डॉ. रत्नेश कातुलकर
कैलाश वानखेड़े जी अपने प्रथम कहानी संग्रह ‘सत्यापन’ से हिंदी साहित्य जगत में अपनी विशेष पहचान के रूप में उभरे हैं. उनकी कहानियों की ज़मीन व्यापक बहुजन आन्दोलन है. कहानियों के पात्र गाढ़ी स्याही से हस्ताक्षर करते हैं. कई जगहों पर उनकी कहानियों को लेकर कार्यक्रम रखे गए. कहानियों का पाठ हुआ. उन्हीं की एक कहानी ‘जस्ट डांस‘ के लिए उन्हें 28 अगस्त को ‘राजेन्द्र यादव हंस कथा सम्मान’ से नवाज़ा गया.
डॉ. रत्नेश कातुलकर ने इस पश्चात् उनसे भेंटवार्ता की. कैलाश जी और डॉ. रत्नेश का धन्यवाद्- राउंड टेबल इंडिया
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रत्नेश: कैलाश जी आप एक प्रशासनिक अधिकारी हैं और साहित्यकार भी। आपका साहित्य से जुड़ाव कब और कैसे हुआ?
कैलाश वानखेडे़ः साहित्य से मेरा जुड़ाव बचपन से है। घर में मराठी दलित साहित्य, डाॅ. अम्बेडकर और बौद्ध धर्म की किताबें थीं। इनको पढ़ने की सुविधा मुझे मिली, इसलिए साहित्य से जुड़ाव बचपन से रहा है। किशोरावस्था से ही मैं लिखने और छपने लगा था। मेरा जन्म और परवरिश तंग बस्ती में हुई है। परिवार में आर्थिक दिक्कतें काफी रही हैं। इसके बावजूद पिताजी, मामा-काका, चाचाजी सारंगधर वानखेड़े और आस-पास के लोग डाॅ. अम्बेडकर आन्दोलन, दलित आन्दोलन से जुड़े हुए थे। घर और मोहल्ले में इन आन्दोलनों का समावेश था। बचपन से ही वैचारिक तौर पर इन आन्दोलनों से जुड़ाव हो गया था, यही जुड़ाव मेरे साहित्य में भी नज़र आता है।
रत्नेश: इन बस्तियों में तो साहित्य बहुत दूर ही होता है, फिर भी आप साहित्य से कैसे जुड़े रहे?
कैलाश वानखेडे़ः दरअसल, हमारा परिवेश कहने को तंग बस्ती थी, लेकिन डाॅ. अम्बेडकर का साहित्य, बौद्ध धर्म का साहित्य और इससे सम्बन्धित गतिविधियां हमारी गलियों, घरों और हमारे मोहल्ले में लगातार होती रहीं। कभी मराठी दलित साहित्यकारों का आगमन होता, तो कभी वी. टी. राजशेखर, भदंत राहुल बोधी, भंते सत्यशील वगैरह लगातार हमारी बस्तियों में आते रहते थे। सत्यशील भंते का निवास पास की काॅलोनी में रहा।
रत्नेश: यानी आपकी प्रेरणा का मुख्य स्रोत डाॅ. अम्बेडकर और उनका आन्दोलन है?
कैलाश वानखेडे़ः बिलकुल सौ फीसदी। इसमें रत्तीभर भी कम नहीं। डाॅ. अम्बेडकर का जीवन दर्शन ही मेरे जीवन का प्रेरणा स्रोत है, जो मुझे कुछ कर गुजरने की ताकत देता है। जब कभी मेरे जीवन में उदासी या निराशा के पल आते हैं, तब मैं डाॅ. अम्बेडकर को याद करता हूँ। उन पर लिखे गीत और उनके लिखे साहित्य को पढ़ता हूँ। मैं उनके द्वारा ही प्रोत्साहित होता हूँ।
रत्नेश : आप अपनी साहित्यिक कृति में किसे पहली कृति मानते हैं? उसे आपने कब और किस उम्र में लिखी?
कैलाश वानखेडे़ः अगर मैं थोड़ा पीछे जाऊं, जब मैं 7वीं कक्षा में था, तब हमारे स्कूल में हस्तलिखित पत्रिका निकल रही थी, उसमें मैंने डाॅ. अम्बेडकर के बारे में लिखा। उसको साहित्यिक कृति माना जाए या न माना जाए, यह अलग बात है। इस तरह देखा जाए, तो बचपन से ही मुझमें डाॅ. अम्बेडकर के बारे में लिखने की सोच और जज़्बा रहा है। इसके बाद 16 वर्ष की उम्र से छपने लगा था। नई दुनिया अखबार में मैंने बम्बई के सफाई कामगारों की आर्थिक दिक्कतों के बारे में लिखा था। यह सम्पादक के नाम पत्र में प्रकाशित हुआ। सफाई कामगारों की आजीविका, उनकी आर्थिक एवं शैक्षणिक स्थिति, स्वास्थ्य के बारे में मेरी चिन्ता और सरोकार उस उम्र से रही है। इसके पीछे हमारे मोहल्ले में आयोजित होने वाली दलित सामाजिक गतिविधियों की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण थी।
रत्नेश : आपकी कहानियां दलित परिप्रेक्ष्य में हैं, आपकी नयी कहानी जस्ट डांस में नायक एक आदिवासी पात्र है। क्या आपका लेखन दलितों का व्यापक स्तर पर प्रतिनिधित्व कर पा रहा है?
कैलाश वानखेडे़ः मैं कोशिश करता हूँ कि हर उस हिस्से को, हर उस व्यक्ति को, हमारा कथा नायक नायिका बनाया जाए, जो कहीं-न-कहीं प्रताड़ित, उत्पीड़ित,अपमानित हो रहा है। उसका जायज हक़ उन्हें नहीं मिल पा रहा है। वह अधिकार की लड़ाई में कहीं-न-कहीं घूटन महसूस कर रहा है। उसके साथ हमें खड़ा होना चाहिए। अगर आप मेरी कहानियों के पात्रों को देखेंगे, तो कहीं कोई पात्र जातिविहीन, तो कहीं सरनेम और नामविहीन नज़र आते हैं। दलित साहित्य का उद्देश्य ही समतामूलक समाज की स्थापना है। हम बंधुत्व के हिमायती और पक्षधर हैं। इस तरह देखा जाए, तो समतामूलक समाज बनाने की दिशा में हर उस व्यक्ति को लेना चाहूंगा, जो इस समाज में हाशिये पर जा रहा है या हाशिये पर पड़ा है।
रत्नेश: अण्णा भाऊ साठे जहां घटना केंद्रित कहानियाँ लिखा करते थे वहीं बाकी दलित साहित्यकार व्यक्ति पर केन्द्रित किन्तु आपकी कहानियां विचार पर केन्द्रित हैं। जो आपको तमाम दलित साहियकारों से काफी आगे ले जाती है। आपने इस माध्यम को क्यों चुना?
कैलाश वानखेडे़ः मेरा स्पष्ट मानना है कि विचार को लेकर ही आगे बढूं और उसके लिए मैंने जो माध्यम चुना है, वह है कहानी। जो कहानियां हैं वे विचार के माध्यम से चले। मेरी कहानियों को पढ़ेगे, तो वे मेरी वैचारिक कहानियां ही हैं। ये कहानियां वैचारिकी के साथ-साथ ऐतिहासिक परिदृश्य को लेकर चलती हैं। अगर किसी कहानी में महाड़ सत्याग्रह है या महू या महात्मा फुले का आन्दोलन है, तो यह अपने समय का एक दस्तावेजीकरण करने का काम करती है। अभी हाल ही में मेरी एक कहानी ‘गोलमेज’ आई है। इसमें बच्चों की कहानी के माध्यम से पूना पैक्ट और गोलमेज काॅन्फ्रेन्स को बच्चों के बीच उठाया है। देखने में यह बहुत सरल लग सकती है, लेकिन जिसने इसे इतिहास के रूप में पढ़ा है, जिसने सामाजिक व्यवस्था को देखा है, वह डाॅ. अम्बेडकर और गांधी विवाद के आन्तरिक पहलू को पूरा-का-पूरा समझ सकता है। इसमें सन् 1932 के परिदृश्य को वर्तमान स्वरूप दिया है, जिसमें इसका रूपक प्रतीक एक सार्वजनिक स्थान पर स्थित आम का एक पेड़ है। उस पर किसका हक हो, उस हक की लड़ाई के बारे में यह कहानी 1932 के परिदृश्य को दर्शाती है।
रत्नेश: आपकी कहानियां महज एक पात्र या दो पात्र तक सीमित नहीं होतीं, अपितु बहुपात्रता में होती हैं। इस तरह की शैली को रखने के पीछे आपका मुख्य कारण क्या रहा है?
कैलाश वानखेडे़ः यह अपने आप बनी है, इसको बनाने में मैंने कोई कोशिश नहीं की है। कहानियां स्वतः ही लिखी गई हैं। पात्र कब आयेगा, क्या करेगा, कैसे आयेगा, ये पूर्व नियोजित नहीं रहते। कोई एक विचार या घटना दिमाग में आई, उसके बाद कहानी शुरू हो जाती है। जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, वह लिखवाती है।
रत्नेश: डॉ भदंत आनंद कौसल्यायन कहा करते थे कि साहित्य को छोटा और सरल होना चाहिए तभी वह आम आदमी तक पहुँच सकता है पर आपकी कहानी लम्बी और इसकी शैली इतनी जटिल है कि सामान्य आदमी को पढ़ने में काफी मुश्किल हो सकती है। आपने कभी सोचा कि कहानी को कुछ कम और शैली को कुछ सरल किया जाए?
कैलाश वानखेडे़ः शैली सरल हो या न हो, इस पर बहुत ज्यादा दबाव कहानीकार का दिमाग तय नहीं कर पाता है। दरअसल, पूरे समाज की घटनाएं इतनी जटिल होती हैं, जो एक दूसरे के साथ घूमती रहती हंै कि अगर मैं उसको अभिव्यक्त कर रहा हूँ, तो मुझे लगता है मैं उसके साथ न्याय कर रहा हूँ। हमारा समाज, इतिहास इस तरह की जटिलताओं से भरा हुआ है, जिसको समझना मुश्किल है। अगर इतिहास और समाज जटिल है, तब तो वह कहानी में आयेगा ही। हम नकली कहानी नहीं बना सकते हैं, किसी तरह से सरलीकरण नहीं कर सकते हैं, क्योंकि वह एक सामान्य चीज बनकर रह जायेगी। मेरी कहानी के बारे कहा जाता है कि पढ़नी है तो दो बार पढ़नी होगी उसके भीतर की बात को पकड़ने के लिए। यह मोटे तौर पर लग रहा है। अभी हाल-फिलहाल नयी कहानी आई है, वह तुलनात्मक रूप से सरलता के साथ है। बावजूद उसके वो दिखती है सरल, पर जटिलताओं का अंश उसमें भी छिपा है, क्योंकि मेरा पूरा-का-पूरा सामाजिक परिदृश्य उसी तरह की जटिलताओं से भरा है। खासकर जाति व्यवस्था को लेकर बहुत ज्यादा जटिलताएं हैं। कहीं हमारे परिदृश्य में दोस्तों को लगता है कि वे जाति नहीं मानते हैं, लेकिन भीतर-ही-भीतर उनके विरोध छुपे होते हैं। कहानियों के माध्यम से यह सिद्ध भी हो जाता है कि वे जाति को मानते हैं। इसलिए ऐसी चीज एक व्यक्ति एक समय में कुछ बोलता है, कुछ सोचता है, कुछ करता है। इतनी जटिलताएं हैं,तो कहानी में भी जटिलताएं आयेंगीं। अगर वह जटिल व्यक्ति हमारे समाज में नहीं है, तो कहानी में भी वह नहीं आयेगा, अगर मैं बेहद सीधी सरल कहानियां लिखने लग जाऊंगा, तो मुझे लगता है जटिल समाज को समझने और समझाने में असफल होऊंगा, यह एक चीज दिमाग में बनी रहती है, पर उम्मीद कर रहा हूँ कि मैं स्वयं सरलता की ओर ले जाऊं, ताकि आम व्यक्ति तक अपनी बात को पहुंचा सकंू।
रत्नेश: आप अपनी कहानियों में अम्बेडकरी विचारधारा और दर्शन को समझाते हुए बहुत अच्छे रूपक लेकर आ रहे हैं, पर इसमें कठिनाई यह होती है कि जो अम्बेडकर दर्शन से अवगत नहीं हैं, वे शायद ही उन बातों को समझ पाएं। क्या अभी तक आपके सम्मुख कोई ऐसा प्रसंग आया है कि आप कहना कुछ चाहते हैं, पाठक कुछ और समझ रहा है?
कैलाश वानखेडे़ः ऐसा तो है और होता रहेगा, क्योंकि मुझे लगता है कि अगर किसी ने डाॅ. अम्बेडकर के साहित्य को नहीं पढ़ा है, तो उसे मेरा साहित्य नहीं पढ़ना चाहिए। अगर मेरे साहित्य को समझना है, तो उसका बेहतर तरीका है डाॅ. अम्बेडकर के आन्दोलन को, उनके विचारों को, उनके सपनों को समझना होगा। दरअसल, हमें यह भी लगता है कि जो परम्परागत आलोचना शास्त्र है, जो साहित्य में पढ़ाया जा रहा है, उसके आधार पर कहानियों को समझना एक मुश्किल बात होगी और उसके साथ इसको समझने की कोशिश भी नहीं करनी चाहिए अन्यथा इन कहानियों की वैचारिकी को पकड़ पाना मुश्किल काम होगा।
रत्नेश: दलित साहित्य को देखने पर जाति संघर्ष ही दिखता है, परन्तु मराठी साहित्य के 70 के दशक में वर्ग संघर्ष भी साथ-साथ रहा। इसके पात्र भी दोनों संघर्षों को एक साथ झेल रहे थे। मगर आज दलित आन्दोलन वर्ग की बात को पूरी तरह से नकार रहा है।
कैलाश वानखेडे़ः हमारे यहां जाति सबसे बड़ा मुद्दा है और इस जाति के इर्द-गिर्द ही सारी चीजें होती हैं। मूलतः हम लोगों को लगता है कि यह वर्ग का मुद्दा है, मैं भी इस बात का हिमायती नहीं हूँ कि यह वर्ग का मुद्दा है। भारत की सामाजिक व्यवस्था की जटिलताओं में यह मुद्दा सिर्फ और सिर्फ जाति का मुद्दा है, क्योंकि जाति से ही तय होता कि व्यक्ति की आर्थिक स्थिति क्या होगी। जाति से ही यह तय होगा कि वह कौन-सा व्यवसाय करेगा, क्योंकि जाति ही उसके परिवार के द्वारा उसे पैतृक रूप से विरासत में मिल जाती है। अगर वह नये क्षेत्र में जाने की कोशिश कर रहा है, तो शायद नहीं जा पा रहा है। जाति को जब तक हम समाप्त नहीं करेंगे या जातिविहीन समाज के लिए कार्यक्रम में भागीदारी नहीं करेंगे, तब तक हम एक मानवीय गरिमा से जी नहीं पाये। हमारा लक्ष्य यही होना चाहिए कि हम ऐसे समाज का निर्माण करें,जहां मनुष्य को मनुष्य समझा जाए। उसके साथ मनुष्य जैसा व्यवहार किया जाए।
रत्नेश: आपकी कहानियों में एक बात नज़र आती है कि इनके पात्र अपनी दबा दी जाती पहचान की लड़ाई लड़ रहे हैं, जैसे सत्यापित कहानी में एक व्यक्ति कहता है कि मैं बौद्धवाडे़ का हूँ, आप महारवाड़ा क्यों कह रहे हैं? वैसे ही कहानी जस्ट डांस का पात्र भी अपनी पहचान की लड़ाई लड़ रहा है।
कैलाश वानखेडे़ः मुझे लगातार यह अहसास होता रहा है कि दलितों एवं आदिवासियों के साथ गरिमापूर्ण और मानवीय व्यवहार नहीं होता है। उसकी पहचान क रूप में उसका नाम, जाति, धर्म उस तरह से गर्व के साथ या स्वाभाविक रूप से सामने नहीं आ पाते हैं। कहानियों के पात्र लगातार इस बात को लेकर लड़ते-भीड़ते हंै कि हमें हमारी अस्मिता एवं मानवीय गरिमा के साथ पहचाना जाए। पहचान के साथ-साथ मानवीय व्यवहार करने की अभिलाषा रखने वाली कहानियां हैं, जिनमें वे लगातार अपनी अस्मिता को लेकर इसलिए लड़ते हैं कि हमारे साथ मनुष्य समझकर मानवीय व्यवहार किया जाए। अगर संविधान में हमें गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार दिया है, तो वे अधिकार हमें मुक्कमल तौर पर मिले। वही जीवन हम मुक्कमल जीएं, जिसकी परिकल्पना संविधान में की गई है। मगर ऐसा होता नहीं है, तो पात्र अपनी पहचान को लेकर लगातार संघर्ष करता है। सत्यापित कहानी का पात्र बराबर कहता है कि जो हमें जानता नहीं, समझता नहीं, उसकी कलम से ही तय होता है कि हम क्या हैं? मतलब, जो पूरा सिस्टम है, जो सामाजिक परिदृश्य है, जिसमें हमें तीसरा व्यक्ति सत्यापित करता और बताता है कि हम क्या हैं? जबकि मुझे और मेरे पात्र हमेशा कहते हैं कि मैं क्या हूँ, मैं ही बताऊंगा। इस बात की जद्दोजहद है, इस बात को लेकर कहानियां हैं, जो अपने पूरे परिदृश्य को लेकर आती हैं।
रत्नेश: साहित्य की एक सीमा होती है, पर उसकी अहम् भूमिका सामाजिक-राजनीतिक बदलाव लाने की होती है। ‘सत्यापित’ कहानी में राजनीतिक स्तर पर बदलाव दिखा कि भारत सरकार ने सत्यापन की अनिवार्यता ही खत्म कर दी।
कैलाश वानखेडे़ः आवेदन पत्रों में फोटो को, अभिलेख को सत्यापन की अनिवार्यता की समाप्ति से उन तमाम लोगों के लिए बड़ी राहत है, जिनकी पहुंच राजपत्रित अधिकारियों तक नहीं होती थी, इससे उनकी जिन्दगी में एक सुखद बदलाव आया है। अगर हम साहित्य के जरिये इस तरह की चीज़ें अपने पूरे परिदृश्य के साथ उठाते हैं, तो वह निश्चित तौर पर एक बदलाव या परिवर्तन का स्वर देती है। इस परिवर्तन में न केवल सरकार एवं सिस्टम, बल्कि व्यक्ति और उसका परिवार भी बदलाव की तरफ जाते हैं। हमारी कोशिश, अभिलाषा और उद्देश्य यह होना चाहिए कि हम कहीं-न-कहीं थोड़ा-सा भी बदलाव लाने में अपनी भूमिका निभा सकें, उस बदलाव में थोड़ा-सा भी हिस्सा बन सकें, तो यह हमारे जीवन की सार्थकता होगी।
रत्नेश: आप महाराष्ट्र की पृष्ठभूमि के हैं, जो अम्बेडकरी आन्दोलन से प्रस्फुटित प्रदेश है। मगर आज के युवा इस आन्दोलन से कट-से गये हैं, उनके लिए यह कोई मायने नहीं रखता है। ऐसा बदलाव क्यों हो रहा है?
कैलाश वानखेडे़ः पहली बात तो यह है कि मैं महाराष्ट्र को प्रगतिशील प्रदेश नहीं मानता। पिछले कई सालों में इस प्रदेश में घटित घटनाओं पर नज़र डालें। हत्या, बलात्कार, आगजनी, अत्याचार, मानवाधिकार हनन, जनसंहार की घटनाएं हुई हैं, क्योंकि यहां का समाज पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने को लेकर बेहद अन्तरविरोधों से भरा पड़ा है। यहां का समाज कभी प्रगतिशील नहीं था और न है। वहां का दलित समुदाय संघर्ष वाला था, जिसने अपने हक के लिए लड़ाई लड़ी और अपने स्थान को प्राप्त किया। इसमें इस तरह के जो अवयव और संघर्ष हैं, आज की पीढ़ी उन संघर्षों को नहीं समझ पा रही है, लेकिन परम्परावादी पाॅलिश तरीके से दलितों को अपमानित एवं प्रताड़ित करने के तरीके खोज कर वे माहिर हो गये हैं। उन्होंने अपने तरीके बदल लिये हैं। उन तरीकों के बदलाव से उन्होंने माइंड सेट कर लिया है, वे प्रताड़ित करते हैं। उनकी हमेशा कोशिश रहती है कि दलित समाज का प्रतिनिधित्व कम-से-कम हो। यह समाज आगे न आ पाये, चाहे वह शैक्षणिक, सरकारी महकमें में हो यानी किसी क्षेत्र में वे उन्हें आगे नहीं आने देना चाहते। एक बन्द दरवाजा है और इस बन्द दरवाजे के अन्दर घुसने की जद्दोजहद है। जिस तरह पहले खुले शब्दों में हुआ करती थी वह इतनी नहीं है, इसलिए भी वर्तमान पीढ़ी को यह लगता है कि ऐसा कोई संघर्ष नहीं है, ऐसी कोई बात नहीं है।
दूसरी चीज़, कुछ सुविधाएं हम लोगों को मिल गई हैं और उसका असर नयी पीढ़ी पर हो रहा है, दोषी नयी पीढ़ी के बजाय पुरानी पीढ़ी है। जिस तरह के आन्दोलन और गतिविधियां, जिस तरह के कार्यक्रम का आयोजन अपने घर, परिवार, मोहल्ले में किये जाने चाहिए थे, हमने नहीं किये। हम अचानक नयी पीढ़ी से यह उम्मीद करें कि वह वैचारिकता से जुड़े, यह एक मुश्किल चीज है, क्योंकि नयी पीढ़ी तब तक नहीं जुड़ पाती जब तक आस-पास के माहौल में वैचारिक दर्शन और कार्यक्रम को नहीं देखती है। हमारी दिक्कत रही है कि नयी पीढ़ियों के बच्चों को अपने संघर्ष के विषय में न तो समझाया और न बताया। व्यक्तित्व अपने परिवार के भीतर नहीं बनता है, अपने मोहल्ले में, अपने समुदाय की विभिन्न गतिविधियों में होने वाले आयोजनों से व्यक्तित्व का विकास होता है। लेकिन हमने ऐसी गतिविधियों और कार्यक्रमों को बन्द कर दिया है। चाहे वे कलापथक हो या सेमिनार, कविता पाठ हो या नाटक, इन चीजों को हमने खो दिया है। इसलिए हमें नयी पीढ़ी से उम्मीद करना बेईमानी होगी।
रत्नेश : जब हमारे साहित्यकार आर्थिक संकट में थे, तब उनकी लेखनी में अधिक पैनापन था, पर आर्थिक स्थिति बेहतर होते ही उसने पैनापन तो दूर, लिखना ही बन्द कर दिया है? इस पर आपकी क्या राय है?
कैलाश वानखेडे़ः यह शिकायत हम सब की है कि ज्यों-ज्यों सुविधाओं में परिवर्तन होने लगते हंै, त्यों-त्यों ये समाज से विमुख होने लग जाते हंै। जिस चीज कोलेकर उसे सतत् रूप से चलना चाहिए था, वो रूक थम जाता है। उसकी प्राथमिकता कुछ और हो जाती है। जो ऐसे गड़बड़ा जाती है कि अपने पुराने समय में वो जो गतिविधियां करता था, अन्ततोगत्वा उसे बदल देता या विमुख हो जाता है। सुविधाएं पाने और अपनी पहचान को लेकर भी वह थोड़ा अतिरिक्त रूप से सजग हो जाता है कि कोई यह न जान ले कि यह कौन है? यह एक अन्तर-र्विरोध उस व्यक्ति के साथ चलता रहा है। तीसरा मुद्दा उसकी प्राथमिकता में वो समाज नहीं रह जाता, वो कहीं तीसरी चैथी जगह पर चला जाता है। यह चीजंे़ चलती रहंेगीं, इनको लेकर भी ज्यादा तनाव लेने की जरूरत नहीं है। यह एक सामान्य चीज़ है, ऐसा होता रहेगा। अगर हमें कुछ रद्दोबदल करने हैं, समाज में परिवर्तन लाना है, तो हमें मिलकर सारे-के-सारे आयोजन कार्यक्रम निरन्तर रूप से करने हांेगे। निरन्तर रूप से सहभागिता बनानी होगी और अगर कोई व्यक्ति हमसे अलग हो गया है, तो उसको साथ लेने के लिए हमें उसके साथ सद्भावपूर्ण व्यवहार करना होगा।
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डॉ. रत्नेश कातुलकर इंडियन सोशल इंस्टिट्यूट, दिल्ली में सामाजिक वैज्ञानिक के पद पर कार्यरत हैं.
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कैलाश जी की कहानियों की तरह उनका साक्षात्कार भी सोचने को विवश करता है। एक संतुलित और जरूरी साक्षात्कार के लिए रत्नेश जी को बधाई।