डॉ सूर्या बाली “सूरज धुर्वे” (Dr. Surya Bali “Suraj Dhurve”)
भारत के मध्य में स्थित बस्तर संभाग प्राचीन काल से ही विदेशियों, आक्रमणकारियों और आक्रांताओं के लिए अभेद्य रहा है. वैदिक काल के ऋषियों के लिए सबसे मुश्किल दौर इन्ही जंगलों में रहा. आर्यों को सबसे ज्यादा मुश्किलें इसी क्षेत्र में आईं और यहीं पर उन्हें मुंह की खानी पड़ी. यहीं पर मुग़ल शासको को पैर टिकाने तक की जगह नहीं मिली और यही वो जगह थी जहाँ अंग्रेज़ों ने यहाँ के राजाओं की गुलामी की. आज भी बस्तर वो जगह हैं जहाँ पूरी कोशिशों के बावजूद भारत के पूंजीवादी और सामंती सोच वाले लोग अपना पूर्ण अधिकार स्थापित कर पाने में असफल रहे हैं और सरकार की मिलीभगत से जनजातियों का शोषण करने का षणयंत्र रचते रहे हैं व् रच रहे हैं.
बस्तर में दो महत्त्वपूर्ण नाम हैं जो वहाँ की जनता के दिलोदिमाग में बसते हैं. एक तो बस्तर की दांतेश्वरी देवी और दूसरा, महाराजा प्रवीर भंजदेव(गोंड, & कुमार, 2018). महाराजा प्रवीरचन्द्र भंजदेव बस्तर की जनता में अति लोकप्रिय थे. यहाँ तक कि उनकी मृत्यु के बाद भी उनकी लोकप्रियता कभी कम नहीं हुई और वो आज भी वहाँ की जनता के दिलो-दिमाग में बसते हैं. कोइतूरों की काकतीय वंश से ताल्लुक रखने वाले महाराजा प्रवीरचन्द्र भंजदेव बस्तर के अंतिम शासक थे. बस्तर संभाग के लोग आज भी उनकी यादों को सीने से लगा के रखते हैं और हर घर में राजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव की तस्वीर टंगी हुई मिल जाएगी.
बचपन
प्रवीर के माता पिता भारत देश के सबसे बड़ी रियासत बस्तर के राजा-रानी थे. प्रवीर का जन्म बस्तर के राजमहल में न होकर 25 जून 1929 को शिलांग में हुआ था. लेकिन कुछ लोगों के अनुसार उनकी जन्म तिथि 12 जून या 12 मार्च को 1929 को बताई जाती है(गोंडवाना एक्सप्रेस,समाचार, 2018). महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव के माता का नाम महारानी प्रफुल्ल कुमारी तथा पिता का नाम राजा प्रफुल्लचन्द्र भंजदेव था(साहू, 2018). प्रवीर के छोटे भाई का नाम विजयचन्द्र भंजदेव(1961-1970) था जो बाद में बस्तर के प्रशासक के पद पर नियुक्त हुए थे (खांडेकर, 2013). बचपन से ही प्रवीर बहुत ही तेज-तर्रार और निडर थे. ब्रिटिश सरकार ने उनके देखरेख की ज़िम्मेदारी अंग्रेज़ कर्नल जी सी ग्रिब्सन को सौंप रखी थी.
(प्रवीर चन्द्र भंज देव बालावस्था में अंग्रेज़ों की देखरेख में)
राज्याभिषेक
प्रवीर का राजनैतिक जीवन तो बचपन में ही शुरू हो गया था. बचपन शिलांग में बिताने के बाद उन्हे अपनी बीमार माँ के साथ इंग्लैंड जाना पड़ा और वहीं पर उनकी शिक्षा दीक्षा हुई. संदिग्ध परिस्थियों में उनकी माँ की इंग्लैंड में मृत्यु हो गयी और वहीं पर उनका दाह संस्कार कर दिया गया. प्रवीर, जब मात्र 6 वर्ष के थे तभी ब्रिटिश शासन द्वारा कम उम्र में ही 28 अक्तूबर 1936 को उनका राजतिलक कर दिया गया था. उनकी देख रेख, सुरक्षा, शिक्षा दीक्षा की ज़िम्मेदारी अंग्रेज़ी हुकूमत ने संभाल रखी थी.
जब वे 18 वर्ष के हो गए तो उन्हे पुनः सन 1947 में बस्तर रियासत की बागडोर हस्तांतरित कर दी गयी. यह वही समय था जब देश आज़ाद होने वाला था और उसी समय एक युवराज जनजातीय चेतना का पताका फहराने निकल पड़ा था और उम्मीद लगा बैठा था कि अंगेजों से मुक्त होकर जनजातीय हितों की बेहतर रक्षा हो सकेगी. इस उम्मीद में महाराजा प्रवीरचन्द्र भंजदेव ने 15 दिसंबर 1947 को विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर बस्तर रियासत को भारतीय गणराज्य में शामिल कर दिया लेकिन दुर्भाग्य यह कि भारत की सरकार अंग्रेजों से ज्यादा क्रूर निकली और महाराजा प्रवीरचन्द्र भंजदेव के साथ धोखेबाज़ी की.
(प्रवीर चंद भंजदेव अपनी पत्नी के साथ)
आज़ादी के समय प्रवीर चंद भंजदेव बस्तर स्टेट के महाराजा थे और आज़ादी के बाद उन्हे 1 जनवरी 1948 से फरवरी 1961 बस्तर राजघराने की संपत्ति का रुलर प्रशासक नियुक्त किया गया था. भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 पास होने के बाद बस्तर राज्य सेंट्रल प्रोविन्स एंड बरार में शामिल हुआ जो बाद में मध्य प्रदेश का हिस्सा बना और आज छत्तीसगढ का मुख्य संभाग है.
प्रशासन की ज़िम्मेदारी
महाराजा प्रवीर चन्द्र के शासन काल में ही बस्तर के बैलाडिला (वर्तमान में दंतेवाड़ा जिला) में लौह अयस्क के भण्डार होने की जानकारी मिली जो कि बस्तर रियासत के लिए आर्थिक रुप से बहुत महत्वपूर्ण थी. अंग्रेजों ने महाराजा प्रवीर पर बहुत दबाव बनाया कि बैलाडिला पहाड़ का क्षेत्र हैदराबाद के निजाम को दे दिया जाये लेकिन प्रवीर ने साफ साफ मना कर दिया और यहीं से प्रवीर भंजदेव लोगों की आँखों में खटकने लगे(गोंड, & कुमार, 2018).
राजनैतिक जीवन
स्वतंत्र भारत के पहले संसदीय चुनाव में महाराजा प्रवीरचन्द्र भंजदेव के प्रभाव और सहयोग से मुचाकी कोशा बस्तर से निर्दलीय सांसद के रूप में चुन कर दिल्ली की संसद में पहुंचे. यह भंजदेव की पहली राजनीतिक एवं कूटनीतिक विजय थी जिसे उन्होने पर्दे के पीछे रहकर हासिल किया था. मुचाकी कोशा एक अनपढ़ जनजातीय सामान्य व्यक्ति थे जो केवल स्थानीय मारी भाषा को बोल और समझ सकते थे और उन्हें हिन्दी और अंग्रेज़ी का बिलकुल ज्ञान नहीं था. जब वो पहली बार भारतीय संसद में पहुंचे तो उन्हे कुछ भी समझ नहीं आया और वे वहाँ के कॉरीडोर में रोते हुए देखे गए. आखिर उन्हें दिल्ली की राजनीति और वहां का माहौल पसंद नहीं आया और दो साल के बाद वे संसद के पद को ठुकराकर वापिस बस्तर आ गए थे(मेहरा, 2017; हेडोक, 1889). यह महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव का ही जादू था जिसके कारण एक अनपढ़ जनजातीय व्यक्ति भी भारत की संसद तक पहुँच गया था.
(बस्तर स्थित महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव का महल)
सन 1957 में महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव ने जगदल से अपनी राजनीतिक पारी की शुरुआत की और राजा से मध्य प्रदेश राज्य सरकार में जनता के प्रतिनिधि (विधायक) की भूमिका में आ गए. फिर भी बस्तर की जनता उन्हे अपना राजा ही मानती रही. जनता के अधिकारों को लेकर वे हमेशा कांग्रेस से टकराते रहे और सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी की आँखों की किरकिरी बन गए. विधायक बनने के बाद वह बहुत ईमानदारी, कर्मठता और ज़िम्मेदारी के साथ जनता की आवाज उठाते रहे और मध्यप्रदेश के सबसे बड़े नेता के रूप में उभरने लगे. जो ब्राह्मणवादी मुख्यमंत्रियों [के एन काटजू (1957-62) और द्वारिका प्रसाद मिश्रा (1963-67) ] और पूंजीवादी लोगों को हजम नहीं हुई क्यूंकि वे बैलाडीला लौह खनन के राह में बाधा बन रहे थे.
सन 1943 में अंग्रेजों ने जनजातीय हितों की रक्षा के लिए एक कानून बनाया था जिसके अनुसार जनजातीय व्यक्ति की ज़मीन गैर-जनजातीय व्यक्ति नहीं ले सकता. लेकिन आज़ादी के बाद उसमें संशोधन कर उसे बेहद कमज़ोर कर दिया. इस बात का फायदा उठाकर ब्यापारी, सामंती लोग और बनिए जनजातियों के संसाधनों को लूटने लगे. उस कानून के अनुसार शादी विवाह जैसे ज़रूरी कामों के लिए जनजातीय व्यक्ति अपनी ज़मीन को गैर-जनजातीय व्यक्ति को बेंच सकता था बशर्ते उसे राज्य के किसी सक्षम अधिकारी से इजाज़त लेनी पड़ती थी. इसका फायदा उठाकर बाहरी गैर-जनजातीय व्यक्तियों ने बस्तर के जनजातियों की जमीने और उस पर लगे पेड़ धड़ल्ले से अपने कब्जे में लेना शुरू कर दिया. इस तरह की धोखाधड़ी से महाराजा प्रवीर भंजदेव बहुत नाराज़ थे और इस कानून को बदलवाना चाहते थे जिसे राज्य सरकार ने नहीं बदला. मालिक-मकबूजा भ्रष्टाचार का नतीजा यह हुआ कि एक बोतल शराब या कुछ पैसों में ही बाहरी लोग स्थानीय जनजातियों के जंगल, ज़मीन हड़पने लगे. साल और सांगवान के कीमती जंगल धीरे-धीरे खत्म होने लगे. इसे ही मालिक-मकबूजा भ्रष्टाचार कांड नाम दिया गया(गोंडवाना एक्सप्रेस,दैनिक समाचार, 2018).
सरकार द्वारा जनजातीय हितों की अनदेखी से क्षुब्ध होकर और मालिक-मकबूजा भ्रष्टाचार कांड के कारण महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव ने कांग्रेस से 1959 में इस्तीफा दे दिया और इसको खत्म करने के लिए कांग्रेस सरकार के खिलाफ बगावत कर दी. इसके कारण उन्हे पागल घोषित करके, उनसे बस्तर रियासत के प्रशासक की ज़िम्मेदारी छीनकर उनके छोटे भाई विजय चंद्र भंजदेव सौंप दी. जिसका उल्लेख भारत सरकार के राजपत्र गजट इंडिया एक्सट्रा ऑर्डिनरी 5 मई 1961 पोल 111 में किया गया है. विजयचंद्र भंजदेव 12 फरवरी 1961 से 11 जुलाई 1970 तक बस्तर स्टेट के रुलर रहे. उनके बाद उनके पुत्र भरतचंद्र भंजदेव 11 जुलाई 1970 से 18 सितंबर 1996 तक बस्तर रुलर रहे (दैनिक भास्कर, 2014).
जनता का मसीहा
अपने साथ हुए छल से महाराजा प्रवीरचन्द्र भंजदेव बहुत दुखी हुए लेकिन हिम्मत नहीं हारी और एक बार फिर से जनजातीय हितों और बस्तर के विकास के लिए काम करना शुरू कर दिया. उनके साथ अपार जन समर्थन था और इससे सरकार घबराई हुई थी. मार्च 1961 में उन्हे पद से हटाये जाने के कारण उनके समर्थकों ने लौहंडीगुड़ा और सिरिसगुड़ा में बड़ा विरोध प्रदर्शन किया. इस आंदोलन में उनका साथ दे रहे लगभग बीस हजार जनजातियों पर तत्कालीन सरकार ने निर्ममतापूर्वक गोलियों चलवाईं जिसके कारण सैकड़ों बेकसूर जनजातीय लोग मारे गए (साहू, 2018). इस घटना से आहत महाराजा प्रवीर ने नई राजनीतिक पार्टी बनाने का संकल्प लिया और सन 1962 के चुनाव में बस्तर की 10 में 9 सीटें पर जनजातीय लोगों को चुनवाकर विधान सभा में भेजा. अब महाराजा प्रवीर के राजनैतिक कद के कारण बाहरी लोगों का जंगल काटना और खनिज उत्खनन असंभव सा हो गया था और पूंजीवादी लोग सरकार पर दबाव बनाने लगे थे. सरकार भी महाराजा को रास्ते से हटाने का तरीका ढूढ़ रही थी.
इसी बीच 25 मार्च 1966 को सरकार को उन्हें रास्ते से हटाने का मौका मिल गया. बस्तर में खनिज उत्खनन, जंगल कटाई, पुलिसिया अत्याचार, भूखमरी गरीबी को लेकर लोग महाराजा के महल के आसपास इकट्ठा थे. उस सभा को स्वयं महाराजा प्रवीरचन्द्र भंजदेव संबोधित कर रहे थे. पुलिस लोगों को इकट्ठा होने से रोक रही थी. इसी धक्का-मुक्की में एक पुलिस वाले की मृत्यु हो गयी. फिर क्या था! उसी पुलिस वाले की मृत्यु का बहाना लेकर सरकार और पुलिस ने निर्दोष लोगों पर समर्पण करने के लिए दबाब बनाया और फिर महल में इकट्ठा हुए लोगों से बाहर आने के लिए कहा. जैसे ही लोग बाहर निकले पुलिस का ज़ुल्म शुरू हो गया और बाद में पुलिस ने महल के अंदर घुसकर कर लोगों को गोलियों भून दिया. इसी क्रम में महाराजा प्रवीर के सीने में 25 गोलिया उतार दी गईं. और इस तरह एक महान जनजातीय कोइतूर नायक को दिन दहाड़े मार डाला गया. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक पुलिस ने कुल 61 राउंड फाइरिंग की थी जिसमें सैकड़ों निर्दोष लोग मारे गए थे(छत्तीसगढ़ न्यूज़, 2011).
यह जनजातियों का दुर्भाग्य रहा है कि जब जब कोई उनकी आवाज़ बना या उनका नेतृत्व किया या तो उसे प्रलोभन देकर शोषकों के पाले में घसीट ले जाया गया या विरोध करने पर उसे मौत के घाट उतार दिया गया. यह घटनाक्रम आज भी बदस्तूर जारी है. पता नहीं कब जनजातियों को उनका अधिकार और सम्मान मिलेगा? महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव को आज भी बस्तर सहित सम्पूर्ण गोंडवाना में उनके बलिदान और साहस के लिए याद किया जाता है. आज भी भले वो जिंदा न हो लेकिन बिना उनका नाम लिये कोई भी बस्तर में इलैक्शन जीत नहीं पाता. जो रास्ता उन्होंने दिखाया आज उस पर कोई भी जनजातीय नेतृत्व एक कदम भी नहीं चल पा रहा है. और यही कारण है कि आज जनजातियों के सम्मान, अधिकार और हितों की अनदेखी की जा रही है और उनकी संस्कृति और सभ्यता का खुल्लम-खुल्ला उपहास किया जा रहा है. आज फिर से प्रवीर भंजदेव जैसे नायक की जरूरत है जो जनजातीय हितों के लिए कुर्बान हो सके.
महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव के बिना आप बस्तर की कल्पना भी नहीं कर सकते. चार दशकों के बाद भी बस्तर में उनकी प्रासंगिकता बरकरार है. आज वो शारीरिक रूप से भले उपस्थित न हो लेकिन उनकी शहादत बस्तर के कण-कण में व्याप्त है जिसे दशहरे के अवसर पर खुली आँखों से देखा जा सकता है. आज भी वे महाराजा ही नहीं अपितु देवता के समान पूरे बस्तर में पूजे जाते हैं. उन्होंने बस्तर को लेकर बहुत ही खूबसूरत सपना देखा था जो आज भी साकार नहीं हो पाया है. अगर बस्तर का विकास और समृद्धि की बात होगी तो निश्चित ही महाराजा प्रवीर के सपनों को साकार किए बिना पूरी नहीं होगी.
पूरे भारत का जनजातीय समुदाय महाराजा प्रवीर चंद भंजदेव को 25 मार्च 2020 को उनकी 54वीं पुण्यतिथि पर कोटि कोटि नमन और सेवा जोहार कर रहा है!~
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डॉ सूर्या बाली ‘सूरज धुर्वे’ पेशे से शहर भोपाल स्थित ‘एम्स’ में एक प्रोफेसर हैं. साथ ही, वह अंतराष्ट्रीय कोया पुनेमी चिंतनकार एवं जनजातीय मामलों के विशेषज्ञ हैं.
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