डॉ सूर्या बाली ‘सूरज धुर्वे’ (Dr. Surya Bali ‘Suraj Dhurve’)
कहते हैं अगर मानव जीवन मिले तो उसे मानव की तरह ही जीना चाहिए, चाहे वो जीवन कुछ ही दिनों का क्यूँ न हो। कुछ लोग पूरी ज़िंदगी निरर्थक ही गुज़ार देते हैं और कुछ लोग कम उम्र में ही वीरता पूर्ण और सम्मानजनक जीवन जीकर इस संसार से विदा ले लेते हैं। ऐसे महापुरुष जो देश और समाज के लिए अपना सर्वस्व कुर्बान कर देते हैं उन्हें ही अमर शहीद का दर्जा प्राप्त होता है। जिन पर युगों युगों तक देश और समाज गर्व करता व् प्रेरणा लेता रहता है। किसी ने सही ही कहा है कि
ऐसे ही एक कोइतूर वीर शहीद की आज 187वीं जयंती है और पूरा कोइतूर समाज अपने इस महान स्वतंत्र संग्राम सेनानी को श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा है।
ये अलग बात है कि जो सम्मान और श्रेय भारत के अन्य शहीदों को मिला वो इस महान योद्धा को कभी नसीब नहीं हुआ और उनके पराक्रम और वीरता को जातिवादी और सामंती सोच वाले इतिहासकारों द्वारा कभी आम जनता तक लाया ही नहीं गया। ऐसे ही एक महान योद्धा और क्रांतिकारी शहीद का आज जन्म दिन है, जिसका नाम बाबुराव पुलेश्वर शेडमाके था।
सन 1857 के क्रांति के नायक के रूप में मंगल पांडे को तो सभी जानते हैं लेकिन उनसे भी ज्यादा क्रांतिकारी कार्य करने वाले शहीद बाबुराव शेडमाके को शायद बहुत कम लोग जानते होंगे। आइये आज उस महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के बारे में कुछ खास बातें जानते हैं और उनकी बलिदान गाथा को स्मरण करते हुए देश और समाज के लिए उनके योगदान को याद करते हैं।
लोग बताते हैं इस महान शूरवीर ने देशी ब्राह्मणी व्यवस्था के साथ मिलकर यहाँ अपनी हुकूमत चलाने वाले अंग्रेज़ों के आगे कभी अपनी हार नहीं मानी और उनसे हमेशा लोहा लेता रहा। इस शूरवीर ने अपनी जल, जंगल और ज़मीन की रक्षा और सम्मान के लिए खुद शहीद होना स्वीकार किया लेकिन गोंडवाना का सर कभी झुकने नहीं दिया(सरोज, 2017)।
बाबूराव शेडमाके का जन्म आज के ही दिन यानी 12 मार्च सन 1833 को गोंडवाना साम्राज्य के चांदागढ़ रियासत (संप्रति जिला चंद्रपुर, महाराष्ट्र) के मोलमपल्ली गांव में हुआ था। आपके पिता का नाम पूलाईसुर बाबू था जिन्हें लोग पुलेश्वर बापू के नाम से भी जानते थे. वे उस क्षेत्र के काफी प्रभावशाली जमींदार हुआ करते थे जिनके अंतर्गत 24 गाँव आते थे। बाबू राव के माता का नाम जुरजा कुंवर था जो बहुत ही कोया पुनेमी महिला थी और गोंडी भाषा की अच्छी जानकार थी(दलित दस्तक , 2016)।
उनकी प्रारंभिक शिक्षा और पालन पोषण मां जुरजा कुंवर के द्वारा घर में ही संपन्न हुई और बाद में सात साल की उम्र में उन्हें मोलमपल्ली के निकट के गोटुल में शिक्षा के लिए भेजा गया। जहां पर उन्होंने पारंपरिक ढंग से गोंडी भाषा के साथ-साथ तेलगु और हिंदी की शिक्षा मिली। गोटूल में ही उन्हें मल्ल युद्ध, घुड़सवारी, तीर-कमान चलाने की शिक्षा के साथ साथ ही गायन और नृत्य की शिक्षा भी मिली। बाद में उनके पिता को जब महसूस हुआ कि इस देश में अंग्रेजी शिक्षा जरूरी है तब उन्होंने बाबूराव को गोटूल से निकालकर रायपुर के अँग्रेजी माध्यम स्कूल में अँग्रेजी शिक्षा के लिए भेजा जहां से बाबूराव ने अंग्रेजी का अध्ययन किया।
बारहवीं की शिक्षा प्राप्त करने के बाद बाबूराव वापिस चंद्रपुर चले आए और परिवार के ज़मीदारी के कार्य में हाथ बटाने लगे। सन 1851 में बाबूराव का विवाह गोंडी परंपराओं के अनुसार राजकुंवर नामक गोंड कन्या से संपन्न हुआ था। राजकुमारी राजकुंवर संप्रति तेलंगाना राज्य के आदिलाबाद जिले के चेन्नुर के मड़ावी राजघराने से थीं(पोयाम, 2015)। शादी के तीन साल तक बाबूराव अपनी जमींदारी व्यवस्था को संभालते रहे और आसपास के सभी किसानों की मदद भी करते रहे। इसी दौरान भारत में ब्रिटिश सरकार अपना दायरा मध्य भारत की तरफ बढ़ा रही थी और गोंडवाना की सीमा में प्रवेश कर रही थी। जब पूरा भारत अंग्रेजों की गुलामी कर रहा था तब गोंडवाना अपना मस्तक ऊंचा किए गर्व से अंग्रेजों का विरोध कर रहा था।
जब अंग्रेजों को अपने मिशन में सफलता नहीं मिली तब उन्होंने भारत के स्थानीय राजाओं और नवाबों से गोंडवाना पर विजय प्राप्त करने के लिए सहायता मांगी। तब अंग्रेजों को उत्तर और पूरब से राजपूतों का, दक्षिण से नबाबों का, पश्चिम से मराठाओं का साथ मिला और इस तरह अंग्रेजों ने गोंडवाना पर अपना कब्जा जमाया(बाली, 2019)।
सन 1954 में अंग्रेजों ने आर.एस. एलिस को चंद्रपुर का कलेक्टर नियुक्त किया और इस तरह अंग्रेजों ने 1956 तक पूरे गोंडवाना को अपने अधिकार में कर लिया था और स्थानीय गोंड राजाओं और जमींदारों के साथ बहुत ही बेरहमी से पेश आना शुरू कर दिया था। अंग्रेजों ने पूरी तरह से जनजातियों के अधिकारों पर पाबंदी लगा रखा थी और मनमाना कर वसूल करने के साथ ही जनजातियों के संसाधनों जैसे जल जंगल जमीन का भरपूर दोहन भी कर रहे थे। ऐसी स्थिति में समाज की स्थित बहुत दयनीय होती जा रही थी। समाज और देश से अंग्रेजों को भगाने के लिए बाबुराव शेडमाके ने कमर कस ली और और महज 24 साल की उम्र में 24 सितंबर 1857 को मात्र 500 नौजवानों को लेकर ‘जंगोम सेना’ (संगोम सेनेची) की स्थापना करके अंग्रेजों के विरुद्ध बिगुल बजा दिया। इसी समय पूरा देश अंग्रेजों के खिलाफ स्वतन्त्रता संग्राम के आंदोलन में कूद पड़ा था(ताराम, 2014; रामटेके, 2018)।
उन्हें पहली सफलता तब मिली जब उनकी सेना ने राजगढ़ क्षेत्र को अंग्रेजों के कब्जे से मुक्त कराया। इस हार से ब्रिटिश कलेक्टर मि. क्रिक्टन को पागल कर दिया. तब उसने चंद्रपुर से ब्रिटिश सेना की दूसरी टुकड़ी को राजगढ़ भेजा लेकिन वहाँ पहुँचने से पहले ही चंद्रपुर शहर के पास स्थित घोसरी गाँव के पास हुये युद्ध मे बाबुराव ने अपने साथियों के साथ बड़ी मात्रा में अंग्रेज़ सिपाहियों को खत्म कर दिया। मि. क्रिक्टन ने तीसरी बार फिर से सैन्य दल को युद्ध के लिए भेजा जिसका सामना संगनापुर और बामनपेट में बाबुराव की जंगोम सेना से हुआ और ब्रिटिश सेना को फिर से मुंह की खानी पड़ी(पोयाम, 2015)।
लगातार अंग्रेजों को पराजित करने के कारण बाबुराव शेडमाके का मनोबल और बढ़ गया जिसके फलस्वरूप उन्होंने 29 अप्रैल 1858 को चिंचगुडी स्थित अंग्रेजों के टेलीफोन शिविर पर आक्रमण कर दिया. इस आक्रमण में टेलीग्राफ ओपरेटर्स मि. हॉल और मि.गार्टलैंड मारे गए जबकि मि. पीटर वहां से भागने में कामयाब हो गया। मि. पीटर ने चंद्रपुर जाकर मि. क्रिक्टन को पूरी घटना की जानकारी दी।
अब अंग्रेजों के लिए बाबुराव असहनीय हो गए थे। इसी समय एक और जमींदार व्यंकट गोंड भी बाबुराव के साथ हो लिए जिससे अंग्रेजों को और परेशानी का सामना करना पड़ा। लंदन से रानी विक्टोरिया का आदेश मिला कि इन दोनों को किसी भी हालात में नियंत्रित करके ठिकाने लगाया जाये और मि. क्रिक्टन के साथ एक और अंग्रेज़ अधिकारी मि. शेक्सपियर को लगाया गया।
कैप्टेन शेक्सपियर ने वीर बाबुराव शेडमाके को पकड़ने के लिए एक चाल चली और अहेरी की राजकुमारी लक्ष्मीबाई को मदद करने के लिए दबाव डाला। बाबुराव शेडमाके और व्यंकट गोंड की रियासत की जमींदारी पाने के लालच और और अपनी रियासत को खोने डर के कारण रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों का साथ देना शुरू कर दिया।
अंग्रेजों के दबाव के कारण रानी लक्ष्मीबाई ने बाबुराव को खाने पर आमंत्रित किया और फिर धोके से अंग्रेजों को सूचना दे दी और इस तरह अपने ही रिश्तेदार के झांसे में बाबुराव फंस गए और दिनाक 18 सितंबर 1858 को अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए. गिरफ्तारी के बाद उन्हें चांदा सेंट्रल जेल लाया गया और 14 साल की सजा सुनाई गयी जिसे बाद में अन्य अभियोग लगाकर फांसी की सजा में बदल दिया गया। 21 अक्टूबर 1858 को बाबूराव पुलेश्वर शेडमाके को चांदा सेंट्रल जेल परिसर में स्थित पीपल के पेड़ से लटकाकर फांसी दी गयी। अंग्रेजों में बाबुराव का इतना डर था कि फांसी के बाद भी उन्हे खौलते हुए चूने के पानी में डालकर रखा गया जिसके पक्का किया जा सके कि उनकी मौत पूरी तरह से हो गयी है।
बहुत दुख होता है कि ऐसे महान पराक्रमी वीर सपूत को भारत के इतिहासकारों ने भुला दिया। अभी कुछ साल पहले गोंडवाना आंदोलन के प्रभाव के चलते भारत सरकार ने इस महान सपूत की याद में भारतीय डाक विभाग द्वारा, उनके जन्मदिन पर (12 मार्च सन 2007) एक विशेष डाक टिकट जारी किया गया है(ऐनी, 2015)।
कभी एक रियासत के शासक रहे शहीद बाबूराव शेडमाके के वंशज आज छोटी मोटी नौकरी करके जीवन यापन कर रहे हैं और सरकार द्वारा कोई भी सहायता और सम्मान उन्हें नहीं मिला। शहीद बाबूराव शेडमाके के प्रपौत्र अनंत शेडमाके महाराष्ट्र के गड़चिरोली के घोत गांव में जिल परिषद के एक स्कूल में शिक्षक हैं। शहीदों के बलिदान पर शासन की उपेक्षा किए जाने से अनंत शेडमाके बहुत व्यथित हैं और बताते हैं कि उन्होने बड़ी मुश्किल से पढ़ाई पूरी की। आज भी वे अपने छोटे से परिवार के साथ गांव की अभावग्रस्त जिदंगी जीते हुए, वे गरीब तबके के लोगों को शिक्षा प्रदान कर रहे हैं(दैनिक भास्कर समाचार, 2012)।
पूरा गोंडवाना इस वीर क्रांतिकारी के बलिदान को सदियों तक याद रखेगा। गोँड महाराजा बाबूराव पुलेश्वर शेडमाके के बलिदान को कृतज्ञ राष्ट्र कभी भी नहीं भुला पाएगा जिन्हें 21 अक्टूबर, 1858 को अपने स्वाभिमान को बरकरार रखने के चलते अंग्रेज़ों ने फांसी पर लटका दिया था। मात्र 25 वर्ष की अल्पायु में देश और समाज के लिए बलिदान हो जाने वाले इस वीर को शत शत नमन और सेवा जोहार!
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डॉ सूर्या बाली “सूरज धूर्वे” अंतर्राष्ट्रीय कोया पुनेमी चिंतक और कोइतूर विचारक हैं. पेशे से वे एक डॉक्टर हैं. उनसे drsuryabali@gmail.com ईमेल पर संपर्क किया जा सकता है.
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