सतविंदर मदारा (Satvendar Madara)
इस ९ अक्टूबर को साहब कांशी राम का १३वां परिनिर्वाण दिवस है। उनके जाने के बाद, जो लहर उन्होंने शुरू की; आज वो किस हालत में है ? बहुजन समाज को इस देश के हुक्मरान बनाने का जो सपना उन्होंने देखा था, क्या वो पूरा हो सका ? अगर नहीं, तो फिर उसके क्या कारण हैं और आज हमें क्या करना होगा की वो पूरा हो सके ?
इस विषय पर ज़रूर विचार-विमर्श होना चाहिए। आज जिस तरह RSS-BJP हमारे महापुरषों के लम्बे संघर्ष के बाद, बाबासाहब अम्बेडकर द्वारा बनाये गए संविधान को खत्म कर मनुस्मृति लागु करने के चक्कर में है, इसकी ज़रूरत और भी ज़्यादा बन जाती है।
१९६० के दशक में साहब कांशी राम महाराष्ट्र में फूले-शाहू-अम्बेडकर की विचारधारा से जुड़े। जब उन्होंने देखा कि बाबासाहब अम्बेडकर के अनुयायी इस लहर को नहीं चला पाए तो उन्होंने इसकी असफलता के कारणों को ढूँढना शुरू किया। वो इस नतीजे पर पहुँचे कि बाबासाहब अम्बेडकर बहुत ही “Dynamic” थे; वो समय के साथ इस आंदोलन में बदलाव लाते थे। उन्होंने पहले Independent Labour Party बनाई, जब वो सफल नहीं हुई तो Scheduled Caste Federation बनाई और फिर जब वो भी सफल नहीं हो पाई तो उन्होंने अंत में RPI बनाने का विचार बनाया। लेकिन जो लोग RPI चला रहे थे, उन्होंने इसके असफल हो जाने के बाद उसमें कोई बदलाव नहीं किया।
दूसरा बड़ा कारण जो उनकी नज़र में आया, वो था चुनावी असफलता। साहब कांशी राम ने खुद कई बार सभाओं और कैडर कैम्पों में इस बात का ज़िक्र किया कि जब एक-एक कर RPI के लोग उसे छोड़ कर जाने लगे, तो वो उनसे पूछते थे, “कि भाई यह अच्छा काम छोड़ कर आप लोग मनुवादी पार्टियों और खासकर कांग्रेस में क्यों जा रहे हैं ?” तो उन्हें जवाब मिलता था कि बाबासाहब की विचारधारा तो अच्छी है, लेकिन इस पर चलकर हम MP-MLA नहीं बन सकते हैं। जब हम चुनाव हारते हैं तो हमारा समाज भी हमारी कद्र नहीं करता। इससे साहब कांशी राम ने सबक लिया और इस बात पर खास ध्यान दिया कि अगर अब हमें इस लहर को राजनीतिक तौर पर चलाना है तो MP-MLA बनाने हो होंगे – नहीं तो इसका भी वहीं हश्र होगा, जो महाराष्ट्र में RPI का हुआ।
इन सभी बातों पर गौर करते हुए उन्होंने बाबासाहब के अधूरे रह गए कारवां को मंज़िल तक पहुँचाने की जिम्मेवारी अपने कंधो पर ली। इसे नये सिरे से शुरू करने के लिए एक नये संगठन बनाने और नये क्षेत्र को चुना और उत्तर भारत की ओर कूच कर गए।
१९७८ में BAMCEF, १९८१ में DS-४ और १४ अप्रैल १९८४ में BSP बनाने के बाद, उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा और बड़ी तेजी के साथ इस आंदोलन को पहले सामाजिक और फिर राजनीतिक शिखर पर पहुंचा दिया। सितम्बर २००३ में बीमार पड़ जाने से पहले उन्होंने ऐलान किया कि अगले साल २००४ में लोक सभा चुनाव होने वाले हैं और बहुजन समाज इस देश का हुक्मरान बनेगा और हज़ारों साल की ग़ुलामी का अंत किया जायेगा।
लेकिन उनकी गैर-मौजूदगी में न तो बहुजन समाज हुक्मरान बन सका और फिर उसके बाद से अब तक, इस दिशा में आगे बढ़ने की बजाए पीछे ही जाता गया।
साहब कांशी राम कहा करते थे कि गाड़ी को बनाकर चलाना बहुत मुश्किल होता है, लेकिन जब वो एक बार चलने लगे तो फिर उसे चलाते रहना कोई ज़्यादा मुश्किल काम नहीं होता। लेकिन हम देख सकते हैं कि उनके द्वारा इतनी मेहनत से बनाकर दी गयी गाड़ी को चलाने का काम भी नहीं हो पाया।
ऐसा पहली बार नहीं हुआ। अगर हम बहुजन समाज के कई महापुरषों द्वारा चलाये आंदोलनों पर निगाह डाले, तो पाएंगे कि कोई भी उनके जाने के बाद ज़्यादा समय तक टिक नहीं पाया। जैसे ही उनकी मौत हुई, कुछ सालों में ही वो धराशायी हो गए। और फिर कुछ समय बाद एक नए महापुरुष ने उसे एक नए ढंग से शुरू कर गति दी। चाहे महात्मा फूले का सत्यशोधक समाज हो, या पेरियार की द्रविड़ कझगम या फिर बाबासाहब अम्बेडकर की RPI . अगर इनमें से किसी भी आंदोलन को अगली पीढ़ी का सही नेतृत्व मिला होता, तो आज देश के हालात कुछ और ही होते। बदकिस्मती से बहुजन आंदोलन में भी वही हुआ जो पहले कई बार हो चुका था।
तो फिर अब क्या किया जाना चाहिए ?
यह एक ऐसा सवाल है, जिसने पुरे देश और विदेश में बहुजन समाज को घेरा हुआ है। अलग-अलग लोगों की इस पर अलग-अलग राय है। कुछ इस असफलता का जिम्मेदार आज के नेतृत्व को मानते हैं तो कुछ इसका दोष समाज पर डाल देते हैं। कुछ, हमारे पास ब्राह्मणवादी ताकतों का मुकाबला करने के लिए ज़रूरी साधन न होना समझते हैं तो कुछ और। कुछ सोचते हैं कि एक नये ईमानदार और काबिल ज़मीनी नेतृत्व की ज़रूरत है तो कुछ का कहना है कि अब इस लहर को फिर नये सिरे से शुरू करने की ज़रूरत है, जैसे साहब कांशी राम ने १९६० के दशक में की थी। इनके अलावा कई और भी कारण सुनने में आते रहते हैं।
वजह जो भी हो पर असफलता के सही कारणों को ढूंढे बगैर अब इस आंदोलन का सही दिशा में बढ़ पाना लगभग नामुमकिन है। क्योंकि जब तक हम किसी समस्या का सही कारण नहीं ढूंढ पाते, तब तक उसका सही इलाज करना सम्भव नहीं होता। जिस तरह साहब कांशी राम ने महाराष्ट्र में RPI की असफलता के कारणों को ढूंढा और फिर इस आंदोलन को एक नये क्षेत्र में एक नये तरीके से शुरू किया, उसी तरह अब फिर हमें इसके उत्तर भारत में असफलता के कारणों को ढूँढना होगा, तभी हम इसे पटरी पर ला पाएँगे।
यहीं साहब कांशी राम के १३वें परिनिर्वाण दिवस पर उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
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