसमें राकेश टिकैत टीवी एंकर को फटकार लगाते हुए बैकग्राउंड दृश्य को बदलने के लिए कह रहे हैं. राकेश टिकैत का कहना था कि प्रतिष्ठित मीडिया घराना मंदिर-मस्जिद दिखाने के बजाय स्कूल और अस्पताल की फोटो क्यों नही दिखाते हैं.
प्रमुख चुनावी शिगूफा
उत्तर प्रदेश में भाजपा द्वारा इस समय हिन्दू-तुष्टीकरण तथा सामाजिक समीकरणों को साधते हुए पिछले चुनाव की भांति गैर-जाटव दलित तथा गैर-यादव पिछड़ा जैसे भ्रामक नैरेटिव फ़ैलाने की कोशिस की नाकाम कोशिश जा रही है. वहीं दूसरी तरफ़, अखिलेश यादव और जयंत चौधरी के किले को ध्वस्त करने के लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राह पर चलते हुए खालिस्तानी किसान, पाकिस्तान, मुसलमान जैसे शब्दों का प्रयोग कर रही है, जिसके कारण मुस्लिम वोट सत्ता के खिलाफ वोट करने के लिए तैयार है. अधिकांश मुस्लिम आबादी आज सपा की तरफ़ झुकती हुई नज़र आ रही है, क्योंकि इस चुनाव में उन्हें कांग्रेस और बसपा काफ़ी कमजोर लग रही है तथा उनके लिए सपा ही एकमात्र विकल्प बनती जा रही है.
कांगेस 2024 के लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए दलित मतदाताओं को आकर्षित करने में कोई कसर नही छोड़ रही हैं. उदाहरण स्वरूप, हाल ही में आगरा में जब एक वाल्मीकि समाज के नवयुवक की पुलिस हिरासत में संदिग्ध मौत हुई थी तो प्रियंका गांधी तत्काल उनके घर गई थीं. इसी तरह, प्रयागराज में फूलचंद पासी के परिवार से भी मिलने प्रिंयका ने तत्परता दिखाई. जिसके माध्यम से वे दलितों के मध्य उभरते हुए नए नेतृत्व को कांग्रेस की तरफ़ झुकने के लिए एक बड़ा संदेश देने का प्रयास किया था. हालाँकि यहाँ स्वाभाविक तौर पर सवाल खड़ा हो जाता है कि ऐसा केवल चुनावों के दौर में ही क्यूँ होता है? प्रियंका गाँधी ने मृतक परिवार के परिजनों के साथ अपनी फोटो को ट्वीटर हैंडल पर शेयर करते हुए लिखा, “मैं समता की लड़ाई के साथ हूँ. मैं देश के संविधान के साथ हूँ. मैं दलितों-वंचितों पर जुल्म के खिलाफ, न्याय की आवाज़ के साथ हूँ.” इसी तरह वे कई बार चंद्रशेखर आज़ाद ‘रावण’ से भी मिल चुकी हैं.
पिछले आठ सालों में जिस तरह भाजपा ने ‘मनी-मीडिया-माफिया’ की बदौलत आक्रामक राजनीति खेली है उसने लोगों में ही नहीं बहुजन राजनीतिक दलों में भी चिंता का माहौल पैदा किया है. अब मुद्दा अपने अपने वोट बैंकों को सेंधमारी से बचाने का भी है. इसलिए जहाँ एक तरफ़, मायावती आगरा में हुए जनसैलाब रैली में सत्ता पक्ष से ज्यादा कांग्रेस पर आक्रामक दिखीं, क्योंकि शायद यह बात उस डर से वाबस्ता है कि कहीं बसपा का परंपरागत दलित वोट कांग्रेस में शिफ्ट न हो जाए. वहीं दूसरी तरफ़, आज मायावाती के सामने चंद्रशेखर आज़ाद ‘रावण’ जैसे युवा नेताओं का चुनावी राजनीति में प्रवेश बहुजन राजनीति को अवश्य प्रभावित करेगा. इसलिए बहुजन या सामाजिक न्याय के पक्षधर राजनीतिक दल भाजपा/कांग्रेस से लड़ते-भिड़ते आपसी मुकाबले में भी हैं. बहरहाल, हाल ही में हुए उत्तर प्रदेश में पंचायती चुनावों में सपा को बहुमत मिला था, जिससे अखिलेश यादव के प्रति सत्ता पक्ष अधिक आक्रामक हुआ है और अपना प्रमुख प्रतिद्वंदी अखिलेश यादव को ही मानना शुरू कर चुका है.
बहुजन नेताओं के प्रति मीडिया का रुख
अगर इतिहास के आईने में झांकें तो ज्ञात होता है कि बी.आर. आंबेडकर, कर्पूरी ठाकुर, कांशीराम, लालू यादव, सोनेलाल पटेल, शरद यादव, मुलायम सिंह यादव जैसे अनेक कद्दावर नेता सदैव वंचित वर्ग के सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक हितों के बारे में सत्ता से टकराते रहे. जिसके कारण मेनस्ट्रीम मीडिया में बैठे प्रिविलेज जातियों के लोगों की भौंहें इन बहुजन नेताओं पर तनी रहीं तथा उन बहुजन नेताओं की एक नकारात्मक छवि भी प्रस्तुत करने में भी कोई कसर नही छोड़ी तथा उन नेताओं पर जातिवादी होने का आरोप लगाते रहे.
मीडिया की चरणबंदगी की दास्तान
आज मीडिया के कई चैनल ऐसे हैं जो दिन-रात अंधभक्तों की भांति सत्ता के गुणगान में ही लगे रहते हैं. इस संदर्भ में गीतकार नीरज ने खूब लिखा है कि ‘समय ने जब भी अंधेरों से दोस्ती की है, जला के अपना ही घर, हमने रौशनी की है, सबूत हैं मेरे घर में धुंए के ये धब्बे, कभी यहाँ पे उजालों ने ख़ुदकुशी की है’. आज का कथित मेनस्ट्रीम मीडिया बिक गया है तथा वह ‘गोदी मीडिया’ बन गया है. जिस बेशर्मी से लोगों के मुद्दों को धता बताते हुए इसने अपनी ज़िम्मेदारी से मुँह मोड़ा है वह बेहद निंदनीय है. सत्ता पक्ष का साथ मीडिया देता आया है लेकिन अब मीडिया कोरे झूठ बोलकर सत्ता की चाकरी कर रहा प्रतीत होता है. पत्रकारीय के एथिक्स के यहाँ क्या मायने?
मान्यवर कांशीराम ने इन विपरीत परिस्थितियों को बहुत पहले भांप लिया था. जिसे वे अपनी पुस्तक ‘चमचा-युग’ में लिखते हैं कि मीडिया के एंकरों से लेखर बहुजन नेताओं तक सत्ता के सामने ‘चमचा’ बनकर सदैव चरण-बंदगी करते रहे हैं. बहुजनों के साथ बुद्धिजनों को इसका अध्ययन जरूर करना चाहिए, क्योंकि अपनी कमियों को छिपाने के लिए सिर्फ मीडिया को ही दोषी ठहरा देना भी ठीक नही होगा.
आज दलित-पिछड़े और जनजाति वर्ग के सैंकड़ों सांसद संसद भवन में मौजूद हैं तथा विधानसभा में भी उनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व है. लेकिन 13 पॉइंट रोस्टर के समय किसी ने भी विरोध प्रकट नही किया. सबकी आँख पर पट्टी बंधी हुई थी. शायद वे डर रहे थे कि कहीं ऐसा न हो कि वे अपने जाति/समाज के प्रतिनिधित्व के लिए दो बातें बोल दें और उनके आका नाराज़ होकर अगली बार टिकट देने से मना कर दे. इस तरह के नेताओं को कांशीराम ‘चमचा’ कहकर पुकारते थे.
निष्कर्ष
राममनोहर लोहिया, चौधरी अजीत सिंह, कांशीराम, सोनेलाल पटेल, मायावती तथा जनेश्वर मिश्र जैसे लोकप्रिय नेताओं ने उत्तर भारत में जीर्ण लोकतंत्र की नींव को मजबूत किया और एक नई राजनीतिक कवायत को धरातल पर उतारा. इन नेताओं ने किसानों, गरीबों, वंचित-पिछडे वर्ग के सशक्तिकरण तथा लोकतांत्रिक व्यवस्था में पैदा हुए रिक्तता को भरने का प्रयास किया. लेकिन मीडिया के कुछ पत्रकार इन राजनेताओं को जातीय ढांचे में रखकर ही देखना पसंद करते हैं.
आज व्यक्तिगत हित व राजनैतिक एजेंडे को सर्वोपरि रखते हुए कई मीडिया चैनल हर घटना को अल्ट्रा-नेशनलिस्ट फ्रेमवर्क में रखकर राजनीतिक नफा-नुकसान के साथ अपनी बात रखने का प्रयास करते नज़र आ रहे हैं. इन मीडिया घरानों को सत्ताधारी पार्टी की शह प्राप्त होती है. जिसके कारण देश में मोब-लिंचिंग, दलित विरोधी अत्याचार, एनएफएस (नॉट फाउंड सुटेबल) जैसी घिनौनी असामाजिक घटनाओं में अभूतपूर्व वृद्धि देखी जा सकती है. आज ‘आंदोलनजीवी’ व ‘एंटी-नेशनल’ कहकर किसी का दमन किया जा सकता है.
इधर बहुजन नेताओं में मुकाबला बढ़ने से उन्हें आमजन के सामने खुद को साबित करना होगा. कांशी राम जी ने कहा था, ‘लोगों को वैसे ही नेता मिलते हैं जैसे वह खुद होते हैं’. उनका स्पष्ट इशारा बहुजन समाज निर्माण की ओर था यानि न-बिकने वाला और न-झुकने वाला समाज बनाया जाए. कांशी राम जी के जाने के बाद यह प्रक्रिया न केवल मंद पड़ी है बल्कि सवर्ण संचालित विपक्षी दलों ने साम-दाम-दंड-भेद से पूरे माहौल को ही बिखरा दिया है. इस तरह चुनौतियाँ न केवल बढ़ी हैं बल्कि वह बदल भी गईं हैं.
अखिलेश यादव के शासनकाल की अपेक्षा योगी आदित्यनाथ के काल में दलितों और मुसलमानों पर अधिक अत्याचार की अधिक घटनाएं हुई हैं. हाथरस, उन्नाव, गोरखपुर जैसे भद्दे दाग होने के बाद भी #गोदी_मीडिया को रामराज्य नज़र आता है. हालांकि, अखिलेश यादव को भी समावेशी सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ने के साथ #गोदी_मीडिया से बहुत अपेक्षा भी नही करनी चाहिए.
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संदर्भ
https://twitter.com/priyankagandhi
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लेखक हैदराबाद विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग में डॉक्टरेट फेलो हैं. इन्हें भारतीय समाजशास्त्रीय परिषद द्वारा प्रतिष्ठित ‘प्रोफ़ेसर एम॰एन॰ श्रीनिवास पुरस्कार-2021’ से भी नवाजा गया है.
चित्र: इन्टरनेट दुनिया से साभार
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Regards,
Devi Prasad
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