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अरविंद शेष

 

फिल्म में ‘कबाली’ का डायलॉग है- “हमारे पूर्वज सदियों से गुलामी करते आए हैं, लेकिन मैं हुकूमत करने के लिए पैदा हुआ हूं। आंखों में आंखें डाल कर बात करना, सूट-बूट पहनना, टांग के ऊपर टांग रख कर बैठना तुमको खटकता है, तो मैं ये सब जरूर करूंगा। मेरा आगे बढ़ना ही मसला है, तो मैं आगे बढूंगा।” हो सकता है कि फिल्मकार ने ‘हमारे पूर्वज’ या ‘सदियों से गुलामी करते आए’ जैसे सामाजिक संदर्भों को परदे पर सशक्त तरीके से रखने के बावजूद किन्हीं व्यावसायिक वजहों से ‘कबाली’ की जाति का साफ उल्लेख नहीं किया या यह भी हो सकता है कि सिर्फ इतना भर कर देने से फिल्म सिनेमाघरों में आने से रह जाती।

हाल ही में आकर चली गई फिल्म ‘कबाली’ ने कथित मुख्यधारा के फिल्म समीक्षकों को क्यों डराया, इस सवाल के जवाब के लिए आपको यह खोजना होगा कि वे फिल्म समीक्षक कौन हैं! जब सत्ताएं अपनी ओर से अपने और साधारण लोगों के बीच एक विभाजन-रेखा खींच देती हैं, तब ऐसे सवाल मजबूरी बन कर उभरते हैं!

क्या ‘कबाली’ को अभिनय या इसमें पेश कला के दूसरे पहलुओं के लिए इसके समीक्षकों ने खारिज किया? पता नहीं कि कला की अंतिम परिभाषा क्या है, अगर है तो उसने किसने तय किया और क्या वही उसकी आखिरी सीमा है…! लेकिन ‘कबाली’ को लगभग ‘खराब’ फिल्म की रेटिंग देकर फिल्म समीक्षकों ने अपनी तमाम कोशिशें झोंक दीं कि जो लोग समीक्षा पढ़ कर फिल्म देखने जाते हैं, वे नहीं जाएं। बहरहाल, ‘कबाली’ चली, और खूब चली! तो सवाल है फिल्म समीक्षा के महंथों के मना करने के बावजूद ‘कबाली’ को किन लोगों ने देखा? मेरा खयाल है कि जिन असली वजहों से इऩ महंथों ने लोगों को रोकने की कोशिश की थी, उन्हीं वजहों से इस फिल्म ने धूम मचाई।

 

अगर एक लाइन में वह वजह बताई जाए तो फिल्म में ‘कबाली’ का डायलॉग है- “हमारे पूर्वज सदियों से गुलामी करते आए हैं, लेकिन मैं हुकूमत करने के लिए पैदा हुआ हूं। आंखों में आंखें डाल कर बात करना, सूट-बूट पहनना, टांग के ऊपर टांग रख कर बैठना तुमको खटकता है, तो मैं ये सब जरूर करूंगा। मेरा आगे बढ़ना ही मसला है, तो मैं आगे बढूंगा।” हो सकता है कि फिल्मकार ने ‘हमारे पूर्वज’ या ‘सदियों से गुलामी करते आए’ जैसे सामाजिक संदर्भों को परदे पर सशक्त तरीके से रखने के बावजूद किन्हीं व्यावसायिक वजहों से ‘कबाली’ की जाति का साफ उल्लेख नहीं किया या यह भी हो सकता है कि सिर्फ इतना भर कर देने से फिल्म सिनेमाघरों में आने से रह जाती। लेकिन अपनी सीमा में ही सही, जिस तरह बार-बार ‘कबाली’ ‘अपने सताए गए पूर्वजों’ और उनकी ‘सदियों की गुलामी’ का हवाला देकर अपनी ताकत और साम्राज्य के जरिए अपने दुश्मनों की छाती पर पांव रखता है, वह किसी औसत दर्शक के दिमाग में भी यह साफ कर देता है कि यहां ‘पूर्वजों’ और उनकी ‘सदियों की गुलामी’ का मतलब बेहद कमजोर जातियां या दलित तबके ही है।

दरअसल, सिनेमा की शुरुआती दृश्य में ही जेल में बंद कबाली एक दलित लेखक वाईबी सत्यनारायण की किताब ‘माई फादर बलैया’ की किताब पढ़ रहा होता है, तभी यह संकेत मिल जाता है कि फिल्मकार का मकसद क्या है। लेकिन कई बार दुनियावी और व्यावसायिक मजबूरियां हाथ बांध दे सकती हैं। इसलिए पूरी फिल्म में कबाली ने समाज के दलित-दमित तबके को ‘सदियों तक गुलामी झेलने वाले अपने पूर्वज’ के तौर पर ही पेश किया है। लेकिन अपने उन ‘पूर्वजों’ के दुख से कबाली कमजोर नहीं होता, बल्कि हर वक्त उनके उन दुखों को याद कर और आज भी अपने दुश्मनों के उन तानों को सुन कर आक्रोशित होता है और उनके दांत खट्टे कर देता है। 

कबाली एक गिरोह का मुखिया है। और इससे अलग ‘सदियों की गुलामी झेलने वाले पूर्वजों’ की अब की नई पीढ़ियों को बेहतर इंसान बनाने के लिए अपने तमाम संसाधन झोंक देता है। यह कबाली साफ लफ्जों में अपने संस्थान के उन बच्चों से बात करते हुए बताता है कि कैसे उसने तयशुदा तरीके से एक ऊंची कही जाने वाली लड़की से प्रेम किया, उससे शादी की और उसमें लड़की के ऊंची कही जाने वाली जाति की वजह से कितनी मुश्किलें पेश आईं। कबाली से कोई पूछता है कि मौसम में गरमी होने के बावजूद वह सूट-बूट और कोट क्यों पहनता है तो वह गांधी के बरक्स बाबा साहेब के हमेशा अच्छे कपड़े पहन कर रहने के संदेश की अहमियत बताता है।

यानी कायदे से इसे दलित-विमर्श की फिल्म कह सकते हैं, जो न रजनीकांत के आकर्षण के साथ न सिर्फ मनोरंजन का खयाल रखती है, बल्कि समाज में चल रहे उथल-पुथल और दलित-वंचित तबकों के भीतर दबाई गई आकांक्षाओं को पूरा करने का हौसला भी देती है। कल्पना की जा सकती है कि प्रत्यक्ष या परोक्ष हिंसा के जरिए जाति से निम्न कहे जाने वाले लोगों की आवाजों और इच्छाओं की जिस तरह हर पल हत्या की गई है, उसमें परदे पर कबाली को अपने प्रतिद्वंद्वी पर धौंस जमाते, उन्हें पीटते और आखिर में मार डालते देखते हुए एक कमजोर, सदियों से दमन का शिकार आर्थिक या जातिगत पृष्ठभूमि का सिनेमा दर्शक अपने मानस के स्तर पर क्या हासिल करता होगा। उसके भीतर उन बातों के लिए कितनी हताशाएं भरी होंगी, जब उसे हर वक्त का अपमान झेलना पड़ा रहा होगा… और चुप रह जाना पड़ा होगा।

ऐसे में कबाली जब परदे पर ‘मेरे पूर्वजों को तुमने सताया था’ की घोषणा के साथ कबाली अपने सामने की सारी सत्ताओं को चुनौती देता है, तो उस औसत दर्शक की उन दमित भावनाओं को तुष्ट करता है। उस दर्शक को अब परदे पर परोसी कहानियों में अगर कोई पात्र सबसे करीब लगता रहा था तो वह था सिनेमा के विलेन के गुर्गे..! कभी उसे यह महसूस करने का मौका नहीं मिला था कि परदे पर जो हीरो अपने सामंती दुश्मनों का गर्दा उड़ा रहा है, वह उसका अपना बंदा है, यानी परदे पर हीरो के रूप में या उसके आसपास का कोई है, जो ‘अपने बंदों’ जैसा है। कबाली भारत की आम दलित-वंचित आबादी का वही हीरो है, उसका दोस्त है।

आखिरी के एक सीन में ‘दुश्मन’ गिरोह की ओर से चारों और से भयानक गोलीबारी हो रही है, ‘कबाली’ अपने दोनों हाथों में भारी पिस्तौल लेकर दोनों तरफ बारी-बारी से गोलियां चलाते हुए बीच से आगे बढ़ रहा है। यह सीन एकबारगी आपको ‘जैंगो अनचेन्ड’ फिल्म के उस सीन से रूबरू कराती है, जिसमें जैंगो ठीक इसी तरह गोरों की ओर से भयानक गोलीबारी के बीच दोनों हाथों में भारी पिस्तौल लेकर दोनों तरफ गोलियां चलाते हुए आगे बढ़ रहा है।

दोनों ही फिल्मों में यह सीन सिर्फ हिंसा का एक बिंब नहीं है… यह हजारों सालों के दमन के खिलाफ आक्रोश का एक रूपक है। चारों तरफ से किए जाने वाले जुल्मों का प्रतिरोध है कि गोलियां तो तुम पहले भी चलाते रहे हो… इसके बीच भी हम थे… और हम अब भी हैं…! और अब हमारा भी जवाब मिलेगा तुम्हें…!

तो परदे पर कबाली सिर्फ एक दलित लेखक वाईबी सत्यनारायण की किताब ‘माई फादर बलैया’ दिखता है, तो वही अपने पैसों से ‘अपने लोगों’ के लिए अलग-अलग तरह के प्रशिक्षण का इंतजाम करता है, सभ्य समाज बनाने के लिए इंसान तैयार करता है। यानी ब्राह्मणवाद के जटिल तंत्र में अलग-अलग चेहरे में परदे पर उतरा हीरो आखिरकार व्यवस्थावाद का हरकारा ही साबित होता है। लेकिन कबाली इस छवि को तोड़ता है। शायद इसलिए कि वह खुद सामाजिक दमन और शोषण के चक्र से गुजर चुका है और अब एक खास हैसियत में होने के नाते वह कोई दिखावे का नारा देने के बजाय नई पीढ़ी को तैयार करने में लग जाता है। यही इस फिल्म की कामयाबी है।

जमीन से ब्राह्मणवाद के खिलाफ दलित एसर्शन का दबाव इतना बढ़ रहा है कि अब निर्माता-निर्देशकों को न केवल दलित-वंचित पृष्ठभूमि से होने के नाते, बल्कि दूसरे निर्माता-निर्देशकों को भी अपने टिके रहने के लिए ‘गुड्डू रंगीला’ या ‘कबाली’ जैसी फिल्में बनानी होंगी।

अरविन्द शेष ,बिहार के सीतामढ़ी से हैं और दिल्ली में जनसत्ता (दैनिक हिंदी अखबार ) में सहायक सम्पादक  हैं

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