डॉ सूर्या बाली ‘सूरज धुर्वे’ (Dr. Surya Bali ‘Suraj Dhurve)
किसी भी संस्कृति में उसके नायकों और प्रतीकों का सम्मान व् स्वागत उस संस्कृति को संरक्षित और संवर्धित करने के लिए आवश्यक होता है. इन्ही नायकों को जीवित रखने के लिए तरह तरह के आयोजन, पर्व और तीज त्योहारों का आयोजन किया जाता है. ऐसे ही एक पौराणिक कथानक रामायण के दो पात्रों राम और रावण को लेकर भी समाज में तरह तरह की भ्रांतियाँ और मान्यताएँ प्रचलित हैं. जहाँ राम को लेकर रामनवमी, राम लीला, दशहरा, दीवाली इत्यादि त्योहार गढ़े गए हैं वहीं राम और हिन्दू धर्म के प्रति विरोध स्वरूप रावण को खड़ा किया जाता रहा है. अभी हाल के वर्षों में साधू संतों द्वारा की गयी बलात्कार की घटनाओं से लोगों में इन कार्यक्रमों के प्रति आस्था और सहानुभूति कम हुई है. लोग रावण को जलाने से पहले उन बलात्कारियों को जलाने की मांग करने लगे हैं जो इन हालही की बलात्कार की घटनाओं में लिप्त हैं.
इसी बीच मीडिया के द्वारा कई जगहों पर रावण मंदिर के स्थापना, रावण पूजा, रावण को जनजातियों का नायक भी घोषित की जाने की कोशिशें भी तेज हो गयी हैं. इन्ही प्रभावों में आकार राम रावण की द्वय (बाइनरी) को खड़ा किया जा रहा है. राम को हिंदुओं के प्रतिनिधि के रूप में तो रावण को जनजातियों के प्रतिनिधि के रूप में स्थापित करने की कोशिश की जा रही है(बाली, 2019). हो सकता है कि कभी आर्यों और अनार्यों के बीच लड़ाईयाँ और टकराव हुए हों और इस तरह के पात्रों को कथानकों में जगह मिली हो लेकिन आज भी उसको हकीकत के तौर पर जोड़ना ठीक नहीं. जहाँ पर राम और उनसे जुड़े त्योहारों को लेकर हिंदुओं में अटूट आस्था है वहीं राम के प्रतिद्वंदी रावण को लेकर भी लोग एकत्रित हो रहे हैं और रावण को अपना पुरखा मान कर उनका दहन करने के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं. यहाँ तक की थानों में एफ़आईआर भी लिखवायी जा रही है.
ये दुविधा और भ्रम की स्थिति जान बूझ कर बनाई जा रही है जिससे जनजातीय समुदाय ब्राह्मणवादी व्यवस्था में उलझकर अपनी जनजातीय रूढ़ि परंपराओं और संस्कृति से दूर हो जाये. पूरे कोइतूर समाज में राम की जगह रावण को स्थापित करने की मुहिम जारी है जिससे राम रावण की बाइनरी (द्वय) में सम्पूर्ण समाज उलझा रहे और किसी अन्य दिशा की तरफ सोच भी न सके(बाली, 2019). भ्रम की यह स्थिति यूं ही हवा में पैदा नहीं हुई है, बल्कि जानबूझ कर एक रणनीति के तहत बनाई गयी है. इस बात को समझने के लिए इसके पीछे के कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर ध्यान देना होगा. भारत के कोइतूरों की धार्मिक मान्यताएँ हिंदुओं की धार्मिक मान्यताओं से बिलकुल भिन्न हैं. कोइतूरों का एक अपना अलग धार्मिक व्यवस्था है जिसे कोया पुनेम (जनजातीय धर्म) कहते हैं. सरना धर्म, भीली धर्म, गोंडी धर्म, आदि धर्म, प्रकृति धर्म इत्यादि इसी कोया पुनेम के विभिन्न पंथ हैं जो अलग अलग जन जातियों में अलग अलग भू-भागों में प्रचलित हैं जैसे हिन्दू धर्म में शैव, वैष्णव, सनातन, आर्य समाजी, कबीरपंथी संप्रदाय इत्यादि.
कोया पुनेम का अर्थ कोया वंशियों(कोइतूरों) का सद्मार्ग होता है. कोया का अर्थ मानव या जो माँ की कोख से पैदा हुआ है जबकि ‘पुनेम’ यह एक संयुक्त गोंडी शब्द है जो ‘पुय’ और ‘नेम’ इन दो शब्दों से मिलकर बना है. पुय मतलब सत्य और नेम का मतलब मार्ग (कंगालीमोती रावण, 2011). तो हम कह सकते हैं कि कोया पुनेम का मतलब कोइतूरों के जीवन में सत्य का मार्ग दिखाने वाली व्यवस्था. कोया पुनेम के प्रवर्तक पुरुष या आराध्य पुरुष पारी पहान्दी कुपार लिंगो हैं जिन्हे राम, मुहम्मद साहब, ईसा मसीह, बुद्ध और महावीर आदि के समकक्ष रखा जाता है.
समस्या हिन्दू धर्म की नहीं है और न ही हिंदुओं की है बल्कि यह परेशानी उन कोइतूर लोग की है जो अपनी संस्कृति और कोया पुनेम से दूर हो गए हैं और हिंदूवादी व्यवस्था में पले बढ़े हैं. एकबार उन्होंने सुन लिया कि राम के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाले रावण राक्षस थे और यहाँ के मूल निवासी जनजातियों को भी राक्षस और असुर कहते हैं. इसलिए रावण जनजातियों के पुरखे हुए. हम लोग जनजाति हैं इसलिए रावण हमारे पूर्वज हुए और हमारे पूर्वजों को जलाना हमारा अपमान है. अब इसी बात को लेकर कोइतूर समाज के लोग उदद्वेलित हो रहे हैं और जगह-जगह धरना प्रदर्शन, विरोध और ज्ञापन दे रहे हैं और रावण दहन का विरोध कर रहे हैं.
यह भ्रम की स्थित गोंडी शब्दों को सही से परिभाषित न कर पाने से उत्पन्न हुई है. इसकी शुरुआत उस शब्द से हुई है जो जनजातीय कबीलों और कोइतूरों की धार्मिक मान्यताओं से जुड़ा है वो शब्द है रावेन. यानि की भ्रम इस हिन्दी के रावण और गोंडी के रावेन को लेकर हुआ है. रावण रामायण के एक पात्र हैं जो राम के विरोध में खड़े हैं और पुतला भी उन्हीं रावण का जलाया जाता है न की कोइतूरों के रावेन का. राम-रावण हिन्दू दर्शन के पात्र हैं जबकि रावेन कोइतूर दर्शन और कोया पुनेम के एक अहम प्रथम पुरुष हैं.
रामायण और राम लीला के पात्र रावण के बारे में तो लगभग सभी जानते हैं लेकिन जन जातीय लोगों के कोया पुनेमी मान्यताओं का रावेन क्या है? इसकी उत्पत्ति कब और कहाँ से हुई? इसका जन जातीय लोगों के जीवन में क्या प्रभाव है और उसका धार्मिक और सांस्कृतिक महत्त्व क्या है ? जब तक इन सवालों के उत्तर नहीं मिलते तब तक जनजातियों का या यूं कहिए कोइतूरों का रावण के प्रति लगाव और प्रेम बना रहेगा जो उन्हें राम और हिन्दू धर्म के खिलाफ लाकर खड़ा करेगा और भविष्य में टकराव की स्थिति बनाएगा जो खतरनाक हो सकती है.
इसलिए ये समझना और जानना जरूरी है कि जैसे हिन्दू और कोइतूर दो अलग अलग समूह हैं वैसे ही उनके धर्म, हिन्दू और कोया पुनेम, भी अलग अलग हैं. कहीं पर भी इन दोनों का टकराव ही नही है. रावण हिंदुओं में जाने पहचाने जाते हैं और रावेन कोइतूर पहचान और अस्मिता के प्रतीक हैं.
कोया पुनेमी अवधारणा के अनुसार जब धरती पर प्रलय आई थी तब पूरा कोयामूरी द्वीप (प्राचीन भारत) जलमग्न हो गया था केवल अमूरकोट (अमरकंटक) पर्वत का ऊपरी भाग डूबने से बचा था. जहाँ पर एक मानव जोड़ा फरावेन साइलांगरा (सल्ला गांगरा या पित्र शक्ति और मातृ शक्ति) बचा था जिनके साथ एक कछुआ और एक कौवा भी था. इस दाऊ-दाई शक्ति (नर मादा) से कोइतूरों के प्रथम मूल गंड जीव की उत्पत्ति हुई. प्रथम गंड जीव के रूप में ‘आंदी रावेन पेरियोर’ और ‘आंदी सुकमा पेरी’ का जन्म हुआ. कोयावंशी गोंड समुदाय के गंड जीव आज भी सिंगामाली पक्षी के जोड़े को अपने जन्मदाता फरावेन सईलांगरा के प्रतीक के रूप में मानते हैं.(कंगालीमोती रावण, 2011)
आंदी रावेन पेरियोर को प्रथम फरावेन मर्री (पुत्र) और आंदी सुकमा पेरी को प्रथम फरावेन मियाड़(पुत्री) कहा जाता है. तो यह कहा जा सकता है कि प्रलय के बाद बचे एकमात्र महा मानव जोड़े से जो बालक धरती पर पैदा हुआ उसे आंदी रावेन पेरियोर (प्रथम रावेन पुत्र) कहा गया और जो प्रथम लड़की हुई उसे आंदी सुकमा पेरी (प्रथम सुकमा पुत्री) कहा गया. गोंडी भाषा में पेरिओर का अर्थ लड़का और पेरी का अर्थ लड़की भी होता है (मरई, 2002). बाद में इन्ही से पूरा कोया वंश (कोइतूर) और कोया संस्कृति (कोया पुनेम) पूरी कोयामूरी द्वीप (प्राचीन भारत) में निर्मित और विकसित हुई.
प्रसिद्ध सामाजिक चिंतक और लेखक कोमल सिंह मरई जी अपनी पुस्तक “गोंडवाना भूखंड का प्रासंगिक कथावस्तु” में बताते हैं कि रावेन टिटिहा, टिटिहरी या कुकरी पक्षी होता है. मादा टिटिहरी को टिट्टिमी और नर टिटिहरी को टिट्टिम कहते हैं. ये पक्षी समर्पण, त्याग, करुणा, ममता के प्रतीक होते हैं (मरई, 2002) ये पक्षी प्रथम मादा और प्रथम पुरुष के प्रतीक के रूप में कोइतूर समाज में पूज्यनीय हैं. इसलिए इन्हे रावेन चिड़िया भी कहते हैं जो हमेशा जोड़े में रहते हैं और हमारे पुरखों के प्रतीक के रूप में आज भी पूजे जाते हैं.
एक और गोंडी भाषाविद, समाजशास्त्री और लेखक आचार्य मोती रावण कंगाली अपनी पुस्तक “पारी कुपार लिंगो गोंडी कोया पुनेम दर्शन” में लिखते हैं कि रावेन लिंगो भी हुए हैं. ऐसा कहा जाता है कि रावेन लिंगो ही प्रथम लिंगो हुए है जिन्होने अमूरकोट में अपने माता-पिता के प्रतीक के रूप प्रथम सल्ला गांगरा की स्थापना की (कंगाली मोती रावण, 2011). गोंडवाना के बुजुर्ग (सियाना) लोग बताते हैं कि हिन्दू धर्म में समुद्र के किनारे रावण द्वारा शिवलिंग की स्थापना और पूजा का जो जिक्र हिन्दू धर्म में आता है वो यहीं से लिया गया है.
इस तरह कोइतूर संस्कृति के आदि पुरुष के रूप में महान रावेन लिंगो हुए जिन्होंने मानव के प्रारम्भिक जीवन यापन की व्यवस्था शुरू की. कछुवे द्वारा समुद्री जीवन या जल जीवन की सीख और कौवे द्वारा आकाशीय और थलीय जीवन की व्यवस्था की प्रारम्भिक जानकारी इन्ही रावेन लिंगो से मिलती है. आज भी कछुवा और कौवा कोइतूर सगाओं के गंडजीव चिन्ह (टोटेम) माने जाते हैं और पूजे जाते हैं.
भारत के कटि प्रदेश यानि गोंडवाना में गोंड कोइतूरों की सत्ता थी. गढ़ मंडला और गढ़ा कटंगा में मरावी वंश के शासकों का प्रभुत्व था जिसके सबसे ज्यादा प्रतापी राजा संग्राम शाह थे जिनके मातहत 52 गढ़ और 57 परगने आते थे. इतिहासकार बताते हैं कि गोंडवाना के मरावी वंश के गोण्डों ने मध्य भारत में 1400 वर्षों से अधिक समय तक राज्य किया था (अग्रवाल, 1990).
गढ़ मंडला के सभी राजा रावेन टोटेम धारी थे. आचार्य मोती रावण कंगाली ने अपनी पुस्तक “गोंडवाना का सांस्कृतिक इतिहास” में रावेन को नीलकंठ कहा है और बताया है कि गढ़ मंडला के राजाओं का गंडजीव चिन्ह (टोटेम) नीलकंठ या रावेन था. गोंडी में नीलकंठ पक्षी को पुलतासी या रावेन पिट्टे भी कहा जाता है (कंगाली मोती रावन, 2011). वैदिक काल में 1500 ईसा पूर्व से 1000 ईसा पूर्व के दौरान जब आर्य लोगों का उत्तर गोंडवाना में प्रवेश हो रहा था तब अमूरकोट (मैकाल पर्वत का अमरकंटक ) परिक्षेत्र में रावेन (नीलकंठ) गण्डचिन्ह धारक गण्ड जीवों के गणराज्य थे.
ऐसा कहा जाता है कि दशहरा के समय नीलकंठ पक्षी का दर्शन करना शुभ होता है (श्रीवास्तव, 2017). चूंकि नीलकंठ पक्षी को गोंडी भाषा में रावेन पिट्टे कहते हैं और यह कोइतूरों के एक जाति गोंड के मरावी वंश का टोटेम है. मात्र इसके रावेन नाम से इस देश के लोग इस पक्षी के रावण समझ कर इसकी जान के दुश्मन बन जाते हैं.
ऐसी मान्यता है कि नीलकंठ पक्षी भगवान् शिव का एक रूप है और धरती पर विचरण के लिए भगवान शिव इस नीलकंठ पक्षी का रूप लेकर घूमते है. दशहरे के दिन इस नीलकंठ पक्षी को देखने से इंसान को धन धान्य मिलता है और पाप मुक्त हो जाता है. यह भी माना जाता है कि यदि कोई व्यक्ति दशहरे के दिन नीलकंठ को देखता है और कोई इच्छा करता है, तो नीलकंठ पक्षी कैलाश पर्वत पर रहने वाले उसी तरह नीले-गले वाले भगवान शिव के पास उस व्यक्ति की इच्छा को पहुंचाता है और शिव उसकी मनोकामना पूरी करते हैं. इन अंधविश्वासों को पूरा करने के लिए, पक्षी पकड़ने वाले त्योहार से लगभग एक महीने पहले से ही इन नीलकंठ पक्षियों को फंसाना शुरू कर देते हैं. पक्षियों को बंदी बनाया जाता है, उनके पैरों को बांधा जाता है, उनके पंखों को छंटनी की जाती है और यहाँ तक कि उन्हें चिपकाया जाता है, ताकि वे उड़ न सकें. एक महीने तक पिजड़े में रहकर ये पक्षी बीमार और कमजोर हो जाते हैं और बाद में छोड़ने पर भी मर जाते हैं (मेनन, 2015).
कहा जाता है कि राम ने रावण को मारने से पहले इस पक्षी को देखा था और उनकी रावण को मारने की मनोकामना पूर्ण हुई थी. इस अंधविश्वास ने इस पक्षी को लगभग खात्मे की तरफ ले आ दिया है (डबस, 2017). खास बात है जिस मरावी समाज को इस पक्षी की सुरक्षा करनी चाहिए. उनकी भी तरफ से ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जा रहा है और उनका टोटेम समाप्त हो रहा है जो बहुत ही दुखद है. यहाँ भी रावेन और रावण का भ्रम साफ नज़र आता है और एक महत्त्वपूर्ण पक्षी खत्म होने कि कगार पर है.
बालाघाट ज़िले के एक 75 वर्ष के बुज़ुर्ग भूमका तिरूमाल रेवा सिंह मरावी बताते हैं कि नार व्यवस्था (ग्राम व्यवस्था) में ‘राव वेन’ का बहुत महत्त्व होता है. इन राव वेन को हम आम तौर पर महान या शक्तिशाली आत्माएँ भी कहते हैं. जब किसी कुंवारे लड़के या लड़की की असमय मृत्यु हो जाती है तब उसे मेड़ों के बाहर (गाँव की सीमा के बाहर) गाड़ते हैं. इनको अपने मुख्य सज़ोर पेन ठाना में नही मिलाया जाता बल्कि इन्हें अलग से सम्मान दिया जाता है. मृत लड़के की आत्मा को राव और मृत लड़की की आत्मा को कैना कहते हैं जो अदृश्य वेन (मानव) रूप में गाँव की सुरक्षा करते हैं! चूँकि इन युवकों और युवतियों की मृत्यु जीवन पूर्ण होने पहले ही हो गयी होती है इसलिए इन्हें पेन (देवता) का दर्जा न देकर इन्हें वेन रूप में ही पूजते है और राव वेन के नाम से जानते हैं. मृत व्यक्तियों के दफ़नाने वाले स्थान, उम्र और सामाजिक स्थिति के आधार पर दस तरह के राव (रावेन) होते हैं:-
1. घाट राव 2. पाट राव 3. कोड़ा राव 4. हंद राव 5. डंड राव 6. बैहर राव 7. कापडा राव 8. कप्पे राव 9. बूढ़ा राव 10. राजा राव
इन्हें शक्ति स्थल के रूप में मान्यता प्राप्त होती है. जंगलों और पहाड़ों से होते हुए जाने वाले रास्तों पर ऐसे घाट राव को बंजारी देव या बंजारी देवी स्थल के रूप में भी जाना जाता है.
सारोमान (अश्विन माह) के दशमी के दिन राव वेनों का गोंगो (पूजा आराधना) होती है जबकि रावण का दहन होता है. पूरे नार (गाँव) में दसराव पेनों की गोंगो द्वारा गाँव की सुख, शान्ति, समृद्धि और सुरक्षा के लिए की जाती है| दशमी के दिन होने वाली राव पूजा को रावेन गोंगो कहते हैं.
कई जन जातीय भाषाओं में गाँव के रास्तों को जिस पर बैलगाड़ी आती-जाती है या गाँव से बाहर जाने वाली पगडंडियों को भी रावेन कहते हैं जिसका मतलब रास्ता या मार्ग होता है.
चाहे कुछ भी हो लेकिन यह बिलकुल साफ है कि रावेन और रावण दो विभिन्न पात्र है और दोनों दो भिन्न संस्कृतियों का हिस्सा हैं. लेकिन जिस तरह से ब्राह्मणवादी ताक़तें कोइतूर संकल्पना को नकारती रही हैं और कभी भी कोइतूर और कोयापुनेम को सामने आने ही नहीं देती. इसे देखते-समझते हुए ये बात साफ हो जाती है कि किसी-न-किसी षड्यंत्र के तहत रावेन और रावण को मिश्रित किया जा रहा है और अब उस कलुषित षड्यंत्र का परिणाम भी सामने आने लगा है. अब लोग रावेन को भूलकर रावण पर केन्द्रित हो गए हैं और जय रावण, जय लंकेश, जय लंकापति इत्यादि संबोधनों का प्रयोग करने लगे हैं. पहले मध्य प्रदेश के मंडला, बालाघाट, सिवनी छिंदवाड़ा बेतुल इत्यादि जिलों के ग्रामीण इलाकों में ‘रावेन ता सेवा सेवा’ (रावेन देवता की जय) का उद्घोष होता था आज उन्ही स्थानों में जय-लंकेश, जय-लंका-पति का नारा गुंजायमान हो रहा है. इससे साफ है कि जय भीम की तरह जय रावण को भी जय श्रीराम वाले नारे के विरोध में लाया जा रहा है इससे हिंदुओं की धार्मिक भावनाएँ आहत हो रही हैं और एक टकराव की स्थिति बन रही है.
आइये इस षड्यंत्र की पड़ताल करते हैं और जानने की कोशिश करते हैं कि इसके पीछे असली मुद्दा क्या रहा है. सैकड़ों वर्षों से कोइतूरों के साथ सौतेला व्यवहार होता आ रहा है और आज भी कोइतूरों को स्वतंत्र अस्तित्व के रूप में नहीं पहचाना जा रहा है या जानबूझकर पहचानने से इंकार किया जा रहा है. कोइतूरों की गणना भी उनके धर्म कोया पुनेम में ना करके उन्हें हिन्दू, मुस्लिम और ईसाई में शामिल किया जा रहा है. कोइतूरों की अपनी अस्मिता और संस्कृति को अन्य संस्कृतियों में विलीन कर दिया जाता है. अगर धर्मांतरण के हिसाब से देखा जाये तो सबसे ज्यादा प्रयास कोइतूरों को हिन्दू बनाने पर किया गया और उनमें जीवन में हिन्दू विचारधारा और हिन्दू संस्कृति को बलात (बलपूर्वक) लाया जा रहा है.
सर्व प्रथम एक यूरोपियन लेखक स्टीफन फुक्स ने वर्ष 1960 में अपनी पुस्तक “द गोंड एंड भूमिया आफ़ ईस्टर्न मंडला” में जनश्रुतियों के हवाले से लिखा कि कुछ गोंड वंश के लोग यह दावा करते हैं कि वे लंका के राक्षस राज रावन के वंशज हैं (फुक्स, 1960). ये बातें उस अंग्रेज़ लेखक को उसके ब्राह्मण दुभाषिए और सलाहकारों द्वारा समझाई गयी थीं.
हिन्दी लेखकों में सबसे पहले लिखित प्रमाण के रूप में राम भरोसे अग्रवाल ने गोंडो की स्वतंत्र पहचान पर प्रश्न चिन्ह खड़ा किया और उन्हे हिन्दू धर्म का अंग माना. अपनी पुस्तक “गढ़ा मंडला के गोंड राजा” में राम भरोसे अग्रवाल लिखते हैं कि “मैंने ‘रावनवंसी’ शब्द पर से अनुमान लगाया है कि गोंड जाति से ब्राह्मण है और शैव है” (अग्रवाल, 1990). यह गंभीर विषय है कि एक हिन्दू लेखक जिसे कोइतूर व्यवस्था का पूरा ज्ञान न हो महज कुछ सतही जानकारियों के आधार पर ऐसा मूर्खतापूर्ण दावा करता है जिससे किसी एक विशेष समुदाय का अस्तित्व ही खतरे में आ जाता है.
इसी परंपरा को आगे बढ़ते हुए जाने माने इतिहासकार डॉ सुरेश मिश्रा ने 2007 में फुक्स का हवाले देते हुए एक कदम और आगे बढ़कर लिखा कि महाराजा संग्राम शाह के समय के सिक्कों में उन्हे पुलत्स्य वंशीय कहा गया है. डॉ सुरेश मिश्रा ये भी स्वीकार करते हैं कि संग्राम शाह को पुलत्स्य वंशी कहा जाना एक महत्वपूर्ण वक्तव्य है क्यूंकि पुलत्स्य ऋषि का पुत्र रावण था. साथ ही साथ डॉ मिश्रा ये भी जोड़ते हैं कि गोंड स्वयं को रावणवंशी भी कहते हैं. जबकि बहुत सारे लेखक बता चुके हैं कि गोंड अपने को कोइतूर कहते हैं. वे आगे कहते हैं कि जनमानस में रावण की जो प्रतिष्ठा है उसे देखते हुए ही प्रतापी संग्राम शाह ने अपने को रावण वंशी लिखने के स्थान पर पुलत्स्य वंशी लिखना ज्यादा उचित समझा होगा (मिश्र, 2008).
लेखक को गोंडी भाषा के ज्ञान न होने के कारण संग्राह शाह के शशन काल के सिक्के पर लिखे पुलतासी को पुलत्स्य ऋषि से जोड़ दिया जबकि वो नीलकंठ पक्षी (पुलतासी/ रावेन पिट्टे ) गंड चिन्ह धारक वंश के लिए प्रयोग हुआ था. इस तरह भारतीय इतिहासकारों ने भी कोइतूर परंपरा के रावेन को हिन्दू परंपरा के रावण में तब्दील करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. और यहीं से धीरे-धीरे ये बात कम पढे लिखे कोइतूरों में प्रचलित होना शुरू हुई. लेकिन ग्रामीण परंपरा में वही पुरानी रावेन-ता-सेवा-सेवा की परंपरा अभी भी कायम रही.
इसका ज्यादा प्रभाव वर्ष 2011 के बाद गोंडी लेखक मोती राम कंगाली की पुस्तक ‘गोंडवाना का सांस्कृतिक इतिहास’ के तृतीय संस्कारण के आने के बाद से शुरू हुआ. इसी समय उन्होंने अपना नाम मोतिराम कंगाली बदलकर मोती रावण कर लिया जिसका पूरे गोंडवाना के युवा कोइतूरों पर बड़ा गंभीर प्रभाव पड़ा और युवा पीढ़ी अपने नाम में रावण लिखने को तरजीह देने लगी.
इस किताब में डॉ. कंगाली ने लिखा है कि गोंड वंश के संस्थापक यदुराय मड़ावी का गंड चिन्ह रावेन (नीलकंठ) पक्षी था इसलिए उनके वंश को रावेण वंशीय कहा जाता है. आज भी गढ़ मंडला के गंडजीव स्वयं को रावेण वंशीय कहते हैं.
इसी दौरान वर्ष 2011 में वर्धा के एक मराठी गोंडी लेखक मरोती उईके ने इस भ्रम की स्थिति को और पुख्ता कर दिया. उन्होंने इस विषय पर मराठी में एक किताब लिखी जिसका शीर्षक है “होय… लंकापती रावन(ण) गोंड राजाच होता”. इसमें उन्होंने रावण को पूरी तरह से गोंडी लोगों का नायक स्थापित कर दिया(उईके, 2012) और सोशल मीडिया के द्वारा काफी प्रचारित और प्रसारित किया. ऐसी स्थिति में आम कोइतूर इस अंतर को समझ नहीं सका और अपने को रामायण के पात्र रावण से जोड़कर देखने लगा और अपने आपको लंका-पति रावण का पोता समझने लगा.
रावेन-रावण और पुलतासी-पुलत्स्य शब्दों ने हिन्दी भाषी कोइतूरों में ऐसा भ्रम की स्थिति उत्पन्न कर दी कि आज लोगों को समझाना मुश्किल हो रहा है. क्यूंकि आज समाज में रामायण की कहानी काफी प्रचलित है जिसमें रावण और उसके पिता पुलत्स्य का वर्णन आया है जिसे हमारा समाज जन्म से ही सुन रहा है और इसलिए जैसे ही उसे रावेन और पुलतासी मिले उन्हे भी वो हिन्दी के शब्दों से जोड़ लिया और अपने आपको रामायण की कहानी में शामिल कर लिया.
आज के कोइतूर युवाओं को इस अंतर को समझना होगा और दूसरी संस्कृति में क्या हो रहा ? क्या गलत है क्या सही है ? इन विषयों में उलझकर समय बर्बाद करना मूर्खता होगी. इससे कुछ भी हासिल नहीं होगा बल्कि उल्टे कोर्ट कचहरी,थाना पुलिस के चक्कर लगाने पड़ेंगे और आपसी रिश्तों में भी खटास आएगी और समाज में एक टकरावकी स्थिति उत्पन्न होगी. इसलिए ऐसे में समस्त कोया विडार( कोइतूर समाज) को अपनी परंपाओं, अपनी संस्कृति को अपना होगा, उनसे जुड़कर उनको समझना होगा और तिनके-तिनके में बिखरी कोया पुनेमी संस्कृति को समेटकर फिर से नया घरौंदा तैयार करना होगा. इसी में समस्त कोइतूर समाज का भला होगा. किसी अन्य संस्कृति की बुराई करके हमें कुछ भी हासिल नहीं होगा बल्कि उल्टे हमारा ही नुकसान होगा. इसलिए सभी कोइतूरों को चाहिए की अपनी संस्कृति की नीव मजबूत करके अपनी कोइतूरियन पहचान स्थापित करें और कोया पुनेम का पालन करते समाज में अपनी संस्कृति को पुनर्स्थापित करें.
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डॉ सूर्या बाली ‘सूरज धुर्वे’ पेशे से शहर भोपाल स्थित ‘एम्स’ में एक प्रोफेसर हैं. साथ ही, वह अंतराष्ट्रीय कोया पुनेमी चिंतनकार एवं जनजातीय मामलों के विशेषज्ञ हैं.
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