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लेनिन मौदूदी (Lenin Maududi)

कल रात अलीगढ़ से मेरी एक बहन का कॉल आया. वह अलीगढ़ से पीएचडी कर रही है. वह मुझसे बहुत नाराज़ थी कि मै ‘सर सैयद अहमद खान’ के खिलाफ क्यों लिख रहा हूँ? मैंने स्पष्ट करते हुए अपना पक्ष रखा कि मैं विरोध नहीं कर रहा बल्कि वही लिख रहा हूँ जिसे सर सैयद ने खुद लिखा या बोला था. मैं ये बताने की कोशिश कर रहा हूँ कि जिन्हें तुम लोग ‘बाबा-ए-कौम’ कहते हो वह दरसल बहुत ही संकीर्ण और जातिवादी दिमाग के इंसान थे. पर उसका कहना था कि वह आज उसी अलीगढ़ में पढ़ रही है जिसे सर सैयद ने बनाया था. अब इससे क्या फर्क पड़ता है कि सर सैयद औरतों को अलीगढ़ में नहीं पढ़ाना चाहते थे? 

मैंने उससे सहमत होते हुए बोला- चलो ठीक है, लेकिन ज़रा कल्पना करो कि तुम्हरा जन्म सर सैयद के काल में हुआ है. तुम्हें पढ़ने का बहुत शौक है. तुम अलीगढ़ जा कर पढ़ना चाहती हो. घर के बड़े-बुज़ुर्ग सभी तुम्हें पढ़ाना चाहते हैं. लेकिन एक रोज़ तुम देखती हो कि 20 अप्रैल 1894, जालंधर (पंजाब) में सर सैयद द्वारा महिलाओं की शिक्षा पर दिया गया भाषण अखबार में छपा है जिसमे लिखा है कि-

“मैं लड़कियों को स्कूल भेजने के विरुद्ध हूँ, पता नहीं किस प्रकार के लोगों से उन की संगत होगी!” 

सर सैयद अपने भाषण में आगे कहते हैं कि-

“परन्तु मैं बहुत ही बल के साथ कहता हूँ कि सवर्ण (मुसलमान) एकत्र हो कर अपनी लड़कियों की शिक्षा की ऐसी व्यवस्था करें जो उदहारण हो अतीत की शिक्षा का, जो किसी काल में हुआ करती थी. कोई अच्छे परिवार का व्यक्ति यह कल्पना नहीं कर सकता कि वह अपनी पुत्री को ऐसी शिक्षा दे जो टेलीग्राफ़ ऑफिस में सिग्नल देने का काम करे या पोस्ट ऑफिस में पत्रों पर ठप्पा लगाया करे.”1

ऐसे में तुम बताओ क्या सर सैयद तुम्हारे लिए महान होते?  तो आज अगर तुम अलीगढ़ में पढ़ रही हो तो क्या ये सर सैयद की वजह से है?  क्योंकि सर सैयद तो औरतों की शिक्षा के ही खिलाफ थे.

उसका अगला तर्क था कि- चलो उस वक़्त अलीगढ़ में लड़कियां नहीं पढ़ती थीं पर आज तो वहां लड़कियां और पसमांदा छात्र दोनों पढ़ते हैं. इस बात के लिए ही सर सैयद की आलोचना मत करो. आज तक पसमांदाओं ने कौन सा विश्विद्यालय बनाया है.

तर्क तो था मेरी बहन की बात में पर ये तर्क उसका नहीं था. ये तर्क अशराफ तबके द्वारा बहुत बारीकी से सर सैयद की महानता को बनाए रखने के लिए गढ़ा गया था.

जब अशराफ ये कह रहे होते हैं कि आज अलीगढ़ से पसमांदा मुसलमानों को फायदा हो रहा है ठीक उसी वक़्त वह ये बात छुपा रहे होते हैं कि आज़ादी से पहले इसी अलीगढ़ से पसमांदा मुसलमानों को नुकसान भी हुआ है. जब पसमांदा मुसलामनों की शैक्षिक स्थिति दयनीय थी, जिस वक़्त सरकारी रोज़गार अंग्रेजी माध्यम में थे तुमने अपने विश्विद्यालय में उन्हें घुसने नहीं दिया. आज जो पसमांदा समाज की दयनीय स्थिति है उसका एक कारण ये भी है.

आज अगर अलीगढ़ में पसमांदा मुसलमान पढ़ रहे हैं तो ये भारतीय संविधान की देन है सर सैयद की नहीं.

चलो एक पल को उन्हीं का तर्क मान लेते हैं तो क्या इस बिनाह पर हम अंग्रेज़ों को भी तौल सकते हैं? जैसे कि- रेलवे अंग्रेजों ने इसलिए बनाई थी कि पूरे देश का कच्चा माल वो अपने देश मे ले जाएं पर आज इसे रेलवे से करोड़ो भारतीय लाभ उठा रहे हैं. मैकाले ने अंग्रेजी को भारतीय शिक्षा व्यवस्था में इसलिए लाया ताकि वह अच्छे क्लर्क पैदा कर सके. जो चमड़ी से भारतीय और सोच से अँगरेज़ हों. पर आज इसी अंग्रेजी की वजह से लाखों-करोडो लोगों को नौकरी मिली हुई है. तो क्या इस आधार पर हम “मैकाले डे” मनाते हैं? भारत में अधिकतर व्यवस्था और संस्था अंग्रेज़ों ने बनाई है जिसका आज हम लाभ उठा रहे हैं. तो क्या अंग्रेजी हुकूमत का गुणगान किया जाता है?

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फ़रमाते हैं कि “आमाल का दारो मदार नियत पर है”. यहीं पर पसमांदा और बहुजन छात्र सवाल उठाते हैं कि क्या सर सैयद की नियत थी पसमांदा मुसलमानों और लड़कियों को अलीगढ़ पढ़ाने की? जवाब बहुत साफ़ है जिसे सर सैयद खुद लिखते हैं. जब बरेली के ‘मदरसा अंजुमन-ए-इस्लामिया’ के भवन की नींव रखने के लिए सर सय्यद साहब को बुलाया गया था जहाँ मुसलामानों को नीच कही जाने वाली जाति के बच्चे पढ़ते थे. इस अवसर पर जो पता उन को दिया गया था उस पते पर उत्तर देते हुए उन्होंने कहा था कि-

“आप ने अपने एड्रेस में कहा है कि हम दूसरी कौमों (समुदाय) के ज्ञान एवं शिक्षा को पढ़ाने में कोई झिझक नहीं है. संभवतः इस वाक्य से अंग्रेज़ी पढ़ने की ओर संकेत अपेक्षित है. किन्तु मैं कहता हूँ ऐसे मदरसे में जैसा कि आप का है, अंग्रेज़ी पढ़ाने का विचार एक बहुत बड़ी ग़लती है. इसमें कुछ संदेह नहीं कि हमारे समुदाय में अंग्रेज़ी भाषा एवं अंग्रेज़ी शिक्षा की नितांत आवश्यकता है. हमारे समुदाय के सरदारों एवं ‘शरीफों’ का कर्तव्य है कि अपने बच्चों को अंग्रेज़ी ज्ञान की ऊँची शिक्षा दिलवाएं. मुझ से अधिक कोई व्यक्ति ऐसा नहीं होगा जो मुसलमानों में अंग्रेज़ी शिक्षा तथा ज्ञान को बढ़ावा देने का इच्छुक एवं समर्थक हो. परन्तु प्रत्येक कार्य के लिए समय एवं परिस्थितियों को देखना भी आवश्यक है. उस समय मैंने देखा कि आपकी मस्जिद के प्रांगण में, जिसके निकट आप मदरसा बनाना चाहते हैं, 75 बच्चे पढ़ रहे हैं. जिस वर्ग एवं जिस स्तर के यह बच्चे हैं उनको अंग्रेज़ी पढ़ाने से कोई लाभ नहीं होने वाला. उनको उसी प्राचीन शिक्षा प्रणाली में ही व्यस्त रखना उनके और देश के हित में अधिक लाभकारी है.”2

फिर अशराफ तबका आगे कहता है कि- 

सर सैयद ने तुम्हें अलीगढ़ में घुसने नहीं दिया तो तुम अपनी अलग यूनिवर्सिटी क्यों नहीं बना लिए? 

अरे मूर्खो अगर पसमांदा इस स्थिति में होते कि अपनी यूनिवर्सिटी बना सकते तो हम ‘पसमांदा’ ही क्यों होते? ये तो वही बात हुई कि ब्राह्मण, दलितों को पढ़ने या व्यापार करने नहीं दे रहे थे तो वह अलग से अपनी व्यवस्था क्यों नही कर लिए? 

दूसरी बात ये जो अशराफों-सवर्णो की संपन्नता है वह पसमांदा-बहुजन के खून-पसीने की देन है और साथ ही ये तुम्हारे शोषण और लूटपाट के कारण है. आज़ादी के बाद अलीगढ़ विश्विद्यालय किसी के बाप की जागीर नहीं है. जिनके बाप की जागीरें थी वह पाकिस्तान चले गए. पर कुछ मुस्लिम लीगियों ने रातों-रात कांग्रेस की टोपी पहन ली और भारत में रह गए. क्या ये बात गलत है कि पूरा पाकिस्तान आंदोलन, अलीगढ़ आंदोलन से निकला है. खैर अब ये देश आज़ाद है और यहाँ सारे विश्विद्यालय हमारे टैक्स के पैसे से चलते हैं. अगर किसी को लगता है कि अलीगढ़ उसके बाप की जागीर है तो वह अपनी जागीर पाकिस्तान में तलाशे भारत में नहीं.

मेरे तर्कों/तथ्यों का मेरी बहन के पास कोई जवाब नहीं था. फिर भी वह बुरा महसूस कर रही थी. उस इंसान के लिए जो जब तक ज़िंदा था तबतक औरतों को अलीगढ़ में घुसने नहीं दिया. उसका बुरा महसूस करने का कारण ये है कि उसके दिमाग में सर सैयद की महानता की जो छवि बनाई गई है वह उसे चाह कर भी उन तथ्यों और तर्कों को न मानने को मजबूर करता है. दक्षिण अफ्रीका के रंगभेद विरोधी कार्यकर्ता स्टीव बाईको ने कहा है कि- 

शोषकों के हाथ में सबसे कारगर हथियार शोषितों का दिमाग होता है. (The most potent weapon in the hands of the oppressor is the mind of the oppressed.)

पसमांदा मुसलमानों के दिमाग को इस तरह काबू में कर लिया गया है कि वह अपने शोषक से ही मोहब्बत करने लगे हैं. ये बस यूँही नहीं हुआ. इसे सुनियोजित तरीके से अंजाम दिया गया है. सर सैयद के मामले में ये काम ‘अलीगढ़ ओल्ड बॉयज’ के अशराफ लड़कों ने किया. “सर सैयद डे” एक टूल की तरह इस्तेमाल किया गया सर सैयद की महानता को स्थापित करने मे. इसमे शक नहीं कि भारत में मुस्लिमों की पहली पढ़ी-लिखी पीढ़ी इन्ही अशराफ लड़कों की रही है. ये जहाँ भी गए वहां से सर सैयद की महात्मा वाली छवि बनाई. सर सैय्द के आस-पास एक आभा मंडल गढ़ा गया, सच्चे-झूठे किस्से गढ़े गए उसके पक्ष में, उनकी महानता बताते हुए किताबें लिखी गईं, उनकी शान मे गाने-कविताएं-ग़ज़लें लिखी गईं. अकीदत की एक पूरी संस्कृति विकसित की गई. किसी व्यक्ति को महात्मा बनाने का यही तरीका अपनाया जाता है.

‘गाँधी’ और ‘नेहरू’ का महात्मा बनना कांग्रेस के सत्ता में रहने के कारण सम्भव हुआ. आज जिनकी सत्ता है वह अपने को ‘महात्मा’ बना रहे हैं. गाँधी और नेहरू आज वैसे महात्मा नहीं रहे जैसे कांग्रेस में रहे थे क्योंकि महात्मा बनाने वाला तंत्र अभी इनके पास नहीं है. एक बार महात्मा बनने के बाद उस महात्मा की आलोचना को ‘ईशनिंदा’ ही समझा जाने लगता है. फिर बात तर्क से तथ्य से बाहर चली जाती है.

इसको दूसरी तरह से समझते हैं- 

ब्राह्मणों और सैयदों ने सिर्फ डंडे के ज़ोर पे बहुजनों-पसमांदा को गुलाम नहीं बनाया. मानसिक गुलाम बनाने के लिए आवश्यक था कि बहुजन-पसमांदा खुद मानते कि ब्राह्मण उनसे श्रेष्ठ हैं. इसकी शुरुआत उन्होंने धर्म के इस्तेमाल से की. ब्राह्मणों ने सबसे पहले उनको ये साबित करना था कि वेद ईश्वर की वाणी है. जब ये साबित हो गया तो ऋग्वेद में 10वां मंडल जोड़ा पुरुषसूक्त जहां बताया गया कि ब्राह्मण विराट पुरुष ब्रह्मा के मुख से पैदा हुए हैं इसलिए वे सभी जातियों में सर्वश्रेष्ठ हैं। उसी तरह सैयदों ने खुद को श्रेष्ट बताने के लिए अपनी नस्ल को नबी (स.अ) से जोड़ा. अपने पक्ष में झूठी हदीसें गढ़ीं. उसके बाद मान्यता को साबित करने के लिए उन्होंने किस्से कहानियां गढ़ीं. ब्राह्मण और सैयदों के सम्मान और उनके आशीर्वाद से मिलने वाले फल के बारे में किवदन्ति सुनाई गई. 

धीरे-धीरे बहुजन-पसमांदा ब्राह्मणवाद-सैयदवाद की चपेट में आ गए और सैयदों-ब्राह्मणों के मानसिक गुलाम बनते गए. जब-जब बहुजन-पसमांदा नायकों ने उनकी इस गुलाम मानसिकता को तोड़ने की कोशिश की तो शुरू में इन्होंने अपने ही नायकों का विरोध किया. ग्राम्शी कहते हैं कि-

राजनीतिक गुलामी से सांस्कृतिक गुलामी अधिक गहरी और लंबी चलने वाली होती है. 

राजनीतिक गुलामी कुछ पीढ़ियों के बाद समाप्त हो जाती है लेकिन सांस्कृतिक गुलामी पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है. राजनीतिक गुलामी में आम तौर पर देह गुलाम होती है और दिमाग आजाद होता है. मगर सांस्कृतिक गुलामी आदमी के दिलो-दिमाग पर ऐसे कब्जा कर लेती है कि आदमी गुलामी के कारण तो दूर, गुलामी को भी नहीं समझ पाता है. इसके उलट, आदमी अनेक ऐसे कार्य करता जाता है, जो उसकी गुलामी को बढ़ाने में सहायक होते हैं. सांस्कृतिक गुलामी से मुक्ति का एक ही रास्ता है कि उत्पीड़ित वर्ग, अपने बुद्धिजीवी पैदा करे, जो उसको सांस्कृतिक गुलामी से आज़ाद कराने में सहायक हो.

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1. अलीगढ़ इंस्टिट्यूट गज़ट, 15 मई 1894, खंड : 29, अंक : 39 (ससंदर्भ ख़ुत्बात-ए-सर सय्यद), शीर्षक : मुसलामनों की तरक्क़ी और तालीम-ए-निस्वां पर सर सय्यद की तक़रीर, 20 अप्रैल 1894, स्थान : जालंधर, 2/279
2. सर सय्यद अहमद खां : व्याख्यान एवं भाषणों का संग्रह, संकलन : मुंशी सिराजुद्दीन, प्रकाशन : सिढौर 1892, ससंदर्भ अतीक़ सिद्दीक़ी : सर सय्यद अहमद खां एक सियासी मुताला, अध्याय : 8, तालीमी तहरीक और उस की मुखालिफ़त, शीर्षक : गुरबा को अंग्रेज़ी तालीम देने का खयाल बड़ी ग़लती है, पृष्ठ : 144/144

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लेनिन मौदूदी लेखक हैं एवं  DEMOcracy विडियो चैनल के संचालक हैं, लेखक हैं और अपने पसमांदा नज़रिये से समाज को देखते-समझते-परखते हैं.

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