Ayaz S 3
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अयाज़ अहमद (Ayaz Ahmad)

Ayaz S 3उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के नतीजे अभी आए ही थे. यूपी गुजरातमय हो गया था कि तभी अहमदाबाद में एक एजुकेशन फेयर का आयोजन हुआ. मुझे अपने विश्विद्यालय की तरफ से वहाँ जाने का आदेश मिला. मन में एक उत्सुकता सी जगी कि अच्छा मौका है उस राज्य को देखने का जहाँ से गुजरात मॉडल नाम का बवंडर उठा और देखते ही देखते पूरे देश पर छा गया. ये भी ख़याल हुआ की ना जाने किस हाल में मिलेंगे गुजरात के मुसलमान जिनकी क्रिया की प्रतिक्रिया से पूरा देश अच्छे दिनों के आगमन से नौनिहाल हो रहा है. 

अहमदाबाद के प्लेटफार्म पर उतरते ही एक खास तरह के असमंजस की शुरुआत हुई. यूपी के शहरों के प्लेटफार्म जैसा आभास बाहर निकलते ही तब शंका में परिवर्तित हो गया जब ऑटोरिक्शा चालकों को कानपूरिया अंदाज़ में दाढ़ी-टोपी के साथ मुँह में पान-बाहर चबाते पाया. हम अभी पूरी तरह से बाहर निकल भी ना पाए थे कि  एक दिया सलाई सी सूरत वाले मियाँ ने हमारे सामान को धर दबोचा और वह बड़े ही अदब से हमें हमारी मंज़िल तक पहुँचाने का दावा ठोकने लगे. मेरे साथियों ने उनके दावे पर कोई ऐतराज़ नहीं किया तो हम बैठ लिए उनके ऑटो में. पता-वजह पूछते ही मियाँ जी ड्राइवर से गाइड बन गये. हमें भी तसल्ली हुई की चलो एक पंथ दो काज हो जायेंगे. अब तक वो ये जान चुके थे कि हम यूपी से हैं और वहां ताज़ा-ताज़ा कमल खिला कर आए हैं. एक राजनीतिक एक्सपर्ट की तरह उन्हों ने हमें उलाहना देनी शुरू की.

“ये जो अपने लोगों ने यूपी में किया उसकी उम्मीद नहीं थी. यूपी के मुसलमानो में अब पठानों सा जोश नई रहा, ना.” 

मेरे साथी अनायास ही पूछ बैठे,  

“लगता है आप पठान हैं?”

मियां बिदक गए.

“मेरी सूरत पे मत जाइए मियाँ, में पठान जमात से ही हूँ, ना.”

जमात शब्द का ऐसा प्रयोग मेरे लिए नया था. सो मैंने पूछ ही लिया,  

“ये जमात का क्या मतलब हुआ?

“जमात होता है जैसे सय्यद, शेख, पठान जमात होता है, ना.”

तभी एक मज़ार की तरफ इशारा करते हुए उनके अंदर के गाइड ने बताया कि अहमदाबाद की मशहूर मज़ार है, किसी सय्यद साहब की. फिर उन्होंने सवालिया अंदाज़ में पूछा,

“आपने तो पढ़ा ही होगा इनके बारे में किताबों में? बहुत मशहूर है, ना सय्यद साहब की ये मज़ार.”

“नहीं हमने तो नहीं पढ़ा. कुछ मोदी राज के बारे में बताइए. अख़बारों में बहुत पढ़ा है उनके गुजरात मॉडल के बारे में.”

“पूछो मत साहब, कैसा आदमी है, ना. आप ने उधर जो यूपी में उसको जितवाया, बता नई सकते कितना सदमा लगा, ना.”

“वो तो ठीक है लेकिन गुजरात के सरेशवाला एंड कंपनी तो बड़ा प्रचार करते हैं की बहुत अच्छे आदमी हैं वो.”

“आप यूपी के हो ना इसलिए आपको पता नई. बहुत पहले एक बार मोदी यहाँ गुजरात में बुरा फँसा था तो ये सरेशवाला ने उसको बचाया था. तब से दोनो साथ है, ना.”

“अच्छा तो दंगों के बाद भी साथ देते हैं ये लोग?”

“दंगों के बाद तो और बिजनेस बढ़ गया इनका. अपने लोग तो बस ऑटो ही चला रहे, ना.”

“तो दंगों का असर अभी तक बाकी है?”

“और तो कुछ नहीं ये ऑटो बाकी है बस. लो आपका होटल आ गया, ना.”

तो कुछ यूँ चली हमारी बात जीवन के पहले गुजराती से. झटका तो हमें तब लगना शुरू हुआ जब हम होटल से एजुकेशन फेयर की तरफ चले. समझ नहीं आ रहा था की गुजरात के मॉडल में ऐसी गड्ढों वाली रोड का क्या रोल है. वो गड्ढे किसी मार्केटिंग रणनीति का हिस्सा लग रहे थे जो हमारी समझ से बाहर थी. किसी तरह हम फेयर स्थल पर पहुँचे और हमारी मुलाकात फेयर कोऑर्डिनेटर से हुई जो कोई बंदूक या तोप  वाला थे. उन्हों ने बड़ी शान से बताया कि किस तरह से सिर्फ़ एक दिन के अंदर ये शादी का पंडाल सजाया गया है जहाँ एक एजुकेशन फेयर होनेवाला था. हम अपने स्टॉल पर सेटल हो ही रहे थी कि एक बड़े मियाँ गला साफ़ करते हमारी तरफ लपके.

“आप लोग यूपी से आए हैं क्या?”

“जी हम यूपी से आए हैं.”

“तो आपकी यूनिवर्सिटी यूपी में है क्या?”

“जी हाँ, यूपी में ही है.”

“बहुत अच्छा मेरा स्टॉल यहीं पास में है. अगर किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो बता दीजिएगा. आप हमारे मेहमान हैं, ना.”

इतना कह कर बड़े मियाँ जम गये हमारे स्टॉल पर. आते-जाते लोगों से दुआ-सलाम का दौर शुरू हो गया. इसका फायदा ये हुआ कि हमारे स्टॉल से यूपी की बू कुछ कम हो गई और हम सब थोड़ा सा गुजरातीपन अपने अंदर महसूस करने लगे. नये शहर में होने की अजनबियत काफ़ी हद तक ख़त्म हो गई. बड़े मियाँ लगातार किसी ना किसी से हमारी मुलाकात करवा रहे थे. 

“इनसे मिलिए ये हमारी ही जमात से हैं, अरे भाई शेख जमात से. अच्छा स्कूल चलाते हैं. इनसे मिलिए पठान साहब से, ये फेयर ऑर्गनाइज़िंग टीम में हैं.” 

इन मुलाक़ातों के बीच में पीछे से एक नाज़ुक सी सलाम की आवाज़ आई. मुड़ के देखा तो एक खूबसूरत सी मोहतरमा बड़े मियाँ को सलाम ठोंक रहीं थीं.    

“अरे ये बीबी से मिलिए. कहाँ थी आप? देखिए यूपी से मेहमान आए हैं. भाई साहब ये बैंक में नौकरी करती हैं. बीबी ये यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं, इनका नंबर ले लो, ये तुम्हारे पीएचडी वाले प्लान में मदद कर सकते हैं. क्यों बेटा मदद तो करदोगे ना इनकी, आख़िर सैय्यदज़ादी हैं? ” बड़े मियाँ ने मानिखेज़ अंदाज़ में पूछा.

“जी बिल्कुल, क्यों नही.” मैने झेंपते हुए जवाब दिया

“तो बेटा तुम भी इनका कार्ड रख लो बहुत ज़हीन हैं ये मोहतरमा.”

अब तक मैं समझ चुका था कि बड़े मियाँ शादी डॉट कॉम के पुराने एजेंट हैं, इसलिए मैने ये साफ करना ज़रूरी समझा कि मैं शादीशुदा हूँ. बड़े मियाँ को ये बात कुछ खास पसंद नही आई और थोड़ी देर में वो चलते बने. लेकिन उनकी बातों से एक बात तो सॉफ थी कि गुजरात के मुसलमानों में ‘जमात’ बड़ी ही खास चीज़ है और इसका अर्थ यूपी के तब्लीग़ी-जमात वाली जमात के अर्थ से बिल्कुल अलग है. 

स्टॉल पर मियाँ के साथ काफ़ी वक़्त गुज़र चुका था सो सोचा कि क्यों ना सेमिनार हॉल और दूसरे स्टॉल्स का जायज़ा लिया जाए. मैं पूरी साइट का एक राउंड लेने का फ़ैसला कर के चला. एक के बाद दूसरे स्टॉल से गुज़रते हुए ऐसा अहसास होने लगा कि आज के इस नवउदारवादी दौर में क्या यूपी क्या गुजरात, सब एक रंग, डिज़ाइन और मार्केटिंग के साँचे में ढल चुके हैं. कहीं-कहीं एक आध गुजराती लाइन को छोड़कर सारे पोस्टर, बैनर, स्लोगन अँग्रेज़ी में ही थे. अगर एक बार को ये पूरे का पूरा दृश्य यूपी या देश, दुनिया के किसी अन्य शहर में स्थापित कर दिया जाए तो भाषा को छोड़कर शायद ही कोई और फ़र्क नज़र आ पाएगा. मैं नवउदारवादी एकरूपता के इन सवालों में खोया आगे बढ़ रहा था कि तभी मेरी नज़र एक ऐसे स्टॉल पर पड़ी जो बिल्कुल अलग सा था, ‘memonrishta.com’. एजुकेशनल फेयर में मैट्रिमोनियल का स्टॉल मेरी नवउदारवादी समझ को चुनौती देता सा लगा. मैं कौतूहलवश उस स्टॉल पर पहुँचा और उसके रिसेप्शनिस्ट से पूछ बैठा कि भाई साहब ये क्या है. उन्हों ने मुझे विस्तार से समझाया कि ये एक मैट्रिमोनियल वेबसाइट का स्टॉल है जो कि मेमन जमात के लोगों को अपनी जमात के रिश्ते ढूढ़ने में मदद करती है. उसने एजुकेशन फेर को बड़ी फंडिंग भी की थी.

“ये बिल्कुल शादी डॉट कॉम की तरह ही काम करती है, ना.”

“तो इसका नाम ‘मेमनरिश्ता’ क्यों है, शादिरिश्ता क्यों नहीं?”

“देखो भाई वो शादी डॉट कॉम तो सबके लिए है ना. ये ‘मेमन-रिश्ता’ सिर्फ मेमन जमात की मदद के लिए है, ना.”

“ये मेमन कौन लोग होते हैं?”

“आपको नहीं मालूम क्या? अच्छा आप यूपी से हो तभी, ना. ये हमारे गुजरात की एक जमात है. अरे टाइगर मेमन का नाम तो सुना ही होगा?”

“टाइगर मेमन वही ना जो मुंबई बमबलास्ट का आरोपी है. उसपर तो एक पिक्चर भी बनी थी, मैंने देखी भी थी. लेकिन पिक्चर और अख़बार हर जगह उसे मुसलमान बताया और दिखाया गया है. और आप बता रहे हैं कि वो मेमन था. ये मेमन मुसलमान होते हैं क्या?”

“और नहीं तो क्या, मुसलमान होते हैं!”

“तो फिर ये मेमन कैसे होते हैं? मैने तो आजतक नहीं सुना कि मेमन जैसी भी कोई जमात होती है. ये मेमन और मेनन एक ही होता है क्या?”

“नहीं, नहीं, नहीं आप स्मझ नही पाए, मेनन जमात वाले लोग तो हिंदू होते हैं और मेमन जमात वाले मुसलमान होते हैं.”

“भाई साहब मुझे तो ये जमात वाली बात ही नहीं समझ आ रही. आप कह रहें हैं कि मेमन एक अलग जमात होती है जिनके लिए आप एक अलग वेबसाइट बनाए हुए हैं ताकि ये मेमन लोग मेमन लोगों से ही शादी करें, फिर आप कह रहे हैं कि मेमन मुसलमान भी होते हैं और मेनन से अलग भी!” 

“आपको ऐसे समझ नहीं आएगा. आप पहले बताइए कि आप किस जमात से हैं?” उसने चिंतित स्वर में पूछा.

“मुझे क्या पता मैं किस जमात से हूँ. जमात शब्द से तो मैं एक ही बात समझता हूँ तब्लीग़ी-जमात वाले लोग जो ज़मीन से नीचे और आसमान के ऊपर की बात करते हैं. बीच की दुनिया से इनका कुछ खास लगाव नहीं है, तब तक जब तक ये दुनिया के खलीफा नही बन जाते. और मेरा इस जमात से कोई लेना-देना नहीं है.”

“नहीं, नहीं आप नहीं समझे, वो एक अलग बात है. आपके यूपी में सय्यद, शेख, पठान, कुरैशी जमात के लोग तो होते ही होंगे, ना?”                

“सय्यद, शेख, पठान, कुरैशी ‘जमात’ के नहीं सय्यद, शेख, पठान, कुरैशी ‘ज़ात’ के लोग होते हैं.” जमात के लोग तो बस तब्लीग़ी ही होते हैं यूपी में.”

अब मेमन साहब के चेहरे पे थोड़ी मुस्कुराहट आई. उन्हें अपनी उलझन कुछ सुलझती हुई नज़र आ रही थी.

“हाँ तो ये बताइए कि आप किस जमात यानी ज़ात से हैं?”

“मेरे अब्बा पठान और अम्मी शेख हैं तो….”                   

मेमन साहब मेरी बात बीच में काटते हुए तपाक से बोले,

“तो आप पठान जमात के हुए, ना! तो अब बताइए कि जब आप पठान जमात के आदमी से मिलते हैं तो आपको कैसा लगता है?” 

“भाई साहब मुझे तो कुछ भी नहीं लगता. मैं बचपन से ही ज़ात-पात की बेवकूफी के खिलाफ रहा हूँ. हर ज़ात का आदमी सिर्फ़ जन्म के आधार पर अपने को दूसरी ज़ात के आदमी से बेहतर या कमतर समझता है. इससे ज़्यादा ग़लत और क्या हो सकता है कि आप इंसान को सिर्फ़ उसके जन्म के आधार पर अच्छा या बुरा समझें? यही वो मौका परस्त लोग हैं जो दंगे कर-करवाकर हिंदू और मुसलमान भी बन जाते हैं. इंसान और इंसानियत की कोई कदर नहीं होती ऐसे लोगों को.”

मेमन साहब के मत्थे पर शिकन की दो लकीरें और पसीने की दो बूँदें अब काफ़ी साफ हो चलीं थीं.

“छोड़िए वो तो आपको लगता है, ना. ये बताइए कि आपके यूपी में जब पठान जमात के लोग सय्यद जमात के लोगों से मिलते हैं तो उनको कैसा लगता होगा?”

“कैसा लगता होगा, क्या? सय्यद कहते हैं कि पठानों की अकल घुटने में होती है, तो पठानों को तो बुरा ही लगता होगा!”

“अच्छा सय्यद ऐसा कहते हैं तो पठान क्या कहते हैं?” 

“पठान भी कहते होंगे कि हमारी अकल घुटने में क्यों हो, सय्यदों की अकल घुटने में होती होगी.”

इतना सुनना था कि मेमन साहब की आँखें लाल होने लगीं और वो काँपते हुए ग़ुस्से में ज़ोर से चीखे.

“गुस्ताख!”

मैं हड़बड़ा गया. कुछ समझ नहीं आया कि ये अचानक इनको क्या हो गया.

“क्या हुआ भाई साहब आप इतना ग़ुस्सा क्यों हो रहें है? मैने ऐसा क्या कह दिया?”

“तूने कहा कि सय्यद की अकल घुटने मे होती है! तूने सादात की शान में गुस्ताखी की, कम्बख़्त!”

मेमन साहब की चीखें सुन कर आस-पास के लोग इकठ्ठा होने लगे. अब पसीने में डूबने की बारी मेरी थी.

“भाई साहब कुछ ग़लतफ़हमी हो गई लगता है. जब आपने पूछा कि पठान क्या कहते हैं तो मैने कहा कि पठान ऐसा कहते होंगे.”

मेमन साहब ने बढ़ती हुई भीड़ की तरफ आँखें नचाकर बड़े अंदाज़ में घुमाया.

“तुमने कहा नहीं कि सय्यद की अकल घुटने मे होती है!”

मैने घबरा कर एक नज़र भीड़ पर डाली. कुछ लोग आस्तीनें चढ़ा रहे थे.

“भाई साहब मैं माफी चाहता हूँ. कुछ ग़लतफ़हमी हो गई लगता है. मैंने अभी आपको बताया था कि मैं ज़ात-पात नहीं मानता हूँ तो में सय्यदों…. साहबों के बारे में ऐसी बात कैसे कर सकता हूँ?”

मेमन साहब अब उस शिकारी की तरह दहाड़ रहे थे जो मरे हुए शेर को देख कर शिकारी ही निकाल सकता है.”

“तूने सय्यदों को बुरा कहा! तू अगर मेहमान ना होता तो तेरा तो पता नहीं क्या हाल करता मैं!”

भीड़ का दायरा धीरे-धीरे कसता जा रहा था. मेरे चारों तरफ खून में लिपटी आँखों के अंगारे दहक रहे थे. मौत की सिसकी मेरे सर से पैर तक सुनाई दे रही थी. 

“भाई साहब मुझे माफ़ कर दें. लगता है मुझसे कोई बहुत बड़ी ग़लती हो गई. दुबारा ऐसी ग़लती नहीं होगी. आख़िर मैं भी तो एक मुसलमान हूँ.” 

मुझे यूँ सहमा देख कर मेमन साहब के होंठो पर एक क़ातिलाना मुस्कान जागी.

“हुँह, काहे का मुसलमान! सादात की शान में गुस्ताखी करता है, और अपने को मुसलमान कहता है!”

“भाई साहब में गुजरात का नहीं हूँ, ना. इसलिए समझ नहीं पाया. अब दुबारा ऐसी ग़लती कभी नहीं करूँगा. खुदा के वास्ते इस  बार माफ़ कर दें.”

अब उसकी बांछें कुछ और खिल गईं. ये देख कर भीढ़ भी छटने लगी. मेरी जान में जान आई. उनके सामने मैंने अपनी नासमझी को कई बार जम कर कोसा और उनसे चाय पीते हुए सबकुछ समझाने की गुज़ारिश करने लगा. मेरे जीवन पर अपने वर्चस्व को स्थापित कर वो दिल ही दिल में खुश हो रहे थे इसलिए उन्होंने मेरी चाय वाली बात मान ली. भीड़ भी अब तक छंट चुकी थी सो वो मुझे चाय पे चर्चा करने के लिए वहाँ की टेंपरेरी कॅंटीन की तरफ ले आए. मैने तुरंत चाय के पैसे दे कर दो चाय ली और उनकी बात ग़ौर से सुनने का नाटक करने लगा. वो पूरा वक़्त मेमन जमात की महानता के किससे सुनाते रहे. मैं बीच-बीच में “हाँ आप सही कह रहे है”, “ये तो मुझे पता ही नहीं था”, आप की बात बिल्कुल ठीक है” जैसे जुमलों  से अपनी जान बचाता रहा. ना जाने क्यों पूरा वक़्त मेरा ध्यान ज़मीन से नीचे और आसमान के ऊपर की दुनिया में भटकता रहा. मैने तय कर लिया था कि अब गुजरात में एक भी बात अपनी तरफ से नहीं करनी है. 

इस हादसे की खबर जब मैंने अपने साथियों को दी तो वो भी खामोश से ही हो गये. हमारी खामोशी तभी टूटी जब हम गुजरात से वापसी के लिए रेलवे स्टेशन का आधा रास्ता एक खामोश मिजाज़ ऑटोवाले के साथ तय कर चुके. मैं चर्चा करने लगा कि ऐसी भयानक जात पात और सय्यद भक्ति तो शायद यूपी में भी नही होगी। दूसरे साथी ने इस बात की कड़ी निंदा की और ताना देते हुए समझाने लगा कि आप लोग बस मोटी-मोटी किताबों में ही उलझे रहते हैं. सामाजिक जीवन का तनिक भी ज्ञान नहीं है आपको. तीसरे साथी जो मुसलमानों में ज़ात-पात की गंदगी से बिल्कुल बेज़ार थे आश्चर्या से फटे जा रहे थे. उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि जातिवाद की जड़ें मुसलमानों में इतनी मज़बूत हैं. अब वो मुसलमानों में जातिवाद की समस्या को लेकर चिंतित होने लगे. हम सय्यदभक्तों के कुकर्मों से परेशान, सय्यदों और मेमनों को बुरा-भला कहते किसी तरह स्टेशन पहुँचे. इस बीच जब हमारी नज़र ऑटोवाले पर पड़ी तो वो थोड़ा असहज सा लगा. कल की घटना हमारे ज़हन में अभी ताज़ा थी. हम जान-बूझकर क्रिकेट और फिल्मों की दुनिया में भटक गये. इतने में स्टेशन आ गया. ऑटोवाला किराया लेने में थोड़ा संकोच कर रहा था तो मैंने पूछ लिया, 

“भाई कोई बात तुम्हें भी बुरी लग गई क्या?”   

उसने खामोशी तोड़ते हुए आहिस्ता से कहा, “जनाब मैं सय्यद हूँ, ना!”

~~~

अयाज़ अहमद अम्बेडकरवादी विचारधारा से प्रेरित हैं और, ग्लोकल लॉ स्कूल, ग्लोकल यूनिवर्सिटी के हेड हैं. उनसे ayazahmad.adv@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

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