विद्यासागर (Vidyasagar)
मैं दलित हूँ और मुझे गर्व है मेरे दलित होने पर क्योंकि
मैं पला हूँ कुम्हारों के चाकों पर,
मैं पला हूँ श्मशानों के जलते राखों पर,
मैं पला हूँ मुसहरों के सूखे कटे पड़े शाखों पर।
मैं दलित हूँ क्योंकि
मैंने देखा है अपनी माँ को धुप से तपते हुए खलिहानों में,
मैंने देखा है अपने पिता को मोक्ष दिलवाते श्मशानों में,
मैंने देखा है अपनी बस्ती को अलग पड़े वीरानों में।
मैं दलित हूँ क्योंकि
मैं तूफानों में भी रह सकता हूँ,
मैं प्रलय को भी सह सकता हूँ,
मैं मौन में भी कह सकता हूँ।
मैं दलित हूँ क्योंकि
मैं साहस हूँ शोषितों का,
मैं उम्मीद हूँ न्याय मांगते पीड़ितों का,
मैं प्रतिनिधि हूँ अकेले खड़े वंचितों का।
मैं दलित हूँ क्योंकि
मैंने तोड़ दिया है उनके तथाकथित परम्पराओं को,
मैंने उखाड़ फेंका है उनके जाति रचनाओं को,
मैंने मिटा दिया है उनके छूत – अछूत के विधानों को,
मैंने भस्म कर दिया है उनके तथाकथित आशियानों को।
मैं दलित हूँ क्योंकि
मेरे अंदर बुद्ध का बुद्धत्व है,
बाबा साहब का अमरत्व है,
कांशीराम का वीरत्व है,
मानवता का तत्व है।
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विद्यासागर दिल्ली विश्वविद्यालय में एक शोधार्थी हैं.
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