
संजय जोठे (Sanjay Jothe)
भारत के ईश्वर-आत्मावादी धर्मगुरु भारत के सबसे बड़े दुर्भाग्य रहे हैं, क्योंकि भारत का परलोकवादी और पुनर्जन्मवादी धर्म इंसानियत के लिए सबसे जहरीले षड्यंत्र की तरह बनाया गया है. हर दौर में जब समय के घमासान में बदलाव की मांग उठती है और परिस्थितियाँ करवट लेना चाह रही होती हैं तब कोई न कोई धूर्त बाबा खड़ा हो जाता है और बदलाव की संभावनाओं को खत्म करने के लिए सनातनी षड्यंत्र की नयी इबारत लिखकर चला जाता है. ये आज की नहीं सदियों सदियों की दुखभरी कहानी है. भारत बार बार अंधविश्वास के गड्ढे से उबरकर पतित नहीं होता है बल्कि अंधविश्वास और पतन के गड्ढे में ही करवटें बदलता है. भारत के पोंगा पंडित गुरु इस स्थिति को बनाये रखते हैं.
भारत के इतिहास में हर महत्वपूर्ण मोड़ पर जबकि बुद्ध या कबीर या गोरख या नानक की कोई क्रान्ति उठी, उसके तुरंत बाद पोंगा पंडितों ने तुरंत उस क्रान्ति को वेद वेदांत की खोल में लपेटकर उसकी ह्त्या की है. बुद्ध महावीर के जाने के बाद उनकी क्रांतिकारी प्रस्तावनाओं को कैसे कुचला गया इस बात से इतिहास और दर्शन के विमर्ष भरे पड़े हैं. बुद्ध के अनात्मवादी, अनीश्वरवादी और शून्यवादी दर्शन को मायावाद की शक्ल देकर उसमे ब्रह्म और आत्मा सहित पुनर्जन्म को प्रक्षेपित कर दिया गया और शंकर-वेदांत का तिलिस्म खड़ा किया गया जिसने भारत में मन और शरीर दोनों को बाँझ बना डाला.
उसके बाद से जितने बाबा और पोंगा पंडित हुए हैं वे शंकर के मायावाद और अद्वैत का समर्थन या विरोध करते हुए भी जहर की असली जड़- आत्मा परमात्मा और पुनर्जन्म को कभी निशाना नहीं बना पाए हैं. असल में इस जहरीली त्रिमूर्ति से बाबाओं का, व्यापारियों का, लठैतों का और सरकारों का हित ऐसे जुड़ चुका है कि इसे छूना किसी के लिए फायदे का सौदा नहीं है.
गुलाम भारत में ये काम करना खतरनाक भी था, एक विशेष नजरिये से देखें तो आजादी से पहले के बाबाओं को कुछ हद तक माफ़ किया जा सकता है. एक गुलाम देश में समाज की नैतिकता और धर्म को जोर से झकझोरने पर समाज के टूटने का खतरा होता है. इसीलिये उपलब्ध और प्रचलित नैतिकता या धार्मिक सम्मोहन में ही निवेश करते हुए उसमे से देश की आजादी के लिए शक्ति पैदा की जाए – ये एक रणनीतिक समझदारी रही है. इस क्रम में विवेकानंद, अरबिंदो घोष और गांधी को माफ़ किया जा सकता है. वे तात्कालिक लाभ के लिए भारत की आजादी के लिए धार्मिक सम्मोहन तो तोड़ने की बजाय उसे प्रगाढ़ कर रहे थे ताकि देश की आजादी के लिए शक्ति संचय हो सके.
लेकिन आज़ाद भारत में इस जहरीले खेल को बनाये रखने का क्या मतलब हो सकता है? आजाद भारत में वेदांती बाबाओं का क्या काम है और वे क्यों इस जहरीली त्रिमूर्ति का चरणामृत बाँट रहे हैं? किस मकसद से वे ये कर रहे हैं? खासकर जब आजाद भारत में थीयोसोफी, जिद्दु कृष्णमूर्ति, धम्मपाल, अंबेडकर और सत्यनारायण गोयनका द्वारा बुद्ध की प्रस्तावना रखी जा रही है और पश्चिम से एलेन वाट्स, सुजुकी, झेन परम्परा, रुडोल्फ स्टीनर, विलियम जेम्स, जैसे अनेकानेक पश्चिमी दार्शनिकों द्वारा बुद्ध की खोज हो चुकी है ऐसे में भारतीय बाबाओं का शंकर और कृष्ण को छोड़कर बुद्ध से प्रेम करना बड़ा मजेदार मामला है.
इसे ठीक से समझिये.
पश्चिम में पुनर्जागरण और औद्योगिक क्रान्ति के बाद जो समाज बना उसमे व्यक्ति के व्यक्तित्व और समाज और राज्य की सीमाएं तय की जाने लगीं थीं. तब एक आधुनिक सुख सुविधाओं से घिरे समाज में व्यक्ति के मानसिक जीवन और उसकी मानसिक समस्याओं, विक्षोभों, कुंठाओं का महत्व शारीरिक कष्टों की तुलना में अधिक बढ़ गया था. अब भूख बीमारी और अभाव कोई समस्या नहीं थी. अब मन और मन की खुराफातों से जन्मे विषाद, कुंठाएं, दमन, युद्ध, महायुद्ध शीतयुद्ध, विश्वयुद्ध, पूंजीवादी शोषण आदि विषय महत्वपूर्ण बन गये थे.
विज्ञान, शरीर विज्ञान और मनोविज्ञान की खोजों ने यह सिद्ध कर दिया कि इंसान का शरीर ही नहीं बल्कि उसका व्यक्तित्व या स्व भी एक अस्थायी और कामचलाऊ चीज है. किसी तरह का अनश्वर, सनातन व्यक्तित्व या स्व या आत्मा नहीं होती. इस बात के स्थापित होने के दौरान ही जापान, कोरिया, चीन और तिब्बत से बौद्ध विद्वान् पश्चिम में जाने लगे थे और बुद्ध के दर्शन को पूंजीवादी समाज के दुःख दर्द के लिए एक आसान इलाज के रूप में विक्सित किया जाने लगा था. बुद्ध का ज्ञात प्राचीन धर्म जहां वैराग्य और जीवन के प्रति उपेक्षा सिखा रहा था वहीँ पश्चिमी दार्शनिकों ने जिस बुद्ध को खोजा वो रोजमर्रा के जीवन को और अधिक संवेदनशील आनंदमय और मैत्रीपूर्ण बना रहा था.
पूरे पश्चिम में, यूरोप और अमेरिका के विश्वविद्यालयों के थियोलोजी डिपार्टमेंट्स में बुद्ध की धूम मच गयी थी. फ्रायड और जुंग के बाद मनोविज्ञान ने जो प्रस्तावनाएँ रखीं उसमे अस्थायी स्व और “आत्मा के नकार” का स्वर मजबूत होता गया. परमात्मा को तो फ्रेडरिक नीत्शे ने मार ही डाला था फ्रायड, पावलोव और कार्ल जुंग के बाद आत्मा भी मर गयी. आत्मा और परमात्मा दोनों के ठीक से दफ़न होने के दौरान ही बुद्ध पूरे यूरोप अमेरिका पर छा गये थे. यूरोप में ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस के अपने अपने बुद्ध थे, वहीं अमेरिका ने भी अपने विशेष बुद्ध को खोजना शुरू किया और नइ प्रेग्मेटिस्ट फिलोसोफी के मूल में ही बौद्ध दर्शन की कई मान्यताओं को स्थान देना शुरू किया.
इन्ही अमेरिकी प्रेग्मेटिस्ट दार्शनिकों में चार्ल्स पीयर्स, विलियम जेम्स और जॉन डीवी आते हैं. सौभाग्य से कोलंबिया यूनिवर्सिटी में जॉन डीवी डॉ. आंबेडकर के शिक्षक बनते हैं और अंबेडकर को अमेरिकन प्रेग्मेटीज्म के दर्शन के साथ गहरे में छुपा हुआ बौद्ध धर्म अमेरिकन दार्शनिक ओज और प्रयोगधर्मिता के साथ मिलने लगता है. उस बौद्ध दर्शन की नयी समझ को शिक्षा, समाज, राजनीति और अर्थशास्त्र के अनुप्रयोगों के साथ लेकर अंबेडकर भारत लौटते हैं.
इस तरह भारत के भीतर और बाहर थियोसोफी और कृष्णमूर्ति धूम मचाये हुए थे. भारत के भीतर अमेरिका से पढ़कर लौटे अंबेडकर ने लाखों लोगों को बौद्ध बनाकर एक बड़ी लहर पैदा कर दी. इसी बीच दो विश्वयुद्धों और शीतयुद्ध की अनिश्चितता से घबराए नवधनाड्य और अर्बन मिडिल क्लास अमेरिकी यूरोपीय परिवारों के बच्चों ने अपने धर्मों और परिवारों से विद्रोह कर दिया. वे आस्तिक धर्मों के संघर्षों को विश्वयुद्धों की शक्ल में भोग चुके थे उन्हें अब अनीश्वरवादी और अनात्मवादी धर्म की तलाश थी. उनकी ये तलाश बुद्ध में पूरी होने लगी. बुद्ध उनके लिए उम्मीद की किरण बनने लगे.
इसी दौर में जब भारत के पोंगा पंडित यूरोप या अमेरिका जाते थे तो उनका सामना एक बहुत शक्तिशाली बुद्ध और बौद्ध दर्शन ने होता था. वहां के लोग इन बाबाओं से जो प्रश्न करते थे वे असल में बुद्ध और बौद्ध दर्शन के अध्ययन से प्रभावित प्रश्न होते थे. थक हारकर भारतीय बाबाओं को बुद्ध और बौद्ध दर्शन को गंभीरता से लेना पडा. फिर उन्होंने सनातनी षड्यंत्र का नया जाल बुना. पश्चिम में जिस तरह के बुद्ध और बौद्ध धर्म की खोज यूरोप और अमेरिका ने की उस स्वरूप को अपने वेद- वेदान्तों में बेक प्रोजेक्ट करना शुरू किया. तब उपनिषदों और वेदों की ऐसी व्याख्या की जाने लगी जो कि पश्चिमी बुद्ध प्रेमियों को आकर्षित कर सके.
एक तरफ यूरोप अमेरिका में उभर रहे बुद्ध से भारतीय बाबा परेशान थे दुसरी तरफ इधर भारत में डॉ. अंबेडकर ने बुद्ध को सामाजिक राजनीतिक बदलाव का सबसे बड़ा हथियार बना डाला था. भारतीय बाबा भारत के बाहर और भारत के भीतर दोनों तरफ बुद्ध से घबराने लगे. तब उन्होंने बुद्ध को वेदान्त के दलदल में घसीटने का पुराना खेल पूरी ताकत से शुरू किया.
ये खेल आप आसानी से देख और पहचान सकते हैं. विवेकानन्द या अरबिंदो घोष को इस बात की ज्यादा जरूरत नहीं हुई. लेकिन आजादी के बाद पश्चिम में, खासकर अमेरिका जाने वाले बाबाओं ने बुद्ध को कभी अकेला नहीं छोड़ा.
इस क्रम में इस भूमिका के बाद ओशो रजनीश को और उनके बुद्ध प्रेम को आप ठीक से देखिये. आप आसानी से समझ जायेंगे कि ये सज्जन आत्मा परमात्मा पुनर्जन्म की जलेबी बनाते हुए भी बुद्ध को क्यों इतना महत्व दे रहे हैं.
ओशो रजनीश का खेल बहुत साफ़ है. एक तरफ सनातन आत्मा, पुनर्जन्म और इश्वर की बात करेंगे और दुसरी तरफ बुद्ध को सर्वाधिक महत्व देते हुए बुद्ध से अपने प्रेम की घोषणा करेंगे. ये एक भयानक चाल है. बुद्ध से अपने प्रेम की घोषणा करते हुए असल में वे बुद्ध के पचिमी और भारतीय प्रेमियों को सम्मोहित कर रहे हैं ताकि आत्मा-परमात्मा-पुनर्जन्म का जहर बुद्ध के बहाने आसानी से पिलाया जा सके.
यह खेल भारत के गरीबों, दलितों, बहुजनों को ठीक से समझना चाहिए. आज पश्चिम में बुद्ध लगभग स्थापित हो चुके हैं. मन, व्यक्तित्व, रहस्यवाद, मनोविज्ञान या दर्शन की अधिकाँश प्रणालियों पर बुद्ध की छाप स्पष्ट है. इधर भारत में भी विपस्सना के आन्दोलन ने बुद्ध को एक नयी उंचाई दी है. और खासकर अंबेडकर के धर्मांतरण के बाद बौद्ध धर्म का प्रभाव बढ़ रहा है.
ऐसे में ओशो रजनीश जैसे भारतीय वेदांती बाबाओं के लिए ये जरुरी हो जाता है कि वे बुद्ध के मुंह में वेद-वेदान्त प्रक्षेपित करें और लोगों को ये बताएं कि आत्मा और अनात्मा एक ही है, या कि पूर्ण (ब्रह्म) और शून्य एक ही हैं.
ये सनातन षड्यंत्र का आधुनिक अवतार है. इस षड्यंत्र को ठीक से समझना और इसका विरोध करना भारत के दलित बहुजन मुक्तिकामियों के लिए बहुत जरुरी है.