डॉ ललित कुमार (Dr. Lalit Kumar)
तिलका मांझी पहले आदिवासी नेता रहे जिन्होंने गोरी हुकूमत के खिलाफ हथियार उठाये. मंगल पांडे जिनके बारे में प्रचारित किया गया है कि वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अग्रेजों से लड़ाई की शुरुआत की, तिलका मांझी उनसे सत्तर साल पहले ही आदिवासियों को ब्रिटिश हुकूमत द्वारा उनके संसाधनों की लूट और प्रताड़ना के खिलाफ लामबंद एंव हथियारबंद कर रहे थे. वे 11 फरवरी 1750 को सुल्तानगंज (भागलपुर, बिहार)में पैदा हुए और सन 1784 में महज़ 34 वर्ष की आयु में वीरगति को प्राप्त हो गए.- एडिटर
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आदिवासी महानायक जबरा पहाड़िया यानी बाबा तिलका मांझी अपने 270वें जन्मदिवस पर कोलकाता, पश्चिम बंगाल में शिद्दत से याद किए गए. विभिन्न विश्वविद्यालयों के बहुजन युवा प्राध्यापकों, बुद्धिजीवियों एवं शोध छात्रों की तरफ से कलकत्ता विश्वविद्यालय के बेसमेंट हॉल में आयोजित इस कार्यक्रम में तिलका मांझी की याद में ‘‘राइट्स, डिग्निटी एंड मार्जिनलाइजेशन ऑफ आदिवासी इन कंटेम्पररी इंडिया’’ विषय पर एक परिचर्चा का आयोजन किया गया. इसकी अध्यक्षता जादवपुर विश्वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ प्रकाश बिस्वास ने की तथा मुख्य अतिथि थे महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय कोलकाता केंद्र के प्रभारी और युवा आदिवासी लेखक-चिंतक डॉ सुनील कुमार ‘सुमन’.
डॉ सुनील ने तिलका मांझी को आज़ादी का पहला लड़ाका बताते हुए कहा कि आदिवासियों का प्रतिरोध हमेशा से सृजनात्मक रहा है. इतिहासकारों ने जरूर इन नायकों के साथ अन्याय किया, लेकिन अब वंचित समाज की नई पीढ़ी अपना जीवंत इतिहास लिखेगी. उन्होंने आज के संदर्भ में आदिवासियों, दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को साथ मिलकर अपने अधिकारों के लिए लड़ने की जरूरत बतलाई और कहा कि इन समुदायों को हर हाल में धार्मिक गुलामी से मुक्त रहना होगा.
सिदो-कान्हू बिरसा विश्वविद्यालय, पुरुलिया से आए डॉ शशिकांत मुर्मू ने विस्तार से आदिवासियों की समस्याओं को रेखांकित किया और कहा कि कैसे सरकारी स्तर पर इनका लगातार उत्पीड़न जारी है. इससे लड़ने की जरूरत है.
रबीन्द्र भारती विश्वविद्यालय के डॉ झंटू बड़ाईक ने तिलका मांझी के आंदोलन को प्रेरणा का प्रतीक बताते हुए कहा कि आज भी आदिवासी अपनी अस्मिता, स्वाभिमान और अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है.
उत्तरपाड़ा कॉलेज के डॉ अबू सलेह ने हैदराबाद विश्वविद्यालय के रोहित वेमुला से जुड़े संस्मरण सुनाते हुए देश भर के शिक्षण संस्थानों में वंचित समुदाय के विद्यार्थियों के साथ हो रहे अन्याय-उत्पीड़न को लोकतन्त्र के लिए एक बड़ा खतरा बतलाया. उन्होंने आदिवासी डॉक्टर पायल तड़वी की अत्महत्या का भी मुद्दा उठाया.
महाराजा श्रीशचंद्र कॉलेज के प्राध्यापक डॉ प्रेम बहादुर मांझी ने बंगाल में आदिवासियों की दशा पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए कहा कि हमेशा से यहाँ वंचित समुदायों की घनघोर सामाजिक-राजनीतिक उपेक्षा हुई है. वामपंथ ने खासतौर पर इन्हें बेवकूफ बनाकर रखा.
अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए डॉ प्रकाश बिस्वास ने आज आदिवासियों के अस्तित्व पर मंडरा रहे खतरों की तरफ इशारा किया. उन्होंने कहा कि एक तरफ यह समुदाय जल-जंगल-ज़मीन की लड़ाई लड़ रहा है, दूसरी तरफ आरक्षण के सवाल पर भी इसे जूझना पड़ रहा है. इसके लिए हमें कमर कसना होगा. इस परिचर्चा में मृणाल कोटल, जगन्नाथ साहा तथा डॉ ललित कुमार ने भी हिस्सा लिया. कार्यक्रम का संचालन नसीरुद्दीन मीर ने किया तथा विषय प्रवर्तन बिश्वजीत हांसदा ने किया. नंदलाल मण्डल तथा अशोक हांसदा ने संथाली गीत प्रस्तुत किया.
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डॉ ललित कुमार वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय केंद्र, कोलकाता में जनसंचार प्राध्यापक हैं.
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