परतों के पार से फूटते सवाल के साथ झुंड ने नजरिये की नई कसौटी सामने रखी है, जिसके पैमाने पर परंपरावादी विचार-सत्ता को शायद अपने आग्रहों के भीतर झांकने का मौका मिले।
अरविंद शेष (Arvind Shesh)
शेर अगर भेड़िए से डरता है तो इसकी वजह है! भेड़िए की असली ताकत उसके दांत नहीं होती है, भेड़िए की असली ताकत उसका ‘झुंड’ होती है! वह ‘झुंड’ जंगल के राजा शेर को नोंच-नोंच कर चीर-फाड़ देता है!
अब सवाल है कि शेर को चीर-फाड़ डालने वाले इस झुंड के सिरे से ‘झुंड’ को देखने का पैमाना कितना सही है और कितना गलत! दरअसल, सही और गलत के पैमाने पर बात करते हुए हमारे कुछ भी मानने की जमीन परंपरावाद की दुनिया से संचालित होती है, जहां सही या गलत की एक तयशुदा परिभाषा है। शायद इस पर बहुत वक्त ज़ाया करने की जरूरत नहीं कि ये परिभाषाएं कैसे तय हुईं और किसने तय कीं। शायद ही कभी ऐसा होता है जब किसी नई चीज़ को देखने-समझने के लिए परंपरावाद की कसौटी पर तय की गई सही-गलत की परिभाषाओं से इतर आज़ाद नज़र से देखने की कोशिश की जाती है। जबकि विचार की समूची बुनियाद आज़ाद चेतना से संचालित होनी चाहिए और इस तरह विचार किसी जड़ मान्यता और तय परिभाषाओं पर निर्भर होने के बजाय हर वक्त जिंदा होने की ताकत के साथ सामने आना चाहिए।
तो सवाल है कि नागराज मंजुले की फिल्म ‘झुंड’ के संदर्भ में अगर मैंने शेर को चीर-फाड़ डालने वाले भेड़ियों के झुंड की मिसाल ली है, तो उसकी क्या वजहें हो सकती हैं! दरअसल, इंसानी समाज ने अपने हीनताबोध की वजह से जानवरों की दुनिया में जब अपने लिए प्रतीकों के पैमाने गढ़े तो शेर को किसी शख्स की बहादुरी और राजसी प्रदर्शनी के साथ खड़ा किया और भेड़िये को बर्बरता और बदशक्ली के समांतर देखा। जबकि शेर के बरक्स भेड़िया भी एक जानवर ही होता है और करीब-करीब एक ही प्रजाति का जानवर होता है और उसकी भी जरूरतें और उसके मुताबिक बर्ताव ठीक-ठीक शेर की तरह ही हैं। यानी भूख लगेगी तो कोई भी खाना खाएगा ही। पैदा होने के बाद जिंदा रहना और जिंदा रहने का इंतजाम करना कुदरत की ओर से मिला हक है।
बहरहाल, मसला यहां ‘झुंड’ का है तो इस फिल्म पर मैं पर्दे पर चली कहानी के क्रम से नहीं लिखूंगा। इस लेख में फिल्म के दृश्य बेतरतीब होंगे, लेकिन वह इस फिल्म के फलक की ही खासियत है और इसे समझने के लिए समझने के लिए थोड़ा बेतरतीब हो जाना यानी आज़ाद हो जाना मुझे अच्छा लगेगा। पहले इस फिल्म के नाम का इस्तकबाल करते हैं। एक दृश्य में जब झोपड़पट्टी के लड़कों-लड़कियों का समूह अपने सम्मान के सवाल पर हाथ में बल्ला या जंजीर जैसे ‘हथियार’ लेकर अपने प्रतिद्वंदी समूह पर हमला करने जा रहा होता है, उस दृश्य का फ़िल्मकार ने जिस तरह फिल्मांकन किया है, वह देखते हुए एक औसत व्यक्ति के भीतर कौन-से भाव आएंगे? समाज से लेकर राज तक से खारिज किया गया यह समूह अपने ताकतवर समूह पर हमला करने जा रहा होता है और वहां वह अपने समूह की ताकत को दर्ज करता है- बिल्कुल बराबरी की लड़ाई लड़ कर। इस दृश्य का प्रस्तुतिकरण इस तरह के भाव में किया गया है कि ‘झोपड़पट्टी’ के समाज से अपना संवेदनात्मक रिश्ता जोड़ पाने वाला हर फिल्म दर्शक एक खास तरह की उत्तेजना के एहसास में जाता है। यह उत्तेजना उसके भीतर दमित जड़ता को तोड़ती है और अपने सम्मान और गरिमा के सवाल को हक के तौर पर देखने का नजरिया देती है। ‘झुंड’ के प्रतीक की यही अहमियत है। सिर्फ ‘दांत’ हो तो टूट जाओगे, समूह हो तो सामना कर लोगे!
मगर यह झुंड सिर्फ अराजक हमले और बेलगामी का ही चेहरा भर नहीं है। फिल्मकार ने यह सिर्फ फिल्म में साबित नहीं किया है, बल्कि इतिहास से लेकर अब तक के हर दौर में यह साबित हुआ है कि जब भी ऐसे खारिज कर दिए गए ‘झुंडों’ को मौका मिला है, तब उन्होंने दुनिया को यह बताया है कि उनके भीतर मौजूद कुदरती ताकत क्या-क्या करके दिखा सकती है। मामला सिर्फ यह है कि किसे मौका मिलता है और किससे मौका छीन लिया जाता है।
तो ‘झुंड’ ने बेहद ठोस तरीके से बताया है कि किसी समाज को खारिज किए जाने की प्रक्रिया क्या होती है, खारिज कर दिए जाने के बाद वह समाज शेष समाज को कैसी प्रतिक्रिया देता है और उस खारिज समाज के भीतर कैसे कथित मुख्यधारा के समाज से ज्यादा बेहतर उम्मीद और संभावनाएं होती हैं, जो उसे ‘सामान्य’ समाज के मुकाबले ज्यादा क्षमतावान साबित कर सकती हैं।
नागराज मंजुले ने यहां एक शानदार समाज मनोवैज्ञानिक की तरह सूत्रों को पकड़ कर उसे व्याख्या दी है, उसके ऊपर टांगे गए पर्दों को उघाड़ दिया है। मंजुले ने ‘झोपड़पट्टी’ का जैसा जीवंत फिल्मांकन किया है, केवल यही यह बताने के लिए काफी है कि किसी मसले को देखने के लिए नजर और नजरिया चाहिए और उसमें संवेदनात्मक ईमानदारी चाहिए। बस्ती में जिन बच्चों को केंद्र में रखा गया है, उनकी ‘अवांछित’ गतिविधियां और मसरूफियत दिखाते हुए फिल्मकार ने सच को ज्यादा से ज्यादा करीब रखने की कोशिश की है। बस्ती में किसी ‘नए’ और ‘अजूबे’ शख्स को देखते हुए कई छोटे बच्चों के चेहरे पर जो भाव है, वह ला पाने के लिए बॉलीवुड के कई सालों के प्रशिक्षित कलाकारों को न जाने अभिनय के समंदर में कितने गोते लगाने पड़ें।
लेकिन यह फिल्म जिस सरोकार के साथ खड़ी है, उसे यह सबसे शुरू से ही निबाहती चलती है। डॉन की माँ अपने पति को शराब पीने के लिए घर तबाह करने के हालात में ला देने पर फटकार रही है, डॉन का पिता चुप सुन रहा है, डॉन आकर पिता को हड़काता है। इस छोटे-से दृश्य के जरिए फिल्मकार ने ‘झोपड़पट्टी’ की दुनिया के एक त्रासद संस्कृति में कायम रहने की वजहों की जैसी दृश्यात्मक व्याख्या की है, वह अपने आप में यह बताने के लिए काफी है कि मंजुले ने महज कोई फिल्म नहीं बनाई है, अपने सरोकार के सवालों से मुठभेड़ की है, समूचे सत्ता-तंत्र को आईना दिखाया है।
दरअसल, व्यक्ति और उसके समाज के व्यवहार के पीछे जो कारक खड़े होते हैं, फिल्मकार ने उन सूत्रों को पकड़ कर सामने लाने की हिम्मत की है। वे सूत्र वे हालात होते हैं, उससे अभिन्न रूप से जुड़ा मनोविज्ञान होता है, जो किसी व्यक्ति को सोचने-समझने और खुद को अभिव्यक्त करने का सलीका देता है। जिस व्यक्ति को जैसे हालात की जिंदगी मिलेगी, उसी के मुताबिक उसकी शख्सियत का ढांचा खड़ा होगा। लेकिन यहां एक बड़ा फर्क हकीकत है कि कई बार अधिकारों की लड़ाई बेहद मेच्योर यानि परिवक्व तरीके से लड़ने का दावा करने वाला तबका अपने दमन के हथियारों के सामने चुप्पी या समर्पण या ‘क्विट करने’ यानी जो जैसा है, उसे वैसा ही छोड़ कर बाहर हो जाने का रास्ता अख्तियार करता है, जबकि हाशिये से बाहर की बेहद मुश्किल जिंदगी जीने वाले तबके के बीच ऐसे ही हालात में हार नहीं मानने और उससे टकराने का हौसला आम देखा जाता है। अभाव और मुश्किलों के बीच डॉन की मां अपने शराबी पति को फटकार रही होती है और इस बीच उसका भविष्य यानी उसका बेटा यानी डॉन अपनी मां की ओर से अपने पिता को अक्ल देता है!
इसी के आसपास तीन बच्चों की मां रजिया से उसका पति आक्रामक बर्ताव करता है और इसके बाद घर छोड़ कर बाहर निकल गई रजिया सरेआम अपने पति को ‘तलाक-तलाक-तलाक’ कहती है। इस बीच एक झोंके की तरह सड़क पर अपने पति से भिड़ रही रजिया के हक में मैदान में उतर कर उसके पति को हड़काता है। इसके बाद रजिया अपने मायके की ओर चली जाती है। हारती नहीं है और लड़ने के लिए यानी खेलने के लिए मैदान चुनती है, हर कदम आगे की ओर। बाद में रजिया का पति उसके पास सर्टिफिकेट लेकर लौटता है और फिर उसके बाद वह खुद उसके कदमों को ताकत देने के लिए बच्चों को संभालते हुए रजिया के हक और अस्मिता की इज्जत में अपनी भूमिका चुन लेता है।
एक दृश्य में एक लड़की खेलने के मौके के लिए अपने घर में जद्दोजहद करती है, सब उसके खिलाफ होते हैं, मगर स्त्रियों के खिलाफ एक जड़ व्यवस्था के रूपक के तौर पर देखी जाने वाली दादी अपनी पोती की हसरत के साथ खड़ी हो जाती है। इसी तरह, आदिवासी लड़की मोनिका के साथ उसका पिता उसके सपने के लिए उसके साथ दर-दर भटक कर ‘कागज’ बनवाता है और बेटी की खुशी में खुश होता है।
अंकुश मसराम डॉन की मां और पिता के समांतर रजिया और उसके पति और बाकी स्त्री पात्रों के साधारण टुकड़े के साथ नागराज मंजुले ने ‘झुंड’ में स्त्री की अस्मिता और सम्मान का ऐसा आख्यान रचा है, जिसे उसके मायने के साथ पेश करने में बेहद मशहूर फिल्मकारों को भी शायद बहुत मेहनत करनी पड़े।
दरअसल, ‘झुंड’ को नागराज मंजुले ने समाज-मनोविज्ञान की बुनियाद से रचा है। बस्ती के लोगों की बोली, उनका बर्ताव, उनकी गतिविधियां- सब केवल प्रतीकों में नहीं दर्शाई गई है, बल्कि कहीं संकेत में तो कहीं साफ-साफ यह बताते हुए कि इसके लिए कौन-सी वजहें जिम्मेदार हो सकती हैं और अगर किसी को इससे शिकायत है तो इससे आगे निकलने का रास्ता क्या है।
झोपड़पट्टी के बच्चे बेहद कारीगरी से जुआ या ताश खेलते हैं, कोई सामान या फिर ट्रेन से कोयला भी चुरा लेते हैं, किसी का चेन झपट लेते हैं तो किसी का मोबाइल और कभी किसी लड़की पर फब्ती कसना। पकड़े जाने पर कभी किसी को ब्लेड मार कर निकल भागते हैं। यही सब उनकी जिंदगी है। लेकिन वे इस जिंदगी में जिन हालात में पहुंचे, फिल्म देखने वाला बहुत आसानी से इन बातों का अंदाजा लगा पाता है। पढ़ाई-लिखाई सपना, रोजी-रोजगार का कोई ठिकाना नहीं। सब कुछ और हर पल अनिश्चित। कब किस गतिविधि में शामिल होना है, कब पुलिस का डंडा खाना है, कब घर की जरूरतें पूरी करनी है- सब अस्त-व्यस्त। हर स्तर पर उपेक्षा, अपमान और तिरस्कार। ऐसे में एक बच्चे का व्यक्तित्व कैसा तैयार होगा! हालांकि अमीर तबकों के बच्चे भी यह सब करते हैं, मगर शक्ल जरा दूसरी होती है और उसकी स्वीकार्यता के लिए यह तबका कई तरह की दलीलें तैयार रखता है। हमारे समाज में सत्ताधारी तबकों और शासित तबकों के एक ही तरह के बर्ताव को अलग-अलग पैमाने से देखने और बरतने की परंपरा रही है।
बहरहाल, ऐसे में एक खेल टीचर विजय बोरडे बस्ती में दाखिल होता है, जिसकी दुनिया एक आभिजात्य माहौल में सिमटी रही होती है, मगर संवेदना या समझ या फिर उम्मीद के स्तर पर उसके भीतर खारिज बस्तियों में कुछ छिपा होने और उसे खोज निकालने की जिद होती है। इसी जद्दोजहद के बीच वह एक दिन झोपड़पट्टी में बारिश के बीच फंस जाता है और कुछ बच्चों को प्लास्टिक के डिब्बे से फुटबॉल खेलते देखता है।
इस दृश्य को नागराज मंजुले ने जिस कलात्मकता के साथ फिल्माया है, वह देख कर रीझ जाना पड़ता है। बारिश के बीच झोपड़पट्टी के बच्चों का प्लास्टिक के डिब्बे को दिखने वाली बेतरतीबी के बीच एक सधी कलात्मकता के साथ इधर से उधर किया जाना और इसके समांतर उनके शरीर की लोच और कलाबाजी किसी क्लासिक संगीत की तरह लहर-बहर करती है। कला अगर किसी तयशुदा परिभाषा में कैद कोई मृत संवेदना नहीं है तो उसे इस तरह के दृश्यों में जिंदा देखा जा सकता है।
लेकिन इस दृश्य के जरिए यह बताया गया कि बिना किसी ट्रेनिंग के झोपड़पट्टी के इन बच्चों के भीतर किस स्तर की काबिलियत है और उनके भीतर कैसी संभावनाएं दबी पड़ी हैं। विजय बोरडे इसी दृश्य को अपनी आंखों से देखता है, उसकी पहचान करता है और उसे बाहर सतह पर लाने की चुनौती चुनता है। यह एक शख्सियत के भीतर बदलाव की जिद और उसके लिए अपनी सीमा में उठाए गए जोखिम का मामला होता है। इसमें नागराज मंजुले ने उन बच्चों के भीतर की ताकत को बाहर लाने के लिए प्रवचन या हवाबाज फर्जी आदर्शवाद परोसने के बजाय हकीकत के करीब के हल के साथ खड़ा होने की कोशिश की है। विजय बोरडे एक फुटबॉल लेकर बस्ती में जाता है, जुए जैसी आदतों से थोड़े पैसे इकट्ठा करने की आदत में मशगूल बच्चों को खेलने के लिए कुछ पैसे देने जैसे रास्ते के जरिए उन सबको मैदान में उतार लाता है और फिर उन्हें उनकी पसंद रहे खेलों के मुकाबले मैदान में और फुटबॉल खेलने की ‘आदत’ में शामिल करता है।
आम नजरिए में इसे खेल के जरिए बदलाव की बात के तौर पर देखा जा सकता है, लेकिन मेरी नजर में यह बदलाव की एक ऐसी प्रक्रिया है, जो सामाजिक अवस्थाओं और उसके व्यवहार में घुले आचार-व्यवहार के लिए जिम्मेदार मनोविज्ञान की परतों को समझते हुए आगे बढ़ती है। पहले किसी के साथ खड़ा होना, फिर उसके पीछे होकर उसे उसकी काबिलियत की दिशा में मोड़ देना। झोपड़पट्टी के बच्चों के भीतर अपनी सामाजिक अवस्था और जिंदगी लेकर जो बेफिक्री थी, अपनी वंचना को नियति मान कर उसका अभ्यस्त हो जाने के जो स्थिर हालात थे, उसकी तोड़फोड़ किए बिना उन्हें उससे बाहर लाना मुमकिन नहीं था। इसके लिए उनके जड़ मानस के तारों को बहुत नजाकत से छेड़ने और फिर उसे नई दिशा दे देने की जरूरत थी। बेहद छोटी जरूरतों को ही जिंदगी मानने वाले बच्चों को एक दिन खेलने के लिए पांच सौ रुपए मिलना ठहरे मानस के उन्हीं तारों को छेड़ देना था और उसके बाद उसमें आई हिलोरों ने आगे क्या किया, वह सब देखते हैं।
हालांकि इस बीच फिल्मकार ने कहीं भी यह नहीं होने दिया कि जिन बच्चों को नए रास्ते की ओर ले जाया जाना है, वे बच्चे अपनी जमीन पर कहीं नहीं हैं। जिसे कोई शारीरिक कमी माना जाता है, उसमें दबी काबिलियत को जिस शक्ल में दिखाया गया है, वह सहानुभूति नहीं है, वह उसकी गरिमा की कद्र करना है। किसी नए और ‘अलग’ दिखने वाले विजय बोरडे को बिल्कुल बेफिक्री से किसी बात का जवाब देने से लेकर सिर्फ किसी ‘उच्च’ सामाजिक दर्जे वाले चमकदार चेहरे को अपनी ओर घूरते देखने भर के लिए उससे भिड़ जाने और उसे अपने सम्मान पर चोट मान लेने के साथ कमजोर पड़ने पर एक को पल के झटके में थप्पड़ जमा कर फरार होने जाने वाले दृश्यों की व्याख्या करना केवल अराजकता के सिरे से मुमकिन नहीं है। उसके अंतर्तत्त्व में छिपे संघर्ष के हौसले और उसके सिरे पर गौर किए बिना ऐसे दृश्यों को नहीं समझा जा सकता। यह सब एक दुनिया से दूसरी दुनिया में उतार लाने की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है, जिस पर गौर करना आमतौर पर जरूरी नहीं समझा जाता है।
हालांकि नागराज मंजुले ने इसे समझने के लिए पहेलियां बुझाने के बजाय पूरी तरह साफगोई की हिम्मत दिखाई है। निहायत ही बेतरतीब, मगर आत्मविश्वास या खुदमुख्तारी से भरी जिंदगी जीते वे बच्चे 14 अप्रैल को आंबेडकर जयंती का जश्न आयोजित करने के लिए चंदा वसूलते हैं और चंदा देने वालों को ‘जय भीम’ के नारे के साथ अभिवादन करते हैं। फिर आंबेडकर, फुले और पेरियार की तस्वीरों के साथ जश्न का आयोजन, उम्मीद की उत्तेजना और हौसले से लैस गीत-संगीत, इसमें शामिल होने वाले लोगों के चेहरे, उसमें बहुत छोटे-छोटे, पलों में सिमटे आसमान-से दृश्यों के जरिए यह समझा जा सकता है कि इस बस्ती और उससे इन स्वतंत्र बच्चों के भीतर संघर्ष और आत्मविश्वास के तत्त्व का स्रोत क्या है। सड़क की आवाजाही को रोक कर चल रहे आंबेडकरी जश्न के बीच में एंबुलेंस के आसानी से निकलने का रूपक एक आंदोलन और उसके पीछे खड़े विचार का प्रतीक सामने रखता है।
खेल के मैदान में कबाड़ की दुकान के कब्जे को हटाने के क्रम में जब बाकी सामान हटाए जा रहे होते हैं, तब ‘भगवान की मूर्ति’ को हटाने से पहले एक बार सब ठिठक जाते हैं। लेकिन वहीं डॉन सीधा झुकता है और उस ‘भगवान की मूर्ति’ को उखाड़ डालता है। और उसके तत्काल बाद उस ‘भगवान’ की हकीकत दिखती है। किसी स्कूटर के पहिए के मडगार्ड को लीप-पोत कर भगवान बना दिया जाता है, खाली जगह पर कब्जा में उसका सहारा लिया जाता है। डॉन और उसके साथी उस मूर्ति को उखाड़ कर बाकी सामानों के साथ ठिकाने लगा देते हैं। इन बच्चों के भीतर इस भरोसे का स्रोत कहां है? क्या इसे समझना बहुत मुश्किल रह गया है? फिल्म के सरोकार और विचार ने तो इसे बिल्कुल साफ भी किया है।
अब तक सिनेमा के पर्दे पर इस तरह के दृश्यों को देखना समाज के वंचित तबके लिए महज एक सपना-सा रहा है, लेकिन ‘झुंड’ के फिल्मकार ने बताया है कि एक हकीकत की भूख को सपने में समेटे रखना दरअसल दृष्टि और सृजनात्मकता के अभाव से लेकर सचेतन बेईमानियों का नतीजा रहा है। अगर किसी ने ईमानदार हौसले के साथ काम किया होता तो यह मुमकिन था। एक समाज के मनोबल के मजबूत होने के स्रोत और प्रक्रिया और उसके अंजाम को इस देश का सामाजिक सत्ताधारी तबका खूब समझता है और इसलिए ऐसी प्रक्रियाओं की अनदेखी करने, सचेतन छिपाने-दबाने से लेकर खारिज करने तक के रास्ते अख्तियार करता है।
लेकिन ‘झुंड’ ने न सिर्फ उस हकीकत पर टंगा पर्दा उतारा है, बल्कि किसी यथार्थ के फिल्मीकरण को पर्दे पर यथार्थ की शक्ल में पेश करने के लिए डॉक्यूमेंटरी-तत्त्व तक का सहारा लिया। एक सवाल आया था कि विजय बोरडे के घर में बच्चों से उनके हालात का ब्योरा दिलवाना फिल्म को डॉक्यूमेंटरी में समेटता है। लेकिन सच यह है कि फिल्म में डॉक्यूमेंटरी तत्त्व का प्रयोग इस फिल्म का एक दमदार पहलू है और वह इसे ताकतवर और विश्वसनीय आधार देता है। विजय बोरडे के घर में बैठे किसी बच्चे के मुंह से इस आशय की बातें सुनना किसी दफ्न हकीकत का कब्र फोड़ कर बाहर आ जाना है कि अब तक हमें ऐसे घर में किसी ने नहीं बिठाया या किसी ने इस तरह बात नहीं की थी। सत्ताधारी या मजबूत तबकों की ओर से किया गया तिरस्कार या बहिष्कार या उपेक्षा या नफरत किसी व्यक्ति या समुदाय का कैसे अमानवीकरण करता है, इस अमानवीकरण की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया क्या होती है, इसके उदाहरण हमें अपने आसपास भी मिल जा सकते हैं। लेकिन जब इसी वंचना की परतें उधेड़ते हुए कोई बच्चा यह सवाल पूछ देता है कि ‘भारत क्या है’, तो इसका जवाब देना विजय बोरडे के लिए मुश्किल हो जाता है। मौजूदा दौर में क्या इससे तीखा सवाल कुछ और हो सकता है?
अमूमन हर दृश्य में यह यथार्थ का सौंदर्यबोध फिल्म की ताकत बन कर दरपेश है। एक दृश्य में पब्लिक स्कूल की टीम से झोपड़पट्टी की टीम के बच्चों के साथ-साथ उनकी जान-पहचान और आसपास के लोग फुटबॉल मैच खेलने मैदान में आते हैं, तब उन बच्चों से लेकर उनके आसपड़ोस के तमाम लोगों का वस्त्र-विन्यास दर्शकों का ध्यान खींचता है। आभिजात्य दृष्टि चटखदार रंग के कपड़े पहने और साज-सज्जा में लैस बच्चों को देख कर अपना मुंह बिचका सकती है, हंस सकती है, लेकिन ऐसी दृष्टि यह खोज पाने में नाकाम रह जाती है कि कुदरत या प्रकृति किन और कितने-कितने रंगों से जिंदगी पाती है और उन चटख रंगों का आपस में घुलना किस जमीन और यथार्थ के सौंदर्यबोध का एक बेहद असरदार रूपक है। बल्कि बस्ती की जिंदगी के साथ बाकी सभी बच्चों के रंग-ढंग के अलावा खासतौर पर डॉन का केश-विन्यास, उसका शरीर-सौष्ठव, उसके दौड़ने का कलात्मक अंदाज और उसमें से झांकती उसकी क्षमता की झलक- सब जिस सूक्ष्म सौंदर्य का पैमाना सामने रखता है, उसे पारंपरिक सत्ताधारी और दड़बों में सिमटे सौंदर्यबोध की दृष्टि से नहीं समझा जा सकता। मैदान में मैच के बीच में झोपड़पट्टी के बच्चों की सहज और प्राकृतिक प्रतिक्रियाएं, खेल के हर उतार-चढ़ाव के साथ खिलाड़ियों के साथ-साथ बस्ती से मैच देखने आए बाकी लोगों और एक कोने से एक व्यक्ति की मुखर प्रतिक्रिया की भावना की व्याख्या करना इतना आसान नहीं होगा! यह कला और सौंदर्यबोध का बहुजन पैमाना है, जिससे सत्ताधारी दृष्टिकोण को सीखने की जरूरत पड़ेगी।
बहरहाल, फिल्म के आगे बढ़ने के साथ-साथ इसके मकसद का सरोकार भी जाहिर होने लगता है। आम जिंदगी को प्रभावित और संचालित करने वाले व्यवस्थागत कारकों की पहचान से लेकर उसकी जटिलताओं की प्रस्तुति में बहुत कम वक्त खर्च करते हुए एक विस्तृत दृश्यों की रचना कर नागराज मंजुले ने यह साबित किया है कि कल्पनाशीलता अगर साथ हो तो सचेतन नींद में डूबे सत्ता-तंत्र को यथार्थ का आईना दिखाया जा सकता है। जब स्कूल का मैच जीतने के बाद कुछ चुने हुए बच्चों की टीम विदेश मैच खेलने जाने के क्रम में होती है तब खुद के अस्तित्व को साबित करने के लिए कागज बनवाने का जद्दोजहद किसी हाशिये के शख्स को बिल्कुल अपने पास या अपने साथ गुजरता हुआ महसूस हो सकता है। गोया एक-एक दृश्य को मनोविज्ञान की कसौटी से गुजार कर तैयार किया गया हो।
इसमें सबसे अहम दृश्य आदिवासी पृष्ठभूमि वाली लड़की मोनिका का अपने दस्तावेजों के लिए सरकारी कार्यालयों में यहां से वहां, इधर से उधर अपने पिता के साथ दौड़ने का दर्द उसी को महसूस हो सकता है, जो इस दौर से गुजरा हो। इस बीच में नागराज मंजुले ने एक और जबर्दस्त प्रयोग किया है कि फिल्म में मोनिका और उसके पिता बाकायदा अपनी जनजातीय भाषा में भी बात करते हैं और उसका हिंदी रूपांतर करने की जरूरत नहीं समझी गई। यह कोई चूक नहीं है, बल्कि वंचना के शिकार तबकों की सचेतन और जरूरी एसर्शन या दखल है कथित मुख्यधारा की स्थापित परंपरा में, जहां समरसता और यथास्थिति के नाम पर न जाने कितनी आवाजों और संस्कृतियों को वंचित और दफ्न कर दिया जाता है।
दरअसल, दमन और वंचना की सुचिंतित व्यवस्था में भी मौका मिलते ही अपनी काबिलियत को उभारना और उसे साबित करना कैसे मुमकिन हो सकता है, फिल्मकार ने यह दिखाने-बताने की कोशिश की है, कई बार ‘व्यावहारिक’ होने की सलाह देते हुए भी। सभी बच्चे सभी बाधाएं पार कर विदेश जाने के लिए हवाईअड्डे पर पहुंच चुके हैं, मगर डॉन की अराजक गतिविधियों के आरोप की पृष्ठभूमि उसका रास्ता रोक लेती है, उसका पासपोर्ट रुक जाता है। किसी तरह उसका पासपोर्ट मिलता है तो उसके दुश्मन (प्रतीकात्मक रूप से ऊंची कही जाने वाली जाति के लोग) लड़के और उसके साथी उसे घेर लेते हैं और इस बहाने उसके स्वाभिमान को कुचलने के लिए उसे पीटा जाता है, जूते चाटने को कहा जाता है। विजय बोरडे की एक बार की सलाह को ध्यान में रख कर डॉन ऐसा करता है। हालांकि सशक्तिकरण की फिल्म में ‘व्यावहारिकता’ या ‘वक्त के तकाजे’ को प्रतिरोध की कोई नई शक्ल देने की कोशिश की जा सकती थी।
इस बीच अपनी सवर्ण या आभिजात्य प्रेमिका की सहायता से पुलिस की मदद मिलती है और डॉन भी अपना अतीत छोड़ कर आसमान की उड़ान भर लेता है। इस बीच नागराज मंजुले ने दृश्यों को जिस सूक्ष्मता से निबाहा है, उन्हें जीवंत किया है, उसने एक नया पैमाना खड़ा कर दिया है। फिल्म का अकेला कमजोर पहलू मेरी नजर में झोपड़पट्टी के बच्चों के पासपोर्ट के सवाल पर अदालत में बहस और उसमें विजय बोरडे का प्रवचननुमा वक्तव्य है, जिसे सहानुभूति के प्रदर्शन के बजाय अधिकार की मांग के तौर पर पेश किया जा सकता था। इसके अलावा, फिल्म में जाति के ध्रुवों को सिर्फ प्रतीकों और संकेतों के जरिए दर्शाया गया है। पता नहीं, जाति की कड़वी हकीकत को उसकी असली शक्ल के साथ दुनिया को दिखा पाने की इजाजत कब तक मिल सकेगी!
इस देश की व्यवस्था अभी इतनी उदार नहीं हो पाई है कि वह इंसानों की बराबर की दुनिया के तकाजों पर गौर करके आईने में अपना चेहरा देखने की हिम्मत कर सके।
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अरविंद शेष हिंदी जगत के जाने-माने पत्रकार, लेखक एंव फिल्म समीक्षक हैं. उनसे arvindshesh@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.
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