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रितेश सिंह तोमर

मैं समुदाय अथवा समाज की उन्नति का मूल्यांकन स्त्रियों की उन्नति के आधार पर करता हूँ | स्त्री को पुरुष का दास नहीं बल्कि उसका साझा सहयोगी होना चाहिए | उसे घरेलू कार्यों की ही तरह सामाजिक कार्यों में भी पुरुष के साथ संल्गन रहना चाइये”|

आधुनिक भारत के संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष व सम्पूर्ण संविधान के निर्माण का हिस्सा रहे भारत रत्न भीम राव अम्बेडकर राजनैतिक व सामाजिक हलकों में अपने कई अविस्मरणीय योगदानों के लिए स्मरण किये जाते हैं | लोकतांत्रिक राष्ट्र की स्थापना हेतु आधुनिक व प्रकृति में पंथ निरपेक्ष और वैज्ञानिक संस्था के निर्माण , स्वतंत्रता के भाव को राजनैतिक आज़ादी से अधिक सामाजिक परिवर्तन समझना, राष्ट्रीय आंदोलन से अम्बेडकर  समाज  के सबसे निचले तबकों के जुड़ाव के अथक प्रयासों जैसे कई कार्यों ने उन्हें कुछ लोगों का डाक्टर व कई अन्य लोगों के लिए बाबा साहब  बनाया | वे ऐसी किसी भी स्वतंत्रता के विपक्षी थे जो अपने मूल में सामाजिक ढांचे के निम्नतर व्यक्ति के मानवीय अधिकारों से अछूती हो | स्त्रियों को शिक्षित कर उनकी सामाजिक राजनैतिक आन्दोलनों में भागीदारी का सक्रीय प्रयास उनकी इस  समझ का ही एक नमूना है | सामाजिक राजनैतिक आंदोलनों की श्रृंखला के तहत कार्य चाहे मंदिर प्रवेश व अंतर् जातीय भोज द्वारा  समाज सुधार का हो या धर्मान्तरण के ज़रिये हिंदुत्व व ब्राह्मणवाद के मूल विरोध का अथवा संविधान निर्माण द्वारा वैधानिक प्रयासों का , अम्बेडकर ने उनमें स्त्रियों की भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए भरसक चेष्टाएँ की |

ऐसे ही कुछ प्रयासों के तहत  1928 में अम्बेडकर ने अपनी पत्नी रमा बाई के नेतृत्व में महिला संगठन ‘मंडल परिषद’  की नींव रखी व अन्य स्त्रियों को पुरुषों के साथ सामाजिक भागीदारी के लिए प्रेरित किया | महाद स्थित ऐतिहासिक सत्याग्रह  में 300  से अधिक स्त्रियों ने अपने पुरुष सहभागियों के साथ हिस्सा लिया | इस सत्याग्रह के दौरान महिलाओं की एक बड़ी सभा को सम्बोधित करते हुए अम्बेडकर ने कहा: “मैं समुदाय अथवा समाज की उन्नति का मूल्यांकन स्त्रियों की उन्नति के आधार पर करता हूँ | स्त्री को पुरुष का दास नहीं बल्कि उसका साझा सहयोगी होना चाहिए | उसे घरेलू कार्यों की ही तरह सामाजिक कार्यों में भी पुरुष के साथ संल्गन रहना चाइये”| आंदोलनों की इस  कड़ी के अंतर्गत 1930 के नासिक स्थित कालरम मंदिर प्रवेश सत्याग्रह में 500 से भी अधिक स्त्रियां शामिल हुईं और उनमें से कई अपने पुरुष स्वयं सेवकों के साथ जेल भी गई | इस सत्याग्रह के दौरान राधा बाई वदल, जो की एक निम्न वर्ग से सम्बन्ध रखने वाली स्त्री थी, ने एक पत्रकार सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए कहा:  ‘प्रताणना भरे जीवन से अच्छा है  100 बार मरना | हम अपने जीवन की कुर्बानी दे कर अपने अधिकारों के लिए लड़ेंगे’ |

1930  से 1940 के दशक के दौरान स्त्रियों ने अम्बेडकर के नारी उत्थान  आंदोलनों से प्रभावित हो कर शिक्षा , श्रम कानूनों में सुधार , अच्छे  व समान वेतन की मांग जैसे कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर अपनी आवाज़ बुलंद की | 1942  में अम्बेडकर  ने शैड्यूल कास्ट फैडरेशन ‘Scheduled  Caste federation’ की नींव रखी जिसके प्रथम सम्मेलन में 5000  से अधिक महिलाएं भागीदार बनी | इस फैडरेशन के साथ शैड्यूल कास्ट महिला फैडरेशन  ‘Schedule Caste Mahila federation’ का भी निर्माण किया गया जिसका हिस्सा बन कर स्त्रियों ने मैटरनिटी नियम कानूनों में सुधार, पूना पैक्ट के प्रावधानों को पुनः लागू करने जैसी मांगों को उठाया |

अम्बेडकर जब कभी भी किसी राजनैतिक दल का हिस्सा बने उन्होंने स्त्रियों के अधिकारों व उनकी मांगों को प्राथमिकता से उठाया | 1942 में गवर्नर जनरल ऐग्जिक्युटिव काउंसिल ‘Governor General Executive Council’ में श्रम मंत्री होते हुए उन्होंने काउंसिल  से मैटरनिटी बैनिफिट बिल ‘Maternity benefit  bill’ को मंजूरी दिलवाई | भारतीय संविधान में राज्य द्वारा निर्मित किसी भी तरह के संस्थान में लिंग आधारित किसी भी भेदभाव या  प्रताणना के विरुद्ध कठोर दण्डात्मक व्यवस्था के प्रावधान अम्बेडकर के नारी उत्थान के लक्ष्य की दृष्टि का केंद्र बिंदु माने जा सकते हैं | जहां अनुछेद 14 सामाजिक , आर्थिक व राजनैतिक क्षेत्रों में समान अधिकारों, अवसरों की व्यवस्था करता है , वहीँ अनुछेद 15 लिंग आधारित भेदभाव के निषेध को निर्देशित करते  हुए राज्य को स्त्रियों के लिए अवसरों के स्तर पर विशेष प्रावधानों की व्यवस्था करने का निर्देश देता है | इसी तरह अनुछेद 39 समान कार्यों के लिए समान  वेतन की व्यवस्था करने की बात कहता है वहीँ अनुछेद 41 कार्य के दौरान सुगम परिस्थितियों की व्यवस्था करते हुए मैटरनिटी अवकाश ‘Maternity leave’ के प्रावधान की बात कहता है |

अम्बेडकर ना केवल स्त्रियों के सामाजिक राजनैतिक अधिकारों के पक्षधर थे बल्कि उनके व्यक्तिगत अधिकारों के नियोजक भी थे | आज़ाद भारत के प्रथम क़ानून मंत्री होते हुए उन्होंने संसद  में हिन्दू कोड बिल ‘Hindu Code Bill’ को मंजूरी दिलवाने के लिए ऐतिहासिक प्रयास किये | और इस बिल को संसद द्वारा पारित ना किये जाने के विरोध में अपने पद से इस्तीफा भी दिया | यही बिल आगे चल कर कई भागों जैसे: हिन्दू विवाह क़ानून 1955  हिन्दू उत्तराधिकार क़ानून 1956 , अल्प संख्यक व सुरक्षा क़ानून 1956 , व हिन्दू एडॉप्शन और मेंटिनेंस ऐक्ट ‘ hindu adoption  and maintenance act’ 1956  में बंट कर संसद में पारित हुए  और महिलाओं के मानव अधिकारों की सुरक्षा का आधार बिंदु बने | अम्बेडकर ने मुस्लिम औरतों के नागरिक अधिकार व मानव अधिकारों पर भी कई टिप्पणियां और लेख लिखे | उन्होंने इस्लाम में प्रचलित पर्दा प्रथा का विरोध किया और मुस्लिम महिलाओं को शिक्षित करने पर जोर दिया |

अम्बेडकर संगठित व सुनियोजित आंदोलन के कुशल मार्गदर्शन के लिए शिक्षित कार्यकर्ताओं के होने को एक अनिवार्य पूर्व शर्त मानते थे | बहिष्कृत हितकारिणी सभा 1924  की स्थापना पर जनता को दिए उनके नारे: ‘शिक्षित बनो , संगठित रहो , और संघर्ष करो’ में इस तथ्य की सैद्धांतिक झलक स्पष्ट देखने को मिलती है | अतः आंदोलनों के कुशल संचालन के लिए स्त्रियों की निर्णयात्मक भूमिका को तय करने के लिए वे स्त्रियों को शिक्षित किये जाने को अत्यधिक महत्वपूर्ण मानते थे | स्त्री शिक्षा की पैरवी करते हुए सर्वप्रथम उन्होंने कोलम्बिया विश्वविद्यालय जहां की वे समाज शास्त्र व् अर्थव्यवस्था का अध्ययन कर रहे थे, से अपने पिता के एक मित्र को चिट्ठी लिख कर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट किया  और कहा :  “हम एक बेहतर कल की कल्पना स्त्रियों को शिक्षित किये बिना नहीं कर सकते | ऐसा पुरुषों के समान स्त्रियों को शिक्षित कर के ही संभव है” |

बम्बई लेजिस्लेटिव काउंसिल  ‘Bombay Legislative Council’ 1927  को सम्बोधित करते हुए शैक्षणिक संस्थानों में स्त्रियों की कम उपस्थिति के लिए प्रांतीय सरकार को ज़िम्मेदार ठहराते हुए अम्बेडकर ने कहा :  “वर्तमान शिक्षा नीतियां अपने प्रभाव में इतनी निष्क्रिय हैं की उनका अनुसरण करके अगले 300  वर्षों में भी स्त्रियों को पूर्णरूपेण शिक्षित नहीं किया जा सकता” | वे इस कार्य के लिए अधिक संगठित प्रयास किये जाने और इस पर  राजस्व का एक बड़ा हिस्सा खर्च किये जाने के पक्ष में थे | नारी उत्थान बिना परिवार नियोजन के असम्भव है | अतः अम्बेडकर ने 1927 में विवाहित महिलाओं की एक सभा को सम्बोधित करते हुए कहा : “वे अधिक संताने पैदा ना करे व अपने बच्चों के गुणात्मक जीवन के लिए प्रयास करें | सभी स्त्रियों को अपने पुत्रों के साथ साथ पुत्रियों को भी साक्षर बनाने के लिए  समान प्रयत्न करने होंगे” | अम्बेडकर के लगातार सकारात्मक प्रयासों के फल स्वरूप कई दलित महिलाएं शिक्षित बनी | उनमे से एक तुलसी बाई बंसोड़ ने 1931  में ‘ चोकमेला ‘ नामक एक समाचार पत्र शुरू किया |

सामाजिक आंदोलनों में स्त्रियों की भागीदारी और उनकी शिक्षा हेतु अम्बेडकर के द्वारा किये गए प्रयासों की उपरोक्त कहानी इस ऐतिहासिक तथ्य की पुष्टि करती है की अम्बेडकर सही मायनो में भारतीय इतिहास में नारीवादी आंदोलन के पहले ऐसे प्रसारक और प्रचारक थे जिन्होंने ना केवल शिक्षा बल्कि समाजवादी आंदोलन से भी स्त्रियों को सक्रिय रूप से जोड़ा| उन्होंने समाज के सबसे निचले तबके की महिलाओं जो की अछूत व स्त्री होने की वजह से दोहरा अभिशाप झेल रही थी में शिक्षा का प्रसार कर नारीवादी आंदोलन को उन्नीसवीं  शताब्दी  के कुलीनवादी  ढर्रों  से मुक्त करवाया|

अम्बेडकर के स्त्री शिक्षा और उनके राजनैतिक और सामाजिक आंदोलनों में भागीदारी की मुहीम और दृष्टिकोण को  J|S|Mill के उपयोगितावादी सिद्धांत के समीप देखा जा सकता है | वे समाज में सर्वाधिक लोगों की सर्वाधिक खुशहाली के पक्ष में थे | लिंग आधारित किसी भी भेदभाव के लिए उनके सामाजिक आदर्शों में कोई जगह नहीं थी | अतः उन्होंने जीवन पर्यन्त एक ऐसे मानवीय अधिकारों के प्रति संवेदनशील समाज के निर्माण के लिए लोकतान्त्रिक क्रान्ति की जहां अधिकार अथवा अवसर लिंग , जाति  या धर्म पर नहीं बल्कि योगयता पर दिए जाएँ | वे इस तथ्य से भलीभांति अवगत थे की एक शिक्षित नागरिक ही अपने अधिकारों के प्रति सजग होते हुए दूसरे नागरिकों के अधिकारों के लिए संवेदनशील हो सकता है | ऐसे लोकतांत्रिक समाज के निर्माण के लिए शिक्षित नागरिक एक अनिवार्य शर्त था   | परम्परागत , जाति  आधारित समाज के परित्याग और नवीन मूल्यों पर आधारित समाज का निर्माण संवैधानिक माध्यमों से संचालित आन्दोलनों से ही संभव था | अतः उनके उचित निर्देशन व अनुगमन की बागडोर शिक्षित स्वयं सेवकों के हाथों में ही दी जा सकती थी | अम्बेडकर द्वारा स्त्री शिक्षा के  प्रचार प्रसार की चेष्टाओं के धेय्य   में यही मूलभूत दृष्टि केंद्रित थी |

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लेखक रितेश सिंह तोमर, JNU दिल्ली में शोध छात्र हैं  

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