आज ‘बहुजन समाज दिवस’ पर विशेष
सतविंदर मदारा (Satvendar Madara)
साहब कांशी राम का जन्म 15 मार्च 1934 को अपने नैनिहाल पिरथी पुर बुंगा साहिब, जिला रोपड़, पंजाब में हुआ था। उनकी माता का नाम बिशन कौर और पिता का नाम सरदार हरी सिंह था। उनका पैतृक गाँव खुआसपुर, जिला रोपड़ था जो की रोपड़ से 3 किलोमीटर की दुरी पर आनंद पुर साहिब रोड पर स्थित है। B.Sc रोपड़ से करने के बाद नौकरी के लिए पहले वो देहरादून, उत्तराखंड फिर पूना, महाराष्ट्र पहुँचे जहां बतौर वैज्ञानिक नियुक्त हुए। यहीं पर 1964 में बाबासाहब आंबेडकर और महात्मा बुद्ध की छुट्टियों को ब्राह्मणवादी अधिकारीयों द्वारा रद्द किये जाने को लेकर विवाद खड़ा हो गया। दीना भाना नाम के राजस्थान के एक कर्मचारी ने इसके खिलाफ आवाज़ उठाई तो उसे बर्खास्त कर दिया गया। साहिब कांशी राम ने आगे आकर दीना भाना की मदद की और अदालत में मुक़दमा किया। दोनों छुट्टियों को बहाल करवाया और दीना भाना को नौकरी में वापस लिया गया।
इस सारी घटना ने साहब कांशी राम को झकझोड़ कर रख दिया और समाज में अपने आप को ऊँची जाती का समझने वाले लोगों की घटिया मानसिकता से रूबरू करवाया। साहब के साथ महाराष्ट्र के डी.के.खापर्डे भी वैज्ञानिक के तौर पर काम करते थे; उन्होंने बाबासाहब द्वारा लिखी हुई “जाति का विनाश” किताब उन्हें पढ़ने को दी। साहब के अनुसार उसे पढ़ने के बाद वो पूरी रात सो न सके और उसे एक ही रात में कई बार पढ़ा। इससे उन्हें हज़ारों सालों से किस तरह ST, SC, OBC को जाति के कारण अन्याय-अत्याचार सहने पड़े हैं. के बारे में जानकारी मिली। देश में एक मानवतावादी समाज बनाने के लिए जाति एवं जाति व्यवस्था को खत्म करना कितना ज़रूरी है, इस बात का भी उन्हें अहसास हुआ। यहीं से साहब कांशी राम के जीवन ने एक नया मोड़ लिया और उन्होंने अपना पूरा जीवन देश में जाति पर आधारित इस गैर-बराबरी वाली व्यवस्था को खत्म कर, एक जाति-विहीन मानवतावादी व्यवस्था बनाने के लिये समर्पित करने का फैसला किया। उन्होंने अपने परिवार को सारा जीवन अपना घर न बसाने और कोई ज़मीन ज़ायदाद, बैंक बैलेंस न बनाने के अपने फैसले से अवगत करवाया।
बाबासाहब आंबेडकर के 1956 में जाने के बाद उनके द्वारा बनाई गई Republican Party of India उनकी विरासत पर काबिज थी। साहब ने पहले कुछ साल उनके साथ काम किया और बाबासाहब के आंदोलन के बारे में जानने की कोशिश की। लेकिन जल्द ही उन्हें समझ आ गया कि RPI के नेता बाबासाहब के आंदोलन को चलाने से ज़्यादा, अपने निजी स्वार्थों को ही पूरा करने में लगे हुए थे। वो RPI को इस लायक नहीं बना पाये कि उसे राजनीतिक सफलता मिल सके और नतीजा यह हुआ कि जो समाज बाबासाहब के कंधे से कंधा मिलाकर ब्राह्मणवाद से लोहा ले रहा था, उसमें भी निराशा छा गयी और वो इस आंदोलन से दूर होता चला गया। जब साहब कांशी राम ने RPI के नेताओं से बात करनी चाही कि आप इस आंदोलन को क्यों नहीं चला रहे तो उन्होंने जवाब में कहा कि बाबासाहब की विचारधारा तो अच्छी है, लेकिन कामयाब “होउ शकत नाही” (हो नहीं सकती)। उन्होंने सारा भांडा समाज के सर फोड़ दिया। साहब ने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की कि अगर आप पूरी ईमानदारी के साथ काम करें, तो यह आंदोलन आज बाबासाहब के समय से भी ज़्यादा कामयाब हो सकता है क्योंकि अब हमारे समाज की आर्थिक और सामाजिक स्थिति मज़बूत हुई है। लेकिन उनके खुद के अनुसार महाराष्ट्र में चल रही “होउ शकत नाही” लहर काफी मज़बूत हो चुकी थी और आखिरकार उन्होंने भारत में किसी और जगह से इस आंदोलन को दुबारा अपने पैरों पर खड़ा करने पर सोचना शुरू किया।
साहब कांशी राम खुद भी चमार जाति से संबंध रखते थे और पूरे उत्तर भारत में जम्मू-कश्मीर से लेकर झारखण्ड तक इस जाति की बहुत बड़ी आबादी रहती थी। पंजाब और पश्चमी उत्तर प्रदेश के चमार बाबासाहब के आंदोलन से उनके समय में ही जुड़ चुके थे। इन सभी पहलुओं पर विचार करते हुए 1970 के दशक में साहब ने उत्तर भारत का रुख किया। उन्होंने महाराष्ट्र में RPI के असफल होने के कारणों पर बहुत बारीकी से खोजबीन की और बहुत सारे कारण ढूंढे। उनके अनुसार बाबासाहब अम्बेडकर का आंदोलन “Dynamic” यानि समय के साथ बदलने वाला था। बाबासाहब ने पहले Independent Labour Party बनाई, फिर Scheduled Caste Federation और अंत में RPI. इसी तरह उनकी पत्रिकाओं के नाम भी मूकनायक, बहिष्कृत भारत, जनता और प्रबुद्ध भारत रहे, जो समय की ज़रूरतों के हिसाब से बदलते रहे। लेकिन उनके बाद RPI को चलाने वाले नेता इस आंदोलन को “Dynamic” नहीं बना पाये। दूसरा बड़ा कारण उनकी खोज में उभर कर आया कि बाबासाहब के आंदोलन को देश के छह अलग भागों में अनुसूचित जाति के लोग चला रहे थे, लेकिन यह सिर्फ एक ही जाति तक सीमित थे। चुनावों में हार-जीत वोटों के आधार पर होती है, इसलिए सिर्फ एक ही जाति तक सीमित आंदोलन राजनीति में कामयाब नहीं हो सकते। इसके अलावा और भी कई कारण थे, जैसे ईमानदार और सूझवान नेताओं की कमी, गैर राजनीतिक जड़ों का मज़बूत नहीं होना इत्यादि।
इन्हीं सब गलतियों से सबक लेते हुए साहब ने 6 दिसंबर 1978 को BAMCEF(Backward and Minority Community Employee Federation) नाम की संस्था को जन्म दिया। इसका मुख्य मकसद ST, SC, OBC और Minority के सरकारी कर्मचारीयों को एकजुट कर, इनकी गैर राजनीतिक जड़ों को मज़बूत करना था। अपनी जी-तोड़ मेहनत और करिश्माई व्यक्तित्व से जल्द ही साहब ने पुरे उत्तर भारत में इसे एक बहुत ही मज़बूत संगठन के तौर पर उभार दिया। इसके बाद उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि अगर हमें सामाजिक परिवर्तन करना है, तो उसके लिए ताक़त पैदा करनी होगी। इसके लिए संघर्ष करना ज़रूरी था क्योंकि BAMCEF के सदस्य सरकारी कर्मचारी थे, इसलिए वो सरकार के खिलाफ संघर्ष नहीं कर सकते थे। गैर सरकारी कर्मचारियों को संघर्ष में उतारने के लिये उन्होंने 6 दिसंबर 1981 को DS-4 (दलित शोषित समाज संघर्ष समिति) बनाई। इसके बाद से साहब कांशी राम ने एक ऐसा संघर्ष शुरू किया, जिसकी यादें आज भी कई दशकों बाद लोगों के दिलों-दिमाग में ज़िंदा है। क्योंकि बहुजन समाज (ST, SC, OBC और Minority) के लोग आर्थिक तौर पर गरीब थे, उन्होंने साइकिल पर संघर्ष करने का अनूठा प्रोग्राम बनाया। एक ऐसे नेता का नेतृत्व पाकर, जो देश में जातिवादी व्यवस्था को खत्म कर एक मानवतावादी व्यवस्था बनाने के लिए अपना घर-परिवार सब कुछ न्योछावर कर चुका था, पूरा बहुजन समाज साइकिलों पर सवार होकर उनके साथ निकल पड़ा। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और गुजरात से लेकर दूर नागालैंड तक हज़ारों मील का सफर बहुजन समाज के लोगों ने किया। कुछ सालों में ही लगभग ख़त्म हो चुकी फूले-शाहू-अम्बेडकर की विचारधारा, फिर से एक बड़ी लहर का रूप धारण कर गई। नीला झंडा और साहब के दिये हुए जोशीले नारों ने अब तक बहुजन समाज को अपना ग़ुलाम समझ बैठे मनुवादी हुक्मरानों का तख्ता हिला दिया।
1978 से 1984 तक साहब कांशी राम ने रिकॉर्ड तोड़ मेहनत करके हज़ारों मील साइकिल पर यात्राएं, सैकड़ों सभाएं, नुक्कड़ नाटक, धरने प्रदर्शनों से जैसे बहुजन समाज को नींद से जगा डाला। BAMCEF के ज़रिये पहले गैर राजनीतिक जड़ों को मज़बूत करने और फिर DS-4 के ज़रिये बेमिसाल संघर्ष करने के बाद, जब उन्हें लगा की अब यह समाज राजनीति में कदम रखने के लिए तैयार हो चूका है, तो उन्होंने 14 अप्रैल 1984 को बाबासाहब के जन्मदिन पर बहुजन समाज पार्टी की बुनियाद रखी। अपने पहले ही कुछ सालों में इसके नतीजों ने बड़े-बड़े राजनीतिक विशेलषकों को हैरान कर दिया। 1985 को जब पंजाब में विधान सभा चुनाव हुए, तो अब तक सत्ता में बदस्तूर बनी कांग्रेस पार्टी उनकी वजह से धाराशाई हो गई। उनके उम्मीदवार खुद तो नहीं जीत सके, लेकिन उन्होंने कांग्रेस को यह अहसास करवा दिया कि अनुसूचित जातियों के वोट पर एक-छत्र राज करने का उसका ज़माना लद चुका है। जब 1989 में उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव और देश में लोक सभा चुनाव हुए, तो साहब के नेतृत्व में इस काफिले ने चुनावी सफलता हासिल करके राजनीति में धमाकेदार एंट्री की। उत्तर प्रदेश से कई विधायक और दो MP और पंजाब से एक MP जीतकर दिल्ली पहुँचे।
इस तरह साहब कांशी राम ने राजनीति में कदम रखने के कुछ ही सालों में जीत हासिल कर महाराष्ट्र के उन RPI नेताओं, जिन्होंने उन्हें “होउ शकत नाही” कहा था, को गलत साबित कर दिखाया। उन्होंने अपने मशहूर वाक्य कि
को हक़ीक़त में बदल डाला। अब तक कांग्रेस पार्टी पुरे देश में, उसमें भी खासकर उत्तर भारत में शेडयूल्ड कास्ट (खासकर चमार जाति) और मुसलमानों के वोटों पर राज करती आ रही थी। साहब के मैदान में उतरते ही चमार उससे किनारा कर गए और कांग्रेस की उलटी गिनती शुरू हो गयी। पिछड़ी जातियों को उनका आरक्षण दिलाने के लिए आई मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करवाने के लिए भी साहब ने बड़ा आंदोलन छेड़ दिया। पहले ही अनुसूचित जातियों को अपने साथ जोड़ चुके इस करिश्माई नेता से घबराये मनुवादी नेताओं को अब पिछड़ी जातियों के भी उनके पाले में जाने का डर सताने लगा।
पिछड़ों का इससे ध्यान हटाने के लिए, जब 6 दिसंबर 1992 को बाबासाहब के परिनिर्वाण के दिन RSS-BJP ने बाबरी मस्जिद को ढहाया, तो पुरे उत्तर प्रदेश और भारत की राजनीति में उथल-पुथल मच गयी। मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश में समाजवादी आंदोलन के नेता के तौर पर उभर चुके थे, यादवों और मुसलमानों का भारी समर्थन उन्हें प्राप्त था। लेकिन ब्राह्मण-बनिया-ठाकुर और काफी पिछड़ी जातियों को अपनी तरफ खींचने में कामयाब हो चुकी RSS BJP को रोकने के लिए, उन्होंने साहब कांशी राम से मदद मांगी। इस तरह साहब कांशी राम उत्तर प्रदेश और पुरे भारत की राजनीति का केंद्र बन गए। उन्होंने मुलायम सिंह यादव के साथ न सिर्फ चुनावी गठजोड़ किया बल्कि 1993 के चुनावों में “मिले मुलायम कांशी राम, हवा हो गए जय श्री राम” के ऐतिहासिक नारे से RSS को चारों खाने चित्त कर दिया। इस तरह 1984 से शुरू करके 1993 तक सिर्फ 9 सालों में वो राजनीतिक शीर्ष पर पहुँच गए और साइकिल पर चला बहुजन समाज का काफिला सत्ता तक जा पहुँचा।
राजनीति के धुरंधरों ने भी इस बात को माना कि अब उत्तर प्रदेश में सत्ता में कौन आएगा और कौन जायेगा, इसका फैसला कांशी राम के ही हाथों में है। 1995 में उन्होंने मायावती को मुख्यमंत्री बनाकर पहली बार देश में फूले-शाहू-अम्बेडकर के विचारों पर चलने वाली सरकार बनाई और महाराष्ट्र के RPI नेताओं की “होउ शकत नाही” की लहर के जवाब में “होउ शकत है” की लहर खड़ी कर दी। अगले साल 1996 में लोक सभा चुनाव हुए तो साहब ने इसे BSP को राष्ट्रिय पार्टी के तौर पर मान्यता दिलाने के इरादे से लड़ा और इसमें भी कामयाब होते हुए जम्मू-कश्मीर, पंजाब, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में मान्यता प्राप्त कर, BSP को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा दिलाया। ग्यारह MP चुनकर दिल्ली पहुँचे, तीन पंजाब से, जिसमें साहब खुद होशियारपुर से; छह उत्तर प्रदेश से और दो मध्य प्रदेश से।
साहब की रणनीति थी कि जब तक हम खुद बहुमत की सरकार नहीं बनाते हैं तब तक हम किसी और को भी बहुमत की सरकार नहीं बनाने देंगे। इसके लिए पहले उन्होंने उत्तर प्रदेश में राजनीतिक अस्थिरता पैदा की और अब तक एक-छत्र राज करती आ रही कांग्रेस को सत्ता से बाहर किया और ऐसे हालत पैदा किये की उनकी मर्जी के बगैर कोई भी सरकार न बना सके। इसके बाद उन्होंने पुरे देश की राजनीति को भी हिला दिया और किसी भी पार्टी की बहुमत वाली केंद्रीय सरकारों का ज़माना लद गया। उन्होंने साफ कहा कि जब तक बहुजन समाज खुद मज़बूत सरकार बनाने की स्थिति में नहीं आता, तब तक हम मनुवादी पार्टियों की मज़बूर सरकारें ही बनने देंगे। 1996 के बाद 1998 और फिर 1999 में लोक सभा चुनाव हुए और देश में उनके कारण राजनीतिक अस्थिरता बनी रही। 1996 में बसपा को राष्ट्रिय पार्टी की मान्यता दिलवाने के बाद 1999 तक वो इसे देश की तीसरी सबसे बड़ी राष्ट्रिय पार्टी बनाने में भी कामयाब हुए।
हालांकि 1999 में भाजपा सरकार बनाने में कामयाब हुई, लेकिन उसे इसके लिए ढेरों पार्टियों का सहारा लेना पड़ा। साहब ने 2004 में होने वाले चुनावों लोक सभा को निशाना मानकर मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और दक्षिण भारत का रुख किया ताकि उत्तर भारत के साथ दक्षिण भारत को भी मज़बूत कर बड़ा राजनीतिक फेर बदल किया जा सके। जिस तरह उत्तर प्रदेश में सत्ता की चाबी 1993 से उनके हाथों में आ चुकी थी, अब 2004 में देश की सत्ता को भी वो बहुजन समाज के हाथों सौपने वाले थे। लेकिन बदकिस्मती से सितम्बर 2003 को रेल से हैदराबाद जाते समय, उन्हें दिमाग का दौरा पड़ा और उसके बाद वो बीमार ही रहे। 9 अक्टूबर 2006 को फूले-शाहू-अम्बेडकर के आंदोलन को पुरे देश में फ़ैलाने वाला यह शख्स शारीरिक तौर पर हम सबको अलविदा कह गया।
उनके जाने से हज़ारों सालों से भारत में चली आ रही ब्राह्मणवादी व्यवस्था को बदल कर बहुजन समाज सत्ता में पहुँचने के काफी करीब तक पहुँच गया, लेकिन ऐन वक़्त पर उनके बीमार पड़ जाने की वजह से उसे हासिल नहीं कर पाया। उल्टा उसके बाद से भारत में ब्राह्मणवादी ताक़तें लगातार मज़बूत होती चली गयी और आज बाबासाहब का मानवतावादी संविधान; जिसे उन्होंने इतनी मेहनत से बनाया और पुरे बहुजन समाज को उनके अधिकार दिए, खतरे में है। आज साहब कांशी राम के जीवन संघर्ष से प्रेरणा लेने की ज़रूरत है ताकि हम यह समझ सके कि जिस आंदोलन को उन्होंने फर्श से अर्श तक पहुँचाया, वो फिर से उन्ही बुंलदियों को कैसे छू सके और फूले-शाहू-अम्बेडकर की विचारधारा का फिर से देश में बोलबाला हो।
साहब कांशी राम के 84वें जन्मोत्सव, जिसे हर साल बहुजन समाज दिवस के रूप में मनाया जाता है, पर देश और विदेशों में रहते बहुजन समाज को बहुत-बहुत बधाई।
जय भीम, जय कांशी राम, जय भारत
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सतविंदर मदारा पेशे से एक हॉस्पिटैलिटी प्रोफेशनल हैं। वह साहेब कांशी राम के भाषणों को ऑनलाइन एक जगह संग्रहित करने का ज़रूरी काम कर रहे हैं एवं बहुजन आंदोलन में विशेष रुचि रखते हैं।
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[…] यह साल, उनके द्वारा शुरू किए गए बहुजन आंदोलन के लिए एक बहुत ही अहम साल […]