एक नन्हीं कहानी – थोड़ी कविता की रंगत में
गुरिंदर आज़ाद (Gurinder Azad)
वो अचानक से प्रकट हुआ
कहने लगा
इस देश का पेट ख़राब है
भ्रष्टाचार के कीड़े हैं इसमें
खोखला हो रहा है ये
मेरे पास दवा है
मेरे साथ आओ
देश भक्त बनो
देश भक्ति दिखाओ
सभी ने उसकी बात को
हाथों हाथ लिया
कम से कम जो बातें उड़ीं
उसमें कुछ ऐसा ही था.
कल्लू –
रोज ही जो मुहं अँधेरे
साफ़ करता था सड़कें
देखा उसने सड़कों पर उतरा हुआ, भरे पेट वालों का हुजूम
मेरा पेट तो भरा नहीं है – उसने खुद से पूछा !
लेकिन उसको बताया गया – सबका दर्द एक है – भ्रष्टाचार !
कल्लू ने
कड़वे से अनुभवों के थूक को
भ्रष्टाचार के ख्याली चेहरे पे थूका
और लकीर सी इक उम्मीद की
उसकी फ़कीर आँखों पर लहरा गई
इस अचानक से उभरे शोर से उसको जो कुछ समझ में आया वो कुछ यूं था –
– अब मैं ठेके पर ना रहूँगा. पक्की हो जायेगी नौकरी. पिछले पन्द्रह साल से सींच रहे थे जिस संघर्ष के पौधे को अब लगेगा उसको फल… शायद ऐसा ही हो !!
– अब मेरी बिटिया भी स्कूल जा पायेगी. जब सकूल छुड़ाया था उसका, बहुत रोई थी वो.
– राशनवाला बनिया राशन न आने का बहाना ना बनाएगा.
– और ये भी हो सकता है न सुनना पड़े मुझे कोई जाति व्यंग! सुधर जाये सब के सब !!!
शहर के इक नुक्कड़ पर
छोटी सी चाय की दूकान
नंदू राम की.
कुछ ऊंची जात वाले
क्रांति के शब्दों को चाय के साथ चबा रहे थे
– सही कर रहा है ये बन्दा. नादान रहे हम जो समझ न पाए इस मसले को
– अब सिरा हाथ आया है उलझी हुई इस डोर का
– दूध का दूध होगा अब और पानी वालों को याद आएगी नानी… हंसी का ठहाका छूटा!
– और नंदू लाल से व्यंग किया – क्या कहते हो नंदू? तुम तो नहीं मिलाते चाय में पानी वाला दूध?
– इक ठहाका और छूटा.
नंदू जो ऊंची बात के मायने के पास पहुँचने की कोशिश कर रहा था – सकपका गया.
‘जी नहीं हुज़ूर’ कहकर नंदू अपनी दुनिया में खो गया. शायद ये चर्चाएँ वो रोज सुनता है.
बकवास बातें – कुछ नहीं बदलने वाला !
लेकिन –
पास ही में बोरी पर
जूता बनाता भीखू मोची
हवा के परों पर आते फिकरों का
जायजा ले रहा था
कुछ-कुछ समझ रहा था
इतने में कुछ कदम खुन्नस से भरे
पकड़ा गए उसको इक टोपी पहनने के लिए
टोपी ने उससे बुलवाया
‘…… तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं’
भीखू को जो समझ आया वो कुछ यूं था.
– मसीहा बन कर आया है ये. पुराने टोपीवाले का अवतार है. अब सब ठीक हो जायेगा.
– मेरा बेटा स्कूल जा पायेगा क्या…? शायद जा सके!
– ये लोग बता रहे थे कि घर देती है सरकार हम लोगों को, लेकिन ये रस्ते में गुम हो जाते है…. ज़रूर यही भ्रष्टाचार के कीड़े खा जाते होंगे घर हमारा !!
– तीस साल हो गए एक झोंपड़ी में रहते….. तब तो घर भी न दूर होगा…. शायद!
छोटे से किसी शहर का अमित कुमार
कारपोरेट की पिछले ही साल तो पाया था नौकरी
इस महानगर में!
अभी तक किसी को पता नहीं चलने दिया
कि वो आरक्षित वर्ग से है
आरक्षण के मुद्दे पर
दफ्तर के वातावरण में जब भी घुला कसैलापन
दूर भाग जाना चाहता था वो
लेकिन जाता भी तो कहाँ जाता?
खुद से वो कुछ यूं बात करता था
शायद बहलाता था खुद को ….
– धीरे धीरे जातपात सब खत्म हो जायेगी
– बाजार के इस युग में कहाँ कोई जाति पूछता है, सिवा कुछ तंगदिल लोगों के? लेकिन इतना तो एडजस्ट करना पड़ता है.
– मेरे दफ्तर वाले भी धीरे धीरे सुधर जायेंगे. देखा नहीं… किस तरह सब लोग देशभक्ति की बात कर रहे हैं!
– अब पहले जितना भेदभाव नहीं रहा. मेरे साथ जो भेदभाव हुआ वो मेरे पिता जी से हुए भेदभाव से कम था. मैं यहाँ इस नयी दुनिया में खुश हूँ…. कसम से !
– समय बदल रहा है… शायद तेज़ी से !
वो शख्स जो अचानक से प्रगट हुआ
हरसू चर्चा था उसका.
इस चर्चा से लगा अमित को – ठीक ही तो है बात ! फिर वो कुछ यूं सोचने लगा.
– अब मुझे भी जाति का उठाना न पड़ेगा बोझ, खतम जो जायेगी ये
– हम सब सिर्फ होंगे देशवासी… देशभक्त देशवासी
– भले ही मैंने पहले इस बंदे के बारे में नहीं सुना लेकिन मैं उसके साथ हूँ.
अमित के दफ्तर में मांग उठी- आन्दोलन में भाग लेने के लिए इक दिन की छुट्टी चाहिए. वो मालिक जिसने चपरासी को उसकी बीवी के इलाज के लिए एडवांस के बदले दुनिया भर की गालियाँ दीं थी वही मालिक आज न केवल फराख दिल निकला बल्कि खुद आन्दोलन में शरीक होने साथ चल पड़ा.
ये देख अमित के मुहं से ‘वाह’ निकली.
देखा सच्चे आन्दोलन की ताकत को !
अमित बरबस कह उठा. वो पूरे जोश के साथ सड़क पर उतरा और नारे लगाने लगा.
लेकिन कुछ ऐसे दिमाग भी होते हैं जो
सिर्फ मशाल नहीं देखते
ये भी देखते हैं
मशाल किन हाथों में है
और चेहरे से आस्तीन का खंजर
पहचान लेते हैं.
देखा उन्होंने
सड़कों पे उतरी भीड़ को
लोगों में भरी पीड़ा को
उठते हुए आवेश को
इक सुर में बंधे देश को
– इक सुर में बंधे देश को ?
– हाँ यही तो बता रहा था मीडिया सारा !
बहरहाल
इन लोगों ने अपनी सूक्ष्म निगाह से देखा परखा
देश का शरीर
एक्सरे में आया
इस देश के पेट में कोई कीड़ा नहीं है
लेकिन पेट की जगह ब्राह्मणवाद का ब्लैकहोल है
और यहाँ के निजाम और ‘उन्नत देश’ की
ऐशप्रस्ती की रक्तवाहिनी
खून मांगती है हरपल
इसी ब्लैकहोल के ज़रिये!
ये बात तो कब से सरेआम हो चुकी थी
भले ही मीडिया में कभी नहीं आई
लेकिन बहुत लोगों को इसकी पहचान हो चुकी थी
और इसीलिए
खून की डिलीवरी भी इसके लिए कम हो गई थी
इसलिए ऐशप्रस्त तिलमिला रहे थे
ये बहरूपिया
भेस बदल कर इसकी रसद लेने आया था
रस्ते को अपने समाज के लिए रवां करने आया था
ये क्रांति की मूवमेंट नहीं थी
बल्कि इवेंट मैनेजमेंट थी
दरअसल
ये टोपीवाला जाति के हमाम में नंगा था
कल्लू, भीखू, अमित के लिए
ये क्रांति इक मायाजाल था
इक नया शिकंजा था
(सितम्बर 1, 2011)
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गुरिंदर आजाद राउंड टेबल इंडिया, हिंदी के संपादक हैं.
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