पसमांदा-बहुजन आन्दोलन के सिपाही मुर्तुज़ा अंसारी जी को याद करते हुए
फ़ैयाज़ अहमद फैज़ी (Faiyaz Ahmad Fyzie)
बस अब गोरखपुर शहर में दाखिल हो चुकी थी. धीरे धीरे रेंगती हुई बस स्टॉप की तरफ बढ़ रही थी. मैं मीटिंग में जल्द से जल्द पहुंचना चाह रहा था. गोरखपुर मेरे लिए अंजाना था और मैं गोरखपुर के लिए बिल्कुल नया. लेकिन मेरे ज़ेहन में सिर्फ ये बात चल रही थी कि कैसे मैं जल्दी से जल्दी बैठक स्थल पर पहुँच कर कार्यवाही में हिस्सा ले सकूँ। खैर गोरखनाथ मंदिर के मुख्यद्वार पर एक नौजवान, आतिफ अंसारी जी द्वारा मुझे रिसीव किया गया. वहाँ से मैं इक़बाल अंसारी जी के मकान पर पहुंचा जहाँ मीटिंग चल रही थी. पूरे मीटिंग हाल में नौजवान पसमांदा वीरों का जमघटा लगा हुआ था जिसे देख कर मैं बहुत खुश था. मैंने वहाँ देखा कि एक बड़े मियां सफारी सूट पहने लंबे बालों से सुसज्जित एक तरफ बैठ कर पूरी कारवाही पर खामोशी से नज़र रखे हुए हैं, गोया, कुछ देख सुन ही नही रहें हैं। मुझे भी अपनी बात रखने का अवसर दिया गया. मैंने अपना टारगेट नौजवानों को कर रखा था. मैंने ये महसूस किया कि मेरी बातों से उन सफारी वाले साहब के चेहरे का भाव बदल रहा था जो अब तक बिल्कुल एक-सा था. जान पड़ता था कि शायद वो मेरी बातों से सहमत और असहमत दोनो हैं. आप थे मुर्तुज़ा अंसारी साहेब.
एक सज्जन उनका परिचय एक साहित्यकार के तौर पर मुझसे कराया. चूंकि साहित्य में मेरी गहरी अभिरुचि रही है, जिस कारण मैं बड़ी तेजी से उनकी तरफ मायल (आसक्त/अनुरक्त) हुआ. बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ. देखने मे जो इंसान बिल्कुल मामूली सा लग रहा था, उनकी बातों में जैसे मुकम्मल जहाँ का ज्ञान सिमटा लग रहा था। साहित्य, दर्शन,समाज और विज्ञान पर जिस अंदाज में वो वार्तालाप कर रहें थे, मानो साक्षात किसी संत, महात्मा से साक्षात्कार हो रहा है। पसमांदा आंदोलन के माज़ी, वर्तमान और भविष्य पर ऐसी तर्कसंगत विवेचना पहली बार किसी ने इतने व्यापक और मार्मिक ढंग से पेश की थी. और ऐसा हो भी क्यूँ न! जिस इंसान ने अपनी 73 साल के आयु को पूरी तरह से वंचितों (दलित, पिछड़ा और पसमांदा) की न्याय की लड़ाई को समर्पित किया हो, उसकी विवेचना किसी भी रीसर्च पेपर या किसी किताब से ज्यादा व्यापक और गहरी होगी ही.
कबीर ने कहा था... तू कहता कागद की लिखी मैं कहता आँखन की देखी
कबीर के इस दोहे को हमलोग ज़िंदा अपनी आंखों से मुर्तुज़ा अंसारी जी के रूप में देख रहें थे। वही फक्कड़पना, वही निर्भीकता, वही शालीनता, वही नर्मी और वही
मज़बूती से बात का कहना, गोया कि काशी का जुलाहा कबीर , आज मगहर में जुलाहा मुर्तुज़ा का रूप धारण किये हुए है।
आप एक उच्च कोटि के साहित्यकार थे और आप एक संवेदनशील दिल के मालिक थे. एक ऐसा दिल जो दूसरे के दुःख दर्द और पीड़ा को खुद महसूस कर लेता है, और फिर उसे लफ़्ज़ों का लिबास पहना कर एक दर्शन देता है, ताकि लोग उस दर्द को महसूस कर सके और संवेदनशीलता से अवाम की और मुखातिब हों. जब दर्द महसूस होगा तो फिर उसके निवारण करके की युक्ति भी अमल में आएगी. आपने साहित्य के लगभग हर विधा में अपनी वेदना को समाज को समर्पित करने की कोशिश की. आप उपन्यास, कहानियाँ, लघु कथाएं, रिपोर्ताज, संस्मरण, मुक्तक, कविता, छंद मुक्त कविता, दोहे, नज़्में ग़ज़लें आदि विधाओं पर मज़बूत पकड़ रखते थे, आप की नज़्में पढ़ते समय बिल्कुल भी यह एहसास नही होता था कि इतनी लंबी नज़्म पढ़ गए. आप ने सामाजिक न्याय के विषय पर भी कई एक पुस्तिकाएं लिखी है.
आप जितने कलम के माहिर थे उतना ही व्यवहार कुशल भी थे. लोग आप के इख़लाक़ एवं व्यवहार कुशलता से प्रभावित हुए बिना नही रह सकते थे। आप का यह व्यवहार कुशल होना, आप के विरोधियों को भी आप का कृतघ्न बनाये हुए था. आप ने अपनी पूरी ज़िन्दगी में सिर्फ उसूल व सिद्धान्त की लड़ाई लड़ी. आप का कट्टर से कट्टर विरोधी भी इस बात का कायल था कि दुनिया इधर से उधर हो सकती है लेकिन अंसारी जी अपने सिद्धांतों से नही टल सकते हैं. राजनीति में भी आपने अपने सिद्धान्त को बनाये रखा, बड़े से बड़े नए जमाने के नेता भी आप का सामना करने से घबराते थे. कई बार ऐसा भी हुआ है कि आप ने वंचितों की लड़ाई की खातिर बिना किसी साजो सामान और चुनावी ताम झाम के चुनाव मैदान में उतर पड़े और बड़े बड़े दिग्गज नेताओं को नाकों चने चबवा दिए. चुनाव हार कर भी लोगों का दिल जीत लेने का हुनर सिर्फ मुर्तुज़ा अंसारी जी को आता था. जीतने वाले से ज़्यादा लोग हारने वाले को घेरे रहते थे. वजह बिल्कुल साफ थी, लोग अपने सुख दुःख के साथी को तन्हा कैसे छोड़ सकते थे.
आप बराबर फ़ोन करके न सिर्फ मेरी खैरियत पूछा करते थे, बल्कि मेरे परिवार के बारे में भी खोज खबर रखते थे हमेशा एक पिता की तरह स्नेह दिया करते थे. पसमांदा आंदोलन के लिए हमेशा कहा करते थे कि बहुत परेशान होने की ज़रूरत नही है बस ईमानदारी से अपना काम करते रहिए, ज़्यादा से ज़्यादा लोगो तक बात पहुंचाने की कोशिश करिये, हक़ और सच बात एक न एक दिन खुद को मनवा के ही मानती है, वो सूरज की किरणों की तरह होती है जो एक न एक दिन अंधेरो को खत्म कर के ही दम लेती है.
अपने ज़िन्दगी के तमाम उतार-चढाव के बावजूद दलितों पिछड़ों और पसमांदा के संघर्ष से अपना नाता नही तोड़ा. पैसे-रुपयों की कमी या घरेलू हालात अथवा परेशानियाँ भी आप को अपने मकसद से डिगा न सकी. आप ने कांशीराम और उनकी तहरीक (आन्दोलन) को उस समय गले लगाया था जब बड़े से बड़ा सामाजिक कार्यकर्ता भी उधर मुंह करके खड़ा होने से घबराता था कि कहीं अछूत न समझ लिया जाऊं। आप सच्चे मायनों में एक ऐसे सामाजिक न्याय के योद्धा थे जिन्होंने समाज को सिर्फ दिया ही, उससे लिया कुछ भी नही. यही वजह है कि आप की तैयार की हुई एक पूरी पीढ़ी मैदाने-अमल (कार्यक्षेत्र) में सरगर्म है.
इस दुनिया में लोग एक तय समय के लिए आते है, जीवन जीते है और फिर चले जाते है. 12 जुलाई 2017 को रात लगभग 10 बजे पसमांदा पहल के मुख्य सम्पादक डॉ० एम० इक़बाल जी का फ़ोन आया “पसमांदा आंदोलन के बहुत बड़ा नुकसान हो गइल, मुर्तुज़ा भाई चल गईलें” मैं बिल्कुल कुछ कह सुन पाने की स्तिथि में नही था. उनका जाना न सिर्फ एक संघर्ष के वरिष्ठ साथी का जाना था बल्कि एक अभिभावक के जाने के समान था.
लायी हयात, आयी क़ज़ा, ले चली चले
अपनी खुशी न आये न अपनी खुशी चले
लेकिन कुछ लोग इस दुनिया मे ऐसे भी आते है, जो इस दुनिया से जितना लेते है उस से कहीं ज़्यादा इसे दे के जाते है. मुर्तुज़ा अंसारी जी ने अपनी पूरी ज़िंदगी जिस निःस्वार्थ भाव से बहुजन-पसमांदा आंदोलन को समर्पित किया था उसका उदाहरण विरले ही खोजा जा सकता है. आप ने अपनी पूरी 75 साल की ज़िन्दगी इंसानियत के उस टुकड़े को सौंप दिया जिसका कोई पुरसाहाल ना था.
जाते हवाएं शौक़ में है इस चमन से जौक
अपनी बला से बादे सबा अब कभी चले
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फ़ैयाज़ अहमद फ़ैज़ी लेखक हैं एवं AYUSH मंत्रालय में रिसर्च एसोसिएट के पद पर कार्यरत हैं.
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