
लेनिन मौदूदी (Lenin Maududi)
अरबी दास्तानो में एक राक्षस या फिर जिन्न् के बारे में ज़िक्र है जो इंसानो की रूह के बदले उनका कोई काम कर देता है. इस राक्षस का नाम गूअल “Ghoul” हैं. इसी राक्षस (Ghoul) के नाम पर नेटफ्लिक्स (Netfilix) ने एक डरावनी मिनीसीरीज़ (horror miniseries) बनाई है जो मात्र 3 एपिसोड की है. इसे पैट्रिक ग्राहम (Patrick Graham) ने निर्देशित किया है. गूअल एक राक्षस है जिसे मेटाफर (metaphor) यानि एक रूपक की तरह भी इस्तेमाल किया गया है क्योंकि इस कहानी में मौजूद ज़्यादातर इंसान राक्षस ही हैं. गूअल उनके अंदर के राक्षस से उनका और हमारा सामना कराता है और उन्हें ज़िंदा चबा जाता है ” रिवेल दियर गिल्ट, ईट दियर फ़्लैश” (उनको अपराधबोध का एहसास कराओ, उनका गोश्त खा जाओ). प्रत्यक्ष् में गूअल की कहानी जितनी भूतिया और काल्पनिक नज़र आती है परोक्ष में उतनी ही यथार्त और प्रसांगिक है, कम से कम जिस दृष्टिकोण से ‘न्यू वर्ल्ड आर्डर’ की बातें सामने आ रही हैं, उस हवाले से तो ऐसा कहा जा सकता है.
यहाँ यह कहना भी सही होगा कि जिसने ये सीरीज नहीं देखी है वह सीरीज देखने के बाद समीक्षा पढेंगे तो उन्हें बेहतर ढंग से बात समझ आएगी. हालाँकि समीक्षा अधिकतर वही पढ़ते हैं जिन्होंने यह जानना हो कि कोई चलचित्र कैसा बना है!
बहरहाल, ‘गूअल’ की कहानी शुरू होती है निकट भविष्य से (जो हमारा वर्तमान है) जहाँ हमारे बुरे सपने यथार्त बन चुके हैं. जहाँ किताबें पढ़ना देशद्रोह है, सवाल करना देशद्रोह है, मानवाधिकार की बात करना देशद्रोह है. हमें बताया जा रहा है कि क्या खाना है और क्या नहीं. हम क्या देख सकते है और क्या नहीं, हम क्या बोल सकते है और कितना बोल सकते हैं, इसके ऊपर भी सरकारी नीतियाँ बन चुकी हैं. क्लास रूम में कैमरे लगे हैं, लोगों को देशद्रोही बोल कर उनको उनके घरों से उठाया जा रहा है. राष्ट्रवाद अपनी चरम शक्ल में सामने दिख रहा है. गूअल के शुरुआती दृश्य हमें ‘जॉर्ज ऑरवेल’ की किताब ‘1984’ की याद दिलाते हैं जहाँ इंसानों के सोचने तक पर प्रतिबंध है. किताब में एक थॉट पुलिस (Thought Police) का ज़िक्र आता है, जिसे आप ‘विचार पुलिस’ कह सकते हैं. 1984 के माध्यम से ऑरवेल एक ऐसी संस्था की कल्पना कर रहे हैं जो हर नागरिक के मन में उभर रहे विचार को जान लेती है व् उनपर नज़र रखती है. कोई भी नागरिक पार्टी के ख़िलाफ़ सोच तक नहीं सकता है, कुछ बोल नहीं सकता है. जगह-जगह माइक्रोफोन लगे हैं. हर जगह यहाँ तक कि घर में भी टेलीस्क्रीन लगे हैं जिसके पीछे से कोई आपको देख रहा है. कोई आपको सुन रहा है. विचार-पुलिस नहीं चाहती कि एक नागरिक या इंसान के तौर पर आपके भीतर सरकार के खिलाफ किसी प्रकार के अलगाव की भावना ज़िंदा रहे. सभी भावनाओं पर पार्टी का नियंत्रण है. इस काल्पनिक दुनिया में ‘बिग-ब्रदर’ के राज को तीन नारों से समझा जा सकता है: युद्ध ही शांति है, आज़ादी ही गुलामी है और अज्ञानता ही ताकत है. बिग-ब्रदर से भाव वह जमात या व्यक्ति विशेष जो सिरमोर रहना चाहता/चाहती है और पूरी कुदरत पर अपना कब्ज़ा कर लेना चाहता/चाहती है.
गूअल में एक राष्ट्र-भक्त मुस्लिम लड़की निदा रहीम अपने प्रोफेसर अब्बू शाहनवाज़ रहीम को सिर्फ इसलिए सेना के हवाले कर देती है क्योंकि वह कुछ ऐसी किताब पढ़ रहे थे जो सरकारी निसाब में शामिल नहीं थी और वे लोगों को सवाल पूछने के लिए उकसाते रहते थे.
निदा रहीम को लगता है कि सेना उसके अब्बू का माइंड-वाश (mind wash) कर के उन्हें दुबारा एक “अच्छा नागरिक” बना देगी और वापिस घर भेज देगी. एक ऐसा नागरिक जो सत्ता से कोई सवाल नहीं करता और जो ये बात मन में पूरी तरह बिठा ले कि सरकार सबका भला चाहती है. राष्ट्रवाद ही सबसे बड़े धर्म के नाम पर ऐलान दिया गया है. जो राष्ट्रवाद पर किसी भी तरह का सवाल करता है वह दरअसल ईशनिंदा करता है जिसकी सज़ा मौत है.
इसी दौरान एक खूंखार आतंकवादी “अली सईद” (महेश बलराज) सेना द्वारा पकड़ा जाता है. सेना उसे पूछताछ के लिए ‘मेघदूत – 31’ नाम का एक एडवांस इंट्रोगेशन सेंटर ले जाती है. ये सेंटर कभी परमाणु हमले से बचने के लिए बनाया गया है जिसके बारे में केवल चंद लोगों को पता है. यहाँ तक कि इसका ज़िक्र किसी सरकारी कागज़ में भी नहीं है.
इधर निदा रहीम सेना की एक उच्च स्तरीय पूछताछ यूनिट (high level interrogation unit) में ट्रेनिंग ले रही होती है. निदा रहीम को उसकी ट्रेंनिग खत्म होने से पाँच हफ्ते पहले ही इस सेंटर में बुला लिया जाता है. इस सेंटर में 5 कैदी और 12 स्टाफ मेंबर्स हैं. इस स्टाफ का हेड है सुनील डाकुन्हा. निदा के सेंटर में आते ही एक इंटेरोगेटर (पूछताछ करने वाली), जिसका नाम लक्ष्मी है निदा से सवाल करती है कि ‘तुम यहाँ कम्फर्टेबल (सहज) तो हो न, वह क्या है कि यहाँ आने वाले सभी आतंकवादी तुम्हरे ही धर्म से हैं?” हालांकि निदा जवाब में कहती है कि पकड़े गए मुसलमान क्यूंकि आतंकवादी है और इस्लाम मासूमों को मारने की इजाज़त नहीं देता (इसलिए उसे इस बात से फर्क नहीं पड़ता की पकड़े गए लोग मुसलमान हैं).
लेकिन यहाँ लक्ष्मी के सवाल का अर्थ समझने के लिए हमें बृजेश सिंह की वह रिपोर्ट पढ़नी होगी जिसे “तहलका” मैगजीन ने 5 सितम्बर, 2014 को “भारतीय खुफिया संस्थाएं” के सिरलेख तले छापा था. बृजेश लिखते हैं” रॉ और एसपीजी (स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप) की तरह ही एनटीआरओ (नेशनल टेक्निकल रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन) ने भी किसी मुस्लिम अधिकारी को अपने यहां नियुक्ति नहीं किया. कुछ ऐसा ही हाल मिलिट्री इंटेलीजेंस (एमआई) का भी है. एमआई के एक अधिकारी कहते हैं, ‘अभी इसमें कुछ नहीं किया जा सकता क्योंकि सालों से चले आने के कारण ये चीजें परंपरा के रूप में स्थापित हो चुकी हैं. इसमें किसी को कुछ अजीब नहीं लगता.’ मीडिया से बातचीत में इसको कुछ और स्पष्ट करते हुए रॉ के पूर्व विशेष सचिव अमर भूषण कहते हैं, ‘मुस्लिमों को संवेदनशील और सामरिक जगहों से बाहर रखने का एक सोचासमझा प्रयास किया जाता है. समुदाय को लेकर एक पूर्वाग्रह बना हुआ है.’रिटायर्ड वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी एसआर दारापुरी भी कहते हैं, ‘इन संस्थाओं में बंटवारे (1947) के बाद से ही एक सांप्रदायिक पूर्वाग्रह बना हुआ है. उनकी (मुस्लिमों की) देशभक्ति पर ये एजेंसियां संदेह करती हैं.” तो कहने का मतलब यह है कि कथित संवेदनशील पदों को मुसलमानों से दूर रखा जाता है.
‘मेघदूत – 31’ नाम के एक एडवांस इंटेरोगेशन सेंटर में मौजूद सभी लोग इसी सोच के हैं. जिनकी नज़र में अल्पसंख्यक होना गद्दार होना है. निदा रहीम को भी यहाँ इसलिए बुलाया जाता है कि उन्हें शक है कि निदा रहीम और अल सईद के बीच कोई सम्बन्ध है पर सबूत के अभाव में वह सीधे निदा को आरोपी नहीं बनाना चाहते हैं. निदा रहीम को इंट्रोगेशन सेंटर घूमते हुए ये अहसास हो जाता है कि ये सेंटर अमानवीयता की प्रकाष्ठा है. पर उनके स्टाफ के हेड सुनील डाकुन्हा का मानना है कि ‘यहाँ पर वे सुरक्षा भी कर रहे हो और न्याय भी’ अर्थात वे किसी को पकड़ भी सकते हो और मार भी सकते हैं बिना किसी का पक्ष सुने. कितनी खतरनाक कल्पना है ये जब सेना सुरक्षा के साथ ‘न्याय’ भी करने लगे. नाज़ीवाद और फासीवाद का दौर अभी बहुत पुराना नहीं हुआ जहाँ सेना कथित न्याय भी करती थी. लाखों यहूदियों का नरसंहार हमें याद है. अभी दो साल पहले ही म्यांमार के सैनिक तानाशाहों ने रोहिंगिया मुसलमानों का नरसंहार किया था. इसके बावजूद भी जब हम ये कहते हैं कि सेना के कार्यों पर सवाल नहीं किया जा सकता तो दरअसल हम सेना को निरंकुश बनाने की बात कर रहे होते हैं. इतिहास इस बात की हामी भरता रहा है कि सेना जब भी जहाँ भी निरंकुश हुई है वह अमानवीय बन गई. ‘गूअल’ में प्रोफेसर शाहनवाज़ रहीम को जब पुलिस रोकती है और उसकी मुस्लमान पहचान के बारे में जानते ही अधिक सतर्क हो जाती है. शाहनवाज़ कहते हैं कि उन्हें कहीं भी जाने की अनुमति संविधान देता है. तब उसकी इस बात का कोई असर उन पर नहीं होता. यह बिंदु भी महत्वपूर्ण है कि देश में संविधान लागू है जिसकी छाप पूरी सीरीज में कहीं दिखाई नहीं देती. यानि संविधान को ओढ़कर या संविधान की आड़ में यहाँ ये सब हो रहा है. सेना का बर्ताव असवैंधानिक है. यहाँ किसी देश विशेष: की सेना की नहीं कर रहे बल्कि एक संस्था के रूप में सेना की प्रकृति के बारे में भी बात कर रहे हैं. मेघदूत– 31 में भी सेना का वही अमानवीय चेहरा नज़र आता है. यहाँ एक कैदी को तीन हफ़्तों से ज़्यादा नहीं रखा जाता. नहीं नहीं, इसके बाद उसे छोड़ नहीं दिया जाता बल्कि मार दिया जाता है. मेघदूत – 31 में एक कैदी है “अहमद” जिससे सच उगलवाने के लिए उसकी बीवी बच्चों को उसके सामने गोली मार दी जाती है लेकिन इन सैनिकों को कोई अफ़सोस नहीं है क्योंकि इनका मनना है कि ‘इनकी’ नस्लें ही ख़राब है.
‘गूअल’ की कहानी आगे बढ़ती है तो हमें पता चलता है कि ‘गूअल’ को निदा रहीम के अब्बू ने ही बुलाया हैं ताकि वह निदा को कुछ दिखा सके, कुछ सीखा सके जिसे निदा राष्ट्रवादी चश्मा लगा कर न देख पा रही है और न उससे कुछ सीख पा रही है. जैसे ‘हैमलेट’ में पिता का प्रेत आता है हैमलेट को सन्देश देने, ‘हैदर’ में रूह (रुहदार) हैदर को सन्देश देने आता है वैसे ही ‘गूअल’ में जिन्न (गूअल) निदा को उसके अब्बू का सन्देश देने आता है और राष्ट्रवाद और अंधराष्ट्रवाद के बीच के फर्क को समझाता है. निदा गूअल द्वारा दिए गए सन्देश को समझती है. निदा जब राक्षस को मारने के लिए उसके सर पर बंदूक रखती है तो वह जिन्न कहता है कि मैं इंसान हूँ राक्षस नहीं।
निदा समझ चुकी होती है कि इस यातना शिवर में कोई इंसान नही है न कभी कोई इंसान यहाँ था. इन्होनें जो भी किया वह सिर्फ शैतान ही कर सकता है. अंत में जब निदा रहीम ‘मेघदूत – 31′ में होने वाली गैर-क़ानूनी गतिविधियों के बारे में बताती है तो उसके सीनियर उसके ऊपर विश्वास नहीं करते और कहते हैं ‘मेघदूत – 31′ में कुछ गलत था तो वह निदा खुद थी. निदा पर तंज कसते हुए पूछा जाता है कि “अब क्या करोगी तुम? पुरे स्टेट से लड़ोगी?”.
ये सीरीज बस यहीं संकीर्ण राष्ट्रवाद पर समाप्त हो जाती है जहाँ राष्ट्रवाद जनित संकीर्णता मानव की प्राकृतिक स्वच्छंदता एवं आध्यात्मिक विकास के मार्ग में बाधा पैदा करती है.
गूअल अलग-अलग तरह के डर का सामना कराता है. हालांकि सिर्फ 3 एपिसोड में सीरीज अपनी कहानी के साथ इन्साफ करती प्रतीत नहीं होती. बहुत से किरदार पूरी तरह खुल भी नहीं पाते, और लगता है वह कुछ महत्वपूर्ण इशारे/बातें बता कर बस आगे बढ़ गए हैं.
भारतीय माहौल में यह कहना ज़रूरी है कि मुस्लमान भी कोई होमोजिनिअस केटेगरी नहीं है. मुस्लमान केटेगरी हवाले से उत्पीड़न से पैदा हुई हमदर्दी पर पहला दावा मुसलमानों में ऊंची जात वालों का ही होता है. पसमांदा समुदाय जो कि बहुसंख्यक है, हमदर्दी या सेक्युलर खेमों से उठी परिवर्तन के आह्वानों का सैलाब वहां तक आते आते रेत में बदल जाता है. इसके पीछे की सच्चाई पर फ़िल्में या सीरीज पर्दा डालती आई हैं. हकीक़त यह है कि यह सैलाब जानबूझकर वहां तक नही पहुँचता. दरअसल कोई भी सुधार या सत्ता परिवर्तन या तानाशाही को बदलने के आह्वानों के पीछे हाशिये पर धकेले मुस्लिम समाज को बराबरी के हक देने जैसा कोई एजेंडा है. इस सच्चाई की रौशनी में यह पक्ष भी सामने आता है कि यह गूअल से पैदा हुई संवेदना या डर में पसमांदा शामिल है भी या नहीं. और अगर है भी तो वह क्या फूट-सोल्जर मात्र है जिसे ऊंची जाति वालों के नेरेटिव में बहना ही उसकी होनी है. जबकि उसके दर्शन को समझने सुनने वाला उस खेमे में कोई नहीं जो बढती तानाशाही के खिलाफ तो फिल्मे बनाते हैं लेकिन जाति के सवाल पर चुप रहते हैं. एक सवाल यह भी है कि फिल्म में जिस तरह की परिस्थितियाँ और समाज दिखाया है. अगर ऐसी परिस्थितियाँ बदल भी जाएँ तो क्या निम्न कहीं जाने वाली जातियों को बराबरी मिलेगी? जब भूतकाल में परिस्थितियाँ इतनी विकट नहीं थीं क्या तब जातिवाद नहीं था? ऐसा जातिवाद जो सैंकड़ों वर्षों से समाज पर हावी है. जहाँ पैर पैर पर ‘मेघदूत – 31′ हैं और जाने कब से हैं. दरअसल, ऊंची जाति वाले सभी धर्मों के लोग आपस में जुड़े हुए हैं. सुविधाओं के रेशमी एहसास उनसे छूटते नहीं हैं. यह एक ऐसा पहलु है जिसे किसी फिल्मकार ने विशेष तौर पर नहीं छुआ है जैसे कि गूअल के ज़रिये एक विशेष मज़हब के लोगों को केंद्र में रखा गया है. गूअल को देखते-परखते हुए यह सन्दर्भ सामने लाना ज़रूरी हैं.
बहरहाल, फिल्म का ट्रीटमेंट डार्क है और इसमें किसी भी तरह की अश्लीलता या फूहड़ जोक नहीं डाला गया है जैसा कि डरावनी फिल्मों में अक्सर होता ही है. इसमें डर दिखाने के लिए फनी ट्रिक्स और इफेक्ट्स का भी इस्तेमाल नहीं किया गया है. फिल्म आप के दिमाग में गहरे तक घुस जाती है. ये इस सीरीज की सबसे खास बात है.
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लेनिन मौदूदी लेखक हैं एवं DEMOcracy विडियो चैनल के संचालक हैं और अपने पसमांदा नज़रिये से समाज को देखते-समझते-परखते हैं.