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सतविंदर मदारा (Satvendar Madara) 

satvendra madaraपिछली दो सदियों से भारत के कई हिस्सों में हज़ारों साल से चली आ रही ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था के खिलाफ जंग छिड़ी, जिसे पूर्वी भारत में हरिचंद-गुरुचंद ठाकुर, पश्चिमी भारत में फूले-शाहू-अम्बेडकर, उत्तर में बाबू मंगू राम, स्वामी अछूतानंद और दक्षिण में नारायणा गुरु और पेरियार रामास्वामी ने चलाया। अंग्रेज़ों के चले जाने के बाद सत्ता ब्राह्मणों के हाथों में चली गयी और फिर इस लहर को पुरे देश में खासकर उत्तर भारत में साहब कांशी राम ने अपनों कन्धों पर उठा, इसे फिर से गतिमान किया। 

लेकिन अब तक चले इन सभी आंदोलनों में सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक मोर्चों पर तो बहुत संघर्ष हुआ और कई उपलब्धियां भी हासिल हुईं, लेकिन आर्थिक आज़ादी जो कि सबसे अहम पहलुओं में से एक है  – पर ज़्यादा काम नहीं हो सका। जब तक बहुजन समाज(ST, SC, OBC और इनमें से धर्म परिवर्तित जातियां) आर्थिक तौर पर ब्राह्मणवाद से पूरी तरह आज़ाद नहीं हो जाता, तब तक वो उनके शिकंजे से बाहर नहीं निकल पायेगा। 

बहुजन समाज देश की आबादी का 85% है, अगर वो इस ओर कदम बढ़ाये तो उसे सफल होने से कोई नहीं रोक सकता।  

आर्थिक मोर्चे पर सफलता हासिल करने में हमें अमरीका में अफ़्रीकी मूल के लोगों द्वारा विकसित की गयी अश्वेत राष्ट्रवाद(Black Nationalism) की विचारधारा से बहुत मदद मिल सकती है। वहाँ भी यूरोपीय गोरों द्वारा अफ़्रीकी कालों के साथ किये जाने वाले अमानवीय भेदभाव के खिलाफ लगभग भारत की ही तरह 19वीं शताब्दी में संघर्ष शुरू हुआ। जब उन्होंने अपनी ग़ुलामी के सभी पहलुओं पर बारीकी से गौर किया तो उन्हें अपने सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक तौर पर ग़ुलाम होने के साथ पूरी तरह से आर्थिक ग़ुलाम होने का भी एहसास हुआ। 

इस दिशा में पहली बार बहुत बड़े स्तर पर क्रन्तिकारी कदम अश्वेतों के महानतम नेता माने जाने वाले “माननीय मार्कस गार्वी”(Honourable Marcus Garvey) ने 1919 में न्यू यॉर्क में उठाये। उनका जन्म जमैका(Jamaica) के सेंट एन्न बे(St. Ann’s Bay) में 17 अगस्त 1887 को हुआ था। साल 1910० से 1914 तक उन्होंने पहले मध्य एवं दक्षिण अमरीका और फिर बर्तानिया एवं यूरोपीय देशों में रहने और भर्मण करने के बाद जुलाई 1914 को जमैका में वापसी की। यहीं उन्होंने Universal Negro Improvement Association(विश्वव्यापी अश्वेत सुधार संघ) की स्थापना की। इसी के प्रचार के सिलसिले में वो पहली बार मार्च 23, 1916 को न्यू यॉर्क, अमरीका पहुँचे। कई अमरीकी राज्यों का दौरा करने के बाद उन्होंने न्यू यॉर्क के हार्लेम में बस कर U.N.I.A की गतिविधियों को बढ़ाने का फैसला किया। यहीं से सही मायनों में Black Nationalism(अश्वेत राष्ट्रवाद) की नींव पड़ी, जो आगे चलकर एक बहुत बड़ी लहर का रूप धारण कर गयी। 

Marcus Garvey

Marcus Garvey

उनके अनुसार आर्थिक पहलू आज़ादी पाने का सबसे ज़रूरी साधन है। एक स्वतंत्र राजनीतिक कार्यवाई, एक स्वतंत्र आर्थिक बुनियाद पर ही लड़ी जा सकती है। जब तक हम आर्थिक तौर पर मज़बूत नहीं होते तब तक दूसरे हमे पिछड़ा हुआ ही समझेंगे और अगर हम आर्थिक तौर पर आज़ाद नहीं हुए तो हम फिर से ग़ुलाम बना लिए जायेंगे। उनका यह भी मानना था कि अगर हमें अपनी नस्ल को एक मज़बूत और कामयाब नस्ल बनाना है तो फिर इसके हितों को सबसे ऊपर रखना होगा। 

इसी क्रम में उन्होंने 1919 को Black Star Line नाम की समुंद्री जहाजों की कंपनी की स्थापना कर एक क्रन्तिकारी कदम उठाया। Negro Factories Corporation(अश्वेत कारखाना निगम) की भी स्थापना की, जिसके तहत Universal Laundry(कपड़े धोने की दुकानें), Univeral Military Store, Universal Restaurant, Universal Grocery(किराना) Store, एक होटल, दर्जी की दुकानें, बच्चों की गुड़िया बनाने का कारखाना, छापाखाना, बैंक, आदि जैसे कई छोटे-बड़े व्यवसाओं को शुरू किया, जिसमें 300 से लेकर एक समय में 1000 तक अश्वेतों को रोज़गार मुहैया करवाया गया। 

खुद उनके शब्दों में :

“Universal Negro Improvement Association अपनी नस्ल को अपनी मदद खुद करना और अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाता है न सिर्फ एक पहलू पर बल्कि उन सभी चीज़ों पर जो मनुष्य की खुशहाली और भलाई में योगदान करते हैं। हमारे बहुत लोगों की दूसरी नस्लों पर निर्भर होने की आदत और उनसे अपनी ज़रूरतों के लिए दया और हमदर्दी की सोच, अपने लिए कुछ करने की कोशिश न करना, हमारी नस्ल के अपमान का कारण है, जिसके द्वारा हमें देखा गया और जिसके जरिये हमने अपने खिलाफ भेदभाव को उतपन्न किया ….. 

हमारी नस्ल को इस समय कार्यकर्ताओं की ज़रूरत है न की नकलचीयों की; बल्कि हमारी नस्ल को ऐसे पुरुषों और महिलाओं की ज़रुरत है जो जो सृजन कर सके, कुछ उत्पन्न और सुधार कर सके और इस तरह दुनिया और सभ्यता को एक स्वतंत्र नस्लीय योगदान कर सके।”- माननीय मार्कस गार्वी, अगस्त 18, 1923 (अंग्रेजी से अनुवाद)

उनके अनुसार हमें उत्पादन करना होगा और फिर उपभोग करना होगा। उनका नारा था कि “Negro producers, Negro distributors, Negro consumers”(अश्वेत उत्पादक, अश्वेत वितरक, अश्वेत उपभोक्ता)

10 जून 1940 में हुई उनकी मौत के बाद यह कारवाँ लगभग थम सा गया, जिसे 1950 के दशक में एक दूसरे महान अश्वेत नेता “मैलकम एक्स” ने दुबारा जीवित किया। उन्होंने अपने एक चर्चित भाषण में इस पर विस्तार से बताते हुए कहा कि- 

“अश्वेत राष्ट्रवाद की आर्थिक नीति का यही मतलब है कि हमें अपने बस्ती के कारोबारों के खुद मालिक होना और उन्हें चलाना हैं। आप कभी भी एक अश्वेत दुकान गोरों की बस्ती में नहीं खोल सकते। गोरें लोग कभी भी आपको सहयोग नहीं करेंगे। और वो गलत नहीं हैं। उन्हें अपने आप का ख्याल रखने की समझ है। आप ही हैं, जिन्हें इतनी समझ नहीं है कि अपना ख्याल रख सकें। 

गोरे लोग बहुत समझदार हैं कि किसी और को अपनी बस्ती में आकर कारोबार करने दें ताकि उनका उनकी बस्ती पर दबदबा बना रह सके। लेकिन आप किसी को भी आने देते हो और अपनी बस्ती के कारोबार को नियंत्रण करने देते हो, घरों पर नियंत्रण, शिक्षा पर नियंत्रण, नौकरियों पर नियंत्रण, कारोबारों पर नियंत्रण, इस वहम में कि आपको मिलजुल कर रहना है। नहीं, आपका दिमाग खराब है. 

अश्वेत राष्ट्रवाद के राजनीतिक, आर्थिक सिद्धांत का यही मतलब है कि हमें एक ऐसे कार्यक्रम में शामिल होना है, जो हमारे लोगों को दुबारा से शिक्षित करे और इस बात की ज़रूरत को समझाए कि जब आप अपना पैसा अपने लोगों के बाहर खरचते हैं, जिसमें आप रहते हैं – तो जिन लोगों में आप अपना पैसा खरचते हैं वो अमीर से अमीर होते जाते हैं; जिन लोगों के द्वारा पैसा खर्चा जाता है वो गरीब से गरीब होते जाते हैं। और क्योंकि यह नीग्रों, जिनको गुमराह और बरगलाया गया है, अपना पूरा ज़ोर अपने पैसे को ले जाकर दूसरे के हाथों में देते हैं, वो आदमी अमीर से अमीर होता जाता है और आप गरीब से गरीब होते जाते हैं। और फिर क्या होता है? उस बस्ती, जिसमें आप रहते हैं वो एक झोपड़पट्टी बन जाती है, एक झुग्गी बन जाती है, वहां की हालत खराब हो जाती है। और फिर आप ही खराब घरों और बुरी हालत की शिकायत करते हैं। लेकिन आपने खुद ही तो उसको बर्बाद किया, जब आपने अपना पैसा दूसरे को दिया।” – मैलकम एक्स12 अप्रैल, 1964, डेट्रॉइट, मिशिगन, (अंग्रेजी से अनुवाद)

malcolm x

Malcolm X

फरवरी 21, 1965 में न्यू यॉर्क में हुई उनकी हत्या के बाद 1970 के दशक में ब्लैक पैंथर ने भी अश्वेत राष्ट्रवाद के सिद्धांत पर बहुत ज़ोर दिया और आज यह एक बहुत बड़ी लहर का रूप धारण कर चुका है। खासकर अगर संगीत की दुनिया की ओर देखें तो अब अश्वेत कलाकार लगभग पूरी तरह से अपने पैरों पर खड़े हो चुके हैं और बड़ी-बड़ी कंपनियों के मालिक हैं। पुरे अफ़्रीकी महाद्वीप में अब इस ओर खास ध्यान दिया जा रहा है कि अगर उन्हें पूरी तरह से आज़ादी हासिल करनी है तो न सिर्फ राजनीतिक तौर पर, जिसमें वो आज़ादी हासिल कर चुके हैं बल्कि उन्हें आर्थिक मोर्चे पर भी आत्मनिर्भर होना होगा। 

अब अगर हम भारत में बहुजन समाज की बात करें तो हम देख सकते हैं कि देश के कई हिस्सों में हमनें राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक तौर पर तो काफी तरक्की की है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक मोर्चे पर हम अब भी कोई ज़्यादा आगे नहीं बढ़ पाए है। 15% आबादी वाला ब्राह्मणवादी समाज, वो भी खासकर बनिया समाज आज भी पुरे देश की आर्थिक ताक़त का मालिक बना हुआ है।  सरकार चाहे पिछड़ी जाति के नेताओं के हाथ में हो या फिर अनुसूचित जाती-जनजाति के नेता के हाथ में – आर्थिक तौर पर सत्ता आज भी बहुजन समाज के हाथों से बहुत दूर है। जब कि इस समाज की आबादी देश की आबादी का 85% है। लेकिन अफ़सोस कि आज भी हम अपनी ताक़त का एक सही हिस्सा इस मोर्चे पर नहीं लगा रहे हैं और सारा ज़ोर धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक मोर्चो पर लगाया जा रहा है। अब समय आ चुका है कि हम अपनी ताक़त को आर्थिक आज़ादी की ओर भी लगाए और अपने समाज को अपनी ही दुकानों, कारखानों, व्यवसाओं को चलाने की ओर प्रेरित करें ताकि वो माननीय मार्कस गार्वी के मशहूर नारे कि – खुद उत्पादन करें, खुद वितरण करे और खुद उपभोक्ता बने – से सबक ले सके। 

इस दिशा में कई छोटी-बड़ी कोशिशें देश के कुछ हिस्सों में तो हुई हैं, लेकिन इसे एक विचारधारा के स्तर पर एक बहुत बड़े आंदोलन का रूप देने में अभी भी देर हो रही है। अफ़्रीकी-अमरीकी मूल के मशहूर विद्वान् डॉ.जॉन हेनरिक क्लार्क(Dr. John Henrik Clarke) ने अपने एक भाषण में कहा था कि आपको(अफ़्रीकी मूल के लोग) अपनी इस्तेमाल की चीज़े खुद ही बनानी होंगी और अगर अब भी आप दूसरों की उत्पादन की गयी चीज़ों को इस्तेमाल करते रहेंगे तो आप दुबारा से ग़ुलाम बना लिए जाओगे। 

21वीं सदी की शुरुआत में अब वक़्त आ चुका है कि हम “बहुजन राष्ट्रवाद” की ओर बढ़ें ताकि आर्थिक मोर्चे पर भी जीत हासिल कर सकें और साहब कांशी राम के नारे- “21वीं सदी हमारी है, अब बहुजन की बारी है”– को पूर्ण रूप से साकार कर सके। 

बहुजन राष्ट्रवाद ज़िंदाबाद !!

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सतविंदर मदारा पेशे से एक हॉस्पिटैलिटी प्रोफेशनल हैं। वह साहेब कांशी राम के भाषणों  को ऑनलाइन एक जगह संग्रहित करने का ज़रूरी काम कर रहे हैं एवं बहुजन आंदोलन में विशेष रुचि रखते हैं।

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