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युवा साथियों के नाम जिनसे बहुजन दृष्टिकोण पर बातचीत हुई  

गुरिंदर आज़ाद (Gurinder Azad)

बहुजन गाड़ी पर 85% लोगों का बोझा है. बहुत जद्दोजेहद के बावजूद यह बहुत धीमे चल रही है. यह बोझा ज़िम्मेदारी में जब बदलेगा तब गाड़ी थोड़ी खुशगवार रफ़्तार पकड़ेगी. ज़िम्मेदारी का मतलब बहुजनों को ईंधन और पुर्जों में खुद को ढालना पड़ेगा. बहुजन ऑटोनोमी इसकी लोह्पथ या ट्रैक है. बहुजन ऑटोनोमी में मझना मतलब बहुजन गाड़ी का मार्ग बनाना है. इस मार्ग पर बहुत हमले होंगे, यह भी निश्चित है. बहरहाल! 

ब्राह्मण सवर्ण उनकी गाड़ी में चढ़ने की शर्त पर, जुमलों का एनेस्थीसिया देकर या नजदीकी लाभ का ‘सुख’ देकर बहुजनों में से रीढ़ की हड्डी निकाल देगी. यह उनकी गाड़ी में सवार होने की उनकी बेहद ज़रूरी शर्त है. इसके बाद वह बहुजन अपने बूते उनकी गाड़ी में खड़े होने का कभी जोखिम नहीं ले सकते. रीढ़ की हड्डी सीधी रखने की शर्त का मतलब गाड़ी का मालिक आपको अपनी गाड़ी के नीचे दे देगा. इस गाड़ी का डेस्टिनेशन बहुजनों की गुलामी है. और कुछ नहीं. वहाँ हम दुसरे, तीसरे, चौथे दर्जे के नाममात्र नागरिक हैं. सांस लेने वाले निर्जीव प्राणी. 

बहुजन गाड़ी अपनी है. सबकी साझी. लेकिन यह भरोसा और ज़िम्मेदारी माँगती है. ऐसे में यह प्रश्न कि गाड़ी रफ़्तार क्यूँ नहीं पकड़ रही, यह प्रश्न बहुजनों का अपने आप से होना चाहिए. इतिहास को जानना चाहिए और ब्राह्मणी तंत्र पर नज़र रखनी चाहिए. 

जातिये दृष्टिकोण से जिस तरह दलित की तुलना ब्राह्मण से करना एक बकवास बात है, उसी तरह हमारी गाड़ी की तुलना उनकी गाड़ी से नहीं की जा सकती. अपनी गाड़ी के पुर्जों या ईंधन से अगर दिक्कत है और अगर किसी बहुजन के पास कोई बेहतर सुझाव है तो वह खुद इसके लिए तयार हो जाये. बेहतर विकल्प ले आये. लेकिन निश्चित तौर पर यह विकल्प ब्राह्मण की गाड़ी में सवारी नहीं हो सकता. अपने किसी भी नुस्खे पर बहुजनों में बैठकर चर्चा करना और उठते प्रश्नों के जवाब तयार करना एक बेहतर प्रस्ताव होगा. 

दूसरों के पक्के घर से मुग्ध होकर अपने कच्चे घर नहीं ढहाए जाते. खासतौर पर तब, जब वह पक्के घर आपके कच्चे घर होने की शर्त पर बने हों.

ब्राह्मण/सवर्ण हमें लालच देगा कि हम उसकी गाड़ी में सवार हों. वह डिस्काउंट देगा. प्रलोभन की बाढ़ ले आएगा. लेकिन इसके पीछे उसकी ‘शर्तें लागु’ की बारीक शब्दों में लिखी नीतियाँ लागु रहेंगी जिसका अर्थ मात्र एक है कि- ब्राह्मण/सवर्ण हितकारी व्यवस्था बनी रहे. वह उनकी गाड़ी में सवार हो चुके विज्ञापननुमा-बहुजनों का इस्तेमाल आपको बरगलाने में करेगा. यह होता आया है और होता रहेगा. उनको बहुजनों की ज़रुरत ‘उनकी गाड़ी बेहतर विकल्प है’ के सत्यापन के लिए हमेशा रहेगी. यह सब होते रहना है. उनकी गाड़ी में सवार हो गए बहुजनों को दोष देना भी समय बर्बाद करना है. 

अपनी गाड़ी में बहुत से डिब्बे हमारे बीच की डाइवर्सिटी को दर्शाते हैं. इनमें फासला होगा. बल्कि ऐसा होना ही है. लेकिन एक डिब्बे का दूजे के प्रति व्यवहार ज़िम्मेदारीपूरण होना चाहिए. एकजुटता का रास्ता भाषा और किरदार में इमानदारी पर टिका होता है. इस बात का ध्यान से हटना घातक होगा. यह वो ज़रूरी बंधन है जो एक डिब्बे को दुसरे से जोड़ता है.

हम आपस में मतभेद का शिकार भी होंगे. खुद से कभी कभार लड़ भी लेंगे. कोई बात नहीं. लेकिन यह मतभेद या झगड़ा ब्राह्मण का आपकी गाड़ी के खिलाफ इश्तिहार नहीं बन जाना चाहिए. ‘लेफ्ट’ की गाड़ी के पहिये ऐसे ही इश्तिहारों के ईंधन से घूमते हैं. वे कोलेबोरेशन, सॉलिडेरिटी, पार्टनरशिप की स्टाल लगा कर बैठे हैं. अपनी गाड़ी की टिकटें बेच रहे हैं. ब्राह्मण/सवर्ण द्वारा जाति में बांटे बहुजन समुदाय में जो भेद हैं उन्हीं को आधार बना कर सेक्युलर/लिबरल ब्राह्मण/सवर्ण अपनी रोटी सेंकना चाहते हैं. अपने पूर्वजों के पसीने की कमाई के चलते आपके पास जो थोड़ा-कुछ अर्जित हुआ है, उससे इनकी टिकटें खरीदने का मतलब अपनी बहुजन नाव में पत्थर भरना है.

बहुजन आन्दोलन के अभी तक के तजुर्बों से लगता है कि बहुजनों द्वारा लिखे गए अपने इतिहास को पढ़ना, जिज्ञासु बनना, बहुजन-स्वायतता का दृष्टिकोण रखना और अपनी गाड़ी की बेहतरी के लिए रिसर्च एंड डेवलपमेंट करना, लम्बे समय का ईंधन बनना, लॉन्ग-लास्टिंग पुर्जे बनना आन्दोलन में सार्थक भूमिका का एक मात्र विकल्प है.

अपनी गाड़ी
अपना लोह्पथ
अपना आन्दोलन
यही है मामला
यही है बहुजन ऑटोनोमी
जय पसमांदा जय भीम

~~~

गुरिंदर आज़ाद राउंड टेबल इंडिया (हिंदी) के संपादक हैं.

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