लेनिन मौदूदी (Lenin Maududi)
पिछले साल बुलंदशहर में इस्लामी धार्मिक महासम्मेलन के लिए करोड़ों मुसलमान एकत्रित हो गए. इससे एक बात तो साबित होती है कि मुस्लिम समाज पर आज भी उलेमाओं की पकड़ मज़बूत है, जिनकी तक़रीर को सुनने के लिए 1 करोड़ लोग भी आ सकते हैं पर अब दूसरा और ज़रूरी सवाल यह किया जाए कि इस इज़्तेमा (मुसलमानों का सम्मलेन/सत्संग) से मुस्लिम समाज को क्या लाभ हुआ? अच्छा हम दुनियावी लाभ की बात न करें क्योंकि यहां बात ज़मीन से नीचे यानि ‘कब्र’ की और आसमान से ऊपर यानि ‘जन्नत’ की होती है. चलो ठीक है! तो फिर आप यही बताएं कि जन्नत में जाने के लिए क्या हमें इस्लामी सिद्धांत पर नहीं चलना चाहिए? क्या इस्लाम में मसावात (बराबरी) का सिद्धांत नहीं है? तो फिर इस्लाम में जातिवाद जैसी बुराईयों के खिलाफ मोर्चा क्यों नहीं खोला जाता है? क्या आज तक कभी इन उलेमाओं ने जातिवाद के खिलाफ कोई सावर्जनिक पहल की है? कितनी तकरीरें इस विषय पर हुई हैं? सच्चाई तो ये है कि मुस्लिम समाज में जात-पात का ज़हर इन्हीं अशराफ उलेमाओं ने फैलाया है जिन्होंने “कफू” के नाम पर मुस्लिम समाज को श्रेणियों में बाँट दिया.
“कफू” का सिद्धांत यह बताता है कि कौन किस जाति में शादी कर सकता है और किस जाति में शादी नहीं कर सकता? कौन किस जाति के बराबर है और कौन उससे नीचा है? कफू एक ज़रिया एक हथियार था जिसके द्वारा ये जातिवादी उलेमा इस्लाम में नस्ल/वंश परंपरा वाली बात को कानूनी मान्यता दे सकें. आप हनफ़ी मसलक के सबसे बड़े मदरसों में से एक देवबंद आधिकारिक वेबसाइट देखिए आप को इस तरह की बातें दिखेंगी जैसे [http://www.darululoom-deoband.com/english/books/nikah.htm] एक अरब, गैर-अरब से श्रेष्ठ है, अंसारी, दर्जी, धोबी से सैयद-शेख श्रेष्ठ हैं, खानदानी मुसलमान, नए हुए मुसलमान से श्रेष्ठ है आदि.
इस्लामी मान्यता के अनुसार इस तरह की श्रेष्ठता का दावा सबसे पहले इब्लीस ने भी किया था. इब्लीस ने बोला कि मै आदम के आगे सजदा नहीं करूँगा क्योंकि वह मिटटी से बना है और मै आग से और आग मुट्ठी से अफ़ज़ल(श्रेष्ठ) है. इब्लीस ने जन्म के आधार पर खुद की श्रेष्ठा को साबित करने की कोशिश की और आज इब्लिसवादी अशराफ उलेमा भी अपनी जाति की श्रेष्टता को साबित करने के लिए खुद को नबी (स.अ) की खानदान का साबित करते हैं. आप यूट्यूब पर दर्जनों ऐसे वीडियो देख सकते हैं जहाँ ये उलेमा खुल के बोल रहे हैं कि सैयद बाकी जातियों से अफ़ज़ल(श्रेष्ठ) हैं. बस आप को यूट्यूब पर लिखना होगा “सैयद का अदब” सैयद की अज़मत” और दर्जनों वीडियो आप के सामने होंगे। क्या यही काम ब्राह्मण अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए नहीं करते हैं? जब कोई ब्राह्मण कहता हैं कि हम ब्रह्मा के मुख से जन्मे हैं इसलिए हम बाकी सभी से श्रेष्ठ हैं? लेकिन ब्राह्मण को ये पता था कि बोलने से कुछ नहीं होगा इसलिए उन्होंने अपनी बात ईश्वर के मुंह से कहलवाई अर्थात ईश्वर की वाणी वेद को माना जाता है. अब अगर ये बात वेद में ही लिख दी जाए तो कौन इसका विरोध करेगा? ब्राह्मण अपनी बात साबित करने के लिए ऋग्वेद का सहारा लेते हैं जिसके 10वे मंडल में पुरुषसूक्त नाम से इस बात का वर्णन कर देते हैं। जब ईश्वर की वाणी के रूप में ब्राह्मणों ने ये स्थापित कर दिया कि ब्राह्मण सबसे श्रेष्ठ हैं तो उनको अपनी बात आम जनता के बीच स्थापित करने में दिक्कत नही हुई.
ठीक इसी तरह इन अशराफ उलेमाओं ने भी खुद को नबी(स.अ) से जोड़ कर झूठी हदीसें गढ़ीं. यह भी ज्ञात रहे कि हदीसों का संकलन नबी(स.अ) की वफ़ात के 100 साल बाद शुरू हुआ है. यह वही वक़्त था जब सत्ता के लिए शिया और सुन्नीयों के बीच जंग हो रही थी. सत्ता की दावेदारी को सही साबित करने का सबसे आसान तरीका क्या होता है? वह ये कि आप किसी तरह अपनी सत्ता को ईश्वर का आदेश साबित कर दें. राजनीतिक विज्ञान में इसे “राज्य की दैवीय उतपत्ति का सिद्धांत” के रूप में पढ़ते हैं. राज्य ईश्वर ने बनाया इसलिए राजा ईश्वर का दूत है ‘ज़िलल्ले इलाही’ है. कोई भी उसकी सत्ता के विरुद्ध विद्रोह नहीं कर सकता. बस यही होड़ उस वक़्त भी मची हुई थी. सुन्नी सत्ता को कुरैश तक सीमित रख रहे थे और शिया सत्ता को अली(र.अ) की खानदान तक. अगर ये साबित कर दिया जाए कि नबी(स.अ) ने किसी खास खानदान या काबिले को सत्ता सौंपी थी तो उसकी दावेदारी ईश्वरीय हो जाएगी क्योंकि नबी(स.अ) ईश्वर के दूत थे. अब कोई भी आम मुसलमान हदीस का नाम सुन कर शांत हो जाएगा और नहीं पूछेगा कि कैसे तुमने इस्लाम के मसावात के खिलाफ हदीस गढ़ दी? जो इस्लाम कहता है कि “इस्लाम मे कोई वंश परम्परा नही है” वहां तुमने वंश परंपरा को मजबूत कैसे कर दिया? पर यह हिम्मत करता कौन है? भले ही इमाम बुखारी(र.अ) ने अपनी समझ (रिवायतन और दरायतन) और तहक़ीक़ पर कई लाख हदीसों में से कुछ हज़ार हदीसों का संकलन किया हो पर आज उन हदीसों को कोई दुबारा अपनी तहक़ीक़ का आधार बनाए तो मुन्किर-ए-हदीस बन जाएगा और फ़ौरन इस्लाम से ख़ारिज कर दिया जाएगा। इससे हुआ यह है कि इन हदीसों को आधार बना कर बड़े-बड़े मौलानाओं ने फतवे दिए. आज जो कठमुल्ले जातिवादी भाषा बोल रहे हैं दरअसल इनमें उनका दोष कम है उनके मानसिक पिताओं का दोष ज़्यादा है.
इन अशराफ मौलवियों ने जातिय सर्वोच्चता को इस्लाम में पैदा किया और समझाया कि कैसे सैयद जन्म से ही महान होते हैं? क्यों अशराफ जातियों को ही मुसलमानों का नेतृत्व किया जाना चाहिए? क्यों छोटी जाति के लोग अशराफों के स्तर के नहीं हैं? अपनी बात की वैधता के लिए अब इन अशराफ मौलानाओं को पसमांदा समाज के कुछ गुलामों की आवश्यकता थी जो इनके मदरसों से इनकी किताबों को पढ़ कर निकलें और इस बात को पसमंदा समाज को समझा सकें. कमाल की बात ये है कि ऐसा हुआ भी! कई सौ सालों तक उनके इन फतवों और किताबों को पसमांदा मुसलमान सीने से लगा कर घूमता रहा. उदाहरण स्वरुप पिछली सदी में लिखी गई अशरफ अली थानवी की किताब ‘बहिश्ते ज़ेवर’ को देख सकते हैं जिसकी गिनती उन किताबों में होती है जिसे तबलीगी जमात के लोग रोज़ मस्जिदों में शाम की नमाज़ के बाद पढ़ते हैं. कुछ साल पहले तक बिना इस किताब को पढ़े गाँवों में मुस्लिम लड़कियों का ब्याह नहीं होता था. इस किताब में थानवी जी फरमाते हैं कि “शेख, सय्यद बड़ी जातियों के हैं, दोनों आपस में शादी करेंगे. मुग़ल, पठान-सय्य्दों के बराबर नहीं है. नए मुसलमान खानदानी मुसलमान के बराबर नहीं है. पेशे में बराबरी ये है कि जोलाहे, दर्ज़ियों के मेल और जोड़ के लायक नहीं है. इसी तरह नाई, धोबी वगैरह भी दरज़ी के बराबर नहीं है”: बहिश्ते ज़ेवर, खंड ४, १२.१४.
इन मदरसों ने गुलाम पसमांदा मौलानाओं की जो फौज तैयार की उसने कभी भी इन फतवों, किताबों, उलेमाओं को चुनौती नहीं दी. क्योंकि इन्हें समझया गया है कि इस्लाम सीखने के लिए इन्हें “तक़लीद” (फतवों के हिसाब से अपनी ज़िन्दगी बसर करना) करना है. तक़लीद नहीं समझ मे आया हो तो आसान भाषा मे इसे ‘अंधभक्ति’ ही समझें. अंधभक्त और गुलाम पसमांदा की फौज, आज भी अपनी गुलामी के सारे तर्क को स्वीकार कर, हर पसमांदा-विद्रोह को, आज तक खुद ही दबाते आ रही हैं.
जब भी कोई विरोधी स्वर उठता है फौरन इन अंधभक्तों को काम पर लगा दिया जाता है. चरित्र हनन करने के लिए, फ़तवा देने के लिए. पर इसी बीच मसूद आलम फलाही जैसे कुछ मौलाना पैदा हो गए हैं. जिन्होंने न सिर्फ अशराफवाद की सत्ता को चुनौती दी बल्कि उन्हीं की किताबों हदीसों की पसमांदा हवाले से व्याख्या भी कर दी. मसूद आलम फलाही की किताब “हिंदुस्तान में ज़ात-पात और मुसलमान” इस मायने में एक मील का पत्थर साबित हुई. बस अब क्या था… अशराफ तबके के सबसे मज़बूत आधार यानी धार्मिक आधार पर ही हमला हो गया. खलबली मच गई कि इनके वर्चस्व को चुनौती किसने दी? अशराफ और उनके गुलाम पसमंदा मौलानाओं ने इसके खिलाफ जंग छेड़ दी क्योंकि अब धर्म का इस्तेमाल शोषण के लिए नहीं बल्कि शोषण के विरुद्ध लड़ने के लिए किया जा रहा था. खेल ही बदल गया. सैकड़ो सालों में जो नहीं हुआ वो अब कैसे हो गया? मदरसे जो अशराफवाद का अड्डा हैं उसमें सेंध लग गई. अभी तक पसमांदा मौलानाओं का काम उन किताबों को सिर्फ पढ़ना था न कि उन किताबों में लिखे वाहियात तर्को को चुनौती देना. ये पसमांदा आंदोलन का सबसे मजबूत पक्ष था कि उनके खेल में उन्हीं को चुनौती दी जाए, हरा दिया जाए. यही वजह है कि पसमांदा आंदोलन आज के जातिवादियों की जगह उनके मानसिक पिताओं को ज़्यादा टारगेट करता है. हमारा स्पष्ट मानना है कि जब तक विचारधारा नहीं बदलती तब तक आपकी संस्कृति नहीं बदलती और जब तक आपकी संस्कृति नहीं बदलेगी, आपका मनोविज्ञान नहीं बदलेगा.
याद रहे आप का मनोविज्ञान ही आप के व्यवहार को निर्देशित करता है. इसलिए आपका व्यवहार वैसा ही रहेगा जैसी विचारधारा है. उदाहरण के लिए, सैयदवाद/मनुवाद/ब्राह्मणवाद एक विचारधारा है. इस विचारधारा ने जो संस्कृति बनाई उसमें जातिवाद, छुआछूत, वर्ण व्यवस्था थी/है. हजारों सालों तक लोग मानते रहे कि वर्ण नाम की कोई चीज होती है पर जैसे-जैसे मनुवाद/ब्राह्मणवाद कमजोर हो रहा हैं, वैसे-वैसे संस्कृति बदल रही है और उसी के अनुरूप हमारा मनोविज्ञान भी बदल रहा है.
ये जग ज़ाहिर है कि मुसलामनों में शिक्षा का स्तर कम है. ये ज़्यादातर बेरोज़गार हैं. सरकार पसमांदा समाज के पेशों पर लगातार हमला कर रही है. ऐसे में इस सवाल का जवाब तो देना होगा न कि मुसलमानों का 85% पसमांदा समाज आज अगर गलाज़त में जी रहा है तो कसूरवार कौन है? सरकार को तो हम जी भर के गालियां देते ही हैं और देते रहेंगे पर अब हमें अशराफ मुस्लिम रहनुमाओं से सवाल करने होंगे. हमारे मुसलिम समाज के धार्मिक और राजनीतिक रहनुमाओं ने कौन-सी रणनीति बनाई है जिस पर चल कर यह समाज अपनी गलाज़त से निकल सके? शिक्षा और रोज़गार क्या हमारी मुस्लिम राजनीति का हिस्सा हैं भी? ये समस्याएं आखिर कभी राष्ट्रीय बहस का हिस्सा क्यों नहीं बन पाती हैं? तलाक के मुद्दे पर तो सड़कें भर देने वाले हमारे धार्मिक रहनुमा क्या इन मुद्दों पर कभी सड़कों पर निकले हैं? इज्तिमा में करोड़ो लोगो को बुलाने की क्षमता रखने वाले क्या इन मुद्दों पर सड़को को भर नही सकते? हिंदुत्व (फासीवादी ताकतों) को मुसलमानों का सबसे बड़ा खतरा बताने वाले हमारे रहनुमाओं ने उससे लड़ने के लिए कौन-सी लोकतांत्रिक रणनीति समाज को दी है? कैसे हम इस खतरे का मुकाबला करें? क्या कोई तरीका है मुसलिम समाज के पास? दरअसल, हमारे रहनुमा (धार्मिक और राजनीतिक दोनों) सिर्फ जज्बाती बातों के तवे को गर्म करके पर अपनी रोटियां सेंकने का काम करते हैं. हर चुनाव में ये इन पसमांदा मुसलामनों की भीड़ दिखा कर अपने बेटों और दामादों के लिए सीट मांग लेते हैं. बिहार का शरीयत बचाव आंदोलन तो अभी हाल का उदाहरण है. इनके पास समाज की स्थिति को सुधारने की कोई रणनीति नहीं है. इसलिए ये पसमांदा समाज को तालीम, रोजगार और विकास जैसे मुद्दों से भटकाने के लिए बुरका, मदरसा, अलीगढ़, ईशनिंदा, समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दों में उलझाए रखते हैं. अगर फिर कोई मज़ाक बनता है तो ये अपना सीना भी पीटते हैं कि हमारा मज़ाक बनाया जा रहा है.
यहाँ एक बात और स्पष्ट कर दूँ कि पसमंदा आंदोलन का मानना यही है कि हमारा समाज धार्मिक समाज है तो इसे धार्मिक तरीके से ही पहले समझाया जा सकता है. उसके बाद ही दूसरे तरीके इस्तेमाल किए जाएंगे. जैसे, अगर कोई वकील किसी अपराधी को कानूनी किताब के ज़रिए बचाने की कोशिश करता है तो दूसरा वकील उस अपराधी को सज़ा दिलाने के लिए उसी कानूनी किताब का सहारा लेता है न कि उस किताब को फाड़ के फेंक देता है. जहाँ तक मुसलमानों की एकता का सवाल है, उसे पहले से ही अगड़े मुसलमानों ने कई मसलक (अहल-ए-हदीस, बरेलवी, देओबंदी, वहाबी, सूफी, शिया, इत्यादि) बना कर खतरे में डाल रखा है. यह मिथकीय एकता केवल पसमांदा मुसलमानों को गुलाम बनाए रखने और एक ख़ास अशराफ वर्ग के प्रभुत्व को बरक़रार रखने का प्रयास है. वह एकता किस काम की जहाँ न बराबरी हो और न आत्मसम्मान? अगर कोई एकता दमनकारी है तो ऐसी एकता बेमानी है.
इस मिथक पे व्यंगात्मक अंदाज़ में प्रथम पसमांदा आंदोलन के जनक मौलाना अली हुसैन आसिम बिहारी लिखते हैं कि, “सुब्हान अल्लाह, भारत देश में सैकड़ो अंजुमनें बनाईं जाएँ, पचासों कांफ्रेंसें आयोजित हों, एक दूसरे के खिलाफ धड़ेबंदियां की जाएँ, एक अंजुमन व कांफ्रेंस के सदस्य दूसरी अंजुमन व कांफ्रेंस के सदस्यों को बेईमान, ग़द्दार,चोर आदि कहें, लिखें और मशहूर करें। यही नहीं, बल्कि उनकी व्यक्तिगत कमज़ोरियों और पारिवारिक ग़लतियों को प्रचारित करने के लिए पैसे बर्बाद करें, एक दूसरे को ईर्ष्यालु, गवर्नमेंट का जासूस आदि बताएं, काफिर व मुशरिक (खुदा की जात में दूसरे को शरीक करनेवाला) के फतवे दिए जायें. ये बातें भारत में रोज़ हों, बराबर हों और बहुत ज़्यादा हों. मगर उन सारी नालायकियों से मुसलमानों में एकता पैदा हो, निःस्वार्थभाव से सेवा का उत्साह पैदा हो. और अगर कोई गरीब व मजबूर समाज अपने उलेमा (धर्म गुरुओं) नेताओं और लीडरों की तरफ से निराश होकर अपनें सामाजिक सुधार व शिक्षा की व्यवस्था करे तो उस से मुसलमानों में विरोधाभास पैदा होने का डर प्रकट किया जाये. माशाअल्लाह।” (पेज 4, अलइकराम, 1 फरवरी 1927 ई०, जिल्द-2, नंबर-2)
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लेनिन मौदूदी लेखक हैं एवं DEMOcracy विडियो चैनल के संचालक हैं, लेखक हैं और अपने पसमांदा नज़रिये से समाज को देखते-समझते-परखते हैं.
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पसमांदा समाज के ईलीट वर्ग और झुटभैया नेता और दीनी ईल्म रखने वाले मौलवी साहब सभी को यह गैर मुस्लिम समाज ,समुदाय के सामने स्वीकार करने की शाहस नहीं है जिस तरह से गैर-मुस्लिम पिछड़ा स्वीकार किया और यह जोर शोर से सभी प्लेटफार्म पर बताया फलस्वरूप मुलायम नितीश लालू कांसीराम खुथ को स्थापित किया समाज को जागरूक किया और उसका सकारात्मक राजनीति रुप से हिस्से दारी भी मिला । पसमांदा खुद की पहचान अरब से जोड़ने का असफल प्रयास करता रहा है यही इसकी ऐतिहासिक भुल करता चला रहा है ।