डॉ. शांति खलखो (Dr. Shanti Xalxo)
“सिनगी दई ” एक ऐसा नाम जिसे सुनते ही हम रोमांचित हो उठते हैं। हम गर्व महसूस करते हैं, दिलों-दिमाग पर एक अनजानी सी चहक जगती है। कैसी रही होगी “सिनगी दई”? कैसा होगा उनका व्यक्तित्व? कैसे उन्होंने अपनी कर्मठता से नेतृत्व संभाला था? जबकि उन्हें पता था कि अपने राज्य में अभी एक भी सेना नहीं है। एक भी पुरुष नहीं है। एक उरांव महिला, जो बहुत ही योग्य, वीर योद्धा, अकलमंद, चातुर्य और ना जाने किन-किन शब्दों से हम उन्हें अलंकृत करते हैं, फिर भी कम है। ऐसी थी हमारी वीरांगना “सिनगी दई”।
आज हम उन्हें रोहतास गढ़ के इतिहास में ही सुनते हैं। रोहतासगढ़ के राजा का नाम रूईदास था। उनकी इकलौती पुत्री थी राजकुमारी “सिनगी दई”। कुडुख भाषा में राजकुमारी और राजकुमार शब्दों की अवधारणा नहीं है इसीलिए हम उन्हें राज्य की बेटी के रूप में ही बात करते हैं।
राजा रूईदास का रोहतासगढ़ कैसा था? उनका राज-काज कैसा था? उनका जीवन रोहतासगढ़ की जनता, राज्य का क्षेत्र, उनकी संपन्नता, जनता की जीवन शैली इत्यादि संपूर्ण बातें हमें उरांव कुरुख लोकगीतों में मिलता है। उनके संपूर्ण लोक साहित्य में, लोक कथाओं में, लोक कलाओं में लोक जीवन में और कई माध्यमों से अब भी जीवित है उनका सजीव इतिहास।
सिनगी दई बचपन से ही बहुत चंचल व निडर थी। वह ताकतवर भी थी। जितनी उसकी शारीरिक क्षमता थी उतनी ही वह कुशाग्र बुद्धि की थी। वह अपने पिता रूईदास को राजकाज के मामले में सहयोग किया करती थी। कई मामलों में पिता उससे सलाह-मशवरा किया करते थे जिसे बाप बेटी के अलावा कोई नहीं जानता था। कई बार रानी (सिनगी की मां) राजा से कहा करती थी “बच्ची के खेलने-कूदने का समय है उसे राजकाज की बातों में मत उलझाइये। वह परेशान हो जाएगी। उसका शारीरिक व् मानसिक विकास रुक जायेगा। इस पर राजा कहते- तुम्हें मेरी बेटी के सर्वगुण संपन्नता का अंदाजा नहीं है। मैं जानता हूं मेरी बेटी क्या कर सकती है। इस तरह से बाप को अपनी बेटी पर पूरा भरोसा था।
सिनगी घुड़सवारी भी खूब किया करती थी। सेनापति की बेटी कइली उसकी अच्छी दोस्त थी। दोनों सहेलियां लंबी घुड़सवारी के लिए निकल जाया करती थी। ऐसे समय में दोनों ही आम पुरुष वेश में होती थी। इससे उन्हें कोई भी नहीं पहचान पाता था। घुड़सवारी के कई मकसद होते थे। राज्य की जनता की सुख-दुख, उनकी जरूरतें एवं देश की जानकारी लेना, कहीं से कोई घुसपैठिया न प्रवेश करें, कहीं कोई दुश्मन आक्रमण ना करें। इस तरह कई बातों की जानकारी वह चुपचाप से लिया करती थी। इस तरह से घुड़सवारी के आनंद के साथ-साथ राज्य हित में आवश्यक कार्य भी हो जाया करता था।
कुल मिलाकर सिनगी सर्वगुण संपन्न थी। उनकी यह सर्वगुण तब काम आया जब चेरो, खेरवार और अन्य पड़ोसी राजाओं ने रोहतासगढ़ में आक्रमण किया। कई पड़ोसी राजाओं ने अकेले-अकेले रोहतासगढ़ में आक्रमण किया, लेकिन रोहतासगढ़ की सैन्य क्षमता के सामने वे कभी टिक नहीं पाए। ऐसी परिस्थिति में सभी पड़ोसी राजाओं ने सलाह किया कि- हम सब मिलकर ही रोहतासगढ़ को पराजित कर सकते हैं। अकेले-अकेले लड़ाई करके तो हम सबकी दुर्गति ही हो रही है। इस तरह सबने मिलकर तैयारी के साथ रोहतासगढ़ में आक्रमण कर दिया, लेकिन रोहतासगढ़ का साम्राज्य बहुत सशक्त और ताकतवर था। अतः पड़ोसी राजाओं की अच्छी तैयारी के बाद भी वे रोहतासगढ़ को नहीं जीत पाए। कई बार की चढ़ाई के बाद भी उन्हें मुंह की खानी पड़ी।
इस तरह कई वर्ष बीत गए। पड़ोसी राजाओं की योजना बनती रहती थी पर उन्हें हार जाने का डर भी सताया करता था अतः सभी मिलकर मंचन किया करते थे। तभी एक महत्वपूर्ण सूचना उन्हें मिली। रोहतासगढ़ से एक ग्वालिन दूध देने पड़ोसी राज्यों में जाया करती थी। चुंकि वह रोहतास की रहने वाली थी अतः उस राज्य में प्रत्येक क्रिया-कलाप उसे पता था। प्रत्येक पर्व- त्यौहार, रीति-रिवाज उन सबका संचालन प्रावधान इत्यादि उसे मालूम था। प्रतिदिन की तरह वह ग्वालिन स्त्री दूध देने पड़ोसी राज्य में गई। वहां वह बातों ही बातों में बता आई कि -“उरांव समाज में प्रत्येक वर्ष “विशु सेन्दरा” का आयोजन होता है। यह सेन्दरा का त्यौहार बैशाख के महीने में होता है और इस आयोजन में सभी पुरुषों का शामिल होना आवश्यक होता है। इस तरह गांव-घर और पूरे राज्य में सिर्फ महिलाएं ही होती है।” यह बात अन्य राज्य के गुप्तचरों तक पहुंच गई। सभी पड़ोसी राजाओं को एक सूत्रधार मिल गया। इन सबने मिलकर निर्णय किया यदि इसी विशेष समय पर रोहतासगढ़ में चढ़ाई की जाए तो हमें सफलता मिल सकती है। उस ग्वालिन की बात लोगों को जंच गई। उसे पड़ोसी राजाओं ने बुलाया और चुपके से उसे मुंहमांगी कीमत पर गुप्तचर के काम में लगा दिया। लालच के आगे सब कुछ झुक जाता है। ग्वालियर लुन्दरी भी अपवाद नहीं थी। उसने खुशी-खुशी इस काम के लिए अपनी सहमति दी और लग गई अपने काम पर। अब वह प्रत्येक दिन की खबर पड़ोसी राज्यों को देने लगी।
अब ग्वालिन लुन्दरी ने आने वाले वर्ष में विशु सेेन्दरा का दिन और समय के बारे में पता लगाना शुरू कर दिया। चुंकि वह उसी राज्य, गांव की महिला निवासी थी, किसी को भी संदेह नहीं हुआ। महिलाओं ने उसे बता दिया कि यह सेंदरा एक महीने तक होगा और इस दिन गांव से सभी पुरुष सेन्दरा खेलने निकल जाएंगे। गांव में, राज्य में सिर्फ महिलाएं ही होंगी। इनसब बातों की जानकारी लेकर वह ग्वालिन दूसरे पड़ोसी राज्य में गई और सारी बातों को विस्तृत रूप से बताया। पड़ोसी राजा बहुत खुश हुए। वे सभी विशेष मौके की ही तलाश में थे। सभी पड़ोसी राजाओं ने मिलकर अपने कार्यक्रम की रूपरेखा तय की और निश्चित दिन पर आक्रमण करने का इंतजार करने लगे।
राजकुमारी सिनगी दई हमेशा से सचेत रहती थी। वह काफी काफी बहादुर और समझदार थी। राजा जब भी बाहर होते तो वे राजकुमारी को सारी जिम्मेदारियां दिया करते थे। उरांव समाज के नियम के अनुसार विशु सेन्दरा में सभी पुरुषों को जाना अनिवार्य होता है। अतः गांव में सिर्फ महिलाएं ही होती है। उरांव समाज में स्त्री-पुरुष समानता की अवधारणा रही है, अतः इस एक महीने महिलाओं के जिम्मे पूरा राज्य होता था। इसकी देखरेख सिनगी दई की अगुवाई में होता था। सिनगी दई की करीबी सहेली कइली दई थी। वह उरांव सेना के सेनापति की बेटी थी। दोनों बहुत ही तेज-तर्रार व कुशाग्र बुद्धि की थी। पूरे उरांव राज्य को इन दोनों बेटियों पर नाज था।
देखते-देखते विशु सेन्दरा का समय आ गया। ग्वालिन के बताये अनुसार पड़ोसी राजाओं ने अपनी तैयारी कर ली थी। निश्चित समय पर बैशाख के महीने में उरांव समाज के पुरुष विशु सेन्दरा के लिए निकल पड़ें। यह सेन्दरा एक महीने के लंबे समय तक के लिए होता है। इस सेन्दरा में उरांव समाज से जुड़ी संपूर्ण बातों, नीति-नियमों, पर्व-त्यौहारों, परंपराओं इत्यादि की बातें होती है। समाज से जुड़ी मान्यताओं का पुनः निरीक्षण-परीक्षण होता था। समय और जरूरत के अनुसार नियमों-नीतियों में फेरबदल भी किया जाता था जो आज भी होता रहा है। इस तरह से संपूर्ण उरांव समाज का संचालन अकेले राजा की सोच और नीति नियमों से ना होकर संपूर्ण समाज की सहमति और सुविधा से होता था। उरांव समाज में राजा प्रजा में भेदभाव नहीं था। मालिक-नौकर, ऊंच-नीच, गरीबी-अमीरी का कोई स्थान नहीं था। यही कारण था कि उरांव साम्राज्य बहुत ही संपन्न और खुशहाल था। उनकी संपन्नता और खुशहाली देखकर पड़ोसी राजाओं को इर्ष्या होती थी और वे ललचायी नजरों से रोहतासगढ़ को देखते थे तथा उसे हासिल करना चाहते थे।
पुरुषों द्वारा सेन्दरा में चले जाने के बाद अब गांव में, राज्य में सिर्फ महिलाएं ही रह गई थी। पड़ोसी राजाओं को तो इसी का इंतजार था। उन्होंने उमंग व उत्साह के साथ रोहतासगढ़ पर आक्रमण कर दिया। सीनगी दई हमेशा सचेत थी ही। उसे इस आक्रमण का पता चल गया। उसने महिला सेना को तुरंत आदेश दिया और अपने नेतृत्व में कईली दई के साथ डटकर दुश्मनों का मुकाबला किया। उसके कुशल नेतृत्व में सभी महिला, पुरुष वेश में लड़ती रही। अंततः दुश्मन पराजित होकर भाग खड़े हुए। कुछ ही दिनों बाद दुश्मनों ने पुनः रोहतासगढ़ में हमला बोला। पर इस बार भी उन्हें इन महिला सेनाओं से जो पुरुष के वेश में मुकाबला कर रही थी, मुंह की खानी पड़ी। इस तरह से इस महिला सेना ने दुश्मनों को तीन बार हराया।
अब पड़ोसी राजा ठंडे पड़ गए थे। तब एक दिन उन्होंने ग्वालिन लुन्दरी को पकड़ा और पूछा- तुम तो कहती थी सभी पुरुष सेन्दरा त्यौहार में चले जाते हैं, पर पुरुष सैनिक तो थे। यह सुनते ही ग्वालिन हंस पड़ी और उन्हें धिक्कारते हुए बोली- छीं-छीं तुम लोग को तो शर्म आनी चाहिए। तुम लोग तो महिलाओं से भी हार गए। वो भी एक बार नहीं तीन-तीन बार, डूब मरो तुम लोग, पर उन राजाओं को ग्वालिन की बात पर भरोसा नहीं हो रहा था। उन्होंने उसे डराते हुए कहा- तुम्हें तुम्हारी झूठ बोलने की सजा मिलेगी। पर ग्वालिन सच्ची बात जानती थी उसने निडरता से कहा- यदि आप लोगों को मेरी बात पर यकीन नहीं है तो अभी भी जाकर देख लीजिए। उन्होंने अभी नदी नहीं पार की होंगी। नदी पार करने के क्रम में वे हाथ-मुंह धोयेंगी। “यदि वे पुरुष है तो एक हाथ से अपना चेहरा धोयेंगे। लेकिन अगर वे महिलाएं हैं तो दोनों हाथों से अपना चेहरा धोयेंगी।” यह सुनते ही राजाओं ने अपने गुप्तचरों को आदेश दिया। सभी गुप्तचरों ने वही देखा जो ग्वालिन ने बताया था। गुप्तचरों की बात सुनकर सभी राजाओं की मुठ्ठियां भींच गई वे गुस्सा भी दिखा रहे थे और स्वयं को लज्जित भी महसूस कर रहे थे। पर अब उन्हें ग्वालिन की बात का विश्वास हो चुका था।
अब उन्होंने चौथी बार आक्रमण की तैयारी की और सिनगी दई की सेना को ललकारा।
इतने कम समय में चौथी बार का आक्रमण?! किसी ने भी सोचा ही नहीं था और यही कारण था कि सिनगी दई ने राजा को सूचना भी नहीं दी थी। अभी तो वह निश्चित होकर लौट ही रही थी कि उन्हें संभालने का भी मौका नहीं दिया गया था। और अतः इस चौथे आक्रमण ने सिनगी दई में असमर्थता देखी।
पड़ोसी राजाओं ने अधिक तैयारी के साथ चौथी आक्रमण की थी। इस बार सिनगी दई उन राजाओं से लोहा लेने में असमर्थता महसूस करने लगी। उनके हाथ पकड़ा जाना तो और भी बुरा है, स्त्री होने के सम्मान को ठेस है, अतः राज्य की सभी महिलाओं को लेकर गुप्त रास्ते से निकल जाना ही उचित समझा गया। इस तरह अपनी गौरवमयी सुंदर स्थापित राज्य को छोड़कर उन्हें जाना पड़ा। कुछ महिला सेना को उन्होंने पुरुषों के पास सेन्दरा स्थल की ओर इसकी सूचना हेतु भेज दिया। अब ये सभी गुप्त रास्ते से निकल गई। जंगल सेन्दरा में गये पुरुष और सूचना देने वाली महिलाएं, इन का एक भाग अलग दूसरे रास्ते में भटक गए और पहला जत्था दूसरे रास्ते पर चला गया। आगे-पीछे अलग-अलग दो समूहों में होने के कारण एक समूह झारखंड के छोटानागपुर में घुसा और दूसरा समूह राजमहल की पहाड़ियों की ओर चला गया। रास्ते में उन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। एक तो घनघोर जंगल में रास्ता तय करना, जंगली जानवरों का खतरा, छोटे-छोटे बच्चों को संभालना, भूख-प्यास इत्यादि। चलते-चलते रात हो गई। उन्हें रात में रुकना भी जरूरी था। रात के अंधेरे में उस घनघोर जंगल में चलना संभव नहीं था। अब रात्रि विश्राम के लिए सिनगी दई और कइली दई सुरक्षित स्थान ढूंढ रही थी। बुजुर्ग महिला, बच्चे सभी भूख-प्यास से बेहाल थे। इसी दौरान उन्हें एक विशाल गुफा और करम का वृक्ष दिखाई दिया। करम वृक्ष उरांवों के लिए आराध्य है। वे इस पर काफी श्रद्धा रखते हैं। अतः उस करम पेड़ और गुफा के आसपास का काफी निरीक्षण कर देखा गया और इसे काफी सुरक्षित पाया गया। इस तरह सभी वहां पर रात्रि विश्राम के लिए रुक गए।
दुश्मन सिनगी दई और कइली दई को ढूंढ रहे थे। वे उनका पीछा करते-करते उस क्षेत्र तक पहुंच गए लेकिन जंगल की संघनता और सिनगी दई की बुद्धिमता ने उन सब को चकमा दिया। दुश्मन उस समुह को ढूंढ नहीं पाए और आगे बढ़ गए। चूकिं उरांव समुदाय प्रकृति में जीता है। उससे अथाह प्रेम करता है, उसे अपने जीवन समान समझता है। अतः इस दुखद घड़ी में प्राकृति ने भी उनका संरक्षण किया, उन्हें दुश्मनों से बचाया। करम वृक्ष की आराधना रोहतासगढ़ में भी होती थी इसलिए सभी इस अराध्य देववृक्ष को जानते-पहचानते थे। उसकी श्रृद्धा, आदर-सम्मान करते थे। इसीलिए जाने के क्रम में करम वृक्ष अपने आराध्य देववृक्ष को देखकर ही उन्होंने वहां शरण ली थी। शायद ये ईश्वर की लीला ही थी किं उन्होंने उनके लिए ये सुरक्षित स्थान दिखा दिया। करम के कई पुराने-पुराने विशाल वृक्ष आज भी रोहतासगढ़ किले के निकट शान से खड़े हैं और अपने उरांव/कुडुख साम्राज्य की भव्यता का सबूत दे रहे हैं।
रोहतासगढ़ का किला अभी भी देखा जा सकता है किले की संरचना कितना विशाल, भव्य और सुंदर है। उसकी संरचना से ही उरांव घर-द्वार, उनकी कला और जीवन शैली का पता चलता है।
वीरांगना सिनगी दई की याद में आज भी उरांव समाज “मुक्का सेन्दरा” (जनी शिकार) का आयोजन करता है। यह मुक्का सेन्दरा प्रत्येक 12 वर्षों में एक बार किया जाता है और सिनगी दई को नमन, सम्मान और स्मरण किया जाता है।
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डॉ. शांति खलखो टी.आर.एल. विभाग, विनोबाभावे यूनिवर्सिटी, हजारीबाग, झारखंड में शिक्षिका हैं। उनसे ईमेल wewantautonomy@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।
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