Neeraj Thinker
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व्यंग्य

नीरज ‘थिंकर’ (Neeraj Thinker)

Neeraj Thinkerबात जब भी सामाजिक उत्थान की आती है जिसमें खासकर ब्राह्मणवाद के ज़रिये हाशिये पर धकेल दिए गए वंचित समाज की स्थिति में सुधार की बात हो तो ब्राह्मण वर्ग से आने वाला एक तबका एक दम इसमें कूद पड़ता है. समझ में यें नहीं आता है कि इनको सामाजिक परिवर्तन की ज्यादा उत्सुकता या चाह रहती है या फिर अपने लिए सामाजिक पूंजी एकत्रित करने की जल्दी रहती है. खैर, जो भी हो, आखिरकार इनको समाज में बदलाव लाने का ऐतिहासिक अनुभव प्राप्त है. ‘सुधार’ प्रिक्रिया में इनके मालिकाना ‘हक़’ को देखकर तो लगता है जैसे इन्होंने ही सबसे पहले दलितों के हाथों में कलम थमायी थी, दलितों के लिए विद्यालय खोले, समाज में दलितों के साथ होने वाले अत्याचारों के खिलाफ सबसे पहले मोर्चा खोला, दलितों को जाहिल-गँवार की केटेगरी से निकालकर ‘सभ्य नागरिक’ बनाया, अच्छे संस्कार दिए, यानि कुल-मिलाकर आधुनिक राष्ट्र में सच्चा (हिन्दू) राष्ट्र-भक्त बनाया. लेकिन पता नहीं क्यूँ उनकी दिलचस्पी इतिहास में जाने की नहीं होती ताकि वह भी कहें कि आखिर ये वंचित समाज बना कैसे? किस वर्ग ने उसे ऐसा बनाया?? 

खैर, दलितों के ऊपर ब्राह्मण वर्ग हमेशा से ही मेहरबान रहा है. जब ज्योतिबा फुले अपने जीवन साथी यानि सावित्री बाई फुले के साथ मिलकर शिक्षा का प्रचार-प्रसार कर रहे थे तो ‘सुधारवादी’ ब्राह्मण वर्ग दौड़ कर उनके पास गया और उन्हें सहयोग देने की पेशकश की. वो बात अलग है ज्योतिबा फुले ने उल्टा उनकी मदद ज्यादा की. शुद्र समाज के एक वैद यानि डॉक्टर को जब ज्योतिबा ने मरते हुए ब्राह्मण के इलाज के लिए भेजा तो उस ब्राह्मण ने इलाज कराने से मना कर दिया. उस वैद को खरीखोटी अलग से सुनाई और अपने ब्राह्मण धर्म को निभाते हुए अपने प्राण त्याग दिए.

सुधारवादी रानाडे बड़े कद के नेता थे. ज्योतिबा फुले की मदद करना चाहते थे. कोई समस्या नहीं थी. लेकिन ज्योतिबा के हाथों खरी खरी सुन बैठे. बात जब अपने परिवार या खुद पर आई तो रानाडे विधवा और बाल विवाह के विरोध पर टिक ना सके. पत्नी के मरने पर उन्होंने एक बच्ची से विवाह रचाया और ज्योतिबा फुले से सुधारवाद की परिभाषा झिड़कियों के रूप में सुनकर चले गए.

बाबा साहेब ने कहा है, “धर्मनिरपेक्ष ब्राह्मणों और पुरोहित ब्राह्मणों के बीच अंतर करना बेकार है। दोनों ही एक दूजे के परिजन हैं। वे एक ही शरीर की दो भुजाएँ हैं, और एक भुजा दूसरे के अस्तित्व के लिए लड़ने के लिए बाध्य है.” लेकिन मदद का चाहवान ब्राह्मण इसकी परवाह नहीं करता. वह इस और देखता भी नहीं. बस आगे बढ़ता है, मदद करने के लिए. यह एक अलग साम्राज्य के निर्माण की प्रिक्रिया है जिसमें अच्छे ब्राह्मणों का इतिहास लिखा जा रहा है, भले ही ‘चैरिटी’ वाला एंगल क्यूँ न हो? बाद में थोड़े न कोई पूछता है! लोग तो यही देखते हैं कि मदद की या नहीं. आपने ब्राह्मणों के मुख से कितनी बार सुना होगा जब वह ‘बदज़ुबान’ दलितों को चिढ़कर कहते हुए- आंबेडकर को आंबेडकर नाम एक ब्राह्मण ने दिया था. गोया उन्हें अगर वह नाम न मिलता तो बाबा साहेब तो किसी काम के रहते.

रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या पर माहौल में गर्मजोशी भरने में इन्होने ‘बहुत काम’ किया है. गुस्से में उमड़ पड़ी भीड़ को आखिर नेतृत्व भी तो चाहिए था! सो वो बाकायदा दिया गया. इस उद्धार के लिए वंचित तबका हमेशा इनका शुक्रगुज़ार है. वंचित तबका अक्सर देख नहीं पाता कि उन्हें चक्कर में डालकर वह इस मुद्दे पर विदेश यात्रायें कर आये हैं. अपने करियर को अगले पायदान पर ले गए हैं. वंचित तबके में भावुकता के अपने अलग ही मसले हैं. अक्सर भूल जाते हैं. एक ब्राह्मण पीटता है तो पुराने ब्राह्मण को याद करने लगते हैं कि वह कम पीटता था. बेचारे लोग!

दलित समाज संविधान की बात करता है तो ब्राह्मण कहता है कि ‘उन्हें संविधान लिखने के लिए किसने मौका दिया? गाँधी और नेहरु ने! देश ब्राह्मण समुदाय द्वारा गाँधी जी, नेहरू जी व कांग्रेस के आलाकमान नेताओं को एक चिठ्ठी लिखी थी जिसमें उन्होंने भीमराव अम्बेडकर को संविधान लिखने की जिम्मेदारी देने की हिमायत की और साथ ही ऐसा नहीं होने पर आंदोलन करने की भी चेतावनी दे डाली थी. मजबूरन शीर्ष नेतृत्व को झुकना पड़ा. इसी तरह बाबा साहब को संविधान के निर्माता बनाने में ब्राह्मण वर्ग ने अपनी भूमिका एक बड़े वाली भूमिका निभाई.’ वे ऐसा-ऐसा कहते हैं.

temple entry given to harijans

इसी तरह वर्तमान में भी ब्राह्मण वर्ग का परोपकार व उत्थान का कार्य अनवरत जारी है. आज भी दलितों को जब कभी अपनी ही शादी में घोड़ी पर बैठने से गांव के कुछ उन्मादी लोगों द्वारा रोका जाता है व मारा जाता है तब यहीं ब्राह्मण वर्ग सबसे पहले टेलीविज़न चैनल पर आकर दलितों की ढाल बनकर खड़ा होता है और उन्हें सामाजिक न्याय दिलाने के लिए सरकार समेत सभी तंत्रों को बोलता है कि अपनी ज़िम्मेदारी निभाईये!! 

वो बात अलग है वो वंचित समाज पर जुर्म करने वालों की जाति न बताकर उन्हें ‘दबंग’ कहता है. उसका मानना है इससे जातिवाद और घृणा बढ़ती है. गाँधी के अहिंसावादी देश में जातिवाद क्या शोभा देता है? कदापि नहीं!!

वह कभी दबे सुर में तो कभी मुखर होकर, आरक्षण के चलते बने सांसदों और विधायकों को नालायक कहते हैं. लेकिन राजीव गाँधी के द्वारा बामसेफ को तोड़ने की बात नहीं करते. हो सकता है वो बामसेफ को ही बिकाऊ कह दें और इसे ‘सर्वाइवल ऑफ़ थे फिटेस्ट’ थ्योरी के साथ जोड़ दें!! वे बड़े वाले ज्ञानी हैं.

दलितों की स्थिति कैसे बेहतर हो इस पर भी ब्राह्मण समुदाय काफ़ी अनुसन्धान करता रहता है कि कैसे इन्हें ऊपर उठाया जाये, आर्थिक लाभ दिया जाये, राजनैतिक पदों पर कैसे बिठाया जाये. अब तो दलितों को आरएसएस का सर-संघ संचालक कैसे बनाया जाये, इस पर भी बात होने लगी है. वंचित तबका, जैसा कि मैंने कहा कि भावुक होता है, राष्ट्रपति उनके समाज से हो जाए तो ताली पीट लेता है. बहरहाल, वंचित समाज को लेकर ब्राह्मण समुदाय चिंतित रहता है एवं ये बहुत सारे रिसर्च पेपर दलितों की दशोदशा पर भी समय-समय पर लिखते रहते है ताकि सरकार जो सोई हुई है, जग जाए व दलितों को उनका हक़ दे. साथ ही दलितों की स्थिति तथ्यों के साथ जानने के लिए वें दलितों के घर जाते है यहाँ तक कि वहाँ रहते भी है ताकि स्थिति स्पष्ट हो जाये. खाना भी खाते है. फिर भी कुछ जातिवादी लोग इनके ऊपर जातिवाद फैलाने का झूठा आरोप लगाते है. इनके द्वारा देशभर में दलितों को उनका हक़ दिलाने के लिए बहुत सारी गैर-सरकारी संस्थाएं चलायी जा रही है जिसमें दलितों को हो सकता है इन संस्थाओं का हेड भी बना दें, ताकि उनके अंदर नेतृत्व के गुण (लीडरशिप क्वालिटी) विकसित किये जा सकें और वे ब्राह्मण समुदाय के साथ मिलकर देश की उन्नति में साथ दे सके. 

साथ ही साथ ब्राह्मण वर्ग द्वारा अन्तर्जातीय विवाह के लिए देश के कोने-कोने में ऐसी संस्थाएं बना रखी है जो ऐसे विवाह करने के इच्छुक लोगों की भरसक कानूनी व आर्थिक मदद करती है. सबसे पहले भारत में ब्राह्मण वर्ग द्वारा ही 495 ईशवी में आर्यभट्ट के साथ मिलकर अन्तर्जातीय विवाह की पहल की गयी थी| ऐसा ये लोग कहते हैं. सच ही होगा!!

ब्राह्मण वर्ग के लोगों से ज्यादा सेवाभावी व कर्तव्यनिष्ट लोग मैंने अपने जीवन में नहीं देखे हैं जो अपना समाज छोड़कर, अपने समाज में सुधार करने की बजाय, अपने समाज की प्रगति को किनारे करके दलितों के उत्थान व उनको न्याय दिलाने में अपना पूरा जीवन खपा देते है. ऐसे समुदाय पर ताली नहीं बजायेंगे? बजाईये न!! अच्छे दिन आने ही वाले हैं, दो चार कोस दूर हैं बस!!! 

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नीरज ‘थिंकर’ एक लेखक हैं व् भीलवाड़ा (राजस्थान) से हैं. TISS मुंबई के पूर्व छात्र हैं. दलित व् आदिवासी मुद्दो पर कार्यरत हैं. उनसे neeraj2meg@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

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