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जज़्बाती सवालों से हटकर… शिक्षा, रोज़ी-रोटी और सत्ता में हिस्सेदारी की बात

फ़ैयाज़ अहमद फ़ैज़ी (Faiyaz Ahmad Fyzie)

Faiyaz Ahmad Fyzie Newपसमांदा फारसी का शब्द है जो आगे चलकर उर्दू भाषा का हिस्सा बना. इसका अर्थ है- जो पीछे रह गया है.

पसमांदा शब्द मुस्लिम धर्मावलंबी आदिवासी, दलित और पिछड़े के लिए बोला जाता है. पसमांदा अन्दोलन का इतिहास बाबा कबीर से शुरू होता है. बाबा कबीर वह पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने इस्लाम/मुसलमानों में व्याप्त जातिवाद, ऊँच-नीच पर मुखरता से आवाज़ उठाई व् प्रहार किया, और निडरता से अशराफ उलेमा की आलोचना की. इस प्रकार वो सिर्फ इस्लाम/मुसलमान समाज के ही नहीं वरन पूरे भारतीय समाज के लिए जाति उन्मूलन के योद्धा बनकर उभरते हैं.

लेकिन जातिये वर्चस्व वालों के लिए खतरा बने बाबा कबीर की आवाज़ और आंदोलन को कुंद करने के लिए उनकी धार्मिक हैसियत को खत्म करने की सोची. अशराफ उलेमा ने उनको कुफ्र का फतवा दिया और फिर कहा कि वो तो मुसलमान ही नहीं. ऐसा करके अशराफ उन्हें मुस्लिम समाज के घेरे से बाहर करने की कोशिश करता रहा ताकि मुसलमानों पर उनकी बात का असर ना हो और मुस्लिम समाज में जाति व्यवस्था जस की तस बनी रहे और अशराफ के वर्चस्व पर कोई आँच ना आये.

वहीँ दूसरी ओर उनको ब्राह्मण स्त्री की कोख से पैदा हुआ बताकर उनके मानने वालों के मन मस्तिष्क में यह बात बैठाने की कोशिश की गई कि वंचित तबकों के लिए केवल ब्राह्मण ही माननीय हो सकता है. इस प्रकार जातीय अस्मिता को बचाये रखने का खेल खेला गया. आगे चलकर बाबा कबीर की लोगों को चेतनशील बनाती शायरी/दोहों में ब्राह्मणों ने बहुत घुसपैठ की. इस साजिश का असर यह हुआ कि आज बाबा कबीर एक शालीन और शांत संत या महात्मा के रूप में आमजन के ज़ेहन का हिस्सा हैं, जो कि किसी के लिए शायद हानिकारक नहीं थे. जबकि उनके दोहे जालिमों की आँख में आँख डाल के भी बात करते थे. ‘साधो ये मुर्दों का गाँव’ कहकर झंझोड़ने वाले बाबा कबीर, दरअसल, अशराफ और ब्राह्मण, दोनों के लिए बड़ी चुनौती थे व् उनके अशराफवाद व् ब्राह्मणवाद के लिए हानिकारक थे.

Sant Kabir

बाबा कबीर

बहुत सालों बाद बाबा कबीर की परंपरा को आगे बढ़ते हुए मौलाना अली हुसैन आसिम बिहारी(1890-1953) ने बाजाब्ता सांगठनिक रूप में एक अंतरराष्ट्रीय संगठन(जमीयतुल मोमिनीन/ मोमिन कांफ्रेंस) तैयार किया जो भारत के अलावा नेपाल, श्रीलंका और वर्मा तक फैला हुआ था. आसिम बिहारी ने व्यवहारिक रूप से सभी पसमांदा जातियों की एकता पर महती कार्य अंजाम देते हुए उस समय के सभी छोटे-बड़े पसमांदा जातियों के संगठनों के अस्तित्व को वैधता देते हुए ‘बोर्ड ऑफ मुस्लिम वोकेशनल एंड इंडस्ट्री क्लासेज’ की स्थापना कर उनको एक आंदोलन का रूप दिया.

आसिम बिहारी भारत के वो पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने प्रौढ़ शिक्षा को बाकायदा एक पंचवर्षीय योजना बना कर किर्यान्वित किया. पसमांदा मुस्लिम महिलाओं के लिए स्कूल खुलवाए, जातिवाद पर व्यक्तिगत और सांगठनिक रूप में चोट की, देश की आज़ादी में महती भूमिका निभाई और भारत विभाजन की सबसे पुरजोर विरोधी रहे. अशराफ उलेमा द्वारा आसिम बिहारी के आंदोलन को कमज़ोर करने के लिए इस्लामी मसलक/ फिर्के का खेल खेला गया और इस्लाम की कई एक व्याख्या करते हुए देवबन्दी, बरेलवी, अहले हदीस आदि नामों से फिर्के और मसलक बनाये गए जिसका नेतृत्व अशराफ उलेमा ने अपने पास रखा. पसमांदा की एकता धार्मिक सम्प्रदायों के नाम पर छिन्न-भिन्न होनी शुरू हो गई. 

Maulana Ali Hussain Asim Ansari ji

मौलाना अली हुसैन “आसीम बिहारी”

लेकिन आसिम बिहारी ने अपने कुशल नेतृत्व से इसको संभाले रखा और कौन मसलक/फ़िरक़ा सच्चा इस्लाम है? इस बहस में नहीं पड़ते हुए पसमांदा को फिर्के/ मसलक से ऊपर उठ कर समाज के लिए काम करने पर आमादा करने में सफल रहें. आसिम बिहारी शुरू में संगठन को मुख्य धारा की राजनीति में प्रत्यक्ष हिस्सा लेने से दूर रखना चाहते थे और संगठन को सामाजिक संगठन ही बनाये रखना चाहते थे ताकि समाज में जागरूकता का कार्यक्रम बिना किसी ख़ास अड़चन के सुचारू रूप से चलता रहे. लेकिन कुछ परिस्थितियों की विवशता के कारण देश की स्वतन्त्रा के पहले होने वाले दोनों चुनावो में हिस्सा लिया और अप्रत्याशित सफलता भी प्राप्त की. फिर भी वह संगठन के सामाजिक रूप को ही वरीयता देते रहे.

परन्तु आसिम बिहारी की मृत्यु के बाद उनके संगठन जमीयतुल मोमिनीन(मोमिन कांफ्रेंस) के अन्य नेताओं में वो एक ज़रूरी दूर दृष्टि नहीं थी. उन्होंने सत्ता में भागेदारी को ही प्रमुखता दी जिसकी वजह से संगठन के सामाजिक ढांचे को काफी चोट पहुंची. संगठन से जुड़े लोग तो सत्ताधारी कांग्रेस से गठबंधन बनाकर सत्ता में हिस्सेदार हो गए और प्रथम पसमांदा अन्दोलन का सामाजिक आधार सिकुड़ता चला गया. यूं एक शानदार, ज़ीशान अंतरराष्ट्रीय स्तर का पसमांदा आंदोलन अंसारियों(जुलाहा जाति) का कमज़ोर राजनैतिक आन्दोलन बनकर दिल्ली और बिहार के एक कमरे तक सिमट गया. आज भी मोमिन कॉन्फ्रेंस नाम से अनेकों संगठन आप को मिल जाएंगे.

इस प्रकार जिस पसमांदा आंदोलन को आसिम बिहारी ने अपने रक्त से सींचा व् अनेकों दुश्वारियों सहते पालापोसा था, वह आन्दोलन कुछ लोगों की गलत नीतियों और स्वार्थ का शिकार हुआ. पसमांदा समाज और उसके नेताओं का बड़ा हिस्सा अशराफ नेताओं के बहकावे में आ गया. अशराफ ने उनकी अपनी बिरादरी का हित साधती कहानियाँ गढ़ीं एंव स्थापित कीं. जैसे कि- मसलक/फ़िरक़ा का विभेद, ‘धर्म और धार्मिक एकता’ की धोखे की नीति, और जाति-विशेष(अंसारी) के कुछ नेताओं को महान नेता बताकर बरगलाना और पूरे मुस्लिम समाज का नेता होने का झांसा देना’ ये सब कुछ कारण बने जिससे पसमांदा आन्दोलन अपनी असली रंगत में आने से पहले ही वीरगति को प्राप्त हो गया.

जब प्रथम पसमांदा आंदोलन जमीयतुल मोमिनीन (मोमिन कॉन्फ्रेंस) अपने मरणासन्न स्तिथि में था ठीक उसी समय महाराष्ट्र से पसमांदा अन्दोलन को एक नया नेतृत्व शब्बीर अन्सारी के रूप में मिलता है जो महाराष्ट्रराज्य मुस्लिम ओबीसी आर्गेनाइजेशन(बाद में आल इंडिया मुस्लिम ओबीसी आर्गेनाइजेशन) नामक संगठन बनाकर पसमांदा समाज के उम्मीद को आगे बढ़ाते हुए मण्डल कमीशन को लागू करवाने की मुहिम में पसमांदा का प्रतिनिधित्व बनकर उभरता है. आप ने कांशीराम के साथ भी कई बार मंच साझा किया. मण्डल कमीशन लागू होने के बाद भी महाराष्ट्र में ओबीसी की लिस्ट में अधिकतर पसमांदा जातियों को शामिल नही किया गया था, अन्सारी साहब ने इसके लिए जीतोड़ मेहनत की और पूरे देश में जगह-जगह सम्मेलन, धरना प्रदर्शन आयोजित किये. इस कार्य मे उनके दो बड़े सहयोगी रहे, एक- विलास सोनवाने और दूजे- फ़िल्म स्टार दिलीप कुमार, आखिरकार कामयाबी मिली और महाराष्ट्र सरकार ने पसमांदा की लगभग सभी जातियों को ओबीसी के लिस्ट में शामिल कर लिया.

इसी दौरान देश में कांशीराम के नेतृत्व में बहुजन आंदोलन ज़ोर पकड़ रहा था. कांशीराम ने इस्लाम/मुस्लिम समाज में जातिवाद को स्वीकार करते हुए पसमांदा विमर्श को  ना सिर्फ प्रमाणिकता प्रदान की बल्कि राजनीतिक सफलता मिलने पर सरकार में एक पसमांदा “इश्तियाक अंसारी” को मंत्रिपद देते हुए बहुजन आंदोलन में पसमांदा की भागीदारी सुनिश्चित करते हुए एक इतिहासिक उदाहरण प्रस्तुत किया. जल्दी ही वह समझ गए थे कि अशराफ और ब्राह्मण में कोई ख़ास फर्क नहीं है. दोनों की रूचि और प्राथमिकता वंचित समाज को वंचित बनाये रखने में है. आखिर में उन्होंने पसमांदा समाज को ही बहुजन समाज के दृष्टिकोण से तैयार करने की सोची.

इसके बाद पिछली सदी के आखिरी दहाई में पसमांदा की एक अन्य जाति राईन(कुंजड़ा/ कबाड़ी) से पसमांदा आंदोलन का नेतृत्व डॉ० एजाज़ अली(सर्जन) के रूप में उभरा, जिन्होंने बैकवर्ड मुस्लिम मोर्चा (बाद में यूनाइटेड मुस्लिम मोर्चा) की स्थापना की. इसने बिहार सहित देश के अन्य भाग को ठीक ठाक प्रभावित किया. प्रथम पसमांदा आंदोलन से मायूस हो चुके पसमांदा समाज में एक नई स्फूर्ति और चेतना का संचार हुआ. इसी क्रम में पत्रकार अली अनवर की किताब ‘मसावात की जंग’ प्रकाशित हुई जो आसिम बिहारी के दिवारी मोमिन, अल इकराम, अलमोमिन, मोमिन गैज़ेट के बाद एक मज़बूत दस्तावेज साबित होती है. 

Masawat Ki Jung

किताब: मसावात की जंग 

अली अनवर ‘पसमांदा आवाज़’ नामक पत्रिका का भी भी बहुत समय तक लगातार प्रकाशन करते रहे। उसी समय पसमांदा आंदोलन से जुड़े लोगों ने अली अनवर के नेतृत्व में पसमांदा शब्द का प्रतिपादन करते हुए पसमांदा मुस्लिम महाज़ की स्थापना की जो बाद में चल कर आल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ कहलाया। डॉ० एजाज़ अली और अली अनवर के पार्टी विशेष के सहयोग से संसद में पहुंचने के बाद पसमांदा आंदोलन की लौ कुछ मद्धिम ज़रूर हुई.

सन् 2007 में मौलाना मसूद आलम फलाही द्वारा लिखित किताब ‘हिंदुस्तान में जात-पात और मुसलमान’ आयी जिसने पहली बार इस्लाम में छाये जातिवाद की धार्मिक पृष्टभूमि को पूरी तरह बेनकाब कर दिया. हालांकि किताब उर्दू में थी फिर भी बड़ी तेजी से पसमांदा के बीच लोकप्रिय हुई और पहली बार जातिवाद के इस्लामी आधार पर सवाल उठाने के लिए लोगों को ज़ुबान मिली. इस समय देश में पसमांदा के कई एक सामाजिक संगठन सक्रिय है जिनमें से कुछ पसमांदा जातियों के अलग-अलग संगठन है तो कुछ पूरे पसमांदा समाज को लेकर चल रहें हैं.

hindustan mein jaat paat aur musalman

किताब: हिंदुस्तान में जात पात और मुस्लमान 

लेकिन बाबा कबीर और आसिम बिहारी के जाति उन्मूलन के कार्यक्रम में ही एक नाम डॉ. एम० इक़बाल का जुड़ता है. अपनी तमाम गुरबत, शारीरिक कमज़ोरियों और परेशानियों के बाद भी डॉ. इक़बाल पिछले 30 वर्षों से कम्युनिस्ट, बहुजन और पसमांदा आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाते रहें हैं. उन्होंने ‘मेरी आवाज सुनो’ नामक पुस्तिका का लेखन किया, पसमांदा मुस्लिम मोर्चा के संस्थापक अध्यक्ष रहे और, सम्प्रति, इस मुल्क में पसमांदा मुद्दों को आवाज़ देने वाली एक मात्रपत्रिका ‘पसमांदा पहल’ के मुख्य सम्पादक हैं. हालांकि डॉ० एजाज़ अली की यूनाइटेड मुस्लिम मोर्चा और अली अनवर की आल इंडिया पसमांदा मुस्लिम मोर्चा भी तमाम उतार चढ़ाव के बाद अभी भी अपनी सक्रियता बनाये हुए हैं.

pasmanda pahal

‘पसमांदा पहल’ पत्रिका

पसमांदा आंदोलन ने इस्लाम/मुस्लिम समाज में व्याप्त छुआ-छूत, ऊँच-नीच, जातिवाद को एक बुराई मानते हुए इसे राष्ट्र निर्माण में एक बाधा के रूप में देखते हुए, इसका खुल कर विरोध किया है.

मुस्लिम समाज में जहाँ एक ओर अशराफ मुसलमान(सैयद, शेख, मुग़ल, पठान) अपने आप को दूसरे अन्य मुसलमानों से श्रेष्ठ मानते है वहीं दूसरी ओर पसमांदा(आदिवासी, दलित और पिछड़े) जातियों जैसे वनगुजर, महावत, भक़्क़ो, फ़क़ीर, नट, मेव, भटियारा, हलालखोर(भंगी), भिश्ती, कंजड़, गोरकन, धोबी, कसाई, कुंजड़ा, जुलाहा आदि के नाम सिर्फ नाम नहीं बल्कि गालियाँ और अपमानसूचक शब्द बन गए हैं. इस निरादर की भावना के साथ-साथ अल्पसंख्यक राजनीति के नाम पर पसमांदा की सभी हिस्सेदारी अशराफ की झोली में चली जाती है, जबकि पसमांदा की आबादी कुल मुस्लिम आबादी का 90% है. लेकिन सत्ता में चाहे वो न्यायपालिका, कार्यपालिका या विधायिका हो या मुस्लिम क़ौम के नाम पर चलने वाले अदारे/ संस्थान या सामाजिक संगठन हो, में पसमांदा की भागीदारी नहीं के बराबर है.

अबतक के लोकसभा सदस्यों के मुस्लिम प्रतिनिधियों में अशराफ अपनी संख्या के दुगने से भी अधिक भागेदारी प्राप्त किये हुए है जबकि पसमांदा अपनी संख्या के अनुपात में ‘नहीं’ के बराबर है.

यह बात अब साफ हो चुकी है कि अशराफ ने अल्पसंख्यक राजनीति के नाम पर पसमांदा की भीड़ दिखा कर सिर्फ अपना हित साधता रहा है. मज़हबी या धार्मिक पहचान की साम्प्रदायिक राजनीति शासक वर्गीय अशराफ की राजनीति है जिससे वो अपना हित सुरक्षित रखता है.

अशराफ सदैव मुस्लिम एकता का राग अलापता है. वह यह जनता है कि जब भी मुस्लिम एकता बनेगी तो अशराफ ही उसका लीडर बनेगा. यही एकता उन्हें अल्पसंख्यक से बहुसंख्यक बनाती है, जिसकी वजह से अशराफ को इज़्ज़त, शोहरत, पद और संसद विधान सभाओं में सम्मानजनक स्थान मिलता है. मुस्लिम एकता अशराफ की जरूरत है और पसमांदा एकता वंचित पसमांदा की ज़रूरत है. अगर पसमांदा एकता बनती है तो पसमांदा को भी उपर्युक्त लाभ मिल सकता है.

प्रमुख माँगें

  • धर्मनिरपेक्षता की मूल भावना के आधार पर संविधान की धारा 341 पर 1950 के राष्ट्रपति महोदय के आदेश के पैरा 3 को समाप्त कर सभी धर्मों के दलितों के लिए एक समान रूप से सभी स्तर पर आरक्षण की व्यवस्था किया जाए.
  • मुसलमानों द्वारा मुसलमान एवं अल्पसंख्यक नाम पर चलाये जाने सभी संस्थाओं एवं संगठनों जैसे मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, वक़्फ़ बोर्ड, बड़े मदरसे, इमारते शरिया, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, इन्ट्रीगल यूनिवर्सिटी आदि में पसमांदा की आबादी के अनुसार उनका कोटा निर्धारित कर आरक्षण की व्यवस्था किया जाए.
  • सभी राजनैतिक पार्टियाँ पसमांदा को उनकी आबादी के अनुसार चुनाव में टिकट देना सुनश्चित करें.
  • पसमांदा को राजनैतिक भागेदारी सुनिश्चित करने के लिए ग्राम पंचायत, क्षेत्र पंचायत, ज़िला पंचायत,नगर पालिका, नगर निगम चुनावों में उनकी आबादी के अनुसार सीट आरक्षित किया जाए.
  • पिछड़े (OBC)आरक्षण को कर्पूरी ठाकुर फार्मूले के अनुसार पिछड़े और अतिपिछड़े में विभक्त कर सभी पसमांदा जातियों को अतिपिछड़े कोटे में स्थान सुनिश्चित किया जाए.
  • अनुसूचित जनजाति पसमांदा की पहचान कर उनको एस० टी० आरक्षण में शामिल किया जाय। एवं बहुत सी पिछड़ी पसमांदा जातियाँ जो ओबीसी आरक्षण में शामिल होने से छूट गयी है उनको शामिल किया जाए.
  • केंद्र एवं राज्य सरकारों के अधीन पिछड़ा वर्ग आयोग, अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग में पसमांदा समाज का एक सदस्य स्थायी रूप से नामित किया जाए.
  • केंद्र एवं राज्य सरकारों के अधीन सभी अल्पसंख्यक प्रतिष्ठानों एवं संस्थानों में पसमांदा की भागीदारी उनकी संख्या के अनुसार सुनिश्चित किया जाए.
  • अल्पसंख्यकों के विकास एवं कल्याणकारी योजनाओं के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा आवंटित बजट का एक बड़ा भाग पसमांदा के हितकारी कार्यो में खर्च किया जाए.

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आभार:  पसमांदा पहल के मुख्य सम्पादक डॉ० एम० इक़बाल, आल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ के राष्ट्रीय महासचिव वकार अहमद हवारी साहेबान का धन्यवाद करता हूँ जिनके वैचारिक और इतिहासिक तथ्यों का इस लेख को लिखने में महत्वपूर्ण भूमिका रही है.

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फ़ैयाज़ अहमद फैज़ी लेखक, अनुवादक, सामाजिक कार्यकर्ता और पेशे से चिकित्सक है।

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