इस्तिखार अली (Istikhar Ali)
हाल ही में, अमेज़न प्राइम पर पाताल लोक, एक वेब सिरीज़ रिलीज हुआ जो तुरंत चर्चा में आ गया. इसकी तुलना दर्शक ‘सेक्रेड गेम्स’ से भी कर रहे है। पाताल लोक दर्शकों पर अलग छाप छोड़ रहा है। मुख्यतः इसने हिन्दी भाषा बोलने-समझने वाले समाज में बहुत से लोगों का ध्यान अपनी और खींचा है. जिस कंटेंट का बनना और फिर सिल्वर स्क्रीन या टेलीविज़न पर आना मौजूदा जातीय वर्चस्व वाली व्यवस्था में लगभग असंभव ही रहा वह कंटेंट अब ओ.टी.टी. यानि ‘ओवर द टॉप’ मीडिया सर्विसेज इन्टरनेट के ज़रिये समाज में परोस दे रहा है. सेंसर बोर्ड का कोई लफड़ा नहीं. हालाँकि यह माध्यम भी उच्च वर्ग के हाथ में है. जातीय वर्चस्व के चलते बनी व्यवस्था को चुनौती उसी के समाज से अक्सर वैसे नहीं दी जाती जिस तरह से बहुजन समाज यानि पीड़ित समाज अपने नेरेटिव से देता है. फिर भी इस सीरीज को देखना ज़रूरी है. उस पर बात करना ज़रूरी है.
पाताल लोक कई नातों से देखने लायक है.
ये सिरीज़ चार कथित अपराधियों के पकड़े जाने और इस केस में तहकीकात के साथ ही मीडिया, राजनीति और यहाँ तक कि बिज़नस वर्ग के आपसी जुड़ाव के ज़रिये समाज के हर क्षेत्र में फैले तंत्र, जिसमें भ्रष्टाचार पैर पैर पर भरा पड़ा है, की कहानी है. बहुत सी चीज़ें छन के आती दिखती हैं. इन चीज़ों को आप और हम रोज़ाना देखते-समझते हैं लेकिन इनपर मुखर होकर सरेआम बात नहीं होती. कुछेक नाममात्र हिंदी फिल्मों में फ़िलहाल तक इशारों भर से काम चला लिया जाता रहा है या फिर बात घूमफिर कर ऐसे रास्ते पर छोड़ दी जाती है जहाँ जातियों के वर्चस्व को कोई खतरा नहीं रह जाता. इन सभी मायनों में पाताल लोक आगे बढ़ती दिखती है. इस कहानी के केंद्र में है एक पुलिस इंस्पेक्टर जिसका एक परिवार है. उसके किरदार को देखकर लगता है कि वह सिस्टम का पुर्ज़ा होते हुए भी एक हटकर दृष्टिकोण रखता है. इन कथित अपराधियों का केस जो उसे मिला है, उसके जीवन का पहला ऐसा बड़ा केस है, जिसे वह इसलिए सीरियसली लेता है क्यूंकि इसके हल होने से उसके कंधे पर लगे स्टार बढ़ जायेंगे. लेकिन जैसे जैसे तहकीकात आगे बढ़ती है इंस्पेक्टर भी अवाक रह जाता है. इस इंस्पेक्टर का नाम है हाथी राम!
बकौल हाथीराम, समाज में तीन लोक हैं. पहला, स्वर्ग लोक जहाँ उच्च वर्ग के लोग रहते है। दूसरा, धरती लोक- जहां मध्यम वर्ग, हाथीराम जैसे लोग रहते है। तीसरा, पाताल लोक- जहाँ निम्न वर्ग, मुखत: निम्न कही जाने वाली जातियों के लोग जिनकी जिंदगी कीड़ों-मकोड़ों जैसे होती है। इसी लोक (जमुना पार पुलिस थाना) मे हाथीराम की ड्यूटी लगी होती है।
पाताल लोक ने समाज के विभिन्न समस्याओं को उठाया है जिसमें से मुखतः चरमराई सुरक्षा व्यवस्था, अवसरवादी मीडिया संस्थान, और इस्लामोफोबिया से पीढ़ित समाज है। इसके अलावा, अनकही जाति व्यवस्था, दलित विरोधी राजनीति, और ब्राह्मण की तुच्छ मानसिकता भी उजागर होते चलती है, ध्वस्त हो रही सुरक्षा व्यवस्था की कहानी को चित्रित करती है। कहानी के पटल पर हाथीराम इस केस की छानबीन करते हुए आगे बढ़ता है और नई सच्चाइयों के रूबरू होता चला जाता है. तहकीकात की इस राह में हाथी राम का साथी बनता है एक ईमानदार पुलिस वाला- इम्तियाज़ अंसारी. वह मुस्लिम है इसका एहसास उसे गाहे-बगाहे करवाया जाता है.
कहानी कई पड़ावों से गुज़रती है. चार कथित अपराधी जिन्हें इसलिए गिरफ्तार किया गया था कि वे मीडिया के एक बड़े पत्रकार को मारने की साजिश को अंजाम देने आये थे, उसकी कड़ियाँ कहाँ की कहाँ जाकर जुड़ती हैं. इन कड़ियों की परछाईयों में जाति-व्यवस्था की दुर्गंध, लालच में तार तार होते रिश्ते, बच्चों का शोषण, साधारण मुस्लिम के इस व्यस्था में गहराते खौफ़, राजनीति के गलियारों तक पहुँचने की मौकाप्रस्ती एक जिस्म का आकार लेती है. यही इस सीरीज की सबसे बड़ी उपलब्धि भी है.
ऐसी व्यवस्था में हाथी राम भी एक मोहरा भर है जिसे पता भी नहीं कि वह किस मकसद से संचालित हो रहा है. तहकीकात में वह सब कड़ियों को जोड़ते हुए चलता है तब उसे भी अहसास होने लगता है कि उसे सवर्ग लोक के सुरक्षातंत्र को बनाए रखने के लिए उच्चाधिकारियों द्वारा बलि का बकरा बनाया गया था।
इस्लामोफोबिक मीडिया इस सीरीज में आपको मौजूदा मीडिया की याद दिलाता है. सवर्ग लोक के तंत्र को मजबूत करने के लिए अफ़साने घड़े जाते हैं. इस्लामिक किताबों और उर्दू भाषा को ही संदेह का बाईस मान लिया जाता है और पूरे मामले को बिना किसी गवाह या सबूत ही इस्लामिक आतंकवाद से जोड़ा जाता है. ये सभी तंत्र अपने अपने काम में मसरूफ हैं. मीडिया टीआरपी अलग बटोरता है और बहुजनों के खिलाफ नेरेटिव अलग से खड़े करता है. आला अफसर, न्याय तंत्र, सरकार के पुर्ज़े सब एक ही निष्कर्ष के लिए साथ साथ काम कर रहे होते हैं.
सभी को सब मालूम होता है लेकिन अंजान बने रहने का ढोंग किया जाता है. स्वर्ग लोग के समाज को सेफ-ज़ोन में रखना आखिर सबसे ज़रूरी काम जो है. सब अवसरवादी बने रहते है और अपनी ज़िंदगी को सुविधाओं से लैस और सुरक्षित बनाने मे लगे रहते हैं।
एक महिला पत्रकार जो कि सवर्ण तबके से आती है, वह एक शादीशुदा आदमी के साथ संबंध बनाती है, सिगरेट-शराब पीती है, लेकिन ‘दिल’ की ‘ठीक’ है. दर्शकों की सहानुभूति उसके साथ हो जाए, उसे इस तरह से पेश किया गया है. लेकिन एक बहुजन अगर इस ओहदे पर हो तब क्या उसे इसी रूप में देखा जाता? इस नारे बहुजन दर्शकों को कई इस तरह के नुक्ते मिल सकते हैं जहाँ प्रश्न खड़े होते हैं.
पूरे नौ धारावाहिक में वर्चस्व के समाज से किसी ने किसी विक्टिम जमात से माफी मांगने तक की ज़हमत नहीं उठाई. सिर्फ संजीव मेहता जो कि एक मीडिया वाला है, वह भी अपनी पत्नी से माफी के जगह शुक्रिया कहकर खुद को भीतर से ठीक महसूस करवा लेता है. वो भी इसलिए क्योंकि उसकी पत्नी जिसे कुत्तों से मोहब्बत है किसी तरीके से अपने पति की जान बचाने में अनजाने ही मददगार साबित होती है.
इस मुल्क में फैलाये गए इस्लामोफोबिया का ज़िक्र फिर से करना बनता है. पूरी सीरीज में कई ऐसे दृश्य हैं जो सोचने पर मजबूर करते हैं. पुलिस का दमन, समाज के पूर्वाग्रह और सुनवाई के नाम पर सन्नाटा. एक मुस्लिम को किस तरह अपनी पहचान छुपाने के लिए झूठे प्रमाण-पत्र बनवाकर और बच्चों का नाम बदलना पड़ता है। पुलिस व्यवस्था की तुच्छ मानसिकता से पीड़ित एक परिवार अपने बेटे को हिंदुत्व की पहरेदार मोब से ‘लिंच’ होते हुए देखता है. मीडिया हाउस अपने फायदे के लिए किसी भी चीज़ को ट्विस्ट करके दिखा दे सकते हैं, जिससे एक ऐसा समाज तैयार होता है जिसमें खास वर्गों के प्रति मानवीय नजरिया ही मर जाता है. कुछ लोगों की ‘गलती’ की सज़ा पूरे मुस्लिम समाज को दी जा सकती है.
पाताल लोक सीरीज हिन्दू नेशनलिस्म और उसके वाहक ब्राह्मणवादी व्यवस्था के तंत्र को सामने लाती है. ये खेल ऊपर ऊपर चलता है. पाताल लोक के लोग इसके केवल विक्टिम हैं या पोटेंशियल मोहरे हैं, जिन्हें पता भी नहीं कि आखिर हो क्या रहा है और कैसे हो रहा है! राजनीतिक फायदे कौन कौन से रास्तों पर चलकर पैदा किया जाते हैं जबकि आमजन की पहुँच वहां तक रत्ती भर नहीं. ‘देशप्रेम’ या फिर ‘देश खतरे में है’ के नेरेटिव से देश के हर वर्ग के ज़ेहन पर सुहागा फेर कर हर मामले को बेलेंस करने की कवायद कामयाब होती है. इस तरह से दमनचक्र चलता रहता है.
इस पूरे फेरों में, पुलिस इंस्पेक्टर हाथी राम का एक परिवार भी है. जिसमें उसके बच्चे के ‘मेरिट’ वाले स्कूल में एडमिशन से लेकर रोज़मर्रा के जीवन संघर्ष हैं. बच्चे के ठीक से पढ़ने की फ़िक्र है. उसके गलत सोहबत में पड़ जाने का फ़िक्र है. ऐसे मेरिट वाले स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों का साधारण वर्ग के प्रति व्यवहार इशारा करता है कि आगे चलकर ये कौन सा तीर मारने वाले हैं.
सवर्ग लोक के इस सिस्टम में पाताल लोक एक चलती फिरती वस्तु (commodity) है. उसके दिमाग को नियंत्रण में रखना ज़रूरी है, सवर्ग लोक के लिए. वह केवल उतना ही सोचे जितना सिस्टम चाहता है. अगर अधिक सोचेगा भी तो सिस्टम उसके पर कतरने भी जानता है. सीरीज में गालियों का अधिकाधिक प्रयोग है. दलित विरोधी शब्दावली का इस्तेमाल केवल करारापन लाने का मामला नहीं है बल्कि इस ब्राह्मणवादी उक्ति के रूम पे प्रयोग किया है। पाताल लोक ने कंपन पैदा करके सवर्ग लोक की छुपी हुई दुर्गंध सतह पर ला दी है.
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इस्तिखार अली, जे.एन.यू. से पी.एच.डी. स्कॉलर हैं. उनसे ईमेल istikharali88@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.