करुणा (Karuna)
(1) मैं जब भी देखती हूँ मेरे
मैं जब भी देखती हूँ मेरे समाज की किसी महिला को
सिर पर उपले उठाकर ले जाते हुए
मुझे रमाई याद आती है
मैं जब भी देखती हूँ किसी महिला को
खेतों में धान रोपते या काटते हुए
मैं जब भी देखती हूँ मेरी माँ को
किफ़ायत में घर को चलाते हुए
संकोच बरतती हुई रमाई याद आती है
मैं जब भी देखती हूँ
किस महिला को
अपने कुशल हाथों से
घर के काम निपटाते हुए
मुझे चाक साड़ी को रफू कर पहने हुए
रमाई याद आती है
भोजन मेरी माँ के हाथ का
जब खाती हूँ मैं
मुझे
लोगों में बैठकर
अपनी रामू के हाथों से बने
खाने की तारीफ करते हुए
बाबा साहेब याद आते हैं
और
मुझे मेरी रमाबाई आंबेडकर याद आती हैं
(2) आईने के आर-पार
रहती हूँ मैं जिस नगर में
वहाँ दलितों के अपने घर नहीं है
लोग कहते हैं ये सरकारी ज़मीन है
जिसपर चूहड़े-चमार कब्ज़ा किये बैठे हैं
वक़्त-बेवक़्त सरकारी बुलडोज़र की निगाह
शहर की हर बस्ती पर रहती है
5 साल बाद नेता जी आकर कहते हैं
ज़मीन तुम्हारे नाम आवंटित कर दी है
वोट लेकर
गायब हो जाते हैं फिर
ज़मीन मिले ना मिले
लोकतंत्र के मेले में
दारु बेहिसाब मिलती है
वोट के बदले लोगों में
राशन की थैलियां बंटती हैं
असल में अपनी कीमत
एक वोट ही है
नेता की तरफ से
वरना
जल, जंगल, ज़मीन, रोज़गार
शिक्षा व्यापार की परवाह आख़िर किसे है ?
वोट खरीदने वाले बेशर्म हैं
और बेचने वालो की ज़मीर पर
मजबूरियों की तलवार लटकती है
या वहाँ अभी
व्यापक अर्थों वाली शिक्षा का सूरज
उगा ही नहीं
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करुणा बी.एस.सी. मेडिकल की छात्रा हैं व् लुधियाना शहर की निवासी है. बहुजन दृष्टिकोण से कवितायेँ लिखती हैं.
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I just loved it! Very well written.