देवी प्रसाद (Devi Prasad)
मुझे अभी भी याद है बचपन का वो दिन जब ग्रामीण दलित-बहुजन महिलाएं स्थानीय भाषाओं में लोकगीत गाते हुए वोट डालने जाती थी, और गाने का मुखड़ा होता था- “चला सखी वोट दय आयी, मुहर ‘पंजा’ पर लगाई.” दलित-बहुजन समाज पर अनेक लेख पढ़ने-लिखने के पश्चात मेरा ध्यान उन गाती हुयी ‘मतदाताओं’ और उस समाज के राजनीतिक अधिकारों तथा प्रतिनिधित्व पर गया और ज्ञात हुआ कि कांग्रेस ने उनके साथ कभी सामाजिक न्याय नहीं किया. जिसका परिणाम हमारे सामने है. हालाँकि, आज भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) को भी दलित-बहुजन समाज ने सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया.
देश की लगभग आधी आबादी पिछड़े वर्गों की है तथा उनके हितों व संवैधानिक अधिकारों का निर्णय प्रायः सवर्ण जातियों के नेताओं के द्वारा अनमने ढंग से किया जाता रहा. इसलिए इस समुदाय के युवा वर्ग अक्सर कहते हैं, “वोट हमारा, राज तुम्हारा, नहीं चलेगा – नहीं चलेगा”. इस समुदाय में व्याप्त जागरूकता का अभाव तथा अशिक्षा ने, इन्हें दूसरों के फैसले पर भरोसा करने पर मजबूर कर रही थी. परिणामस्वरूप, यह समाज भारतीय राजनीति में कई दशकों तक मूकदर्शक बना रहा. जे.पी. आन्दोलन और कांग्रेस जनित ‘इमरजेंसी’ से देश में एक नया सामाजिक-राजनीतिक माहौल बना तथा मंडल कमीशन लागू होने के बाद इस बड़े हिस्से के लिए स्वर्णिम काल शुरू हुआ और पिछड़े वर्ग को राजनीतिक-प्रतिनिधित्व प्राप्त करने का मौका मिला. परिणामस्वरूप, 1990 के दशक के बाद उत्तर भारत में एक ‘नई राजनीतिक-पारी’ की शुरुआत हुई और ‘मूक क्रांति’ के रूप में मुखर हुयी, जिसका वर्णन क्रिस्टोफ़ जाफ्रेलॉट (एक राजनीतिक विश्लेषक) अपनी पुस्तक “India’s Silent Revolution” (2003) में करते हैं. कई अन्य शिक्षाविदों ने भी इसे स्वीकारा और इसका श्रेय काशीराम, कर्पूरी ठाकुर, बी.पी. मंडल, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, मायावती और कई अन्य नेताओं को दिया.
जहाँ एक तरफ, “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी” का नारा देने वाले माननीय कांशीराम सत्ता को दलित की चौखट तक लाना चाहते थे. वहीँ दूसरी तरफ, लालू प्रसाद यादव ने दलित-बहुजन को एक “वेक-अप कॉल” दिया, जिसे उनके भाषण से समझा जा सकता है-
जिसके परिणामस्वरूप, जीतनराम मांझी और कुछ अन्य दबे-कुचले जातियों के स्थानीय नेताओं को उभरने में बल मिला.
इसी तरह के अन्य उदाहरण अक्सर दलित-बहुजन समाज द्वारा सोशल मीडिया पर साझा किए जाते हैं. हाल ही में एक लेख मिला, जिसमे लालू यादव के अलोली गाँव में किसी कार्यक्रम का वर्णन था. जिसमें लालू प्रसाद यादव ने पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर का जिक्र किया. लालू प्रसाद यादव ने बोला, ‘जब कर्पूरी जी आरक्षण की बात करते थे, तो लोग उन्हें मां-बहन-बेटी की गाली देते थे. और जब मैं दलित-बहुजन के लिए आरक्षण की बात करता हूं तो अपमानजनक भाषा का उपयोग करने से पहले, चारों ओर लोग यह देखने के लिए मुड़ते हैं कि क्या कोई पिछड़ा-दलित-आदिवासी सुन तो नहीं रहा है.’ लालू प्रसाद यादव ने इस सामाजिक परिवर्तन का श्रेय कर्पूरी ठाकुर को दिया और बताया कि कर्पूरी ठाकुर ने हाशिए पर रहने वाले समुदायों को आगे बढने का मौका दिया. जिसके कारण ‘जननायक’ का नाम बिहार के पहले गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के नाम के साथ जोड़ा गया था. उपरोक्त कहानी (narrative) से हमारा ध्यान ऐसी सामंती मानसिकताओं की तरफ आकर्षित होता है, जो पिछड़े वर्ग को सिर्फ हाशिये पर ही देखना पसंद करते रहे हैं. कालांतर में उत्तर भारत के एक क्षेत्रीय राजनीतिक दल ने सत्ता के इस असमान वितरण को अपना मुद्दा बनाया और अपनी रोटियां सेकनी शुरू की, जिसे सामंती विचार के लोगों ने ‘जंगल राज’ या ‘गुंडा राज’ की संज्ञा दे डाली तथा सामाजिक वास्तविकता पर पर्दा डालने की भी कोशिश की. गाँव के आर्गेनिक इंटीलेक्टुअल (जमीनी-बुद्धिजीवी) अक्सर कहते हैं कि ‘यदि आप पिछड़े समाज के एक बड़े हिस्से को ‘पिछड़ा’ ही रखना चाहते हैं, तो उन्हें निर्णय लेने और उच्च शिक्षा में प्रवेश के अधिकारों से दूर रखें.’ हालाँकि, शिक्षा के प्रति चेतना ग्रामीण समाज के बुद्धिजीवी वर्गों पर अचानक नहीं आयी, बल्कि इस जागरूक वर्ग के सामाजिक दर्शन पर ‘बामसेफ’ तथा अन्य समाज सुधार आंदोलनों का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता हैं.
पिछड़े वर्ग में आती हुई सामाजिक चेतना को देखते हुए वर्ष 2006 में, कांग्रेस के नेतृत्व वाले ‘संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन’ (UDA) ने घोषणा की और कहा कि मंडल आयोग की सिफारिशों को उच्च-शिक्षा में जल्दी ही लागू किया जाएगा. इस घोषणा के उपरांत, उच्च शिक्षा संस्थानों में सत्ताईस प्रतिशत (27%) सीटें केंद्र सरकार द्वारा ओबीसी के लिए अलग से आरक्षित कर की गई. हालाँकि, एक दशक के बाद, अभी भी राष्ट्रीय महत्व के शिक्षण संस्थानों (आईआईएम, आईआईटी या केंद्रीय विश्वविद्यालय) में ओबीसी वर्ग के विद्यार्थियों का प्रतिनिधित्व न के बराबर है और इन शीर्ष शिक्षण संस्थानों में प्रोफेसर जैसे पदों पर पिछड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व लगभग एक प्रतिशत है. जबकि ओबीसी देश की आबादी का लगभग पचास प्रतिशत है, लेकिन केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों के सभी संकायों के पदों में उनका प्रतिनिधित्व दश प्रतिशत (10%) से भी कम है. राष्ट्रीय पिछड़ा आयोग बनाने की एक लंबे समय से चली आ रही मांग थी, लेकिन कांग्रेस को कभी इसे पूरा करने का एहसास नहीं हुआ. एनडीए के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी, संविधान (123 वां) संशोधन विधेयक लाकर ‘राष्ट्रीय पिछड़ा (ओबीसी) आयोग’ को संवैधानिक दर्जा देकर इस शून्य को भरने के लिए अनमने ढंग से प्रयास किया, लेकिन पिछली जनगणना (2011) के जाति आधारित आंकड़ों को प्रकाशित करने से उसे भी परहेज है. क्योंकि उन्हें लगता है कि उनका जातीय राजनीतिक समीकरण डगमगा सकता है. दलित समुदाय के एक वरिष्ठ लीडर थावर चंद गहलोत ने कहा, “यह बिल ओबीसी लोगों को न्याय प्रदान करेगा, यह समय की जरूरत है.”
यह शायद एक रहस्य है कि ओबीसी का कांग्रेस पार्टी के शीर्ष क्षेत्रों में बहुत कम प्रतिनिधित्व है, चाहे वह अखिल भारतीय कांग्रेस समिति (AICC) हो या कांग्रेस कार्य समिति (CWC). पिछड़ा वर्ग (OBCs) का प्रतिनिधित्व कांग्रेस पार्टी के ‘महिला’ और ‘युवा विंग’ के नेतृत्व से भी गायब है, जिसे नीचे दिए गए तालिकाओं के माध्यम से स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है:
तालिका-1: 1947 से 2019 तक कांग्रेस अध्यक्ष1
नाम |
श्रेणी (जाति) |
राज्य |
जे.बी. कृपलानी |
सामान्य (क्षत्रिय) |
तेलंगाना |
प. सीतारमैय्या |
सामान्य (ब्राह्मण) |
आंध्र प्रदेश |
पी. दास टंडन |
सामान्य (ब्राह्मण) |
उत्तर प्रदेश |
जवाहरलाल नेहरू |
सामान्य (ब्राह्मण) |
उत्तर प्रदेश |
यू.एन. ढेबर |
सामान्य (बनिया) |
गुजरात |
इंदिरा गांधी |
सामान्य (ब्राह्मण) |
उत्तर प्रदेश |
नी. संजीव रेड्डी |
सामान्य (रेड्डी) |
आंध्र प्रदेश |
के. कामराज |
ओबीसी (नादार) |
तमिलनाडू |
एस. निजलिंगप्पा |
लिंगायत |
कर्नाटक |
जगजीवन राम |
अनुसूचित जाति |
बिहार |
शंकरदयाल शर्मा |
सामान्य (ब्राह्मण) |
मध्य प्रदेश |
देवकांता बरुआ |
सामान्य (ब्राह्मण) |
असम |
के. ब्रह्मानंद |
सामान्य (रेड्डी) |
आंध्र प्रदेश |
राजीव गांधी |
सामान्य (ब्राह्मण) |
उत्तर प्रदेश |
पी.वी.नरसिम्हाराव |
सामान्य (ब्राह्मण) |
तेलंगाना |
सीताराम केसरी |
ओबीसी (बनिया) |
बिहार |
सोनिया गांधी |
सामान्य (ब्राह्मण) |
उत्तर प्रदेश |
राहुल गांधी |
सामान्य (ब्राह्मण) |
उत्तर प्रदेश |
तालिका-2: वर्तमान CWC सदस्य (2019-20)2
नाम |
श्रेणी (जाति) |
राज्य |
मनमोहन सिंह |
अल्पसंख्यक (सिख) |
पंजाब |
राहुल गांधी |
सामान्य (ब्राह्मण) |
उत्तर प्रदेश |
ए.के. एंटनी |
अल्पसंख्यक (ईसाई) |
केरल |
अहमद पटेल |
अल्पसंख्यक(मुस्लिम) |
गुजरात |
अंबिका सोनी |
सामान्य (खत्री) |
पंजाब |
आनंद शर्मा |
सामान्य (ब्राह्मण) |
हिमांचल प्रदेश |
अविनाश पांडे |
सामान्य (ब्राह्मण) |
महाराष्ट्र |
जी. गौखंगम |
अनुसूचित जनजाति |
मणिपुर |
गुलामनबी आज़ाद |
अल्पसंख्य (मुस्लिम) |
जम्मू और कश्मीर |
हरीश रावत |
जनरल (राजपूत) |
उत्तराखंड |
ज्योतिरादित्य सिंधिया |
ओबीसी (कुनबी) |
मध्य प्रदेश |
कुमारी शैलजा |
अनुसूचित जाति |
हरियाणा |
के.सी.वेणुगोपाल |
सामान्य (नायर) |
केरल |
के सिद्धारमैया |
ओबीसी (कुरवा) |
कर्नाटक |
लुइजिन्हो फलेरो |
अल्पसंख्यक (ईसाई) |
गोवा |
मोतीलाल वोरा |
सामान्य (ब्राह्मण) |
राजस्थान |
मल्लिकार्जुन खड़गे |
अनुसूचित जाति |
कर्नाटक |
मुकुल वासनिक |
अनुसूचित जाति |
महाराष्ट्र |
ओमन चांडी |
अल्पसंख्यक (ईसाई) |
केरल |
प्रियंका गांधी |
सामान्य (ब्राह्मण) |
उत्तर प्रदेश |
रघुवीर सिंह |
अनुसूचित जनजाति |
राजस्थान |
ताम्रध्वज साहू |
ओबीसी (साहू) |
छत्तीसगढ़ |
तरुण गोगोई |
अनुसूचित जनजाति |
असम |
तालिका-3: महिला कांग्रेस अध्यक्ष3
नाम |
श्रेणी (जाति) |
राज्य |
बेगम आबिदा अहमद |
अल्पसंख्यक(मुस्लिम) |
उत्तर प्रदेश |
जयंती पटनायक |
सामान्य (कायस्थ) |
ओडिशा |
सुश्री कुमुदबेन जोशी |
सामान्य (ब्राह्मण) |
गुजरात |
गिरिजा व्यास |
सामान्य (ब्राह्मण) |
राजस्थान |
अंबिका सोनी |
सामान्य (खत्री) |
पंजाब |
चंद्रेश कुमारी |
सामान्य (राजपूत) |
राजस्थान |
रीता बहुगुणा जोशी |
सामान्य (ब्राह्मण) |
उत्तर प्रदेश |
प्रभा ठाकुर |
सामान्य (राजपूत) |
राजस्थान |
अनीता वर्मा |
सामान्य (कायस्थ) |
हिमाचल प्रदेश |
शोभा ओझा |
सामान्य (ब्राह्मण) |
मध्य प्रदेश |
सुष्मिता देव |
अनुसूचित जनजाति |
असम |
तालिका -4: एनएसयूआई: राष्ट्रीय अध्यक्ष4
नाम |
श्रेणी (जाति) |
राज्य |
पी. कुमारमंगलम |
सामान्य (ब्राह्मण) |
तमिलनाडु |
जी.मोहन गोपाल |
ओबीसी (इझावा) |
केरल |
गीतांजलि माकन |
सामान्य (ब्राह्मण) |
दिल्ली |
के.के. शर्मा |
सामान्य (ब्राह्मण) |
उत्तर प्रदेश |
सुभाष चौधरी |
सामान्य (जाट) |
दिल्ली |
रमेश चेन्निथला |
सामान्य (नायर) |
केरल |
मुकुल वासनिक |
अनुसूचित जाति |
महाराष्ट्र |
मनीष तिवारी |
सामान्य (ब्राह्मण) |
पंजाब |
सलीम अहमद |
अल्पसंख्यक (मुस्लिम) |
कर्नाटक |
अलका लांबा |
सामान्य (जाट) |
दिल्ली |
एम. नटराजन |
अनुसूचित जाति |
मध्य प्रदेश |
अशोक तंवर |
अनुसूचित जाति |
हरियाणा |
नदीम जावेद |
अल्पसंख्यक (मुस्लिम) |
उत्तर प्रदेश |
हबी ईडन |
अल्पसंख्यक (ईसाई) |
केरल |
रोहित चौधरी |
सामान्य (जाट) |
नई दिल्ली |
रोजी एम. जॉन |
अल्पसंख्यक (ईसाई) |
केरल |
फ़िरोज़ खान |
अल्पसंख्यक (मुस्लिम) |
जम्मू और कश्मीर |
नीरज कुंदन |
अनुसूचित जाति |
जम्मू और कश्मीर |
तालिका -5: भारतीय युवा कांग्रेस (अध्यक्ष)5
नाम |
श्रेणी (जाति) |
राज्य |
एन.डी. तिवारी |
जनरल (ब्राह्मण) |
उत्तर प्रदेश |
पी.आर.डी. मुंशी |
जनरल (ब्राह्मण) |
पश्चिमी बंगाल |
अंबिका सोनी |
सामान्य (खत्री) |
पंजाब |
राम चंदर रथ |
जनरल (ब्राह्मण) |
ओडिशा |
गुलाम नबी आज़ाद |
अल्पसंख्यक (मुस्लिम) |
जम्मू और कश्मीर |
तारिक अनवर |
अल्पसंख्यक (मुस्लिम) |
बिहार |
आनंद शर्मा |
जनरल (ब्राह्मण) |
हिमाचल प्रदेश |
गुरुदास कामत |
जनरल (ब्राह्मण) |
महाराष्ट्र |
मुकुल वासनिक |
अनुसूचित जाति |
महाराष्ट्र |
आर. चेन्निथला |
जनरल (ब्राह्मण) |
केरल |
एम. सिंह बीता |
अल्पसंख्यक (सिख) |
पंजाब |
एस.डी. गायकवाड़ |
सामान्य (गायकवाड) |
गुजरात |
मनीष तिवारी |
जनरल (ब्राह्मण) |
पंजाब |
रणदीप सुरजेवाला |
जनरल (ब्राह्मण) |
पंजाब |
अशोक तंवर |
अनुसूचित जाति |
हरियाणा |
राजीव सातव |
ओबीसी (माली) |
महाराष्ट्र |
ए. सिंह राजा |
अल्पसंख्यक (सिख) |
पंजाब |
के.सी. यादव |
ओबीसी (यादव) |
उत्तर प्रदेश |
बी.वी. श्रीनिवास |
सामान्य (ब्राह्मण) |
कर्नाटक |
1990 के दशक की शुरुआत में मंडल आयोग की सिफारिशों के कार्यान्वयन – सार्वजनिक रोजगार में ओबीसी के लिए आरक्षण की शुरुआत – ने देश में ओबीसी चेतना के उदय को महसूस किया. नब्बे के दशक बाद भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में परिवर्तन हुआ और समाजवादी पार्टी (सपा), बहुजन समाज पार्टी (बसपा), राष्ट्रीय जनता दल (राजद), जनता दल (यूनाइटेड), लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) जैसे राजनीतिक दलों का उभार हुआ और इन दलों में अधिकांश नेता दलित-बहुजन समाज से थे. हालाँकि देश में आये राजनीतिक परिवर्तनों के बावजूद कांग्रेस पार्टी की राजनीति करने के तरीके में कोई बदलाव नहीं किया गया और पिछड़े वर्गों को कांग्रेस में ‘निर्णय लेने वाली समितिओं’ में ना के बराबर प्रतिनिधित्व मिला. पिछले बहत्तर वर्षों से बहुजन समाज की उपेक्षा करने का प्रायश्चित करने के लिए कांग्रेस को बहुत कुछ करने की आवश्यकता है तथा 2014 और 2019 के आम चुनावों और राज्य चुनावों में मिली हार की श्रृंखला से सीखने के लिए INC को जरूरत है. पार्टी के शीर्ष पदों में ओबीसी के प्रतिनिधित्व की अनदेखी करना स्वघातक सिद्ध होगा और आने वाले समय में कांग्रेस पार्टी समावेशी होने का दावा भी नहीं कर सकेगी.
[आभार:- यह लेख दुर्गा प्रसाद यादव (ग्राम: टडवा, सुलतानपुर) तथा नरसिंग यादव (ग्राम: नीमसराय, सुलतानपुर) से हुयी लम्बी बात-चीत पर आधारित है. The present article was appeared in ‘forwardpress.in’ in English with title “How OBCs have had little say in the Congress party”.]
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देवी प्रसाद, वर्तमान में हैदराबाद विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में पीएचडी कर रहे हैं तथा भारतीय राजनीति, ग्रामीण सामाजिक व्यवस्था, हिंदू धर्म, जाति व्यवस्था, कृषक समुदाय, लोकगीत, स्वच्छता आदि विषयों पर कई लेख लिख चुके हैं. उन्हें ईमेल dpsocio@gmail.com के माध्यम से संपर्क किया जा सकता है.
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Regards,
Devi Prasad