लेनिन मौदूदी (Lenin Maududi)
“पहले लोगों ने भीख मांगना शुरू किया, इसके बाद कौन भिक्षा देता है? उपवास शुरू हो गया। फिर जनता रोगाक्रांत होने लगी। गो, बैल, हल बेचे गए, बीज के लिए संचित अन्न खा गए, घर-बार बेचा, खेती-बाड़ी बेची। इसके बाद लोगों ने लड़कियां बेचना शुरू किया, फिर लड़के बेचे जाने लगे, इसके बाद गृहलक्षि्मयों का विक्रय प्रारंभ हुआ। लेकिन इसके बाद, लड़की, लड़के औरतें कौन खरीदता? बेचना सब चाहते थे लेकिन खरीददार कोई नहीं। खाद्य के अभाव में लोग पेड़ों के पत्ते खाने लगे, घास खाना शुरू किया, नरम टहनियां खाने लगे। छोटी जाति की जनता और जंगली लोग कुत्ते, बिल्ली, चूहे खाने लगे। बहुतेरे लोग भागे, वो लोग विदेश में जाकर अनाहार से मरे। जो नही भागे, वे अखाद्य खाकर, उपवास और रोग से जर्जर हो मरने लगे.”
अकाल का यह भयावह दृष्य बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय के मशहूर उपन्यास “आनंदमठ” का है. एक बहुचर्चित एंव विवादित उपन्यास जिसे बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय ने 1882 में लिखा. इसकी पृष्ठभूमि में ब्राह्मणों का ब्रिटिश ऑफिसर रोबर्ट क्लाईव के साथ मिलकर बंगाल के राजा सिराज उद दौला को हरा कर (1757) बंगाल पर कब्ज़ा करके एक ब्राह्मण नेरेटिव को स्थापित करना है, भले ही इसका ज़िक्र इस उपन्यास में कहीं नहीं है. इस उपन्यास में सन्यासियों द्वारा मुस्लिमों को हारने की बात है जबकि इतिहास के किसी भी दौर में ऐसा हुआ नहीं. लेकिन झूठ के आसरे एक गुमान वह अपने लोगों को देना चाहते थे कि हमने भी युद्ध किया है और जीते हैं. बंकिम चन्द्र अपने ब्राह्मण समाज में नीचे तक धंसी, शारीरिक बल में, ना लड़ पाने की हीनभावना से ‘आनंदमठ’ के ज़रिये डील करना चाहते थे. वह उसमे कामयाब भी हुए. ब्राह्मणों की नए तरह की राजनीति का यह एक महत्वपूर्ण राजनीतिक दस्तावेज़ है जिससे वह आज भी ताक़त हासिल करते हैं. 1952 में इस उपन्यास पर हिंदी फिल्म बन चुकी है जो कि ज़ाहिर तौर पर एक राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से बना चलचित्र है. पसमांदा पहलु इसमें यह है कि आनंदमठ में जिन मुस्लिमों का ज़िक्र है या जिसपर वह सन्यासी कहर बरपा करते हैं वह कामकाजी समाज है. जबकि दूसरी ओर वह ऊंची जाति मुस्लिमों से बदले हालात में हाथ मिलाने में भी संकोच नहीं करता. इसके पीछे जातियों के वर्चस्व की दूरदर्शी राजनीति हिन्दू मुस्लिम सवर्णों को रास आ रही थी. बहरहाल!
“आनंदमठ” की कहानी महेंद्र और कल्याणी से शुरू होती है जो अकाल के कारण गाँव छोड़ने का निश्चय करते हैं. महेन्द्र और कल्याणी अपने अबोध शिशु को लेकर गाँव से दूर जाना चाहते हैं. रास्ते में डकैत कल्याणी को पकड़ लेते हैं पर वह जान बचाती दूर जंगल में भटक जाती है. महेन्द्र को सिपाही पकड़ लेते हैं जहाँ हाथापाई होती है और भावानन्द नामक सन्यासी उसकी रक्षा करता है. भावानन्द आत्मरक्षा में अंग्रेज साहब को मार देता है. लूट का सामान व्यवस्था में लगाता है. वहाँ दूसरा संन्यासी जीवानन्द पहुँचता है. यह दोनों सन्यासी प्रधान सन्यासी सत्यानन्द के शिष्य हैं जिन्हें महत्मा/महापुरुष भी कहा जाता है जो आनन्दमठ में रहकर देश सेवा के लिए कर्म करते हैं. महेन्द्र समझ नहीं पाता कि सन्यासी डकैतों की तरह भी हो सकते हैं. फिर धीरे धीरे उसे इस बात का अहसास होता है कि यह एक संगठित विद्रोह है और वह भी इस विद्रोह का हिस्सा बन जाता है. इसी क्रम में उसे सन्यासियों के गीत ‘वन्देमातरम’ के बारे में जानकारी प्राप्त होती है. शुरुआत में महेंद्र समझ नहीं पाता कि वन्देमातरम गीत किसकी वंदना के लिए गाया जाता है! महेंद्र पूछता है’
महेंद्र: कौन हैं वह जिसकी तुम वंदना करते हो?
ब्रह्मचारी: माँ!
महेंद्र: यह माँ कौन है?
ब्रह्मचारी: हम जिनकी संतान हैं।
महेंद्र: कौन है वह?
ब्रह्मचारी: समय पर पहचान जाओगे। बोलो, वंदे मातरम्! अब चलो, आगे चलो!
चूँकि भारत एक धार्मिक देश है और हिन्दू धर्म की कमान ब्राह्मणों के हाथ में है इसीलिए ब्राह्मणों ने ही देश को ऐसे पेश किया जैसे हिन्दू देवियों को पेश किया जाता था. यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि उस वक़्त तक भारत को माँ के रूप में स्थापित नहीं किया गया था क्योंकि भारत माता की सबसे पहली पेंटिंग अब्निन्द्रनाथ टैगोर ने 1905 में बनाई थी. धीरे-धीरे भारत को माँ के रूप में स्थापित कर दिया गया. आनंदमठ में सन्यासी जिस ‘भारत माँ’ के लिए लड़ रहे हैं उसे अंग्रेजों ने नहीं बल्कि मुस्लिम शासकों ने कैद कर रखा है. जैसा कि इतिहासकार तनिका सरकार का कहना है, “बंकिम चंद्र चटर्जी इस बात को मानते थे कि भारत में अंग्रेज़ों के आने से पहले बंगाल की दुर्दशा मुस्लिम राजाओं के कारण थी.”
आनंदमठ की कहानी 1772 में पूर्णिया, दानापुर और तिरहुत में अँग्रेज़ और स्थानीय मुस्लिम राजा के ख़िलाफ़ सन्यासियों के विद्रोह की घटना से प्रेरित है. आनंदमठ का सार यह है कि किस प्रकार से हिंदू सन्यासियों ने मुसलमान शासकों को हराया. परन्तु बंकिम चन्द्र मुस्लिम राजा और मुस्लिम प्रजा में अंतर नहीं करते जबकि ये सर्वविदित है कि मुसलमानों की (पिछड़ी) पसमांदा जातियाँ वैसे ही बेहाल थी जैसे हिन्दू की दलित जातियाँ थी. क्या इस्लामी मसावात (बराबरी) स्वघोषित मुस्लिम शासन व्यवस्था में कभी दिखी? क्या किसी मुस्लिम शासक ने जाति व्यवस्था को ख़त्म करने का प्रयास किया? भारत रत्न बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर लिखते हैं कि “इतिहास गवाह रहा है कि मुस्लिम शासकों ने इंसानियत का खून करने वाली ब्राह्मणवादी व्यवस्था को तथा ब्राह्मणों की लूट-खसोट को कायम रखा. यहाँ तक कि मुस्लिम शासन व्यवस्था में ब्राह्मणों को इज़्ज़त, पद और वरीयता दी गयी. (Dr. B.R. Ambedkar, Vol , 3 P, 236-237).
इस देश में कभी पसमांदा का न कोई राज्य रहा है न राजा. बहुजन हमेशा से ही बेहाल रहे हैं. अकाल से मरने वाले हमेशा ही बहुजन होते हैं. अगर कोई आपदा सवर्ण-अशराफ़ों तक पहुँच जाती है तो वह राष्ट्रीय शोक का विषय बन जाती है. मुस्लिमों में अगर जनसंख्या के हिसाब से देखें तो पिछड़े (अजलाफ़) और दलित (अरज़ाल) मुसलमान भारतीय मुसलमानों की कुल आबादी का कम-से-कम 85 प्रतिशत होते हैं अर्थात सिर्फ 15% सवर्ण मुस्लिमों ने भारत पर हुकूमत की है. अगर इन सवर्ण मुस्लिम राजाओं ने पसमांदा मुसलमानों के लिए कुछ किया होता तो आज पसमांदा समाज की हालत इतनी बदतर न होती. कहने का मतलब ये कि भारत के हुक्मरान हमेशा सवर्ण ही रहे चाहे हिन्दू सवर्ण हों या मुस्लिम. लेकिन इन शासकों ने अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए धर्म का लिबादा ओढ़ लिया. अशराफ़ों की हुकूमत को ‘मुस्लिम हुकूमत’ के रूप में प्रचारित किया गया और ‘सवर्णों’ की हुकूमत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ के रूप में प्रचारित किया गया. दोनों ओर के सवर्ण-अशराफ़ बुद्धिजीवीयों ने आपसी सहमति से इस बात को प्रचारित किया.
आनंदमठ के अंत में जब सन्यासी मुस्लिम राजा को हरा देते हैं तो बंकिम चन्द्र लिखते हैं “संतानों के दल-के-दल उस रात यत्र-तत्र ‘वंदेमातरम’ और ‘जय जगदीश हरे’ के गीत गाते हुए घूमते रहे। कोई शत्रु-सेना का शस्त्र तो कोई वस्त्र लूटने लगा। कोई मृत देह के मुंह पर पदाघात करने लगा, तो कोई दूसरी तरह का उपद्रव करने लगा. कोई गाँव की तरफ़ तो कोई नगर की ओर पहुँच कर राहगीरों और गृहस्थों को पकड़कर कहने लगा- वंदेमातरम कहो नहीं तो मार डालूंगा!” क्या आप को आज के ब्राह्मणवादी संगठन का नारा याद है? “हिंदुस्तान में रहना होगा तो वन्देमातरम कहना होगा!” यह वही कड़ी है जिसे चटोपाध्याय साहब लिख रहे हैं. बंकिम चंद्र आगे लिखते हैं, “उस रात में गाँव-गाँव में, नगर-नगर में महाकोलाहल मच गया. सभी चिल्ला रहे थे- मुसलमान हार गये; देश हम लोगों का हो गया. भाइयों! हरि-हरि कहो!” गाँव में मुसलमान दिखाई पड़ते ही लोग खदेड़कर मारते थे. बहुतेरे लोग दलबद्ध होकर मुसलमानों की बस्ती में पहुँच कर घरों में आग लगाने और माल लूटने लगे. बहुतेरे लोग दलबद्ध होकर मुसलमानों की बस्ती में पहुँच कर घरों में आग लगाने और माल लूटने लगे. अनेक मुसलमान दाढ़ी मुंढ़वाकर, देह में भस्मी रमाकर राम-राम जपने लगे. पूछने पर कहते- हम हिंदू हैं.”
नहीं नहीं ये 1947 के दंगो की बात नहीं हो रही. यह आनंद मठ में सन्यासियों के विजय की बात हो रही है. अशराफ़वादी संगठन ‘मुस्लिम लीग’ का लीडर जिन्ना कहता था कि हिन्दू और मुस्लिम दो क़ौमें हैं जो एक साथ नहीं रह सकतीं! एक की हार दूसरे की जीत है. बंकिम चंद्र की यह लाइन भी उसी सवर्ण मानसिकता को दर्शाती है. जिन्ना इस्लाम के नाम पर मुस्लिमों को एक होने और अलग राज्य की माँग कर रहे हैं तो बंकिम चन्द्र की यह लाइन पढ़ कर लगता है कि वह हिंदूवादी संगठनों की मंशा को साकार कर रहे हैं. परन्तु बंकिम चंद्र का महान ह्रदय हत्याओं से विचलित हो जाता है और वह लिखते हैं-
महात्मा: तुम्हारा कार्य सिद्ध हो गया! मुस्लिम राज्य ध्वंस हो चुका. अब तुम्हारी यहाँ कोई ज़रुरत नहीं, अनर्थ प्राण हत्या की आवशयकता नहीं.
सत्यानंद: मुस्लिम राज्य ध्वंस ज़रूर हुआ है पर अभी हिन्दू राज स्थापित नहीं हुआ है.
महात्मा: अभी हिन्दू राज्य स्थापित न होगा, अतएव चलो.
यह सुनकर सत्यानंद तीव्र मर्म-पीड़ा से कातर हुए बोले, प्रभो! यदि हिंदू-राज्य स्थापित न होगा, तो कौन राज्य होगा? क्या फिर मुसलिम-राज्य होगा?
महात्मा: नहीं,अब अंग्रेज़-राज्य होगा.
सत्यानंद : हाय माता! तुम्हारा उद्धार न कर सका। तू फिर म्लेच्छों के हाथ में पड़ेगी। संतानों के अपराध को क्षमा कर दो माँ!
महात्मा: अंग्रेज़ों के बिना राजा हुए सनातन धर्म का उद्धार नहीं हो सकेगा. अंग्रेज़ लोक ज्ञान में प्रकांड पंडित हैं, लोक शिक्षा में बड़े पटु हैं. अत: अंग्रेज़ों के राजा होने से, अंग्रेज़ी शिक्षा से स्वत: वह ज्ञान उत्पन्न होगा. जब तक हिन्दू उस ज्ञान से ज्ञानवान , गुणवान, और बलवान न होंगे अंग्रेज़ी राज्य रहेगा. अंग्रेज़ी राज्य में प्रजा सुखी होगी, निष्कंटक धर्माचरण होंगे. अंग्रेज़ों से बिना युद्ध किये ही नि:शास्त्र होकर मेरे साथ चलो।”
सत्यानंद: महात्मन्! यदि ऐसा ही था, अंग्रेज़ों को ही राजा बनाना था, तो हम लोगों को इस कार्य में प्रवृत्त करने की क्या आवश्यकता थी?
महात्मा: अंग्रेज़ उस समय बनिया थे, अर्थ संग्रह में ही उनका ध्यान था. अब संतानों के कारण ही वह राज्य-शासन हाथ में लेंगे, क्योंकि बिना राजत्व के अर्थ-संग्रह नहीं हो सकता। अंग्रेज़ राजदण्ड लें, इसलिए संतानों का विद्रोह हुआ है. अब आओ, स्वयं ज्ञानलाभ कर दिव्य चक्षुओं से सब देखो, समझो!
यहाँ अंग्रेज़ बनिए से मुराद “ईस्ट इण्डिया कंपनी” से है और जैसा कि हमे पता है कि 1857 के बाद भारत में ब्रिटिश क्राउन की हुकूमत हो जाती है. जिनसे लड़ने से आनंदमठ के महात्मा सत्यानन्द को मना करते हैं. अब देखिये लड़ने से मना करने का लाभ ये हुआ कि 1857 के विद्रोह के बाद जब कम्पनी शासन समाप्त हुआ तो इंग्लैंड की रानी द्वारा 1858 में बंकिम चंद्र चटर्जी डिप्टी कलेक्टर के पद पर नियुक्त हो गए और जब वह रिटायर हुए तो उन्हें “राय बहादुर” की उपाधि दी गई. ये महज़ इतेफाक नहीं है कि अशराफ़वादी संगठन “मुस्लिम लीग” और ब्राह्मणवादी संगठन ‘हिन्दू महासभा’, RSS (हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिक संगठन) ने कभी अंग्रेजों के खिलाफ़ विद्रोह नहीं किया. हमेशा अंग्रेजों के चहेते बने रहे. ये संगठन आपस में इसलिए लड़ते थे कि इनको लगता था कि इनकी सत्ता दूसरे धर्म के सवर्णों की वजह से कमज़ोर हो जाएगी. सत्ता की इसी भूख ने अंततः भारत विभाजन करा दिया. जिसमें लाखों पसमांदा मुसलमनो और बहुसंख्यक (पिछड़े) हिन्दओं की बली चढ़ गई. आज भी सवर्ण राजनीति सत्ता के लिए पसमांदा-बहुसंख्यक को आपस में लड़ाती है.
अब ज़रूरत इस बात कि है कि सारे धर्मों की कमज़ोर जातियों की एकता को कायम किया जाए. यही एकता, साम्प्रदायिकता और साम्प्रदायिक विमर्श को कमज़ोर बनाएगी. इतना ही नहीं यह सेक्युलरिज्म की नयी व्याख्या भी करेगा. अभी तक का सेक्युलरिज्म हिंदू-मुसलमान की एकता (धार्मिक एकता) की बात कहता रहा है किन्तु इससे भारत की साम्प्रदायिक समस्या का समाधान आजतक नहीं हो पाया है. सेक्युलरिज्म की नयी व्याख्या जाति/वर्ग की एकता पर आधारित होगी जहाँ धार्मिक अल्पसंख्यकवाद का कोई स्थान नहीं बचेगा. एक ओर हिंदू-मुस्लिम दलित-पिछड़ों तो दूसरी ओर हिंदू-मुस्लिम अगड़ों की सियासी एकता–भारत में एक नई राजनीति का आग़ाज़ करेगी.
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