प्रवीण कुमार (Praveen Kumar)
मैं अभी वर्तमान समय में विचाराधीन बंदियों के साथ उनकी सामाजिक विधि सहायता पर कार्य कर रहा हूँ. यह कार्य मैं क्रिमिनल जस्टिस फेलोशिप प्रोग्राम टाटा सामजिक विज्ञानं संस्थान के अंतर्गत कर रहा हूँ. यह फ़ेलोशिप एक प्रकार का फील्ड इंटरवेंशन हैं. इस फ़ेलोशिप की शुरुआत करने का मुख्य उद्देश्य यह है कि नए प्रोफेशनल को क्रिमिनल जस्टिस फील्ड में काम करने की गुंजाइश और क्षमता का प्रदर्शन करना, विशेष रूप से, जहाँ प्रशिक्षित मानव सेवा पेशेवरों की कमी हैं, जैसे डिनोटिफाइड आदिवासियों के हक और अधिकार के लिए काम करना, अनुसूचित जाति एवम् जनजाति पीड़ितों को उनके न्याय, मुआवजा और पुनर्वास, जाति आधारित हिंसा, लीगल राइट्स, महिला कैदियों का पुनर्वास, विकलांग समुदायों का समुदाय आधारित पुनर्वास, प्राथमिक स्कूलों में समावेशी शिक्षा पद्धतियों को बढ़ावा देना आदि.
मैं अपनी इस फेलोशिप के अंतर्गत विचाराधीन बंदियों को सामाजिक विधि सहायता प्रदान करना, होम विजिट, वकील के साथ उनके कोर्ट तारीख पर जाना ताकि केस की प्रगति और तत्काल रिपोर्ट से बंदी और उनके परिवार को अवगत कराया जा सके, व्यक्तिगत बेल बोंड तथा उनके पुनर्वासन पर काम करना इत्यादि. इस कार्य को मैं करीबन पिछले तीन वर्षों से पटना स्थित जेलों में तथा इसका क्रियान्वयन जिला विधि सेवा प्राधिकार के पैनल अधिवक्ता और कुछ प्रो बोनो अधिवक्ता के सहयोग के माध्यम से कर रहा हूँ. अभी के तत्कलीन समय में मैं उनबंदियो के साथ कार्य कर रहा हूँ जो बिहार मधनिषेध और उत्पाद अधिनियम 2016 के अंतर्गत जेल में बंद हैं.
इस लेख के माध्यम से मैं यह प्रकाश डालना चाहता हूँ कि कैसे निशुल्क क़ानूनी सहायता स्कीम तथा बिहार मधनिषेध और उत्पाद अधिनियम के अंतर्गत समाज के वंचित समुदाय (दलित, महादलित, पिछड़ा और अतिपिछडा) से आने वाले लोगों का संविधानिक एवं आर्थिक शोषण हो रहा हैं.
अक्तूबर 2018 तक लगभग एक लाख साठ हज़ार लोगों को बिहार मधनिषेध और उत्पाद अधिनियम 2016 के अंतर्गत कानून उलंघन करने पर गिरफ्तार किया गया हैं. इसमें ज्यादातर उन लोगों को जेल में बंद किया गया हैं जो समाज के सबसे अपवंचित तबके से आते हैं. अगर देखा जाये तो इतनी गिरफ्तारियाँ देश में आपातकाल के समय भी नहीं हुआ था, उस समय जस्टिस जे.सी. शाह रिपोर्ट के अनुसार 21 मार्च 1977 तक लगभग एक लाख दस हज़ार लोगों को बंदी बनाया गया था.
बिहार मधनिषेध और उत्पाद अधिनियम के द्वारा कार्यवाईयों को अगर जाति के दृष्टिकोण से देखा जाये तो अनुसूचित जाति के लगभग 27.1 प्रतिशत व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया है जबकि उनकी कुल जनसंख्या में मात्र 16 प्रतिशत हिस्सेदारी है. अनुसूचित जनजाति के लगभग 6.8 प्रतिशत व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया जबकि बिहार में उनकी जनसंख्या मात्र 1.3 प्रतिशत है. इसी तरह, अन्य पिछड़ा वर्ग में लगभग 34.4 प्रतिशत लोगों को गिरफ्तार किया गया हैं लेकिन उनका जनसंख्या में हिस्सेदारी मात्र 25 प्रतिशत है. अनुसूचित जातियों में जैसे रविदास, मुशहर, मांझी, धोबी, पासवान और डोम में से लगभग 13 प्रतिशत विचाराधीन बंदी हैं जबकि उनका जनसंख्या में हिस्सेदारी कुल 16 प्रतिशत हैं . यहाँ पर कोई शक की गुंजाइश नहीं है कि यह कानून एक रूप से समाज के गरीब लोगों के लिए एक विधिय आपदा साबित हुआ हैं तथा समाज के अपवंचित लोगों को दोगुना शोषित किया जिसका सामाजिक और आर्थिक हिसाब लगाना भी बहुत मुश्किल है.
अब मैं अपने फील्ड अनुभवों तथा केस इंटरवेंशन के माध्यम से यह बताना चाहता हूँ कि बिहार मधनिषेध और उत्पाद अधिनियम 2016 के अंतर्गत लगभग 70 केसों में सामाजिक विधि सहायता प्रदान किया. ये सभी केस पटना स्थित जेलों से लिया, जो इस प्रकार हैं-
बिहार मधनिषेध और उत्पाद अधिनियम 2016 के अंतर्गत सामाजिक विधि सहायता मई 2018 से अब तक
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जाति |
कुल केस (70) |
औसतन मासिक आय |
पेशा |
सम्पति |
शिक्षा |
अनुसूचित जाति |
23 |
5000-8000 |
लगभग 20 व्यक्ति दिहाड़ी मजदूर |
सभी व्यक्ति भूमिहीन |
लगभग 10 व्यक्ति सिर्फ अपना नाम लिखना जानता था |
अनुसूचित जनजाति |
04 |
5000-8000 |
सभी व्यक्ति दिहाड़ी मजदूर |
सभी व्यक्ति भूमिहीन |
लगभग 2 व्यक्ति सिर्फ अपना नाम लिखना जानता था |
अत्यन्तं पिछड़ा वर्ग |
19 |
8000-10000 |
लगभग 13 व्यक्ति दिहाड़ी मजदूर |
लगभग 10 व्यक्ति भूमिहीन |
लगभग 10 व्यक्ति कक्षा दसवी से नीचें |
पिछड़ा वर्ग |
17 |
8000-10000 |
लगभग 9 व्यक्ति दिहाड़ी मजदूर |
लगभग 6 व्यक्ति भूमिहीन |
लगभग 7 व्यक्ति कक्षा दसवी से नीचें |
सवर्ण जाति |
7 |
10000-15000 |
लगभग 3 व्यक्ति दिहाड़ी मजदूर |
लगभग 3 व्यक्ति भूमिहीन |
लगभग 3 व्यक्ति कक्षा दसवी से नीचें |
कुल 70 केसों में मैंने सबसे अधिक अनुसूचित जाति तथा अत्यंत पिछड़ा वर्ग के साथ उनके सामाजिक विधिक के ऊपर कार्य किया हैं. जिसमे से लगभग दस लोगों को व्यक्तिगत बंद पत्र (पर्सनल बेल बांड) पर कोर्ट से रिहा करवया, क्योंकि ये व्यक्ति बहुत दिन से जेल में बंद थे. उनकी जमानत करवाने वाला कोई नहीं था. इनमें से सभी लोग दिहाड़ी मजदूरी करके अपने जीविकोपार्जन करते थे. इनमें से अधिकतम लोगों की मासिक आय लगभग महीने का आठ हज़ार से कम था. ये लोग सामाजिक और आर्थिक रूप से इतना सक्षम नहीं थे कि पुलिस को पैसा देकर मामले को थाने में ही रफादफा करवा सकते, जैसा कि अन्य लोग करते हैं. अगर एक बार ये लोग जेल में आ जाते हैं तो उनको बेल लेना भी माउंट एवेरेस्ट की चोटी चढ़ने के समान हो जाता है.
इन लोगों के पास निशुल्क विधि सेवा की कोई उचित जानकारी भी नहीं होती है. अगर जेल से उनका निशुल्क विधि सहायता का आवेदन किसी तरह जिला विधिक सेवा प्राधिकार के पास भेज दिया जाता है तो पैनल अधिवक्ता कोर्ट सुनवाई पर नहीं जाते हैं. संस्थागत रूप से पेनल अधिवक्ता ही गरीबों और अपवंचितो के लिए एक मात्र न्याय और उम्मीद की किरण होते हैं जो कभी भी कोर्ट की तारीख पर नहीं जाते हैं. केस की कुछ जानकारी नहीं लेते हैं. यहाँ तक कि वो अपने क्लाइंट से भी कभी नहीं मिलते हैं. मात्र कुछ गिने चुने अधिवक्ता ही अपने इस कर्तव्य को समझते हैं और उसका पालन करते हैं. यहाँ, एक संरचनात्मक ढांचा होने के बावजूद ये स्थिति हैं, यहाँ पर लालफीताशाही अपने चरमोत्कर्ष सीमा पर पहुँच चुकी हैं.
आर्थिक दृष्टिकोण से देखा जाये तो बिहार मधनिषेध अधिनियम में केवल एक साधारण बेल के लिए कोर्ट में लगभग दस हज़ार रूपये वकीलों को देना पड़ रहा हैं. बहुत से लोगों ने इस राशि का इन्तेजाम महाजन से ऊँची ब्याज दर पर क़र्ज़ लेकर, गाय, भैस, बकरी और सूअर बेच कर किया. यह कानून बिल्कुल एक विधिक आपदा की तरह हैं जिसने अपवंचित समाज के व्यक्तियों के जीवन में एक सुनामी का काम किया हैं. उनको सामाजिक और आर्थिक रूप से क्षतिग्रस्त कर दिया है. यदि कोई कानून बनता हैं तो उसका मुख्य उद्देश्य यह होता हैं कि समाज के अन्दर या व्यक्ति के व्यवहारों में सुधार लाये लेकिन ‘बिहार मधनिषेध और उत्पाद अधिनियम’ व्यक्ति के व्यवहारों का अपराधीकरण करने का काम निरंतर कर रही हैं.
अगर किसी व्यक्ति को शराब की लत हैं तो उसके लिए कोई भी पुनर्वासन प्लान ना तो राज्य सरकार के पास है और न ही कोर्ट या जेल के पास. इन लोगों को सीधा जेल भेज दिया जाता है जबकि इनको पुनर्सुधार केंद्र में भेजना चाहिए ताकि उनका विषहरण या इलाज हो सके. इस अधिनियम को सुचारू रूप से लागु करने के लिए राज्य सरकार को कानून में एक सुधारात्मक दृष्टिकोण अपनाने के साथ साथ उनके उपचार और पुनर्वासन पर ध्यान केन्द्रित, तथा निशुल्क क़ानूनी सहायता स्कीम को व्यवस्थित और वैज्ञानिक रूप से क्रियान्वयन करने की जरुरत हैं.
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प्रवीण कुमार टाटा सामाजिक विज्ञानं संस्थान मुम्बई में क्रिमिनल जस्टिस फेलो हैं.
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