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राउंड टेबल इंडिया (Round Table India)

no caaदेश भर में पिछ्ले कुछ माह से सीएए, एनआरसी और एनपीआर के खिलाफ जगह-जगह विरोध और प्रदर्शन हो रहे हैं. इसी कड़ी में 4 मार्च 2020 को देश बचाओ! संविधान बचाओ समिति के तत्वावधान मान. प्रकाश आम्बेडकर के निर्दशन में देश के कोने-कोने से लाखो की संख्या में भारत के नागरिक नई दिल्ली के जंतर-मंतर पर सुबह 10 बजे से एकजुट होने जा रहे हैं. लेकिन ये सीएए, एनआरसी और एनपीआर है क्या? और ये कैसे जनविरोधी है? इस बात को जानने के लिये राउंड टेबल इंडिया (हिंदी) के एडिटर गुरिंदर आज़ाद ने इस समिति के एक कार्यकर्ता डा. रत्नेश कातुलकर से विस्तार से चर्चा की. यह बातचीत को सभी लोगों, चाहे वे इन कानून के समर्थक हो या विरोधी… पढ़ना चाहिए. – राउंड टेबल इंडिया 

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गुरिंदर आज़ाद: रत्नेश जी, ये CAA, NRC, NPR क्या है? 

रत्नेश कातुलकर: यदि इनके फुलफार्म की बात करे तो सीएए का मतलब सिटीज़नशिप अमेंडमेंट एक्ट, एनआरसी का मतलब नेशनल रजिस्टरआफ सिटीज़न और एनपीआर का मतलब नेशनल पापुलेशन रजिस्टर है. सरल शब्दों में कहा जाये तो ये अधिनियम और कानून संसद द्वारा पारित है जिनसे देश की एक बड़ी आबादी की नागरिकता छिनने का खतरा है. क्योंकि भारत के वे तमाम नागरिक जो पीढ़ियों से इस धरती पर यानि भारत में रहते आ रहे हैं और जिनमें सबसे बड़ी आबादी उन मूलनिवासियों की है जो भारत देश बनने से पहले से ही अलग-अलग भागों में रहती आ रही हैं, को अब अपने भारतीय होने का कागज़ात दिखा कर ही सिद्ध करना होगा कि वे भारत के नागरिक हैं. 

गुरिंदर आज़ाद: जब हमारे पूर्वज आज़ादी से पहले से ही भारत में रहते आये हैं तो भला सरकार हमारी नागरिकता पर कैसे सवाल कर सकती है? 

रत्नेश कातुलकर: जी हाँ,  2020 के पहले तक किसी भारतीय से कभी उसके नागरिक होने का प्रमाण नहीं मांगा गया था, क्योंकि हमारे मूल संविधान के अनुसार हर वह व्यक्ति भारत का नागरिक है जो या तो सन 1950 से पहले से भारत में रह रहा हो, या जिसका जन्म भारत में हुआ हो, या किसी देश के भारत में विलय होने पर वहाँ का निवासी हो या कोई विदेशी जो रजिस्ट्रेशन के माध्यम से भारत की नागरिकता लेना चाहता हो. इसके आधार पर ही सिटीज़नशिप एक्ट 1955 बना.

इसके बाद समय समय पर इसमें और संशोधन होते गये लेकिन 2003 में अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व में जो सरकार बनी थी उसने हमारे संविधान में एक नया संशोधन किया कि आने वाले दिनों में सरकार चाहे तो भारत के तमाम नागरिकों के लिये एक रजिस्टर बना सकती है जिसमें तमाम नागरिकों का नाम दर्ज किया जायेगा. उस समय तमाम बुद्धिजीवियों, नेताओं और कार्यकर्ताओं ने इसे कतई गम्भीरता से नहीं लिया. लेकिन अब यह संशोधन अपने विकराल रूप में सामने आ रहा है. क्योंकि इस रजिस्टर में नाम दर्ज कराने के लिये हमें अपने कागज़ात दिखाने होंगे. 

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(बाएं से दायें) गुरिंदर आज़ाद, माननीय प्रकाश आंबेडकर एंव रत्नेश कातुलकर)

गुरिंदर आज़ाद: लेकिन प्रधानमंत्री तो बार-बार कह रहे हैं कि सीएए किसी की नागरिकता छीनने का कानून नहीं बल्कि लोगों को नागरिकता देने के लिये लाया कानून है? 

रत्नेश कातुलकर: यह बात कुछ हद तक सच है. क्योंकि  सीएए ज़रूर पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान के धार्मिक रूप से प्रताड़ित हिंदु, इसाई, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी को भारत की नागरिकता देने की बात करता है. लेकिन  बात सिर्फ सीएए पर तो नहीं रुकती. सरकार का साफ कहना है कि वह एनपीआर भी लागू करेगी. जिसके लिये हमें अपनी जानकारी और इसके अगले चरण में प्रमाण के रूप में अपने कागज़ात दिखाने होंगे. 

गुरिंदर आज़ाद: आखिर हम पीढ़ियों  से इस देश में रह्ते आये है, तो हमें  कागज़ दिखाने में क्या आपत्ति? 

रत्नेश कातुलकर: सवाल है कि भले ही हम पीढ़ियों से भारत में रह्ते आ रहे हैं. लेकिन क्या इसका हमारे पास कोई कागज़ी प्रमाण है? देश की 60 प्रतिशत आबादी के पास नगरपालिका/नगर-निगम द्वारा प्रदत्त जन्म-प्रमाण पत्र नहीं है. कितने ही लोगों जिनमें खासकर आदिवासी, घुमंतु जनजाति, दलित और गरीब हैं जिनके पास 1950 या उससे पहले की ज़मीन की कोई रजिस्ट्री नहीं है.

कईओं के 1950 या उससे पहले का स्कूल का सर्टिफिकेट भी नहीं है. ऐसे में ये लोग अपने को इस देश का नागरिक सिद्ध करने के लिये भला कौन सा प्रमाण पेश कर पायेंगे? आदिवासिओं के खतिहान की भी कोई मान्यता नहीं है. ऊपर से यदि कुडुख, गोंडी आदि भाषा में लिखा कोई कागज़ात मिल भी जाता है तो उसके अंग्रेज़ी अनुवाद और लिप्यांतरण में स्पेलिंग की गलती से आपका दावा तुरंत निरस्त हो जायेगा. 

गुरिंदर आज़ाद: लेकिन हम अपने आधार कार्ड, वोटर कार्ड, बेंक पास बुक को दिखाकर तो अपनी नागरिकता सिद्ध कर ही सकते हैं? 

रत्नेश कातुलकर: बिल्कुल नहीं. आप चाहे तो अपने आधार कार्ड को पलट कर देखें उसपर साफ लिखा है, ‘आधार पहचान का प्रमाण है, नागरिकता का नहीं’ इतना ही नहीं किसी को कोई गलत-फहमी न रहे इसलिये इसपर अंग्रेज़ी में लिखा है ‘Aadhar is proof of identity, not citizenship.’ यानी यह स्पश्ट है कि आपका आधार कार्ड आपको कतई नागरिक सिद्ध नहीं कर सकता. रही बात वोटर कार्ड और पासपोर्ट की तो बोम्बे हाई कोर्ट के अनुसार ये भी आपकी नागरिकता सिद्ध नहीं कर सकते. (संदर्भ:https://timesofindia.indiatimes.com/india/Passport-alone-no-proof-of-citizenship-Bombay-HC/articleshow/22244467.cms)

हाँ अगर आपके पास 1950 के पहले का पासपोर्ट हो, 1950 के पहले की जमीन की रजिस्ट्री हो तो बात बन सकती है. अब सवाल है कि जिनका जन्म ही 1950 के बाद हुआ उन्हें अपने माता-पिता के कागज़ात दिखाते हुए वह कागज़ात पेश करना होगा जिससे ये सिद्ध हो सके कि वह उनके ही बच्चे हैं. यानी स्कूल का सर्टिफिकेट आदि. 

अब सवाल हैं कि जो 1950 में भुमिहीन और अनपढ़ थे, वे कहाँ से ये कागज़ात पेश कर पायेंगे? और यदि उनके बच्चे भी गरीब और अनपढ़ ही रहे तो भला वे भी अपने कागज़ कहाँ से पेश कर पायेंगे? यदि बाद की पीढ़ी ने पढ़-लिखकर नौकरी और ज़मीन भी खरीद ली हो तो जब वह 1950 की ज़मीन से कोई रिश्ता नहीं जोड़ पायेंगे तो भला वे भारत के नागरिक कैसे कहलायेंगे? 

गुरिंदर आज़ाद: यदि असम में हुई एनआरसी में कट आफ तारीख 1971 थी तो बाकि भारत में 1950 क्यों ? 

रत्नेश कातुलकर: यह सच है कि असम में 1971 कट आफ तारीख थी. लेकिन इसके पीछे कुछ जायज़ कारण था. दरअसल 15 अगस्त 1985 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और असम के आंदोलनकारी जो अपने राज्य में बाहरी घुसपैठियों की समस्या से परेशान थे, के बीच एक समझौता हुआ था कि वे 25 मार्च 1971 की तारीख तक असम में बसने वाले लोगो के अतिरिक्त बाकी सभी को बाहरी मानेंगे. इसी आधार पर वहाँ की नागरिकता के लिये 1971 का साल मुकर्रर किया गया. जाहिर है कि यह समझौता असम के लिये ही था. इसलिये शेष भारत में 1950 ही आधार साल बनेगा क्योंकि सिटीज़नशिप एक्ट 1955 के अनुसार 26 जनवरी 1950 ही भारत की नागरिकता का आधार बना था. 

हालांकि बाद में सिटीज़नशिप एक्ट 1955 मे हुए संशोधन के अनुसार 1 जुलाई 1987 से पहले भारत की भूमि में पैदा हुआ हर व्यक्ति भी भारत का नागरिक है. फिर इसके बाद 31 दिसम्बर 2003  तक पैदा हुए बच्चे को भी भारत का जन्म से नागरिक माना गया बशर्ते कि उसके माता या पिता में कोई एक अनिवार्य रूप से भारत का नागरिक हो. इसके बाद एक और संशोधन के अनुसार 1 जनवरी 2004 के बाद पैदा हुए बच्चो के लिये तो नागरिकता की शर्त और भी कडी कर दी गयी कि इनके माता और पिता दोनो को भी अनिवार्य रूप से भारत का नागरिक होना ही होगा. हालांकि इसमे कुछ प्रावधान भी किये गये थे. 

अब इन सब संशोधनो और तारीखो को देखा जाये तो यह साफ है कि शेष भारत के नागरिको को अपनी वंशावली साबित करने के लिये नागरिकता का आधार साल 1950 ही होगा. क्योंकि 1987 तक भारत में पैदा हुए व्यक्ति को भी अपने खुद के जन्म प्रमाण पत्र के अलावा अपने माता-पिता या दादा-दादी को भारतीय सिद्ध करने के लिये 1950 का दस्तावेज़ तो पेश करना ही होगा. यानि भले ही सिटीज़नशिप एक्ट 1955 में बाद के सालो तक संशोधन होते रहे हो. आखिरकार नागरिकता की कट आफ डेट 1950 से ही जा मिलेगी. यानी शेष भारत में एनआरआईसी का आधार 1950 ही होगा.  

गुरिंदर आज़ाद: तो भला ऐसे में कौन लोग अपनी नागरिकता बचाने मे सफल हो पायेंगे? 

रत्नेश कातुलकर: जिनके पास पुश्तों से ज़मीन रही है. जिनके पास पीढ़ियों से शिक्षा रही है. या पीढ़ियों से कागज़ात रहे हैं. वे लोग तो आसानी से दस्तावेज़ पेश कर सकते हैं. सरल शब्दो में कहे तो केवल ब्राह्मण, राजपूत और बनिया ही अपनी नागरिकता का दावा कर पायेंगे क्योंकि इन तीन वर्णों  के पास ही शिक्षा, जमीन और कागज़ रहे हैं. 

इन तीन समुदायों के अलावा सारी घुमंतु जनजाति, आदिवासी, अनुसुचित जाति, अन्य पिछ्डा वर्ग, गरीब, ट्रान्सजेंडर, घर और परिवार से भाग कर अंतरजाति विवाह करने वाले तमाम लोग एक झटके में नागरिकता से वंचित हो जायेगे. सीधे शब्दो में कहे तो यह स्पष्ट रूप से मनु-राज होगा. क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य को छोड़कर सभी नागरिक अधिकारों से वंचित कर दिये जा सकते हैं. 

गुरिंदर आज़ाद: तब क्या केवल लोगों को जाति के आधार पर ही नागरिकता मिल पायेगी? 

रत्नेश कातुलकर: नहीं, ऐसा खुले रूप में शायद नहीं होगा लेकिन इतना तो तय ही है कि ब्राह्मण, राजपूत और बनिया ही वे मुख्य समुदाय हैं जिनके पास पीढ़ियों के कागज़ात हैं. हाँ, इनमें जो गरीब और अनपढ़ हैं या जिनके माँ-बाप गरीब और अनपढ़ थे वे शायद अपने कागज़ात नहीं दिखा पायें. 

ठीक इसी तरह, वे ओबीसी, अनुसुचित जाति और अनुसुचित जनजाति के लोग, जिनके पास 1950 के पहले के कागज़ात हैं, ज़रूर अपनी नागरिकता बचाने में कामयाब हो सकेंगे. लेकिन यह तो साफ है कि ऐसे दलित-आदिवासी और शूद्र बेहद ही कम होंगे. ज़ाहिर है कि ये नागरिकता बचाने वाले लोग आने वाले समय में आरक्षण और एट्रोसिटी प्रिवेन्शन एक्ट 1989 आदि से तुरंत वंचित हो जायेंगे क्योंकि इन अधिकारों के लिये संघर्ष करने वाला जनसमुदाय तो पहले ही अपनी नागरिकता गंवा चुका होगा. 

ऐसे में ये मुट्ठी भर ओबीसी, अनुसुचित जाति और अनुसुचित जनजाति बहुसंख्यक द्विज हिंदुओ के हमले का शिकार बनेंगे और न सिर्फ अपनी जमीन-जायदाद, नौकरी-धंधा बल्कि अपनी जान से भी हाथ धो बैठेंगे. 

गुरिंदर आज़ाद: जो नागरिकता से वंचित कर दिये जायेंगे उनका क्या होगा? 

रत्नेश कातुलकर: नागरिक अधिकार से वंचित लोगों को अपनी नौकरी, बिज़नेस, मज़दूरी, बैंक बेलेन्स, शिक्षा, इलाज से लेकर वोटिंग से हमेशा के लिये महरूम होना पड़ेगा और डिटेंशन केम्पों में बचा जीवन गुजारना होगा. सरकार पहले ही 10 राज्यों में डिटेंशन सेंटर बनाने का काम शुरु कर चुकी है. नागरिकता साबित नहीं कर पाने वाले भारतियों को ताउम्र इन डिटेंशन सेंटरों में कैद कर दिया जायेगा.

गुरिंदर आज़ाद: वे कौन-कौन सी जगह हैं, जहाँ डिटेंशन सेंटर बन रहे हैं? 

रत्नेश कातुलकर: द हिंदु अखबार की रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली में लामपुर, राजस्थान में मेवाड़, गोवा का मापुसा, पंजाब में तरन-तारण, कर्नाटक का बेंगलुरु, महाराष्ट्र में नेरुल नवी मुंबई, पश्चिम बंगाल-बोंगा और 24 उत्तरी परगना,  केरल में काम जारी है. इसके अलावा मध्यप्रदेश में कांग्रेसी सरकार के राज में यह सेंट्रल जेल के नाम से 500 हेकटेयर की ज़मीन पर निर्माण कार्य जारी है. इसके अलावा होशंगाबाद, बैतूल, हरदा, नरसिन्हपुर, सिवनी और बालाघाट में भी सेंट्रल जेलें बनाई जाएँगी. 

इनमें फिलहाल केरल, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र सरकार ने रोक लगा रखी है. लेकिन जाहिर हैं ये सब जेलें उन्हीं लोगों के लिये हैं जो अपनी नागरिकता सिद्ध नहीं कर पायेंगे. 

गुरिंदर आज़ाद: क्या वे सब जो अपनी नागरिकता सिद्ध नहीं कर पायेंगे उन्हे सीधे डिटेंशन सेंटर में डाल दिया जायेगा?

रत्नेश कातुलकर: कुछ को सीधे डाला जायेगा तो कुछ को अपनी नागरिकता सिद्ध करने के लिये फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल में अर्जी दाखिल करने का मौका दिया जायेगा. 

गुरिंदर आज़ाद: ये फॉरेनर्स  ट्रिब्यूनल क्या है? 

रत्नेश कातुलकर: यह एक तरह का कोर्ट होगा. जिसमे अवैध विदेशी घुसपैठिये करार दिये लोग अपने दस्तावेज जुगाड़ कर खुद की नागरिकता साबित कर सकते हैं. लेकिन यह बहुत खर्चीला और सालों-साल चलने वाला एक लम्बा संघर्ष होगा. जिसमे जीतने की कोई सम्भावना नहीं होगी. 

गुरिंदर आज़ाद: ऐसा क्यो? 

रत्नेश कातुलकर: इन फारेनर्स ट्रिब्यूनल में एक साथ लाखों-करोड़ों केस दर्ज होंगे. तो ज़ाहिर है एक-एक प्रकरण आने में दसियों साल या अधिक भी लग सकते हैं. फिर वकील का खर्चा, कागज़ात के जुगाड़ में लाखों रुपये का खर्च लगेगा. लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि चुंकि इसमें न्यायाधीश की कुर्सी पर कोई जज नहीं बल्कि साधारण अफसर बैठा होगा जो किसी कायदे-कानून या प्रक्रिया के आधार पर नहीं बल्कि अपनी मर्ज़ी के मुताबिक अपना निर्णय देगा. 

हम असम में देख ही चुके हैं कि एक वेदेशी करार दी गयी भारतीय महिला जाबेदा बेगम ने लाखों रुपये खर्च कर एक नहीं कुल 15 दस्तावेज जुटाये, लेकिन फारेनर्स ट्रिब्यूनल इन सब को एक झटके में खारिज करते हुए उसे विदेशी घुसपैठिया ही माना. (संदर्भ: https://www.ndtv.com/india-news/declared-foreigner-assam-womans-story-predicts-citizenship-list-effect-2182212). यानी फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल से न्याय की उम्मीद रखना बेमानी होगा. वैसे भी इन फॉरेनर्स  ट्रिब्यूनल के उपर सरकार का दबाव होगा कि वे अधिक से अधिक लोगों को विदेशी घुसपैठिया सिद्ध करे. उपर से जातिवाद, साम्प्र्दायिकता, घृणा और द्वेष के युग में इन अधिकारियों से न्याय की उम्मीद रखना आखिर कितना भरोसेयोग होगा! 

गुरिंदर आज़ाद: तो क्या उन तमाम भारतीयों को  डिटेंशन सेंटर में कैद कर दिया जायेगा जो दस्तावेज़ नहीं पेश कर पायेंगे? 

रत्नेश कातुलकर: नहीं, इतने सारे लोगों को एक साथ डिटेंशन सेंटर में कैद में कैद करना शायद मुश्किल होगा. इसलिये बहुत सारों को इनमे नहीं डाला जायेगा. लेकिन इतना तो तय है कि उनसे उनके सारे नागरिक अधिकार जैसे-संपत्ति, पढाई-लिखाई, नौकरी-व्यापार छीन लिये जायेंगे. इन्हें समता का अधिकार, स्वतन्त्रता का अधिकार आदि, संविधान प्रद्त्त कोई भी अधिकार नहीं मिल सकेंगे. यानी ये लोग बिना मकान और आधारभूत सुविधा के दर-दर की ठोकरें खाने के लिये मज़बूर होंगे जो ऊपर के तीन वर्गों के लिये सस्ता मज़दूर होंगे. इनकी पूरी ज़िंदगी मुट्ठी भर नागरिक कहलाने वाले लोगों के रहमो-करम पर होगी. 

गुरिंदर आज़ाद: लेकिन क्या जो लोग सारे दस्तावेज़ दिखा पायेंगे, वे अपनी नागरिकता बचा पायेंगे? 

रत्नेश कातुलकर: जरूरी नहीं. जैसा कि मैं पहले भी कह चुका हूँ, असम की जाबेदा बेगम ने एक नहीं कुल 15 द्स्तावेज़ जुटाये थे. इसके बावज़ूद भी उसे भारत का नागरिक नहीं माना गया. वहीँ एनआरसी में एक और खतरनाक नियम यह है कि तमाम दस्तावेज़ों की पुष्टि हो जाने के बाद भी यदि आपके मुहल्ले वाला आपके विरुद्ध शक जाहिर कर दे तो आपको सीधे ‘डाऊटफुल सिटीज़न’ की केटेगरी में डाल दिया जायेगा. अब आपको खुद नये सबूत इकट्ठा कर खुद को नागरिक साबित करने की मशक्कत करनी होगी. लेकिन झूठी शिकायत करने वाले व्यक्ति, जिसने आपकी नागरिकता पर आपत्ति उठाई, उसके खिलाफ कोई कार्र्वाई नहीं होगी. 

गुरिंदर आज़ाद: जो लोग डिटेंशन सेंटर में कैद होंगे, उनका क्या होगा? 

रत्नेश कातुलकर: जाहिर हैं इन्हें मुफ्त में नहीं खिलाया जायेगा. असम के अनुभव बताते हैं कि इन डिटेंशन सेंटर के हालात जेलों से भी बदतर हैं. सरकारी आंकड़ों के अनुसार अब तक यहाँ 28 लोगों की मौत हो चुकी है. इनमें सबसे पहली मौत एक आदिवासी की हुई थी जो मूलत झारख़ंड की थी. मुमकिन है कि आने वाले दिनों में डिटेंशन सेंटर कार्पोरेट को मुफ्त के कुशल और अकुशल कामगार उपलब्ध कराने के केंद्र बन सकते हैं. यह प्लान, कार्पोरेट के लिये बहुत लाभदायक होगा लेकिन आमजन को तमाम अधिकार और सुविधाओं से हमेशा के लिये वंचित कर देगा. 

गुरिंदर आज़ाद: असम के आंकड़े और क्या बताते हैं? 

रत्नेश कातुलकर: देखिए असम एक छोटा सा राज्य है. एनआरसी दरअसल असम के निवासियों की लम्बी मांग का कुत्सित परिणाम है. इस एनआरसी में 19 लाख भारतीय डाउटफुल सिटीज़न घोषित किये गये हैं. इनमें लगभग 14 लाख से अधिक हिंदू कहलाते हैं. इनके भीतर देखा जाये तो पता चलता है कि इनमें एक बड़ी संख्या आदिवासी, दलित और अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों की है. करीब साढ़े चार लाख मुसलमान भी अपनी नागरिकता से वन्चित कर दिये गये हैं. 

आश्चर्य की बात हैं कि इन विदेशी करार दिये गये लोगों में भारत के पांचवे राष्ट्र्पति का भांजा, कारगिल की लड़ाई लड़ने वाला एक फौजी मोहम्म्द सनाउलाह, पूर्व सैनिक महिरुद्दिन अहमद, एयर फोर्स के रिटायर्ड फ्लाइट लेफ्टिनेंट छबिंद्र सरमा जो कि एक हिंदु-ब्राह्मण हैं, से लेकर बरपेटा के कई फौजी भी हैं, जो अभी भी फौज में सैनिक है.

ऐसे भी बहुत से परिवार हैं जहाँ कहीं बच्चों नागरिकता मिली तो उनके माँ-बाप छूट गये, तो कहीं इससे उल्टा हुआ. कई परिवार के कुछ सद्स्यों को नागरिक तो कुछ तो विदेशी घोषित कर दिया गया. कुल मिला कर एनआरसी शोषण और मज़ाक बन कर रह गयी है. असम के वे युवा नेता जो एक समय एनआरसी के घोर हिमायती थे, वे भी समझ चुके हैं कि यह एक बेमतलब की प्रकिया रही, जिससे सिर्फ अपार जन और धन की हानि भर हुई. यदि इसे सारे देश में लागु किया जायेगा तो इसमे 50,000 करोड़ से अधिक रुपये बर्बाद होंगे.  

गुरिंदर आज़ाद: लेकिन हमारे प्रधानमंत्री तो कह चुके हैं कि एनआरसी तो समस्त भारत में लागू नहीं होगी. फिर चिंता की क्या ज़रुरत? 

रत्नेश कातुलकर: यह सच है कि प्रधानमंत्री ने रामलीला मैदान की अपनी रैली में जोर देकर कहा कि एनआरसी देश में लागु नहीं होगी. लेकिन यह उनका राजनीतिक बयान है. ये ठीक उसी तरह की बात है जैसे पिछ्ले चुनाव में उन्होंने कहा था कि कालाधन वापस आ जायेगा और हर भारतीय के खाते में 15-15 लाख रुपये आयेंगे. लेकिन बाद में यह एक जुमला भर निकला. फिर हम कैसे भूल सकते हैं कि गृहमंत्री अमितशाह ने कलकत्ता में साफ कहा था कि पहले सीएए आयेगा फिर एनपीआर. और फिर न सिर्फ बंगाल बल्कि देश भर के लिये एनआरसी लागू किया जायेगा. 

अब प्रधानमंत्री और गृहमंत्री दोनों के परस्पर विरोधी बयानों को दरकिनार कर दिया जाये और हम साल 2018-19 की गृह मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट को देखें तो उसके अध्याय 15.1.(iv) मे साफ लिखा है कि नागरिकता अधिनियम 1955 के आधार और अनुसार नागरिकता संशोधन अधिनियम 2003 के निर्देश के अनुसार पूरे देश में एनआरसी लागू की जायेगी और इसके लिये एनपीआर एक पहला कदम होगा. मतलब साफ है कि सरकार बिना एक इंच भी पीछे हटे देश पर एनआरसी थोपने के लिये तैय्यार है. यह सच है कि एनआरसी के लिये कोई अलग से सर्वे नहीं होगा क्योंकि खुद सरकार के अनुसार एनपीआर का ही डाटा एनआरआईसी का रिकार्ड बनेगा. 

गुरिंदर आज़ाद: हम हर जगह एनआरसी (NRC) ही सुनते रहे हैं लेकिन कभी-कभी एनआरआईसी (NRIC) क्यो कहा जाता है? 

रत्नेश कातुलकर: देखिये जब 10 दिसम्बर 2003 को सिटिज़नशिप अमेंडमेंट एक्ट 2003 के नियम सामने आये तो उसमे साफ तौर पर नेशनल रजिस्टर ओफ सिटिज़ंस यानि एनआरआईसी का उल्लेख किया गया. यही इसका वास्तविक नाम है. लेकिन आजकल बोलचाल में इसे एनआरसी कहा जाने लगा इसके पीछे का कारण यह है कि जब इसे असम में लागू किया गया उस वक्त असम के लोगो की मांग गैर-असमियो की पह्चान करना था जो कि भारत के अन्य राज्य से हुये व्यक्ति से लेकर विदेशी दोनो ही हो सकते थे. यह पूरा मामला क्षेत्रीय स्वायत्तता का था. जाहिर इसका उद्देश्य असम की नागरिकता सिद्ध करना था ना कि भारत की इसलिये वहाँ इसे एनआरसी यानि नेशनल रजिस्टर ओफ सिटिज़न्स कहा गया जो तार्किक रूप से बिल्कुल सही था. लेकिन जब इसे बाकि देश में लागू किया जायेगा तो इसे अपने मूल नाम नेशनल रजिस्टर ओफ इंडियन सिटिज़ंस (NRIC) ही कहा जायेगा. 

गुरिंदर आज़ाद: इसका मतलब साफ है कि एनआरसी हो के ही रहेगी. लेकिन कुछ कार्यकर्ता तो कह रहे हैं कि वे कागज़ नहीं दिखाकर या असहयोग कर एनआरसी और एनपीआर का विरोध करेंगे? 

 

रत्नेश कातुलकर: यह एक ख्याली पुलाव भर है. पहली बात तो यह कि ऐसे कितने लोग होंगे जो इस मुहिम से जुड़ेंगे? अधिकांश जनता ना चाहते हुए भी, कभी डर तो कभी दबाव के चलते, एनपीआर के सर्वेक्षकों को अपनी जानकारी दे ही देगी.

यदि कुछ लोग असहयोग भी करना चाहे तो चुंकि जानकारी लेने वाला कर्मचारी उन्हीं के मोहल्ले से भी तो हो सकता है या होगा ही, जिसके पास पूरे मुहल्ले के लोगों के नाम, परिवार के सदस्यों की संख्या, उनका नाम आदि सामान्य जानकारी तो पहले ही होगी. तो जाहिर है कि वह असहयोग की दशा में खुद अपने ही घर बैठ कर ये जानकारी अधूरे रूप में भर देगा. फिर क्या अधूरी जानकारी वाले तमाम नागरिकों को सरकार तुरंत संदिग्ध नागरिक यानी डाऊटफुल सिटीज़न घोषित कर देगी. इसलिये एनपीआर की जानकारी नहीं देना कोई हल नहीं है. 

गुरिंदर आज़ाद: लेकिन सर्वेक्षक आखिर अधूरी जानकारी अपने घर बैठे या किसी पड़ोसी से जानकारी लेकर क्यों भरना चाहेगा? 

रत्नेश कातुलकर: आप देख ही रहे हैं. महंगाई आसमान छू रही है. ऐसे मे सरकार इन सर्वेक्षकों का बाखूबी इस्तेमाल करेगी. इन्हें 25000 रुपये का मेहनताना दिया जायेगा. जाहिर है कि जो खाली फॉर्म लाने पर तो नहीं मिलेगा. इसलिये रुपये-पैसे के लालच में ये सर्वेक्षक किसी भी जायज़ या नाजायज़ तरीके से ये जानकारी, भले ही वे आधी-अधूरी क्यो न हो लेकर ही रहेंगे. 

फिर भी यदि कुछ लोगों की जानकारी नहीं मिल पाये तो भी वे बच नहीं सकते. क्योंकि जब एनआरसी पूरी तरह लागू हो जाएगी तब आपका बैंक-अकाउंट हो, ज़मीन की रजिस्ट्री, किराये के मकान का एफिडेविट, ट्रेन या हवाई जहाज का रिज़र्वेशन या कोई भी सेवा, आपको हर जगह अनिवार्य रूप से अपना एनआरसी नम्बर लिखना ही होगा. जिस अकाउंट में यह नम्बर नहीं होगा, उसे कुर्क कर लिया जायेगा. ज़ाहिर है कि रास्ते में घूमते-फिरते या आपके घर भी पुलिस आकर आपसे यह एनआरआईसी पूछ सकती है. जिनके पास भी यह नम्बर नहीं होगा वे सब भारत के नागरिक नहीं कहला सकेंगे. उन्हे तमाम नागरिक अधिकार यानी नौकरी, बिज़नेस, मज़दूरी, बैंक बेलेन्स, शिक्षा, इलाज से लेकर वोटिंग से हमेशा के लिये दरकिनार होना पड़ेगा और डिटेंशन केम्पो में बचा जीवन गुजारना होगा. 

गुरिंदर आज़ाद: तो फिर इससे बचने का क्या उपाय है? 

रत्नेश कातुलकर: एक ही उपाय है कि हम सरकार पर दबाव बनायें. लेकिन यह दबाव महज एनआरसी, एनपीआर और सीएए को वापस लेने के लिये नहीं होना चाहिये. बल्कि इससे भी अधिक हम भारत की जनता को संसद पर दबाव बनाना चाहिये कि वह 1955 के बाद के तमाम नागरिकता संशोधन को तुरंत वापस ले. इसमे हमारा सबसे ज़्यादा ज़ोर 2003 का नागरिकता संशोधन अधिनियम होना चाहिये जो अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार ने लागू कराया था. इस पुराने अधिनियम का विरोध इसलिये ज़रूरी है, क्योंकि, आज मान लो सरकार जनता के दबाव में भले ही एनआरआईसी, एनपीआर वापस भी ले लेती है, तो कोई गारण्टी नहीं कि आने वाले दिनों में कोई और सरकार 2003 के नागरिकता संशोधन अधिनियम का हवाला देकर इसे दुबारा देश मतलब देश की जनता पर न थोप दे. 

इतना ही नहीं, अगर हमें अपने नागरिक अधिकार की पूरी गारण्टी चाहिये तो हमें केवल मूल 1955 के नागरिकता नियम के अलावा बाकी सारे संशोधनो को रद्द कराने की पहल करना चाहिये. क्योंकि डा. आम्बेडकर के अनुसार यह एक अंतर्राष्ट्रीय नीति है कि हर वह व्यक्ति भारत का नागरिक हो सकता है जो पहला नागरिकता के आधार किसी राष्ट्र के निर्माण से पहले से रह रहा हो, राष्ट्र में जन्म लेने वाला हर बच्चा, किसी अन्य राज्य के देश मे विलय होने पर वहाँ के समस्त नागरिक, और किसी विदेशी द्वारा आवश्यक शर्ते पूरी करने पर रजिस्ट्रेशन के द्वारा. इन नियमों में बाद की सरकारों ने छेड़छाड़ की जो तार्किक और न्याय सम्मत नहीं है और जनविरोधी है.

गुरिंदर आज़ाद: इसमें कोई शक नहीं कि एनआरआईसी-एनपीआर जनविरोधी है पर सीएए तो नागरिकता देने वाला कानून है. आखिर इसका विरोध क्यो? 

रत्नेश कातुलकर: दरअसल यह गैर-ज़रूरी और संविधान विरोधी है. 1955 के अधिनियम से ही यह स्प्ष्ट प्रावधान है कि कोई भी विदेशी जो भारत में 12 साल से रह रहा हो, वह रजिस्ट्रेशन के माध्यम से  भारत की नागरिकता प्राप्त कर सकता है. इसलिये सीएए में ऐसी क्या नई बात है जो सरकार को इसकी ज़रुरत आन पड़ी! 

रजिस्ट्रेशन के द्वारा पाकिस्तान मूल के गायक अदनान सामी जैसे बहुत से लोग पहले ही भारत की नागरिकता लेते रहे हैं. इसलिये इस कानून का क्या मतलब! इसमे नया सिर्फ इतना है कि अब पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश के गैर-मुसलमान केवल 5 साल के भारत में निवास के आधार पर नागरिकता पा सकते है. यानि इसमें नया नियम, एक तो 12 साल से घटा कर 5 साल करना और दूसरा इसे केवल गैर-मुस्लिमों के लिये सीमित करना भर है. 

रही बात धार्मिक प्रताड़ना की तो वह खुद लाल किले की प्राचीर पर प्रधानमंत्री बता चुके हैं कि पाकिस्तान के बलूच प्रांत के मुसलमान बहुत पीड़ित हैं. फिर उन्हें भी नागरिकता क्यों न दी जाये? जाहिर है कि हमारा संविधान धर्म के आधार पर किसी को नागरिकता से महरूम रखने के खिलाफ है. अगर आज मुसलमानों को इससे वंचित किया जायेगा तो कल इसाई को, परसों सिख को फिर बौद्ध को फिर आदिवासी को….  यह कानून पूरी तरह संविधान विरोधी है. 

गुरिंदर आज़ाद: यदि पाकिस्तान समेत किसी भी देश के नागरिक को भारत की नागरिकता देने का पहले ही प्रावधान था तो फिर सीएए को लाने या पेश करने/कराने की ज़रुरत क्या थी? 

रत्नेश कातुलकर: इसके पीछे सरकार की एक बड़ी साज़िश दिखाई पड़ती है. जैसा कि मैं पहले ही कह चुका हूँ. इन तीनों में सबसे खतरनाक एनआरसी है जिसकी नींव सन 2003 में अटल बिहारी बाजपेयी के शासन काल में ही डाल दी गई थी. केवल यही एकमात्र कानून है जो हमारी नागरिकता छीनने के लिये काफी है और एनपीआर इसे लागू करने की विधि. आश्चर्य की बात है कि इस सम्बंध में संशोधन करने के बावज़ूद भी इसे बाजपेयी और फिर पिछले पांच सालों के दौरान मोदी सरकार में इसे ठंडे बस्ते में डाले रखा. 

लेकिन यह समझने की बात है इस दौरान देश में मुसलमानों के विरोध में खासा माहौल तैय्यार किया गया और अब सीएए के माध्यम से यह जताने की कोशिश की कि देखिये हम मुसलमानों के अलावा हर किसी को नागरिकता देने के लिये तैय्यार बैठे हैं. फिर क्या, रही सही कसर मीडिया ने इसे मुसलमान विरोधी जता कर पूरी कर दी. 

इससे आहत होकर भारतीय मुसलमानों ने इसके खिलाफ प्रदर्शन करना शुरू किया तो इसका फायदा हिंदुवादी विचारधारा ने भरपूर उठाया और देश में मुसलमान विरोधी ऐसा माहौल बन गया या बनाया गया कि आम नागरिक जो चाहे नोमेडिक ट्राईब,  आदिवासी, दलित, गरीब, अन्य पिछ्डे वर्ग से हैं और जिसके पास 1950 के पहले के कोई दस्तावेज़ भी नहीं है वह आने वाले दिनो में खुदपर आने वाली मुसीबत को दरकिनार कर देश में बह रही मुसलमान विरोधी लहर का हिस्सा बन यह सोचने लगा कि सीएए तो बस मुसलमान विरोधी है और मुझे इसपर चिंता करने की क्या ज़रुरत?  लेकिन इस साम्प्रदायिकता के नशे में वह यह भूल गया कि जब एनआरसी और एनपीआर लागू  होगा तो सबसे ज़्यादा मुश्किल में मुसलमान नहीं बल्कि वह खुद होगा. 

जैसा कि हम असम में देख चुके हैं जहाँ कुल 15 लाख से अधिक गैर-मुसलमान और हिंदू नागरिकता से वंचित कर दिये गये. लेकिन मीडिया तो छोड़िये किसी प्रगतिशील चिंतक ने भी एनआरसी और एनपीआर को आदिवासी-दलित-ओबीसी बताने की पहल नहीं की. हाँ, राजनेताओं में एकमात्र प्रकाश आम्बेडकर इस नरेटिव के साथ सामने आये और उन्होंने गैर-मुस्लिम लोगों की एक बड़ी जमात को विरोध का हिस्सा बनाया. आगामी 4 मार्च 2020 को भी वे दिल्ली के जंतर-मंतर पर आदिवासी, दलित, ओबीसी और धार्मिक अल्पसंख्यको को एक प्लेटफोर्म पे लाकर ‘नागरिकता संशोधन एक्ट 2003’ को खारिज करवाने की कोशिश कर रहे हैं.  यदि जनता इस बात को समझ जाती है तो निश्चित ही इस जनविरोधी कानूनों से निजात मिल सकती है जो कि वास्तव में जनतन्त्र की जीत होगी.

गुरिंदर आज़ाद: राउंड टेबल इंडिया से बातचीत करने के लिए धन्यवाद् रत्नेश जी.

रत्नेश कातुलकर: धन्यवाद्.

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डा. रत्नेश कातुलकर, सोशल साइंटिस्ट है जो इंडियन सोशल इन्सटीट्यूट, नई दिल्ली में कार्यरत हैं. इनसे ratnesh.katulkar@gmail.com सम्पर्क किया सकता है.

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One thought on “CAA-NRC-NPR का पूरा लेखा-जोखा, विशेषज्ञ के हवाले से

  1. रत्नेश साहब ने एक बहुत बड़ी बात मिस कर दिया, ऐसा देखा जा रहा है कि यह एक रिवायत बनती जा रही है वो ये है कि जहाँ हिन्दू भाइयो के ब्राह्मण, राजपूत और बनिया के बारे में कहा गया कि वो अपनी नागरिकता बचा लेंगे, वही मुसलमानों के बारे में खामोशी बरती गई, मेरा स्पष्ट मानना है कि अशराफ(सैयद,शेख, मुग़ल, पठान) जो शासक वर्ग रहा है वो भी अपनी नागरिकता बचा लेगा….उसके पास तो कुतुबमीनार से लेकर ताजमहल तक के कागजात हैं…..भक्त भोगी मूलनिवासी, देशी, पसमांदा (मुस्लिम धर्मावलंबी आदिवासी, दलित, पिछड़ा) होगा।
    मेरी समझ से अगर उपर्युक्त विवरण में यह बात जोड़ दी जाए तो बात मुकम्मल हो जाएगी।
    जय भीम जय पसमांदा

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