मनोज सिंह शोधार्थी, टीना कर्मवीर (Manoj Singh, Teena karamveer)
भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू होता है जहाँ से धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा परिलक्षित होती है. इस अवधारणा की विरासत हम रविदास और कबीर दास की विचारधारा में खोज सकते हैं. जहाँ पर उन्होंने राजनीति से परे रखा तथा सर्व धर्म समभाव की बात की तथा निर्गुण भक्ति की अवधारणा के साथ जनमानस को ब्रह्म तत्वों से जोड़ दिया जिसको सदियों से उस परम तत्व से दूर रखा गया था.
संत परंपरा की विशेषता रही थी उसने बिना किसी भेदभाव के तथा बिना किसी लैंगिक विभेद के सब को अपनी ओर आकर्षित किया. उनकी यह विरासत आज भारत की सांस्कृतिक, धार्मिक विविधता का परिचायक है जहाँ पर विभिन्न समुदायों के लोग तथा उनके अपने धार्मिक पहचान विरासत आदि का मुख्य पहलू भी है.
यह भारतीय संस्कृति की मुख्य विशेषता रही है कि यहाँ पर अपने पूजनीय संतों, गुरुओं, महंतों, महात्माओं आदि के मंदिर या पूजनीय स्थल बनाए जाते रहे हैं जिसके माध्यम से उनके विचारों का फैलाव तथा उनकी सांस्कृतिक विरासत की पृष्ठभूमि लोगों के सामने आती रहे. इसी के संदर्भ में संत रविदास का मंदिर जो भारतीय मेल मिलाप की संस्कृति की विरासत के रूप में दिल्ली के तुगलकाबाद में मौजूद था, जिसे मुगलकालीन तथा ब्रिटिश भारतीय शासन के दौरान भी नष्ट नहीं किया गया किंतु आजादी के उपरांत सन 2019 में केंद्रीय सरकार के अधीन कार्य करने वाली संस्था दिल्ली विकास प्राधिकरण ने विकास के नाम पर भारतीय मेल मिलाप की सांस्कृतिक विरासत के स्थल को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के माध्यम से नष्ट करा दिया. जिससे इस देश की एक तिहाई आबादी के धार्मिक मनोभाव को ठेस लगी जो लोकतंत्र की इस तथ्य पर भी प्रश्नचिन्ह लगाता है कि लोकतंत्र में बहुमत के अधिकारों की रक्षा होती है.
सरकार के पास इतनी बड़ी आबादी को नजरअंदाज करना लोकतंत्र में वास्तविकता से परे है जब तक उसके पास इनका कोई ठोस विकल्प मौजूद नहीं हो. इससे इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकार एक विशेष विचारधारा के प्रभाव के तहत कार्य कर रही है जिसका मुख्य लक्ष्य केवल और केवल कुछ विशेष को ही फायदा पहुंचाना है. एक मंदिर के लिए जहाँ सुप्रीम कोर्ट में केस चल रहा है वहीँ एक मंदिर के लिए कोई तथ्यात्मक मौजूदा बयान तक नहीं है. एक तरफ हिंदुत्व की राजनीति जोर से चल रही है वहीं दूसरी तरफ दलितों के धार्मिक विरासत, संवैधानिक अधिकार, अन्याय के खिलाफ अधिकार तथा प्रतिनिधित्व के मुद्दे को भी चुनौती मिल रही है. प्रतिनिधित्व का मुद्दा जिसे आरक्षण भी कहा जाता है, की तथ्यात्मक समझ को ही पलट दिया है.
इन विभिन्न मुद्दों के तहत सरकार का एक वर्ग विशेष पर हमला इस बात को दृष्टिपात करता है कि सरकार की मंशा कुछ और ही है? वह इन वर्गों को बार-बार चुनौती देकर इस बात की जाँच करना चाहती हैं कि प्रतिरोध का स्तर कहाँ तक है.
ताकि इन विभिन्न मुद्दों पर कुछ बड़ा कदम उठाया जा सके. जिसमें सरकार की भागीदारी अप्रत्यक्ष रूप से हो तथा सर्वोच्च न्यायालय के माध्यम से विभिन्न पहलुओं को लागू कराया जा सके. जहाँ पर नियुक्त होने वाले जजों की पारदर्शिता जगजाहिर है. यहां एक बात समझ लेनी चाहिए कि लोकतंत्र में जनता की अदालत सर्वोच्च है न कि सर्वोच्च न्यायालय सर्वोच्च है. मान्यवर कांशी राम अपने भाषणों में अक्सर इस बात को कहते थे.
भारतीय राजनीति की विडंबना ही कही जाएगी कि दलित, अल्पसंख्यक, अन्य पिछड़ा वर्ग आदि बहुमत में होते हुए भी अपने मुद्दों को राष्ट्रीय स्तर का मुद्दा नहीं बना पाते. इसमें उन विद्वानों का भी हाथ है जो अपने आप को धर्मनिरपेक्ष तथा उदारवादी कहते हैं जिनके द्वारा इनके मुद्दे को पहचान आधारित मुद्दे कहा जाता है. और इनके नेताओं को संकीर्ण दृष्टिकोण के तहत केवल क्षेत्रीय मान्यताओं तक सीमित कर दिया जाता है जबकि अल्पसंख्यक का मुद्दा भी तो पहचान आधारित ही है. वर्ग आधारित राजनीति भी तो पहचान आधारित मुद्दा ही है.
यह सब एक खास विचारधारा के अंतर्गत किया जा रहा है ताकि पहचान आधारित राजनीति जिसे जाति आधारित राजनीति भी कहा जाता है, को खत्म करके दलित, आदिवासी, अन्य पिछड़ा वर्ग आदि की राजनीतिक पहचान को समाप्त किया जा सके तथा वर्ग आधारित राजनीति को स्थापित करके उस पुरातन व्यवस्था पर आधारित व्यवस्था को स्थापित किया जाये जिसका सिरमोर पुरातन व्यवस्था पर आधारित हो.
अतः स्पष्ट है कि रविदास मंदिर का मामला केवल मंदिर का मामला नहीं है यह एक विचारधारा के द्वारा अपने आप को इस तरह स्थापित कर लेना है कि अन्य कोई उन पर उंगली ना उठा सके तथा वह पुनः उस दोर की ओर लोट चलें जहाँ पर सब कुछ उनके हाथ में हो. साथ वह किसी भी मुद्दे की व्याख्या अपने अनुसार कर सकें. उदाहरण से समझा जा सकता है कि आरक्षण को एक गरीबी निवारण कार्य ही समझा दिया गया है.
रविदास मंदिर या गुरु-घर को बचाना क्यों आवश्यक है:
1. रविदास भारत में संत परंपरा की परिचायक है जो समतामूलक समाज निर्माण की आधारशिला रखते हैं. जहाँ पर उनके द्वारा बेगमपुरा नगर बसाने का सपना इस बात को दृष्टिपात करता है कि इस देश से सभी गम खत्म हो जाएँ तथा किसी का भी अपमान न हो तथा किसी को किसी के सामने हाथ पसारने नहीं पड़ें.
2. धर्म और राजनीति को अलग रखकर उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से धर्मनिरपेक्ष भारत की अवधारणा को भी समझ लिया था. जहाँ सभी धर्मों का सम्मान हो.
3. कर्तव्य के प्रति निष्ठा का जो भाव रविदास दिखाते हैं वह मिलना दुर्लभ है. महान संत होते हुए भी अपने कार्य को नहीं छोड़ना तथा कर्तव्य के प्रति सम्मान का भाव भी यह प्रदर्शित करता है कि कोई काम छोटा बड़ा नहीं होता.
4. रविदास जी के तत्कालीन समय में ज्ञान पर कुछ वर्ग विशेष का ही एकाधिकार था. उन्होंने उस एकाधिकार को चुनौती दी तथा ज्ञान को सीमाओं से मुक्त माना जिसकी परिणिति आगे चलकर डॉक्टर बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के रूप में उजागर हुई जो न सिर्फ भारत की अपितु विश्व के सबसे पढ़े-लिखे व्यक्ति बने.
संतो को जाति, धर्म ,वर्ग की सीमाओं में बांधे रखना बेमानी होगी वह सार्वभौमिक होते हैं. परंतु भारत में एक विचित्र स्थिति देखने को मिलती है अगर संत रविदास को “हिंदू” मान लिया जाए तो संपूर्ण हिंदू समाज की ओर से उनके मंदिर टूटने पर प्रदर्शन नहीं किया गया. वह विशेष रूप से बहुजन आधारित प्रदर्शन था. जिसमें स्वर्ण समाज की अनुपस्थिति विशेष रूप से देखी जा सकती है सामान्यतः यह मान लिया गया है कि रविदास एक जाति विशेष का ही प्रतिनिधित्व करते हैं.
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मनोज सिंह शोधार्थी एवं टीना कर्मवीर स्वतंत्र विश्लेषक हैं. उन्हें जिन्हें क्रमवार mk01993@gmail.com एवं Teenaroy35@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.
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