सुचित कुमार यादव (Suchit Kumar Yadav)
देश में आम चुनाव-2019 की बिगुल बज चुका है. तीन चरणों के चुनाव हो चुके है. इस चुनाव में कई ऐतिहासिक घटनाक्रम देखने को मील रहें हैं. चुनाव आयोग की विश्वसनीयता साख पर है, मामला सर्वोच्च न्ययालय तक पहुच चुका है. भारती जनता पार्टी ने माले गाँव के आतंकी घटना में तथाकथित रूप से आरोपी प्रज्ञा ठाकुर को मध्य प्रदेश से चुनाव में उतारा है. राहुल गाँधी के नेतृत्व में काग्रेस पार्टी चुनाव जीतने पर कम और अपने संगठन विस्तार पर ज्यादा ध्यान लगाये हुई है.
उत्तर भारत की राजनीति के केंद्र माने जाने वाले बिहार के लालू प्रसाद यादव जेल में है, उनके पुत्र तेजस्वी यादव कांग्रेस व अन्य दलों के गठबंधन के साथ बिहार चुनाव के केंद्र में है. उत्तर प्रदेश में दलितों व पिछड़ों की राजनीति करने वाली समाजवादी और बहुजन समाजवादी पार्टी पुराने गिले–शिकवे भूलते हुए साझा गठबंधन बनाकर चुनाव मैदान में हैं. मैनपुरी में सयुक्त रैली में मायावती मुलायम सिंह यादव के लिए वोट मागते हुए देखी गयी. इनकी रैलियों में उमंग और उत्साह से भरपूर अपार जनसैलाब उमड़ रहा है.मानो कोई बड़ा उत्सव चल रहा हो और ये सब मीडिया की नजरो से बहुत दूर है.
उत्तर भारत में विशेषकर उत्तर प्रदेश और कुछ हद तक बिहार में हो रहे राजनितिक घटनाक्रम को कैसे देखा जाना चाहिये? निश्चित ही विद्वानों और राजनितिक विश्लेषको के इसे देखने व समझने के अपने–अपने तर्क और नजरिया होंगे. मेरे लिए ये घटनाक्रम एक बड़े सामाजिक इन्कलाब की आहट दे रही है. एक ऐसी इन्कलाब जिसकी सपना डॉ बाबासाहेब अम्बेडकर और डॉ लोहिया साझे रूप में कभी देख रहे थे. ऐसा इन्कलाब जिसकी कोशिश मान्यवर कांशीराम ताउम्र करते रहे. मैं सामाजिक इन्कलाब की आहट भावनाओं में बह कर या दो पार्टियों में हुए गठबंधन के आधार पर नहीं कह रहा हूँ बल्कि ऐसा कहने के पीछे कई ठोस तर्क भी है.
प्रथम तर्क गठबंधन की प्रकृति व इतिहास में छुपा हुआ है. आखिर यह गठबंधन क्यों हुआ? फौरी तौर पर आप इसे मजबूरी या अवसर की राजनीति का गठबंधन कह सकते है. लेकिन यह आधा-अधुरा सत्य है. दरअसल यह राजनीतिक गठबंधन कम और सामाजिक गठबंधन ज्यादा है. राजनेताओं के सामाजिक इंजीनियरिंग तथा मैकेनिकल तत्वों से बना राजनीतक गठबंधन से अधिक दलित बहुजन समाज के साझे दर्द, तड़प, उम्मीद ख्वाब और दिलों से निकला गठबंधन है. सवाल उठता है कि यह समाज क्यों गठजोड़ कर रहा है? क्योंकि पिछले पांच सालों में तमाम ऐसी घटनाएं हुईं हैं जिनका साझा दर्द दलित–पिछड़ा, आदिवासी व अल्पसंख्यक समाज ने बड़े पैमाने पर झेला है, चाहे वह नोटबंदी हो, जीएसटी, महगाई व बेरोजगारी हो अथवा सरकारी मशीनरी स्कूल, अस्पताल, पुलिस की गिरती साख हो. इतना ही नहीं कई ऐसे मौके आये जब यह समाज आगे बढ़कर साझी लड़ाई भी लड़ने का काम किया है जिसमे SC/ST प्रिवेंशन एक्ट में संसोधन के खिलाफ लड़ाई और विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर की नियुक्ति हेतु लाये गये विभागवार (13 प्वोइंट) रोस्टर के खिलाफ लड़ाई महत्वपूर्ण रहा है.
इन दो मुद्दों ने इस समाज के आम जनमानस से लेकर बुद्धजीवियों के बीच एक एका कायम किया है. रोस्टर आन्दोलन का हिस्सा होने और बेहद करीब से देखने के नाते मै यह बात दावे के साथ कहा सकता हूँ कि देश के विश्वविद्यालयों- विशेषकर दिल्ली विश्विद्यालय, जवाहरलाल विश्वविद्यालय, जामिया और बनारस हिन्दू विश्विद्यालय के दलित बहुजन शिक्षको, छात्रों विद्वतजनों के बीच बनी इस एकता ने न केवल सपा –बसपा के सांसदों को 13प्वोइंट रोस्टर विरोध की तख्ती लेकर संसद में एक साथ खड़ा किया बल्कि गठबंधन के वर्तमान स्वरूप के लिए प्रेरित भी किया.
गठबंधन के इतिहास और प्रकृति के अलावा दूसरा तर्क जो इसे महज राजनितिक गठजोड़ से अलग बनाता है वह है इसकी कार्यप्रणाली. जिस तरह से दोनों दलों के शीर्ष नेता, कार्यकर्ता और मतदाता एक दुसरे के प्रति सम्मान व जुड़ाव दिखा रहे हैं तथा साझी रैलियां व कार्यक्रम कर रहे है यह अपने आप में एक अनोखा प्रयोग है. हाल ही में मैनपुरी की साझी रैली में एक तरफ बसपा सुप्रीमो मायावती ने पुरानी तल्खी भुलाकर मुलायम सिंह यादव के लिए समर्थन व सम्मान दिखाया वही दुसरी तरफ अखिलेश यादव ने मायावती को मुख्य अतिथि के रूप में सम्मान दिया. इससे भी कही अधिक आकर्षक है अपने समाज के मुद्दों पर दोनों नेताओ का मुखर होकर बोलना. मायावती से लेकर अखिलेश यादव तक, उधर बिहार में तेजस्वी यादव तमाम मुद्दों सहित सामाजिक न्याय, सामाजिक भाईचारे के मुद्दे पर धारदार व स्पष्टता से बोलते दिखाई पड़ते है.
इतिहास गवाह है कि दक्षिण भारत में हुए सामाजिक आन्दोलनों (दलित पैंथर व अन्य) के इतर उत्तर भारत में बड़ा सामाजिक बदलाव राज्य व राजनीति के छत्र –छाया में हुई है. निश्चित ही परिणाम तो भविष्य के गर्भ में होगा लेकिन आज सामाजिक और राजनीतिक दोनों पटल पर जो कुछ घटित हो रहा है यह एक बड़े इन्कलाब की आहट दे रहा है.
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सुचित कुमार यादव दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीतशाश्त्र पढ़ाते है और उत्तर भारत में दलित राजनीति के विशेषज्ञ है.
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