
यह एक ऐसा सवाल है जो हर उस अन्तःमन में पलता है जो इस व्यवस्था और इसके सत्ताधारी साथियों के अत्याचार का शिकार है। हम इस विषय पर दलितों का नज़रिया रखने की कोशिश करेंगे। दलित पाकिस्तान में आबाद एक महत्वपूर्ण सामाजिक समूह है। दलित दक्षिणी सिंध में बहुत बड़ी संख्या में आबाद हैं और सामूहिक रूप से पाकिस्तान की कृषि में रीढ़ की हड्डी की हैसियत रखतें हैं। दलितों को सामाजिक पहचान के संकट का भी सामना है। दलित सदियों से पीसे और कुचले हुए चले आ रहें हैं। दलितों की संख्या एक अनुमान के अनुसार लगभग 20मिलियन (2 करोड़) से 30 मिलियन (3 करोड़) है। दलित कौन हैं? दलित क्या चाहते हैं? दलित वर्ग को किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है? हम कोशिश करेंगे कि इस लेख में दलितों की आवाज़ को पाकिस्तान के राष्ट्रीय पृष्ठभूमि में पेश किया जाए।
भारत का विभाजन
भारत के बटवारे के समय से ही राष्ट्रीय पहचान का संकट उपमहाद्वीप की एक त्रासदी रही है. इस दौरान डॉ० बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर की किताब “Thoughts on Pakistan”( थॉट्स ऑन पाकिस्तान) एक अहम दस्तावेज़ की हैसियत रखती है। यह किताब परम्परागत ढंग से हटकर एक दीवानी के मुक़द्दमे के रूप में लिखी गयी है। इस किताब में दलितों की ऐतिहासिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और राष्ट्रीय पृष्ठभूमि को अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया गया है और उनके तर्कों और कारणों को उन्हीं के ढंग में प्रस्तुत करने की कोशिश की गई है. इस ऐतिहासिक दस्तावेज़ में उन उदास नस्लों के दुःखों का निवारण उनके राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक अधिकारों को स्वीकार करने के रूप में प्रस्तावित किया गया है। बड़ी अजीब बात है कि इस महत्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज़ को कभी भी बौद्धिक रूप में स्वीकार कर इस से लाभ उठाने की कोशिश करने के बजाय दोनों राज्यों के शासक वर्ग ने अपने-अपने स्वार्थ और उद्देश्य के लिए इसके अलग-अलग उद्धरणों का चुनाव किया जो सिर्फ उनके उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करने की बौद्धिक कोशिश थी। मगर ज़रूरत इस बात की थी कि सचपसन्दी को प्रकट करते हुए इस दौर के राष्ट्रीय सवाल को परखने के उद्देश्य से इस दस्तावेज़ का अध्ययन किया जाता। भारत विभाजन के पिछड़े और विकसित क्षेत्रों के बटवारे ने साबित किया कि पिछड़े क्षेत्रों के उच्व वर्ग ने पिछड़ेपन के नारे को अपने सत्ता की प्राप्ति के लिए इस्तेमाल किया और अपनी हाकिमियत (शासन) को मजबूत किया। उपमहाद्वीप के राष्ट्रीय स्वतन्त्रा का सवाल दरअसल मेहनतकश(कामगर) वर्ग के स्वतन्त्रा का सवाल था। ऐतिहासिक भरोसे के अनुसार यही वह वर्ग था जो समाज में सामाजिक और आर्थिक अत्यचार से पीड़ित था। उपमहाद्वीप की यह भी एक त्रासदी है कि यहाँ वर्गों की संरचना के साथ-साथ राष्ट्रीय पहचान और मूल्यांकन का सवाल भी बहुत पेचीदा बन चुका है। यहाँ के बहुसंख्यक महनतकश(श्रमिक) वर्ग क्लासिकल अद्योगिक मज़दूर वर्ग नहीं हैं बल्कि जाति और वर्ग आपस मे गडमड है।
भारत और पाकिस्तान दोनों देश भारत विभाजन से लेकर आज तक सही अर्थों में एक राष्ट्र नहीं बन सके हैं। हमारे प्राचीन इतिहास में सिर्फ बुद्ध शासकों के दौर में उपमहाद्वीप एक राष्ट्र या देश कहलाने का अधिकारी था। अब्दुल रशीद धोलका(भंगी/मेहतर) ने अपने लेख “राष्ट्रीय समस्या” में हमारी प्राचीन इतिहास के इस अछूते अध्याय को छेड़ा है जो अब तक हमारे सिंध की तथाकथित राष्ट्रभक्ति के पाठ्यक्रम में वर्जित वृक्ष बना हुआ था। हमारे राष्ट्रभक्त राष्ट्रीय बुद्धिजीवियों और चिंतकों ने हमारे प्राचीन इतिहास को बुद्ध शासकों से या इस से भी पीछे जाकर शुरू करने के बजाय राजा दाहिर से ही शुरू करना उचित जाना। राजा दाहिर को एक भावनात्मक भूमिका देकर बहुत ही पवित्र गाय बनाया गया। और उस के साथ-साथ मुहम्मद बिन कासिम को एक शासक वर्ग(अशराफ) ने अपने उद्देश्य के लिए बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत किया। हमारे इतिहास की यही त्रासदी है कि प्रत्येक अधिकार हनन करने वाले शासक ने अपनी इच्छा और मनमर्ज़ी का इतिहास लिखवाया। प्राचीन भारत मे जातिवाद का परस्पर विरोध भी कमजोर और बलवान वर्गों का संघर्ष है। बलवान वर्ग के पास सत्ता और संसाधन रहें जबकि शासित वर्गों के पास अंकीय बहुसंख्यकता और मेहनत के अतिरिक्त कोई सहारा नहीं।
मेरे विचार से हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की प्राचीन सभ्यता के बाद सामूहिक रूप में हमारे समाज की यह दूसरी बड़ी उप्लब्धि थी, जिसमें जातियों, कबीलों और वर्गों में बटें लोग ना सिर्फ उपमहाद्वीप को एक राष्ट्र बनाया बल्कि गौतम बुद्ध के मसावात(बराबरी) के विश्वव्यापी सन्देश को पूरे एशिया में फैला दिया। जिस के पदचिन्ह और प्रतीक आज भी अजर-अमर रूप में देखे जा सकते हैं। शासकीय शक्तियों ने उपमहाद्वीप के इस महान क्रांति को साज़िशों से खत्म करने की कोशिश की और अंततः सफलता प्राप्त किया। सिंध में राजा चचका राय के परिवार पर जीत इस षड्यंत्र की महत्वपूर्ण कड़ी है। राजा चचका राय और राजा दाहिर के दौर में बहुजन/बहुसंख्यक (जो बुद्ध मत को मानती थी) को कुचला गया और जातिवाद की जंजीर में कैद किया गया।
उस समय के सामाजिक विरोधाभास का फायदा विदेशी शक्तियों ने उठाया। बहुसंख्यक/बहुजन जनता की ब्राह्मण शासक वर्ग से नाराजगी की वजह से अरबी शासकों ने आसानी से उपमहाद्वीप को जीतकर यहाँ की राजनैतिक सत्ता को अपने हाथों में ले लिया। बहुजन/बहुसंख्यक वर्ग को विद्रोह से रोकने के लिए और उनके ब्राह्मण शासकों से विरोधाभास का फायदा उठाने के लिए यहाँ इस्लाम का प्रचार प्रसार हुआ। और बहुसंख्यक/ बहुजन वर्गों के लोगों ने बड़ी संख्या में इस्लाम धर्म स्वीकार किया(यही विरोध आगे चल कर द्विराष्ट्र सिद्धान्त की नींव बना जिसके लिए मुसलमान नहीं बल्कि भारत पर हावी ब्राह्मण1 सोच ही जिम्मेदार है)
भारत विभाजन के समय एक तरफ महत्वपूर्ण पक्षों में शासकीय जातियों पर आधारित ब्राह्मण वर्ग तो दूसरी तरफ अशराफ मुसलमान का नेतृत्व था, जबकि तीसरी राजनैतिक शक्ति सदियों से कुचले हुए पसमांदा तबक़ों/पिछड़े वर्गों (अछूत, आदिवासी और दलित) की तहरीक थी जिनका नेतृत्व डॉ० बाबा भीम राव अम्बेडकर कर रहें थे2 मुस्लिम लीग जो मुसलमानों के अधिकारों की दावेदार थी सच में सिर्फ मुसलमान अशराफिया(नव्वाबों, जागीरदारों और व्यापारी अशराफ) वर्ग के स्वार्थ तक सीमित रही। मुस्लिम जनता के मेहनतकश(कामगर/पसमांदा) वर्गों के ऐतिहासिक, राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन का नारा दरअसल नव्वाबों और जागीरदारों को सत्ता के सिंघासन तक पहुंचाने के लिए था।
दूसरी तरफ काँग्रेस थी जो गैरदेशी शासकों के प्रभुत्व से स्वतंत्र अखंड भारत का सपना देख रही थी। दरअसल काँग्रेस ब्राह्मण वर्ग के नेतृत्व में हिन्दओं की ऊंची जातियों की राजनैतिक और आर्थिक सत्ता के साथ-साथ सामाजिक सत्ता को भी चिरस्थायी करना चाहती थी। वह सामाजिक सत्ता(प्रभुत्व) जो जातिवाद के धर्म पर स्थापित (स्थिर) था, एक ऐसा धर्म जिसमें अछूत लोगों का एक बड़ा समाजी हिस्सा सिर्फ निचले स्तर पर ही रह कर बाकी तबक़ों (स्तर के लोगों) की मानसिक, शारीरिक, राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक दासता स्वीकार करके ज़िंदा हों।
तीसरी तरफ दलित आंदोलन उस दौर की एक महत्वपूर्ण राजनैतिक और सामाजिक आंदोलन था। जो बराबरी के आधार पर अपनी पहचान और अधिकार हासिल करना चाहता था। इस आंदोलन का नेतृत्व उपमहाद्वीप के एक महान चिंतक और क्रांतिकारी व्यक्तित्व डॉ० बाबा भीम राव अम्बेडकर कर रहे थे3। बावजूद इसके भारत विभाजन की राजनैतिक आन्दोलन और उनके नेता आज अतीत का हिस्सा बन चुके हैं मगर दलितवाद का विचार और चिंतन न सिर्फ आज भी जीवित है बल्कि अपने महत्वपूर्ण होने का एहसास दिलवा रहा है।
आज दलितवाद का विचार भारत और दक्षिण एशिया के देशों के दलितों के अस्तित्व और राजनैतिक व आर्थिक स्वतन्त्रा की मंज़िल(गन्तव्य)बन गया है। काँग्रेस भारतीय या हिंदुस्तानी राष्ट्रवाद के विचार से सहमत थी। एक ऐसा राष्ट्र जिसका राष्ट्रीय पूंजीपति या शासक वर्ग सिर्फ ऊंची जाति की हिन्दू बिरादरी तक सीमित हो, बाकी जनता और दूसरे मध्यम वर्गों को उनके रहमोकरम(दयालुता) पर ही संतोष करना था। यूरोप का आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था जिसने जागीरदारी, नव्वाबों, महाराजाओं और स्थानीय जमींदार अशराफिया को हरा कर उपमहाद्वीप पर आधिपत्य जमाया था, उस के लिए बदलते हुए अंतरराष्ट्रीय परिस्तिथियों में इस सत्ता को कायम रखना असम्भव मालूम हो रहा था। खास तौर पर बाल्शेविक क्रांति और चीन में जारी क्रांतिकारी सँघर्ष के संभावित परिणाम ने और भी ज़्यादा परेशान कर दिया। क्योंकि इस से ना सिर्फ उनको उपमहाद्वीप पर अपनी पकड़ कमज़ोर नज़र आने लगी बल्कि सारी दुनिया मे साम्राज्यवादी शक्तियों के लिए अपना शोषणपूर्ण व्यवस्था जारी रखना मुश्किल हो गया था। इसलिये उन्होंने उपमहाद्वीप की जनता को भौगोलिक रूप से नहीं बल्कि धार्मिक और राष्ट्रीवाद के रूप में बांट कर आपस मे उलझाय रखा और जनता के बीच सामाजिक, धार्मिक, रियासती(क्षेत्रीय) खाई को गहरा किया।
47 ई० का बटवारा एक ऐसी त्रासदी थी जिसकी भारी कीमत सिर्फ यहाँ के मेहनतकश वर्गों को ही चुकानी पड़ी। काँग्रेस गुप्त रूप से भारत विभाजन को स्वीकार करने का समझौता कर चुकी थी। अशराफ मुस्लिम को पश्चिमी और पूरबी राज्यों की सूरत में सत्ता भोग का परवान मिलने जा रहा था। हिन्दूओं के सत्ताधारी वर्ग को एक बड़े अल्पसंख्यक से जान छूटने की नवेद( विवाह में दिया जाने वाला उपहार) मिली। साधारण मुसलमान तीन हिस्सों में बट गये। एक हिस्सा पश्चिमी पाकिस्तान, दूसरा हिस्सा पूर्वी पाकिस्तान बना जबकि मुसलमानो की एक बड़ी संख्या बचे हुए भारत में उच्च जाति के हिन्दुओं के रहमोकरम(दयालुता) पर सामाजिक और राजनैतिक शोषण का सामना करने के लिए रह गयी4। दलितों की हालत इससे भी बदतर थी और है। हिन्दू सत्ताधारी वर्ग दलितों को अपना जन्मजात शत्रु जानता था। इसलिए भारत विभाजन के बाद भारत मे दलितों के उन अधिकारों को भी ध्वस्त करना शुरू कर दिया जो दलित आंदोलन ने अपने संघर्ष से अंग्रेज़ी सरकार से प्राप्त किये थे। हिन्दू- मुस्लिम फसाद उपमहाद्वीप का भाग्य बन चुका था। इस प्रभावी अंतर्विरोध में दलितों का प्रतिवाद पीछे चला गया। दलित तीन हिस्सों में बंट गये। पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान में एक धार्मिक अल्पसंख्यक होने के नाते सामाजिक शोषण और भी तीक्ष्ण हो गया। जोगिंदर नाथ मण्डल का इस्तीफा इस बात का सबूत है कि दलितों के लिए जमीन पाकिस्तान में भी तंग होना शुरू हो गयी थी।
इतिहास के इस दौर में भारतीय वामपंथ(लेफ्ट/ कम्युनिस्ट) अपनी ऐतिहासिक भूमिका अदा करने में असमर्थ रहा और इसके कई एक ऐतिहासिक कारण हैं। अपने सामाजिक अंतर्विरोधों और परिस्तिथियों को एकसिरे से नज़रंदाज़(उपेक्षा) करके अपने फैसले बाहर से आयात करने के शैली ने बाएं बाजू (कम्युनिस्ट) की लहर को उन सामाजिक स्तरों(वर्गों) का प्रवक्ता बनने से कोसों दूर रखा। चरणबद्ध क्रांति के सिद्धान्त का प्रयोग भी एक गलती थी। उपमहाद्वीप के धार्मिक विभाजन के समर्थन करने के बाद अपनी कम्युनिस्ट पार्टी के कैडर को हिन्दू- मुस्लिम के आधार पर बांटने जैसे हास्यप्रद फैसले भी देखने को मिले। इस तरह के गोलमोल फैसलों ने भी क्रांति-कैडर और वर्करों को उलझाए रखा। अगर भारतीय लेफ्ट (वामपंथ) अपने पाँव इस जमीन पर रख कर यहाँ के सामाजिक अंतर्विरोध को घेरते हुए असली क्रांति के स्तरों को उत्प्रेरित करता तो भारत के विभाजन जैसे त्रासदियों को भी टाला जा सकता था और उपमहाद्वीप के सोशलिस्ट फेडरेशन (समाजवादी महासंघ) की स्थापना प्रकाशित हो सकती थी जो उपमहाद्वीप की सभी अनुप्लब्धताओं (जो पहुंच में ना हो/ आभावों) और अन्यायों का प्रतिशोध होता। उस समय के भारतीय वामपंथ के ऐतिहासिक कोताहियों (त्रुटियों/ कमियों) पर उपमहाद्वीप की सोशलिस्ट (समाजवादी) आंदोलन का इतिहास उन्हें कभी भी माफ नही करेगा।
भारत विभाजन के बाद दो राज्यों की स्थापना और राष्ट्रीय पहचान का संकट
दुनिया के ग्लोब में जब हैकले सुलेमानी के उत्तराधिकारियों(Jews/यहूदी) नें 100 साल के देश-निकाले के बाद फिलिस्तीन पर अधिकर करके एक धार्मिक राष्ट्र बनाने की घोषणा किया तब उपमहाद्वीप में भारत के बटवारे के बाद भारत के साथ मिल्लते इस्लामिया( इस्लामी भाईचारे) के लिए पाकिस्तान का वजूद रखा गया। पाकिस्तान बनने के बाद दोनों देशों के सत्ताधारी वर्गों पर यह जिम्मेदारी पड़ चुकी थी कि वह दोनों देशों को राष्ट्र बनाने का उत्तरदायित्व पूरा करें। विडम्बना यह है कि भारत-विभाजन के 70 साल व्यतीत हो जाने के बावजूद आज भी पाकिस्तान और भारत एक राष्ट्र नही बन सकें। सत्ताधारी वर्ग इस उद्देश्य को प्राप्त करने में बुरी तरह असफल रहा है। भारत मे ऊंची जाति के शासक वर्गों ने असीमित सत्ता शक्ति तो प्राप्त कर लिया मगर समाज को एकजा (एकजुट) करके एक राष्ट्र बनाने के उत्तरदायित्व में पूर्णतया असफलता से दोचार रहें। पाकिस्तान के सत्ताधारी वर्ग की त्रासदी यह भी रही कि पाकिस्तान स्थापना के बाद पाकिस्तानी राष्ट्रीय पूंजीवादी अपने बलबूते पर देश को चलने में असमर्थ रहें। इस वर्ग की अयोग्यता की वजह से कभी धार्मिक चरमपंथ को सहारा देकर आस्था के ज़ोर पर देश चलाने की कोशिश की गई तो कभी रियासती (राज्य) इदारों (संस्था/प्रतिष्ठान) को सत्ता के मामलात में बुला कर के उनके पियादों से गुलशन का कारोबार चलाया जाने लगा। पाकिस्तान के क्लासिकल बुर्ज़वा की इस अयोग्यता की एक भारी कीमत भी उसको चुकानी पड़ी और आज ये हालात है कि क्लासिकल बुर्ज़वा की जगह उन दोनों तत्वों ने ले ली है और शासक वर्ग सिर्फ शो-पीस बन कर रह गया है। इससे पाकिस्तान का एक नव-पूंजीवादी उदार राष्ट्र के रूप में उभरने की संभावना भी समाप्त हो गयी और देश के अंदर कई रियासतों(राज्यों) ने जन्म ले लिया है और उनके प्रभाव से कोई इनकार नही कर सकता। यहाँ एक तरफ रियासती क़ौम परस्ती (राज्यो का राष्ट्रवाद) के विचारों के धार्मिक चरमपंथी के हाथों बंधक होने के नतीजे में स्थानीय सांस्कृतिक रंगा रँगी को रोगमुक्त करने की कोशिश ने पाकिस्तान के राष्ट्रवादियों में अभावग्रस्त होने की भावना उत्पन्न किया तो दूसरी तरफ राष्ट्रभक्तों के विचार ने हमारे वादिये सिंध के इतिहास को बिगाड़ने की कोशिश किया।
70 के दहाई के मज़दूर किसान आंदोलन के उभार और पारंपरिक क्रांतिकारी नेतृत्व के ढुलमुल लाइन की बदौलत मज़दूर वर्ग के आंदोलन को अपने लक्ष्य से दूर करने में बहुत बड़ी भूमिका अदा किया। इसका परिणाम पॉपुलरिज़्म,धर्मिक चरमपंथ और राष्ट्रभक्ति के उभार के रूप मर जनता को भुगतना पड़ रहा है। राष्ट्रभक्त आन्दोलन जो हक़ीक़त में छोटी राष्ट्रवाद के सत्ताधारी गिरोहों के स्वार्थ के लिए सरगर्म हैं, वामपंथ की असफलता से उन्हें खाली मैदान मिल गया। राष्ट्रभक्त आन्दोलन मेहनतकश(श्रमिक) वर्ग के स्वार्थ और ज़मींदाराना नेतृत्व की परिदृश्य के बदौलत मेहनतकश (श्रमिक)वर्ग से कोसों दूर है। सिंध के राष्ट्रभक्त परिधि में राष्ट्रीय सँघर्ष की जो परम्परा पाई जाती है वह सिंध के सामूहिक मेहनतकश(श्रमिक)जनता को अपील नहीं करतीं और राष्ट्रभक्तों के विचार मेहनतकश(श्रमिक) जनता से मेल नही खाते। अंतिम विश्लेषण में राष्ट्रभक्त (तथाकथित पब्लिक लोकतंत्र और माओ कैप पहनने वाले राष्ट्रीय बुर्ज़वाभक्त) भी अपने राष्ट्र के ऊपरी वर्ग के स्वार्थ के लिए लड़ते हैं। इसलिए सिंध और बलूचिस्तान के राष्ट्रभक्तों ने ज़बानी जमाखर्च के रूप में पीड़ित वर्गों की प्रतिनिधित्व का दावा किया मगर स्वयं को वर्गीय विरोध से दूर रखा। वामपंथ के साहित्य को अपने पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने वाले भी अपनी पंक्तियों/श्रेणियों से मेहनतकश(श्रमिक) कार्यकर्ताओं और क्रांतिकारी विचार रखने वाले कैडरों को पीछे धकेलते रहे। अब की सूरतेहाल यह है कि सामूहिक रूप में राष्ट्रभक्त मंडलियों ने मिडिल क्लास पर निर्भरता को बढ़ाना शुरू कर दिया है। यह मिडिल क्लास(मध्यम वर्ग) अपने स्वयं के स्वार्थों के लिए चरमपंथ की हार्डलाइन से लेकर सेकुलरिज्म (धर्मनिरपेक्षता) और प्रगतिशिलता की कश्तियों में एक ही समय में सवार है। मध्यम वर्गीय लोगों का इस वर्गीय व्यवस्था में कोई भूमिका नहीं है। वह ना तो मेहनतकश (श्रमिक) वर्गों की तरह समाज का पहिया चलाने वालें हैं और ना ही शासक वर्ग की तरह संसाधनों पर आधिपत्य रखते हैं। मौजूदा व्यवस्था में वह प्रभावी वर्ग का समर्थक रहता है और अपनी जगह को मजबूत करने और मौजूदा स्तिथि को बरकरार रखने का भरसक प्रयास करता है मगर न्यू मार्केट इकॉनमी ने उसको भी निचले वर्ग/स्तर की तरफ पछाड़ने का काम तेज़ कर दिया है। यही वजह इसकी वर्तमान घबराहट और मायूसी की बुनियाद है।
राष्ट्रभक्त धड़ों का नेतृत्व भी बाहर से आये हुए लोगों के पास है जिनका अतीत सिर्फ कुछ सैंकड़ों साल से ज़्यादा नहीं है। यह भी दिलचस्प बात है कि नव-सिंधी राष्ट्रभक्ति के एक बड़े नाम या स्कूल ऑफ थॉट (विचारधारा) के प्रवर्तक सिर्फ दो पीढ़ी पहले ही पंजाब से सिंध आये थे। और वह भी ऐतिहासिक रूप से अरबी वंश से सम्बंधित है। राष्ट्रभक्त धड़ो के पास प्रेसर पॉलिटिक्स या भावनात्मक नारेबाज़ी के सिवा कोई मज़बूत प्रोग्राम नहीं है। और यही कारण है कि आम लोग अपनी जड़ें मजबूत ना कर सकें। राष्ट्रभक्त नेतृत्व स्वयं ऐतिहासिक आधार पर गैरदेशी होने के कारण से वादिये सिंध की सच्चे इसिहास में अपना अस्तित्व नही ढूँढ़ रही, इसलिए उन्होंने अपने इच्छाओं के अनुरूप लिखे हुए इतिहास को परवान चढ़ाया और भावनात्मक नारेबाज़ी और क्षेत्रीय मीडिया पर प्रभावी बहुसंख्यकों के बदौलत सच्चे इतिहास के साथ खिलवाड़ करना शुरू कर दिया है। जातीय और भाषाई नफरत और भेदभाव को उभारने में कुछ लोगो की भूमिका भी ऐसी रही है जिनसे सत्ताधारी वर्ग को ही फायदा पहुंचा और श्रमिक वर्ग की प्राकृतिक एकता को गहरी चोट पहुँची। जातीय और भाषायी भेदभाव अब दम तोड़ते नज़र आ रहे थे. आज के इस नय दौर में इस तरह की संकीर्ण दृष्टि वाली राष्ट्रभक्ति की कोई जगह नहीं है।
राष्ट्रभक्तों ने सिंध में भाषा और जाति के विरोध पर अपनी राजनीति को परवान चढ़ाया है और यह एक ऐसा काम था जैसे कोई भूखा और बेचैन भेड़िया भूख की हालत में अपने अंगों को नोच कर अपनी भूख मिटाये मगर यह कोशिश उसकी जिंदगी ही समाप्त कर सकती है। मूर्ख और संकीर्ण सोच रखने वाले राष्ट्रभक्त धड़ों ने भाषाई और जातीय विरोध को इतनी हवा दी कि आज यही विरोध उनके लिए मौत का परवाना बन चुका है। जहाँ एक तरफ अगर इंडिया, पाकिस्तान और बांग्लादेश के शासक एक राष्ट्र बनाने में असफल हुए हैं वहीं दूसरी तरफ राष्ट्रभक्त भी अपने क्षेत्रों के अभावग्रस्त लोगों को एकजुट करके एक राष्ट्र साबित करने में असफल हुए हैं।
आज हम क्लासिकल पूंजीवाद के दौर में नहीं रहते बल्कि यह दौर कारपोरेट पूंजीवाद का है जिसका साम्राजयवादी स्वरूप इस भूमि पर रहने वाले इंसानों को दिन-ब-दिन निगलती जा रही है। इस दौर में राष्ट्रीयता के आधार पर स्वतंत्र अर्थव्यवस्था की बुनियाद रखना असम्भव होता जा रहा है। पाकिस्तान के श्रमिक वर्गों की मुक्ति सिर्फ और सिर्फ राष्ट्रव्यापी एकता में है जो श्रमिक वर्ग के विश्वव्यापी एकता का हिस्सा हो।
दलित क्या चाहतें हैं?
दलित इस देश का अत्यंत पिछड़ा वर्ग है। सदियों से सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक अत्याचार के शोषण के शिकार दलितों को इस धार्मिक कट्टरपंथी राज्य/स्टेट में दीवार से लगने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हिन्दू जाति के लोग तो इंडिया चले गए मगर दलितों ने अपनी धरती को छोड़ना उचित नही समझा। दलित राष्ट्रभक्त और पाकिस्तानी होने पर गर्व करते हैं।
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गणपत राय भील, अम्बेडकरवादी दलित लेखक हैं जो मिथि, सिंध,पाकिस्तान में रहते हैं. दोलत थारी की तरह आप पाकिस्तान के दलित समाज से आने वाले एक सशक्त लेखक हैं. आप दोनों ने दलितों से सम्बंधित बहुत सी किताबें और लेख प्रकाशित किये हैं. वैसे तो दलित को सिंध के साहित्य और पत्रकारिता में राजनैतिक वर्ग के तौर पर पहचान दिलवाने को श्रेय दोलत थारी को जाता है जिन्होंने 2000 के शुरुवाती वर्षो में मासिक पत्रिका “दलित आवाज़” का प्रकाशन किया, लेकिन ये गणपत राय भील थे, जो पाकिस्तान दलित अदब और शेड्यूल कास्ट फेडरेशन ऑफ पाकिस्तान से जुड़े हैं, जिन्होंने वास्तव में दलित विमर्श को साहित्यिक क्षेत्र एवं स्थानीय दलित समाजसेवियों में स्पष्ट रूप से व्यक्त किया और प्रसिद्धि दिलाई. गणपत साहब ने दलितों के लिए लगातार लिखा है, और सिंधी भाषा के मासिक संकलन “दलित अदब” के प्रकाशन और सम्पादन का का कार्य जारी रखा हैं.
फ़ैयाज़ अहमद फ़ैज़ी लेखक हैं एवं AYUSH मंत्रालय में रिसर्च एसोसिएट के पद पर कार्यरत हैं.