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संजय जोठे (Sanjay Jothe)

sanjay jothe2हमारे समय में और खासकर आजादी के इतने सालों बाद जबकि राजनीतिक परिवर्तन और सामाजिक-आर्थिक विकास की दिशा में बहुत सारा श्रम और समय लगाया जा चुका है, ऐसे समय में आंबेडकर को लेकर बात करना बहुत जरुरी और प्रासंगिक होता जा रहा है. गांधीवाद का सम्मोहन या तो टूट चुका है या वह अपना श्रेष्ठतम दे चुका है. वाम क्रांति और मार्क्सवादी विचार में रचे बसे बदलाव ने भी बीते दशकों ने बहुत करवटें बदली हैं और कई रंग दिखाए हैं. सर्वोदयी या गांधीवादी विचार से समाज निर्माण की कल्पना ने एक प्रष्ठभूमि निर्मित कर दी है, इसी तरह साम्यवादी विचार ने भी एक अन्य ढंग से प्रष्ठभूमि निर्मित कर दी है,इन प्रष्ठ्भूमियों के कंट्रास्ट में अब दलित जागरण और अधिकार का स्वर अधिक स्पष्टता से सुनाई देने लगा है, और इसे नैतिक समर्थन भी मिल रहा है.

इसीलिये इन आंदोलनों और विचारधाराओं के समानांतर स्वयं दलित चिन्तन और दलित राजनीति ने भी स्वतंत्र रूप से अपनी विशिष्ट शैली में अपनी समस्याओं और उनके संभावित समाधानों को केंद्र में रखकर विचारों और आंदोलनों की गहरी बुनाई की है. अब बुनाई को और इसके रचयिताओं को उनकी समग्रता में एकसाथ देखने का समय है ताकि अनावश्यक सम्मोहनों से आजाद होते हुए दलित मुक्तिकामियों की चेतना अपने लक्ष्य तक सीधे और अबाध ढंग से आगे बढ़ सके.

इस संदर्भ में कबीर, बुद्ध, ज्योतिबा फूले और बाबा साहेब आंबेडकर को उनके मौलिक स्वरुप में बचाए रखते हुए प्रचारित करने की सबसे पहली और सबसे बड़ी आवश्यकता है. क्रांतिकारियों और मुक्तिकामियों को महात्मा, महापुरुष और दैवीय चरित्र सिद्ध करने का जो सनातन पाखण्ड इस देश में चलता है, उससे इन्हें बचाए रखने की बड़ी जरूरत है. बुद्ध को तो अब बचाया नहीं जा सकता, बुद्ध को अवतार और भगवान् या शास्ता बतलाकर हिन्दुओं और बौद्धों – दोनों ने आसमान से पर बैठा दिया है जहां अंधी श्रद्धा और भावपूर्ण समर्पण ही पहुँच सकता है. तार्किक और वैज्ञानिक बुद्धि के लिए बुद्ध को लगभग अनुपलब्ध बना दिया गया है. सबसे बड़ा दुर्भाग्य ये है कि अपने जन्म स्थान को छोड़कर बुद्ध सब जगह पाए जाते हैं लेकिन भारत भर में उनकी कोई सुनवाई नहीं हैं. 

कबीर इस अर्थ में थोड़े कम बदनसीब हैं. उनके साथ कोई संगठित धर्म खडा नहीं हुआ और उन्होंने वैदिक प्रतीकों में नए अर्थ डालने का काम करते हुए अपनी बातें रखीं हैं जो कई अर्थों में आस्तिकता का समर्थन करती नजर आती हैं, इसलिए कबीर ने धर्म सत्ता को उतनी चोट नहीं पहुंचाई जितनी बुद्ध ने पहुंचाई थी, इसीलिये कबीर को समूल उखाड़ने का या उन्हें अवतारवाद के दलदल में घसीटकर मार डालने का कोई आन्दोलन इस देश में नहीं चला. लेकिन बुद्ध को इस दलदल में बहुत गहराई में दबा दिया गया है. 

लेकिन अब पिछले कुछ सालों में कबीर को लेकर जो बहस चल रही है उसमे इस दलदल के ठेकेदारों की तरफ से हलचलें तेज होने लगी हैं. कबीर को सामाजिक क्रान्ति का पुरोधा न बतलाते हुए एक रहस्यवादी और धार्मिक क्रान्ति का मसीहा बतलाने पर जो जोर दिया जा रहा है उसके गंभीर निहितार्थ हैं. कबीर के नाम पर चल रहे धर्म पीठ और डेरे इत्यादि बहुत गौर करने लायक हैं, वहां एकदम वेदांती ढंग का कर्मकांड और अंधविश्वास शुरू हो गया है.

समाज व्यवस्था के “स्टेटस को” (यथास्थिति) को बनाए रखते हुए तथाकथित धर्म और अध्यात्म की व्यवस्था की आतंरिक भित्ति को बदल देना और “ऊपर कुछ और अंदर कुछ” वाली शैली में जीते रहने का पाखंडी आग्रह इस देश का मौलिक और सनातन रोग रहा है. यह खेल सनातन पाखण्ड की धुरी है. अब इस पाखण्ड में कबीर को घसीट लेने एक नया आन्दोलन बन गया है. कबीर का ब्राह्मणीकरण करते हुए उन्हें रामानंद का शिष्य बतलाना और ब्राह्मण विधवा का पुत्र बताना या करवीर शब्द में कबीर की उत्पत्ति दिखाने सहित उनकी वाणी में प्रक्षिप्तों को ठूंस देना – ये कबीर के जाते ही शुरू हो गया था. आज जिस कबीर को हम जानते हैं वे खुद अपने लोगों के लिए गूंगे बना दिए गये हैं. कबीर पंथियों को देखिये, वे आकंठ रहस्यवाद और साधना सिद्धि की चर्चाओं में उलझ गये हैं, उनके अपने मठ और गद्दियाँ बन गयी हैं. सामाजिक बदलाव की पुकार मोक्ष और परलोक के भजनों में न जाने कहाँ खो गयी है.

यही भय अब ज्योतिबा फूले और अंबेडकर को लेकर है. उनके कर्तृत्व के मौलिक ओज को और उनके विचार व कर्म की बुनियादी प्रेरणाओं और उसके मनोविज्ञान को उन्ही के अपने लोगों से दूर किया जा रहा है. उन्हें किन्ही फेशनेबल बहस का हिस्सा बनाकर पेश करना और उनकी क्रान्ति की असली धार को छुपा देना – ये काम बहुत ही सधे हुए तरीके से चल रहा है. और दुर्भाग्य से दलित और बहुजन समाज के लोग ही इसमें चारा बन रहे हैं. उन्हें ही इस काम के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. आज के पढ़े लिखे दलित वर्ग में धर्म और अध्यात्म, विपस्सना, साधना, मोक्ष, निर्वाण आदि के नाम पर जो सम्मोहन बढ़ रहा है वह बहुत खतरनाक और आत्मघाती है इसी सम्मोहन के सहारे अंबेडकर की क्रान्ति को बोथरा किया जा रहा है. कई विपस्सना गुरु हैं जो बुद्ध को पूर्व जन्मों का ब्राह्मण सिद्ध करते हैं. ये वेदान्तियों से ज्यादा खतरनाक हैं.

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अंबेडकर और ज्योतिबा फूले – दोनों हाल ही में गुजरे हैं, ये भारत के आधुनिक इतिहास के ऐसे क्रांतिकारी हैं जिनके बारे में अभी भी बहुत सारे एतिहासिक तथ्य मौजूद हैं, इन्हें बुद्ध की तरह किसी विष्णु या इंद्र का अवतार बताना संभव नहीं है लेकिन उनकी विचार प्रक्रिया को दूषित करके उसमे चलताऊ किस्म के समाज सुधार और एक कुनकुनी सामाजिक क्रान्ति की मिठास चढ़ाकर उन्हें लकवाग्रस्त किया जा सकता है. और यह ठीक हमारी आँखों के सामने हो रहा है.

अंबेडकर जो कि सर्वप्रथम एक आर्थिक चिन्तक हैं जिन्होंने भारत में सामाजिक और आर्थिक शोषण को सबसे अधिक गहराई में समझा और समझाया है – उन्हें सिर्फ और सिर्फ संविधान निर्माता बनाए रखना और इसी रूप में उन्हें पूजने की प्रेरणा देना – यह एक नये षड्यंत्र का अचूक संकेत है. अर्थ जगत में उनकी क्रान्तिकारी प्रस्तावनाओं को या धर्म और धर्म के मनोविज्ञान के बारे में उनके कठोर विश्लेषणों पर पर्दा डालते हुए उन्हें केवल एक राजनीतिक व्यक्ति साबित करना एक तरह से अपराध ही कहा जाएगा. यह एक सचेतन अपराध है इसलिए इसे षड्यंत्र कहना चाहिए.

आजकल एक और षड्यंत्र शुरू हुआ है, अंबेडकर को हिन्दू धर्म का सुधारक कहकर पेश करने का चलन बढ़ा है. इसका अर्थ है कि अंबेडकर हिन्दू धर्म की कुरीतियों को खत्म करके हिन्दू धर्म का सुधार करना चाहते थे. आंशिक रूप से सत्य होते हुए भी यह बात भटकाने वाली है. ऐसे सुधारक के रूप में पेश करते हुए उन्हें राममोहन रॉय, दयानन्द, विद्यासागर या विवेकानन्द की श्रेणी में डालकर खत्म करने का षड्यंत्र चल रहा है. सुधारक की तरह महिमामंडित करके उन्हें कईयों के साथ एक अन्य सुधारक बनाकर खत्म करने के प्रयास चल रहे हैं.

ये चालबाजी है, इसमें दलितों आदिवासियों और स्त्रीयों को नहीं फंसना चाहिए, अंबेडकर सुधारक से आगे बढ़कर नया धर्म देने वाले भी हैं. याद कीजिये उन्होंने बुद्ध के प्राचीन धर्म को भी अपनी क्रान्तिद्रिष्टि से तपाकर उसमे सुधार पेश किये हैं. महाबोधि सोसाइटी और विपश्यना आदि पर जोर देने वाले पर्लोकवादी गुरु इत्यादि अंबेडकर के नवयान को मान्यता नहीं देते. अंबेडकर ने जिस बौद्ध धर्म को प्रस्तुत किया है उसमे पारलौकिक और रहस्यमय कुछ भी नहीं है. ठीक मौलिक बौद्ध धर्म की तरह उसका स्वरूप है जो बुद्ध के समय और आरंभिक कुछ सौ सालों तक चला था.

हमें अंबेडकर को किसी भी एक श्रेणी में नहीं बंधने देना है. अभी तक उनके कर्तृत्व के सारे आयाम उजागर ही नहीं हुए हैं, अभी से कैसे उन्हें किसी श्रेणी में बाँध देंगे? और उन्हें बाँधने की जरूरत किसे है? ध्यान दीजिये यह पुराने षड्यंत्रकारियों की सबसे कामयाब चाल रही है. एक श्रेणी में बांधकर सीमित करके बड़े से बड़े क्रान्तिदृष्टा को इस देश में चबाकर थूक दिया गया है. उसे पूरी तरह हजम कर लिया जाता है. भारत का पूरा इतिहास उठाकर देख लीजिये. खासकर भारत का दर्शन देखिये. छः खांचों में दर्शन और ज्ञान विज्ञान को जैसे तैसे ठूँसकर ज्ञान की संभावना की हमेशा नसबंदी कर दी गयी है.

लेकिन यूरोप को देखिये, जितने दार्शनिक हैं उतने ही दर्शन हैं. हर नया व्यक्ति अपना मार्ग बनाता है और पूरे समाज को आंदोलित कर देता है. ऐसा ही विज्ञान (साइंस) है, हर वैज्ञानिक नया विज्ञान लेकर आ सकता है, पुरानी श्रेणियों से भीड़ सकता है. लेकिन भारत में कोई भी नई पहल हो उसे काट पीटकर जब तक छः दर्शनों की कोठारी में फिट न कर दिया जाए तब तक भारतीय ज्ञानियों पंडितों और धर्म समाज के ठेकेदारों को चैन ही नहीं आता. इन छः में से किसी एक कोठरी में कैद होते ही फिर उस कोठरी या दर्शन विशेष के प्राचीन प्रस्तोता के साथ इस नये व्यक्ति की ऐसी तुलना करेंगे कि नये को कचरा साबित करके फेंककर ही दम लेंगे और वो प्राचीन ऋषि महर्षि फिर से समकालीन बना दिया जायेगा और उसका शास्त्र और पूरी परम्परा फिर से अपना सनातन जहर लेकर समाज पर छा जायेगी. ये हर दौर में क्रान्ति की आग पर राख डालने का सबसे कारगर सूत्र रहा है. बुद्ध के साथ, कबीर के साथ यही खेल हुआ है.

अरबिंदो या विवेकानन्द के साथ भी खुद उनकी मर्जी से यही हो रहा है. गौर कीजिये. हालाँकि ये दोनों विचारक स्वयं ही मेहनत करके अपने विचारों को वेद वेदान्त में दिखाते रहे, इसी में उनकी आधी सृजनात्मकता नष्ट हुयी. शेष जो बचा वो वेद वेदान्त की प्रचलित व्याख्या में लपेटकर पंडितों ने खत्म कर दिया गया, हालाँकि उनके विचारों में कुछ ख़ास क्रान्ति थी भी नहीं वरना वे वेद वेदान्त से समर्थन ही न मांगते.

वे जिस खेल में जानबूझकर घुसे उसी में खत्म हो गये. ये ऐसा घनचक्कर है जिससे कोई नहीं बच सका है. ये सबसे गहरा और कामयाब षड्यंत्र है. इस पर बराबर नजर बनाए रखते हुए अंबेडकर और फूले सहित कबीर आदि को किसी श्रेणी में फिक्स नहीं होने देना है. वे लोग अपनी श्रेणी आप हैं. किसी को जरूरत है या शौक है तो वो प्राचीन ज्ञान को इनके अनुसार इनकी श्रेणियों में डालकर खुश होता रहे, लेकिन हम दलित दार्शनिकों को पुरानी श्रेणियों में कैद नहीं होने देंगे. हम अंबेडकर या फूले का ब्राह्मणीकरण नहीं होने देंगे.

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संजय जोठे लीड इंडिया फेलो हैं। मूलतः मध्यप्रदेश के निवासी हैं। समाज कार्य में पिछले 15 वर्षों से सक्रिय हैं। ब्रिटेन की ससेक्स यूनिवर्सिटी से अंतर्राष्ट्रीय विकास अध्ययन में परास्नातक हैं और वर्तमान में टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान से पीएचडी कर रहे हैं।
तस्वीर साभार: इन्टरनेट दुनिया 

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