javed n nasir
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मुहम्मद जावेद, सरफ़राज़ नासिर जंग (बाएं से दायें)

javed n nasirआज जब यह कहा जा रहा है कि संविधान के साथ-साथ हमारे देश का लोकतंत्र भी खतरे में है, जिसको बचाने की गुहार लगाकर पूरा विपक्ष इकठ्ठा होकर संविधान और लोकतंत्र को बचाने के नाम पर वोट मांग रहा है. जहां लोकतंत्र के खतरे की बात आती है तो मीडिया का भी एक नाम खुले तौर पर सामने आता है जिसके बारे में बुद्धिजीवियों ने भी कहा है कि मीडिया लोकतंत्र के लिए एक ख़तरा बन चुका है.

इन दिनों, संविधान और लोकतंत्र को बचाने के चलते सत्ता पक्ष और विपक्ष द्वारा एक-दूसरे पर संविधान को ताक पर रखने के आरोप आम हो चले हैं. ये लगाए जाने वाले आरोप-प्रत्यारोप राजनीतिक छींटाकशी का हिस्सा हैं या नहीं, यह एक बहस का विषय है. फिलहाल इन सब मुद्दों के बीच यह जानना बेहद ज़रूरी हो जाता कि खुद संविधान निर्माता बाबासाहेब डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने भारतीय लोकतंत्र के लिए कौन से बड़े खतरे देखे थे.

बाबसाहेब ने 25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा में दिए अपने भाषण में भारतीय लोकतंत्र के लिए तीन बड़े खतरों का ज़िक्र उन्होंने बड़े साफ़ तौर पर किया था. ताज्जुब की बात है कि ये सभी परिस्थितियां अतीत में देश देख चुका है’ और हैरान करने वाली बात ये है के वर्तमान में भी इसके उदाहरण देखने को मिल रहे हैं.

उनकी पहली चेतावनी जनता द्वारा सामाजिक-आर्थिक लक्ष्य को हासिल करने के लिए अपनाए जाने वाले गैरसंवैधानिक तरीकों पर थी. अपने भाषण में डॉक्टर अंबेडकर ने सामाजिक-आर्थिक लक्ष्यों को हासिल करने में संविधान द्वारा दी गयी शक्तियों के इस्तेमाल को जरूरी बताते हुए कहते हैं कि, “इसका मतलब है कि हमें खूनी क्रांतियों का तरीका छोड़ना होगा, अवज्ञा का रास्ता छोड़ना होगा, असहयोग और सत्याग्रह का रास्ता छोड़ना होगा”. 

अपने इरादों को और साफ़ करते हुए यहां डॉक्टर अंबेडकर यह भी कहते हैं कि लक्ष्य हासिल करने के कोई संवैधानिक तरीके न हों तब तो इस तरह के रास्ते पर चलना ठीक है लेकिन संविधान के रहते हुए ये काम अराजकता की श्रेणी में आते हैं और इन्हें हम जितनी जल्दी छोड़ दें, तो हमारे लिए बेहतर होगा.

संविधान निर्माता द्वारा दी गयी लोकतंत्र के लिए यह पहली चेतावनी कितनी सही थी इसके हम साक्षी हैं. इसके अलावा आज़ादी के बाद हम इसके कई उदाहरण अपनी आँखों से देख चुके हैं. नक्सलवाद का उभार, जम्मू-कश्मीर का अलगाववादी आंदोलन, उत्तर-पूर्वी राज्यों में चल रहे अलगाववादी आंदोलन आज भले ही राष्ट्रीय स्तर पर हमारे लोकतंत्र के लिए खतरा न हों, लेकिन जहाँ भी ये अलगाववादी गतिविधियाँ चल रही हैं वहां लोकतंत्र देश के बाकी हिस्सों की तरह मजबूत नहीं है. 

डॉ अंबेडकर के इस भाषण में दूसरी चेतावनी यह थी कि भारत सिर्फ राजनीतिक लोकतंत्र न रहे बल्कि यह सामाजिक लोकतंत्र का भी विकास करे. उनका मानना था कि यदि देश में जल्दी से जल्दी आर्थिक और सामाजिक असमानता की खाई नहीं पाटी गई यानी सामाजिक लोकतंत्र नहीं लाया गया तो यह स्थिति राजनीतिक लोकतंत्र के लिए खतरा बन जाएगी. 

ambedkar pic

साथ ही साथ उन्होंने अपने भाषण में कहा, “राजनीति में हम एक व्यक्ति एक वोट के सिद्धांत को मान रहे होंगे, लेकिन सामाजिक और आर्थिक ढांचे की वजह से हम अपने सामाजिक-आर्थिक जीवन में एक व्यक्ति की कीमत एक नहीं मानते. हम कब तक हमारे सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को नकारते रहेंगे? यदि हम लंबे अरसे तक यह नकारते रहे तो ऐसा करके अपने राजनीतिक लोकतंत्र को खतरे में डाल रहे होंगे”.

बाबसाहेब ने कहा “धर्म में भक्ति आत्मा की मुक्ति का मार्ग हो सकता है लेकिन राजनीति में, भक्ति या नायक पूजा, पतन का निश्चित रास्ता है और जो आखिरकार तानाशाही पर खत्म होता है”.

हमने अभी देश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे जिन हिंसक और अलगाववादी आंदोलनों का जिक्र किया है उनके व्यापक समर्थन की एक बड़ी वजह सामाजिक लोकतंत्र को विकसित न कर पाने की हमारी नाकामयाबी भी है. यदि बंगाल, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, महाराष्ट्र या ओडिशा के किसानों, दलितों, औरतों, अल्पसंख्यकों और भूमिहीन मजदूरों को उनके वाजिब हक मिले होते तो वहां कभी-भी नक्सलवाद या अलगाववाद इतनी मजबूती से अपनी जड़ें नहीं जमा पाता.

अपने इसी भाषण में डॉ अंबेडकर लोकतंत्र के लिए एक तीसरे खतरे का ज़िक्र करते है, जो वर्तमान राजनीति में बिल्कुल साफ-साफ देखा जा सकता है. अंबेडकर ने संविधान सभा के माध्यम से आम लोगों को चेतावनी दी थी कि वे किसी भी राजनेता के प्रति अंधश्रद्धा या अंधभक्ति न रखें, वरना इसकी कीमत लोकतंत्र को चुकानी पड़ेगी. सबसे दिलचस्प और गौर करने की बात यह है कि उन्होंने यहां राजनीति में सीधे-सीधे भक्त और भक्ति की बात की है.

वे अपने भाषण में कहते हैं, “महान लोग, जिन्होंने अपना पूरा जीवन देश को समर्पित कर दिया उनके प्रति कृतज्ञ रहने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन मानने की और श्रद्धा रखने की भी एक सीमा होती है. दूसरे देशों की तुलना में भारतीयों को इस बारे में ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत है. भारत की राजनीति में भक्ति या आत्मसमर्पण या नायक पूजा दूसरे देशों की राजनीति की तुलना में बहुत बड़े स्तर पर अपनी भूमिका निभाती आ रही है.”

अंबेडकर ने उस समय गांधी, नेहरू और सरदार पटेल के प्रति जनता में अंधश्रद्धा देखी थी. इस स्थिति में ये नायक किसी सकारात्मक आलोचना से भी परे हो जाते हैं और शायद यही समझते हुए अंबेडकर ने अपने भाषण में राजनीतिक भक्ति को लोकतंत्र के लिए खतरा बताया था. बदकिस्मती से श्रद्धावादी इस भारतीय राजनीति में यह बीमारी काफी गहरी हो चुकीं है जिसकी जड़े क्षेत्रीय राजनीति में अपना अलग स्थान बना चुकी है. क्षेत्रीय स्तर की राजनीति में तमिलनाडु के दिवंगत मुख्यमंत्री एमजी रामचंद्रन और जयललिता इसके सबसे बड़े प्रतीकों में गिने जा सकते हैं तो वहीं बिना किसी संवैधानिक पद पर रहते हुए बाल ठाकरे का भी रुतबा भी अपने भक्तों की बदौलत किसी राजनीतिक भगवान से कम नहीं था.

राष्ट्रीय स्तर पर इंदिरा गांधी इस बीमारी का सबसे सटीक उदाहरण मानी जा सकती हैं. 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम और पाकिस्तान की पराजय ने उन्हें समर्थकों के बीच अंधश्रद्धा और अंधभक्ति का विषय बना दिया था. हैरानी की बात नहीं है कि उनके शासनकाल मे उन्हें तानाशाही प्रवृत्ति का राजनेता माना जाता था और आखिरकार उन्होंने ही देश में आपातकाल लगाकर लोकतंत्र की हत्या की थी. 

इंदिरा गांधी के समय सोशल मीडिया नहीं था और यह भी साफ है कि उनके कट्टर समर्थकों को ‘भक्त’ नहीं कहा जाता था, लेकिन वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कट्टर समर्थकों के लिए सोशल मीडिया पर प्रचलित ‘भक्त’ शब्द अब आम बोलचाल की भाषा में भी इस्तेमाल होने लगा है. इस शब्द ने बीते पांच सालों में अपना एक अलग स्थान बनाया है व् परिभाषा घड़ी है. सोशल मीडिया से लेकर मेनस्ट्रीम मीडिया तक स्थिति यह हो चली है कि प्रधानमंत्री की आलोचना करने पर किसी को भी हजारों गालियाँ पड़ने और डराने धमकाने, यहां तक की जान से मारने की धमकी दी जाती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तानाशाही शहंशाह होने का आरोप भी लगता है. ये ठीक वही स्थितियाँ हैं जिनके बारे में डॉ अंबेडकर ने अपने भाषण में जिक्र किया था और जिन्हें लोकतंत्र के लिए खतरा माना था.

आज राजनीतिक अंधभक्ति की जो ये सूरत-ए-हाल है इसके लिए अगर कोई मीडिया को दोषी ठहराता है तो इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए. क्योकि आज की ‘गोदी’ मीडिया ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक अवतार के रूप में पेश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है जो बेहद अफसोसनाक तो है ही लेकिन खतरनाक भी है. खैर, ऐसा कहना गलत होगा कि ये सिर्फ इस सरकार में हुआ है.

इससे पहले भी नेहरू और इंदिरा गाँधी की पर्सनालिटी को लेकर भी मीडिया द्वारा एक नैरेटिव सेट करने की कोशिश की जाती रही है. नेहरू का ‘आईडिया ऑफ़ इंडिया’ और इंदिरा का “इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा” का नारा भी इसी श्रेणी में आता है.

तो क्या हम कह सकते है के इस अंधभक्ति और श्रद्धाभक्ति को बढ़ावा देने में मीडिया का भी एक अहम् रोल रहा है? हाँ, हम कह सकते हैं की इसमें मीडिया का बड़ा रोल रहा है. वही मीडिया जो पिछले 70 सालों से एक खास तबके, जाति और परिवार के हाथों की कठपुतली बना हुआ है. भारत की मीडिया ब्राह्मणों और बनियों का ‘जॉइंट-वेंचर’ रहा है. ये ऊँची जातियों से ताल्लुक़ रखने वाले पत्रकार, न्यूज़ एंकर, संपादक और बनिया जाति का मालिक पसमांदा मुसलमनों, आदिवासियों, दलितों, महा-दलितों और पिछड़ों के विचार, आदर्श, और मुद्दों को कभी एड्रेस नहीं किया और न ही उनको कोई मीडिया कवरेज दिया जहाँ बहुजन समाज अपनी बात रख सके.

बाबासाहेब की चेतावनियों को ध्यान में रखते हुए हम यह कह सकते हैं कि जनता के द्वारा चुने गए प्रधानमंत्री भी जनता के समक्ष जवाबदेह है. उससे भी सवाल किया जा सकता है. उससे भी गलती हो सकती है. वो आदमी है, अवतार नहीं है. अगर वो एक संवैधानिक पद पर आसीन हैं तो जनता के प्रति उसकी जवाबदेही तो बनती है.

सत्ता से आँखों में आखें डालकर सवाल पूछने वाला मीडिया आज सिरे से गायब हो चुका है. आज का मीडिया प्रधानमंत्री से सवाल करने की बजाय ये पूछता है कि ‘(इतना काम करके भी) आप थकते क्यों नहीं है? आप के इतना फिट होने का राज़ क्या है? आप में ये इतना स्टैमिना कहाँ से आता है? आप में ये फकीरी कहाँ से आई? ऐसे ही बेतुके और श्रद्धा भक्ति के सवाल अंधभक्ति को जनम देते हैं.

क्या वाक़ई हम इस तरह के सवालों को सवालों की श्रेणी में रख सकते हैं? भविष्य में ऐसी परिथितियाँ ना आएं शायद इसीलिए ही बाबासाहेब ने हमे आगाह किया था.

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सरफ़राज़ नासिर जंग मीडिया कर्मी हैं. जामिआ मिलिया इस्लामिआ में पढ़ा चुके हैं। आप पसमांदा कार्यकर्ता (एक्टिविस्ट) हैं. मुस्लिम समाज और राजनीती को पसमांदा नज़रिये से समझते-परखते हैं.     

मुहम्मद जावेद अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से लिंग्विस्टिक्स में मास्टर डिग्री हासिल की है. आप स्वतंत्र शोधकर्ता हैं.   

 

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