सुरेश जोगेश (Suresh Jogesh)
“आजतक” के संपादक निशांत चतुर्वेदी की राजद नेता और बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी पर की गयी टिप्पणी ने तूल पकड़ लिया. इसके लिए निशांत की जबरदस्त खिंचाई भी हुई, लेकिन दूसरी तरफ उनके जैसी सोच रखने वालों की तरफ से भरपूर सपोर्ट भी मिला, जिनमें से एक थी बीजेपी प्रवक्ता “शुभ्रष्ठा”.
ऐसा नहीं है कि निशांत ने ऐसा पहली बार किया हो. ऐसा ही एक ट्वीट उन्होंने मायावती को लेकर भी किया था, 2011 में. तब कोई बवाल नहीं हुआ. इसके बाद उनके इस तरह के ट्वीट्स में बढ़ोतरी आती गयी. जनवरी 2019 में आरक्षण को लेकर भी यह ट्वीट कर डाला कि “किसमें हिम्मत है आरक्षण वाले डॉक्टर से अपना इलाज करवाने की?”
इसके कुछ ही दिन बाद आर्थिक आधार पर आरक्षण का बिल पास हुआ जिसने निशांत को शांत कर दिया.
निशांत का राबड़ी देवी के खिलाफ यह ट्वीट न केवल महिलाविरोधी था, बल्कि जातीय दम्भ से भी भरपूर था. और यह इस आधार पर भी कहा जा सकता है कि उनके अधिकांश ट्वीट उनकी इस विचारधारा को व्यक्त करते हैं. मायावती पर ट्वीट (2011) करके अब डिलीट करना, राबड़ी देवी पर ट्वीट, आरक्षण पर ट्वीट करना लेकिन आर्थिक आधार पर आरक्षण आते ही चुप हो जाना वगैरह.
यह सिर्फ निशांत और शुभ्रष्ठा तक ही सीमित नहीं है. अधिकांश भारतीय सवर्णों को दलित-पिछड़े-आदिवासियों का आगे बढ़ना हजम नहीं हो पाता.
आप आठ-दश महिलाओं का नाम सोचिए जो राजनीति में काफी सक्रिय हों. फिर यह देखिए कि उनमें से किन-किन के रंग-रूप, जाति-धर्म को लेकर बार-बार कमेंट किया जाता है?
इसका सबसे ज्यादा शिकार मायावती होती हैं. उनके रंग-रूप को लेकर हमेशा कमेंट किये जाते हैं. लेकिन यह सब सवर्ण महिलाओं के साथ उस स्तर पर नहीं होता. यह भी एक वजह है कि शुभ्रष्ठा को निशांत के बचाव में आना पड़ा, यह जानते हुए भी कि उनका ट्वीट महिलाविरोधी भी है.
सवर्ण महिलाओं के लिए पितृसत्ता जितनी नुकसानदायक हैं, उससे कहीं ज्यादा फायदेमंद उनकी जाति है, इसलिए वो खुद ही जातीय अहंकार को बढ़ावा देते हुए कई बार पितृसत्ता को इग्नोर कर जाती हैं.
निशांत और शुभ्रष्ठा के ट्वीट्स में अलग यह भी था कि उन्होंने साथ ही साथ यह भी फैसला कर दिया कि उनका ट्वीट महिलाविरोधी है न जातिवादी.
क्या यह फैसला आरोपी करेगा कि उसने अपराध किया या नहीं?
क्या यह फैसला पुरुष को करना चाहिए कि उसके व्यवहार और बोलचाल में पितृसत्ता है या नहीं?
क्या यह फैसला गौरे को करना चाहिए कि वो व्हाइट सुप्रीमेसी से ग्रसित है या नहीं?
क्या यह फैसला सवर्ण को करना चाहिए कि उसके व्यवहार और बोलचाल में उसका उच्च जातीय दम्भ है या नहीं?
जातिवादी बात सिर्फ वो नहीं होती जिसमें जाति को लेकर कोई बात की गयी हो. कई बार उच्च जाति का इंसान अपनी जातीय श्रेष्ठता को साबित करने और अपना उच्च जातीय दम्भ दिखाने के लिए भी इस तरह की हरकत करता है. आखिर सदियों से जन्मजात श्रेष्ठ रहे इंसान को यह कैसे हजम हो सकता है कि कोई उससे निचली जाति का इंसान ऊंचा उठे.
सबसे बाद सवाल खड़ा करती है निशांत के ट्वीट की टाइमिंग. जैसे ही राबड़ी देवी ने मोदी जी से सवाल किया, निशांत ने यह ट्वीट कर डाला. भारतीय राजनीति में अधिकतर लोग अनपढ़ या बहुत कम पढ़े लिखे हैं. कईयों की डिग्रीयों पर भी सवाल उठते रहते हैं. यहां तक प्रधानमंत्री खुद Mrs को एमआरएस पढ़ लेते हैं, कभी “वीड एनर्जी” बोल देते हैं. ऐसे समय में भी जब मीडिया उनकी शिक्षा पर सवाल नहीं उठाता तो उन्हीं से सवाल करने पर शिक्षा पर सवाल कैसे उठ सकता है?
वहीं जब निशांत के ऐसे अभद्र व्यवहार के बाद भी सपोर्ट करने वालों की लिस्ट देखी तो अधिकतर के नाम के आगे चौकीदार था या सरनेम सवर्ण थे.
रही सही कसर उनके बचाव में आयी “शुभ्रष्ठा” ने पूरी कर दी. शुरूआत उन्होंने चारा घोटाले के मुद्दे से की, फिर तेजस्वी की शिक्षा पर आयी, आखिर में यह फैसला सुनाया कि यह सब न तो महिलाविरोधी है न जातिवादी.
हर पांच साल में हजारों-लाखों करोड़ों के सैंकड़ों घोटाले होते हैं. अभी आज ही की खबर है कि 358 खदानों की लीज में 4 लाख करोड़ का घोटाला हुआ है. घोटालों की हर सरकार में लंबी फेहरिस्त रहती है लेकिन न किसी का नाम उछलता है, न लोगों की जुबान पर रहता है, न कार्यवाही होती है, न सजा मिलती है.
अक्सर नारीवाद पर भाषण देते भी सुनते होंगे आप शुभ्रष्ठा को लेकिन जाति की बात आयी तो उन्होंने नारीवाद को तिलांजलि दे दी. यही नहीं, मंच पर वो दूसरे दलों के नेताओं यह भी कहते सुनी गयी हैं कि उनकी भाषा महिलाओं के आरती बहुत अभद्र है लेकिन लोगों ने जल्द ही उन्हें आईना दिखा दिया जब वो खुद उससे भी अभद्र भाषा का यूज़ करते हुए पकड़ी गयी, लाइव वीडियो में.
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सुरेश जोगेश आई.आई.टी में एक विद्यार्थी होने के साथ साथ एक फ्रीलान्स लेखक व् सामाजिक कार्यकर्ता हैं.
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