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कमलेश (Kamlesh)

kamleshतसवीरें युवा निर्देशक पावेल सिंह की पहली फिल्म है जो कि यूट्यूब पर हालही में रिलीज़ हुई है. निर्देशन के साथ ही पावेल ने फिल्म की पटकथा भी लिखी है. फिल्म की अवधि लगभग 47 मिनट की है. शुरुआती दौर में ही फिल्म इन्टरनेट दर्शकों का ध्यान खींच रही है.

आईये बात करते हैं फिल्म के ज़रिये पटल पर आये सामाजिक सरोकारों पर.

फ़िल्म की कहानी दो स्तरों पर चलती है- एक, लेखक को बनाने में प्रकाशक की भूमिका तथा दूसरी लेखक द्वारा प्रकाशक को सुनाई गयी ‘तसवीरें’ शीर्षक कहानी. प्रकाशक का एक स्वाभाविक तौर पर विकसित हो चुकी ईगो है जो प्रकाशक को लेखक पर कहानी में बदलाव करने पर जोर डालती है. इन स्थपतियों के बीच बने ताने बाने को यह फिल्म अपने तरीके से एड्रेस करती आगे बढती है और कई पेंच खोलती है. फिल्म में जो घटनाएं एवं परिस्थितियां दिखलाई गयी हैं, वे जैसे एक आईना बन हों. 

“तसवीरें” प्रस्तुत करती है स्त्री की ज़िन्दगी के हर एक पहलू की तसवीरें जो अलग अलग फ्रेम में दिखाई पड़ती हैं। एक तसवीर वैदेही की है जो एक लेखिका है और उसे लेखिका बनने की कीमत चुकानी पड़ती है, दूसरी तस्वीर प्रकाशक की पत्नी की है जिसके लिए प्रकाशक जी ने फोन में एक अलग ही रिंगटोन लगा रखी है- “मैने तुमसे कुछ नहीं मांगा.” तीसरी तसवीर लेखक अरविंद की कहानी के पात्र नयन की गर्लफ्रैंड वामिका की है जिसे नयन कैफ़े में अकेला छोड़ कर घर आ गया था और चौथी और प्रमुख तसवीर नयन की दोस्त जैनाब की है जिसने अपने भीतर धीरे-धीरे होते खालीपन से उकता कर खुदखुशी कर ली। यह चारों स्त्रियां समाज का प्रतिबिंब प्रस्तुत करती हैं।

दूसरे स्तर पर फ़िल्म एक लेखक और प्रकाशक के बीच की स्थिति को स्पष्ट करती है कि कैसे एक प्रकाशक लेखक द्वारा लिखी गयी कहानी को अपनी ‘एक्सपर्ट राय’ से बदलने का दबाव डालता है और प्रकाशक के कहने पर लेखक को यह करना ही पड़ता है। आज का लेखक वह सब नही लिखता जो वह चाहता है बल्कि उसे वह सब लिखना पड़ता है जो प्रकाशक चाहता है वरना ऐसे कितने लेखक हैं जो सड़कों पर घूमते रहते हैं इन्हें लेखक प्रकाशक ही बनाते हैं और वैसे भी अब साहित्य भी व्यावसायिक हो गया है, वही लिखा जाता है जो पाठक को अच्छा लगे. इसलिए प्रकाशक किताबों की बिक्री को ध्यान में रखकर ही लेखक पर लिखने का दबाव बनाते हैं।

“तसवीरें” फ़िल्म की शुरुआत समाज के आम नागरिक अरविंद से होती है जो कहानी का लेखक भी है। आज के युवा लेखक को अपनी प्रतिभा और रचनात्मकता को समाज के सामने लाने के लिए कितनी जद्दोजहद करनी पड़ती है और महिला लेखिकाओं को पुरुषों से ज्यादा कीमत (आर्थिक, मानसिक और शारीरिक) चुकानी पड़ती है, उदाहरस्वरूप प्रकाशक महोदय लेखिका वैदेही से कहते हैं- “तुम्हें तो सब पता है, क्या देना है, और वो भी कितना और वो भी कब।”

फ़िल्म में वर्णित स्थान (दरियागंज) उस आधुनिक समाज को दर्शाता है जो औद्योगिकीकरण और नगरीकरण के चलते जनसंख्या तथा वाहनों की वृद्धि से हर रोज जूझता है।

दरअसल कहने का उद्देश्य यह है कि संसाधन कम और समस्यायें अधिक हैं। 

शार्ट फ़िल्म में कहानी के पात्र नयन को कहा गया यह वाक्य- “तुम किसी के भी नहीं हो, खुद के भी नहीं” उन सभी व्यक्तियों के लिये प्रासंगिक है जो आधुनिकीकरण के चलते अपना अधिकतर समय सोशल मीडिया पर बिताते हैं या यूं कहें अपना अधिक समय मोबाइल, लैपटॉप आदि को देते हैं जिससे नयन और वामिका का रिश्ता ही नहीं, समकालीन समाज के अनेकों रिश्ते टूटने की कगार पर आ खड़े होते हैं।

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नयन के बचपन की दोस्त जैनाब जिसके अम्मी-अब्बू हर रोज़ किसी न किसी कारण झगड़ते रहते हैं जिसका दुष्प्रभाव जैनाब पर पड़ता है। समाज में सिर्फ यही एक उदाहरण नहीं है. मध्यवर्गीय परिवार में ऐसी घटनाएं हर रोज घटती हैं जिससे जैनाब की तरह लड़के या लड़कियां सुसाइड कर लेते हैं। एक स्त्री या लड़की को आखिर चाहिए ही क्या होता है… थोड़ा प्रेम और स्नेह- चाहे वह घर से मिले या अन्य जगह से। 

दरअसल जैनाब को यदि अपनी अम्मी-अब्बू का स्नेह मिला होता तो शायद ही वह वैभव शर्मा के चंगुल में फंसती, जो आखिर में चलकर उसकी मौत का कारण बना। हमारे समाज में स्त्रियों के प्रति पुरुषों का रवैया कठोर भी है और संवेदनशील भी। नयन के द्वारा यह कहा जाना- “उनकी (स्त्रियों) जरूरतों और फीलिंग्स का क्या?” संवेदनशीलता को दर्शाता है और वैभव शर्मा का वाक्य “अपना काम बनता, भाड़ में जाये जनता” स्त्रियों के प्रति कठोर हृदय का प्रतीक है जो उनकी कोमल भावनाओं के साथ खिलवाड़ करते हैं।

यकीनन यह शार्ट फ़िल्म समाज में व्याप्त कई समस्याओं (सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और जातिगत) को बहुत कलात्मक ढंग से को उजागर करती है। प्रकाशक का यह कहना कि “यहां लोगों को अपने दोस्तों के नाम तक याद नहीं रहते और इसे अपने दुश्मन का सरनेम तक याद है।” दअरसल यह समाज में उस जाति व्यवस्था को उजागर करता है जो अपनी पूर्वजो की परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। फलतः प्रकाशक का यह वाक्य “जिन-जिन बातों पर ध्यान दिलाने की बात की है उन सब पर ज़रा गौर कर लेना।” प्रकाशन जगत की उन खामियों को दर्शाता है जो व्यवसाय के चलते एक युवा रचनाकार की मूल रचना का गला घोंट देते हैं और अपने लाभ के लिये फेरबदल और शोषण करते हैं। यह आधुनिक समाज की कटु विडम्बना है जिससे उबरने के लिए हर एक मनुष्य को निरन्तर संघर्ष करना पड़ता है, जिसमें उबरते कम, डूबते ज्यादा हैं। 

कला के कोण से, फिल्म की पटकथा काफी रोचक है. कैमरे का इस्तेमाल खूबसूरती से किया गया है. पृष्ठभूमि संगीत कहानी को कॉम्प्लीमेंट करता है. सभी कलाकारों का काम बढ़िया रहा है. यूट्यूब पर इस फिल्म को एक बार ज़रुर देखना चाहिए.

फिल्म आप यहाँ क्लिक करके देख सकते हैं.

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कमलेश दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.ए. हिंदी की पूर्व छात्रा हैं.

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