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राघवेंद्र यादव (Raghavendra Yadav)

जैसा कि यह सर्वविदित है कि अतीत में हुए सामाजिक अन्याय व भेदभाव से उपजे गैर बराबरी को मिटाने के लिए संविधान प्रदत्त अधिकार सही तरह से जमीनी स्तर पर इम्प्लीमेंट (अमल) नहीं हो पायें हैं। आज आज़ाद भारत आठवें दशक के पूर्वार्द्ध में है लेकिन हैरत की बात है कि आज तक सरकारें और स्वायत्त संस्थान वंचित तबके के लिए बने विशेष प्रावधानों को पूरी तरह लागू नहीं कर पायीं है। अगर भारत के “शैक्षणिक संस्थान” (वे चाहे विश्वविद्यालय हो या राष्ट्रीय महत्व के अन्य इंस्टिट्यूशन) की बात की जाये तो वहाँ भी कुछ ऐसे संस्थान आज भी मिलेंगे जहाँ पर भारत सरकार की रिजर्वेशन (कोटा), रिलैक्सेशन या कंसेशन पालिसी पूरी तरह से इम्प्लीमेंट नहीं हो पायी है। इसलिए, उच्च शैक्षणिक संस्थानों के सरकारी-साहबजादों को इसपर विशेष ध्यान देना चाहिए और भारत के संविधान की आत्मा का सम्मान करते हुए, देश के सभी शैक्षणिक संस्थाओं (जो सरकार द्वारा स्थापित, अनुरक्षित अथवा सहायता प्रदत्त है) में आरक्षण लागू करवाना सुनिश्चित करें। अन्य पिछड़ा वर्ग का आरक्षण वैधानिक रूप से परिभाषित होने के बाद डीओपीटी (Department of Personnel & Training) ने एक ऑफिस मेमोरेंडम निकाला जिसमें कहा गया था कि वे स्वायत्त निकाय/संस्था जो सरकार से अनुदान प्राप्त करती हैं, अपने संविधियों और अनुच्छेदों में स्टैण्डर्ड में रिलैक्सेशन जो अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को उपलब्ध कराती थी वह रिलैक्सेशन अब अन्य पिछड़े वर्ग को भी दिया जायेगा। 2009 में डीओपीटी ने एक ऑफिस मेमोरेंडम लेटर में यह भी कहा था कि यह संज्ञान में आया है कि कुछ स्वायत्त निकायों/संस्थाओ ने अपने संविधियों और अनुच्छेदों में इसके लिए उपयुक्त प्रावधान नहीं किये हैं। डीओपीटी ने सभी मंत्रालयों और विभागों से निवेदन किया था कि वे यह सुनिश्चित करें कि सभी स्वायत्त निकायों/ विभागों/संस्थाओ के संविधियों और अनुच्छेदों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए ऐसे प्रावधान कर्तव्यनिष्ठा पूर्वक कार्यान्वित किये जा रहे है।

सवाल ये है कि आज वर्षों बाद भी क्या सरकार से अनुदान प्राप्त करने वाले सभी स्वायत्त निकायों/विभागों/संस्थाओं में इसका सही तरीके से अनुसरण हो रहा है? यह बात सम्बंधित आयोगों और मंत्रालयों को पता है कि अधिकांश जगह पर रिजर्वेशन/रिलैक्सेशन/कंसेशन का किसी न किसी रूप में उलंघन हो रहा है फिर भी वे इसे लागू करवाने में असफल है। हालांकि इसका उलंघन करने वाली संस्थान के विरुद्ध दंडात्मक प्रावधान भी बने है जो महज कागजी सिद्ध हो रहे है इसलिए यह बिमारी ला-इलाज बनी हुई है। यह बीमारी तब तक ठीक नहीं होगी जब तक कि इस अधिकार से वंचित और सामाजिक न्याय के योद्धा इस मुद्दे पर खामोस बने रहेंगे। लेखक का बतौर शोधार्थी यह निजी अनुभव है कि सर्वोच्च निर्देशात्मक, सर्वोच्च नियामक संस्था (यूजीसी), सम्बंधित राष्ट्रीय अयोगों, विश्वविद्यालयों और अन्य शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण से संबंध रखने वाले कर्मचारियों और अधिकारियों को आरक्षण की जानकारी और प्रशिक्षण का अभाव है। नियम बनाने वाली कमेटियों के सदस्य या तो इन नियमों को जानते नहीं हैं या उनके पास इतना नैतिक और न्यायिक चरित्र नहीं होता है कि वे इसे लागू करें। ऐसे अन्याय आस्वादित कानून निर्माताओं और गैर-जिम्मेदार प्रशासकों की वजह से आज समाज का निचला तबका जो ऐतिहासिक रूप से शोषित रहा है, का प्रतिनिधित्व कम है। इसलिए सम्बंधित प्रशासकों (अधिकारियों और कर्मचारियों) को शिक्षण और प्रशिक्षण की ज़रुरत है जिसको सम्बंधित विभाग द्वारा दिया जाना चाहिए। सरकार को चाहिए कि वे इसपर एक कमिटी का गठन कर इस तरह की समस्याओं का निराकरण करें। शैक्षणिक संस्थानों से जब तक इन बीमारियों को दूर नहीं किया जायेगा तब तक असली मेधा नदारद होती रहेगी और परिणाम भारत के भविष्य पर पड़ेगा। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, भारत सरकार और राज्य सरकारों को चाहिए कि भारत के संविधान की आत्मा का सम्मान करते हुए, देश के सभी केंद्र आश्रित शैक्षणिक संस्थाओ (जो केंद्र सरकार द्वारा स्थापित, अनुरक्षित अथवा सहायता प्रदत्त है) और सभी राज्य आश्रित शैक्षणिक संस्थाओ (जो राज्य सरकार द्वारा स्थापित, अनुरक्षित अथवा सहायता प्रदत्त है) में रिजर्वेशन लागू करवाना सुनिश्चित करें।

यूजीसी ने अपनी मनमानी व्याख्या और आरक्षण विरोधी ऑफिशियल्स के पक्षपातीय चरित्र के कारण विश्वविद्यालयों में पहले एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर स्तर पर ओबीसी को आरक्षण नहीं दिया जाता था। जो अनौचित्यपूर्ण था। इसके अलावा यूजीसी नेट और अन्य संस्थानों में दाखिला लेने के लिए न्यूनतम योग्यता में ओबीसी को छूट नहीं दी जाती थी। जबकि भारत सरकार की आरक्षण नीति के अनुसार वहां भी आरक्षण लागू था। इसलिए इसका पुरजोर विरोध हुआ। ज्ञात हो कि यूजीसी के पास ऐसा कोई अधिकार नहीं है कि वे चाहें तो आरक्षण दे या आरक्षण ख़त्म कर दे। आरक्षण देने या ख़त्म करने का अधिकार सिर्फ केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को है। यूजीसी का काम केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की आरक्षण नीति को लागू करना और सम्बंधित उच्च शैक्षणिक संस्थानों में कर्तव्यनिष्ठा पूर्वक आरक्षण नीति को लागू करवाना है। यूजीसी के विधि नीति निर्माता संवैधानिक प्रावधानों तथा भारत सरकार के निर्देशों और अधिशासी आदेशों को बिना संज्ञान में लिए कानून बना देते है। जिसका ख़ामियाजा वंचित तबके को भुगतना पड़ता है। यही कारण है कि इन नीतियों को न्यायालयों में या सम्बंधित विभागों/निकायों में चुनौती दी जाती है फिर उसमें संशोधन होता है। यह नियम सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े क्षेत्र के छात्रों को प्रत्यक्ष रूप से उच्च शिक्षा से वंचित करने का एक शातिर प्रयास सिद्ध हो रहा था। अब कानून बनने के बाद देश के व राज्यों के कई शैक्षणिक संस्थानों में खास तौर से आईआईएससी, आईआईएसईआर, आईआईटी, आईआईएम, एनआईटी .आईआईआईटी, नेशनल ला यूनिवर्सिटी समेत अन्य संस्थानों व विश्वविद्यालयों में इसका सही तरीके से अनुपालन नहीं हो रहा है। अगर शैक्षणिक और सामाजिक रूप से पिछड़े छात्र सामाजिक न्याय के लिए संविधान प्रदत्त इस अधिकार से वंचित रहे तो सामाजिक न्याय की आधारशिला एक अपूर्ण स्वप्न बन कर रह जाएगी।

भारत के लगभग हर शिक्षण संस्थान में यह प्रशासनिक बीमारी कहीं कम तो कहीं ज्यादा होती है। ऐसी प्रथाओं के खिलाफ कार्रवाई के लिए तंत्र हमारे पास भी खराब स्थिति में हैं। यहां सवाल यह है कि पीड़ित समाधान के लिए कहां जाएं? वे (सम्बंधित मैकेनिज्म) शोषित के स्थान पर शोषक की रक्षा करते हैं। रोहित वेमुला की घटना के बाद संस्थागत शोषण पर राष्ट्रव्यापी बहस शुरू हुई थी I संस्थागत शोषण पर संसद में भी समय-समय पर सवाल उठते है लेकिन दुर्भाग्य यह है कि शैक्षणिक संस्थानों में संस्थागत शोषण लगातार बना हुआ है और बेहद अफ़सोस कि बताने के बाद भी उस पर अमल करने के बजाय एन-केन-प्रकरेण तरीके से उसे नजर अंदाज किया जाता है। लगातार ऐसी प्रघटनायें शोषणवादी वर्चस्व को इंगित करती है। हमारी व्यवस्था अभी भी अकर्मण्य, रूढ़िवादी और मानसिक बीमार है I इसको बड़े उपचार की जरुरत है I संस्थागत शोषण का अगर निदानात्मक उपचार नहीं हुआ तो भारत स्वस्थ्य नहीं होगाI कई शैक्षणिक संस्थानों में जानबूझ कर इस तरह के तंत्र और नियमों/कानूनों का लकवाकरण किया जाता है जिससे शोषक को बचाया जा सके। जब शैक्षणिक संस्थानों को गति देने के लिए बनाये गए कई मैकेनिजम (तंत्र) सुसुप्ता के वेंटिलेटर पर मूर्छित पड़े हो, जब शैक्षणिक संस्थानों का भारत/राज्य सरकार(ो ) के नियमों का उलंघन करना एक प्रचलित अभ्यास हो, जब पारदर्शिता और जबाबदेही अस्पष्ट और कमज़ोर हो और हैरत की बात कि ये प्रशासनिक बीमारियाँ निरंतर चल रहीं हो जिससे छात्रों-छात्राओं, कर्मचारियों व अन्य के हीत प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हो तो ऐसे दौर में शैक्षणिक संस्थाओं में प्रशासनिक सुधार अति-आवश्यक है। शैक्षणिक संस्थानों में हो रहे शोषण को रोकने के लिए बनाये गए मैकेनिज्म (तंत्र) क़ानून की आत्मा का सम्मान करते हुए विधिक रूप से अपना कार्य करें, अतिशीघ्र सुनवाई करें और न्यायोचित निर्णय लें तथा उनकी जवाबदेही सुनिश्चित हो। नीति निर्माताओं को शिकायत से सम्बंधित मुद्दों पर विशेष ध्यान देना चाहिए और इसके समाधान के लिए व्यावहारिक प्रावधान करना चाहिए।

सर्वोच्च निर्देशात्मक और सर्वोच्च नियामक संस्था द्वारा वंचित तबके और मुख्यधारा के छात्रों, कर्मचारियों व अन्य के बेहतरी और भलाई के लिए संस्थानों में सेल/कमेटी बनाये जाने का प्रावधान है। कुछ शैक्षणिक संस्थानों में इस तरह के तंत्र कागजों पर चलते है लेकिन उनका व्यवहारिक और प्रायोगिक सरोकार नहीं होता है। उनकी न तो कोई पब्लिक मीटिंग होती है और न ही कोई ओरिएंटेशन। जबकि मीटिंग/ओरिएंटेशन उनके रूटीन का हिस्सा है और उसे कानूनन होना चाहिए। बहुत सारे छात्रों को तो पता भी नहीं होता है कि इस तरह का तंत्र भी उनके सुविधा और कल्याण के लिए बनाया गया है क्योंकि इस तरह की सूचनाएं या तो लोक अनुक्षेत्र में नहीं होती हैं या जागरूकता का अभाव होता है। अगर ऊपर वर्णित तंत्र समय-समय पर स्टूडेंट्स के साथ पब्लिक मीटिंग और ओरिएंटेशन करते रहते तो बहुत सारी समस्यायें स्वतः समाप्त हो जाती या उसका निदानात्मक हल निकलता। परिणाम स्वरुप, शैक्षणिक संस्थान अभी से बेहतर हालत में होते और इनके आउटकम में संवृद्धि होती। आज पढाई-लिखाई को लेकर समाज का वह तबका भी जागरूक हुआ है जिसको अतीत में पढ़ने-लिखने का अधिकार नहीं था। ऐसे अनेकानेक गरीब परिवार है जिनके बेटें/बेटियां अपने गरीबी को झुठलाकर शैक्षणिक संस्थाओं की ओर अध्ययन के लिए रुख कर रहे/रही है। शासन और प्रशासन को चाहिए कि संविधान प्रदत्त अधिकारों/प्रावधानों से वंचित लक्षित लोगों को इसका लाभ उपलब्ध करा कर उन्हें मुख्य धारा से जोड़ेंI विधि का नियम होने के नाते इसका सख्ती से अनुपालन होना चाहिए जिससे वंचित तबके को सांस्थानिक शोषण से बचाया जा सके I इस तरह की समस्या होने का एक बड़ा कारण आज्ञालंघन और शोषण करने वाले ऑफिशल्स के खिलाफ कार्रवाई न होना होता है। इसलिए आज्ञालंघन और शोषण करने वाले सभी दोषियों के विरुद्ध दंडात्मक कार्रवाई की जानी चाहिए।

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लेखक अर्थशास्त्र एवं आयोजन अध्ययन केंद्र, केंद्रीय विश्वविद्यालय गुजरात, गांधीनगर में पीएच.डी. स्कॉलर है। उन्हें ईमेल <raghavendra.pahal50@gmail.com> पर संपर्क किया जा सकता है।

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