मोहम्मद जावेद अलिग (Mohammad Javed Alig)
भारत में सांप्रदायिक दंगों का एक लंबा इतिहास रहा है. हालाँकि इन दंगों को नरसंहार कहना अधिक उचित होगा. ये सिलसिला पुराना है. अंग्रेजों द्वारा भारत को ‘सँभालने’ में सवर्ण तबके, खासतौर पर ब्राह्मणों का विशेष योगदान रहा है. ब्राह्मणवाद की ‘साम-दाम-दंड-भेद’ की नीतियों से ही “फूट डालो राज करो’ की नीति ने अपने पैर पसारे हैं. सांप्रदायिकता का बीज उसी काल का है. इस पेड़ को आज़ाद भारत की सेक्युलर और लेफ्ट-राइट की राजनीति ने खाद-पानी देने में कोई कसर नहीं छोड़ी. कांग्रेसी व वामपंथी नेताओं द्वारा शुरू की गई सांप्रदायिक राजनीति को आगे चलकर क्षेत्रीय दलों ने हरी भरी उपजाऊ जमीन मुहैया कराई. इस नीति का नतीजा सांप्रदायिक दंगों के रूप में आया, लेकिन वोट बैंक की राजनीति के कारण न तो दंगाइयों को सजा मिली और न ही दंगा पीड़ितों को इंसाफ.
इतना ही नहीं वोट बैंक की राजनीति के चलते आजादी के बाद देश में दंगों और नरंसहारों को राजनीतिक नफा-नुकसान की नजर से परिभाषित किया जाने लगा. वक़्त गुजरते भारतीय समाज साम्प्रदायिक दंगो को लेकर बहुत सेलेक्टिव होता गया. इस दौर में जहाँ पुलिस मूकदर्शक बनकर खड़ी रहती है या कथित तौर पर भीड़ को भड़काने की कोशिश करती है. हमारा भारतीय समाज भी, जब भी दंगों को याद करता हैं तो बहुत सलेक्टिवे हो जाता है.
हमारा ज़हन सिर्फ 2002 के गुजरात नरसंहार या 1984 के सिख नस्लकुशी पर ही हमारा ध्यान केंद्रित होता हैं और जब भी हम इन क्षणों पर चर्चा करते हैं तब ये सोचकर याद करते हैं कि ये हमारे इतिहास के सबसे कलंकित पन्ने थे. हम 1984 में की गई हत्याएं सिर्फ एक दशक में भूल गए हैं जहां सिखों को नियमित रूप से परेशान किया गया और पुलिस द्वारा फर्जी मुठभेड़ों के अधीन किया गया. हम आदिवासियों के कई राज्य प्रायोजित नरसंहारों को भी भूल गए हैं. और हम ये भी आसानी से भूल गए हैं कि स्वतंत्र भारत में इन सात दशकों में राज्य द्वारा मुसलमानों की हत्या की गई है. मुस्लिम दृष्टिकोण से, इस तरह की चयनात्मक स्मृतियों ने व्यापक लेकिन गलत धारणा को जन्म दिया है कि भाजपा ही भारत की एकमात्र राजनीतिक पार्टी है जिसके हाथ में मुसलामानों के खून से सने हुए हैं.
भारत में वोट बैंक की राजनीति को समझने के लिए गुजरात के तमाम दंगों (नरसंहार ही पढ़िए) और नरंसहार का विश्लेषण जरूरी है अन्यथा बात अधूरी रह जाएगी. जब भी हम गुजरात को याद करते हैं तो सिर्फ हमें 2002 का नरसंहार ही याद आता है जबकि आज़ादी के बाद से ही गुजरात में सांप्रदायिक दंगे होते रहे हैं. अहमदाबाद की सड़कें तो अक्सर बेगुनाहों के खून से लाल होती रही हैं. 1969 में अहमदाबाद में भीषण सांप्रदायिक दंगा (नरसंहार पढ़िए) हुआ जिसमें 5000 मुसलमान मारे गए. उस समय राज्य के मुख्य मंत्री हितेंद्र भाई देसाई और देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं लेकिन दंगाइयों को सज़ा नहीं मिली.
इसके बाद 1985, 1987, 1990 और 1992 में अहमदाबाद में भीषण सांप्रदायिक दंगों के नेरेटिव के तले मुसलमानों का नरसंहार हुए और इन नरसंहारों के समय गुजरात की बागडोर कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों के हाथ में रही. इसके बावजूद न तो दंगाइयों को सजा मिली और न ही दंगा पीड़ितों को इंसाफ. हां, इन दंगों के बल पर राजनीतिक रोटी सेंक कर कांग्रेस सूबे में राज जरूर करती रही. मगर कांग्रेस इनमें से किसी एक दंगे का नाम नहीं लेती, वो सिर्फ 2002 दंगे की ही बात करती है क्योंकि तब सूबे में उसकी सरकार नहीं थी.
इसके अलावा स्वतंत्र भारत ने कई जलियाँवाला बाग देखे हैं जिसका मुरादाबाद पुलिस फायरिंग सबसे उपयुक्त उदाहरण है. 13 अगस्त 1980 को मुरादाबाद में ईद हमेशा की तरह खुशियों और उल्लास से भरी थी. सब कुछ नॉर्मल था बस यह समझ नहीं आ रहा था कि 50,000 नमाज़ियों से भरी ईदगाह के चारों तरफ पीएसी क्यों लगाई गई थी. नमाज़ियों ने ईद की नमाज़ की नीयत की ही थी कि ईदगाह में अचानक सुअर घुस आए जबकि सभी गेटों पर पीएसी थी फिर यह कैसे हो गया. जिसकी वजह से मामूली वाद-विवाद मात्र पर ही सशत्र बल ने सीधे ईदगाह की तरफ बंदूकों का रुख कर गोली चलाकर जलियाँवाला कांड दोहरा दिया. उस वक़्त राज्य में कॉंग्रेसी मुख्यमंत्री वी.पी. सिंह थे और प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी थी. कैबिनेट मंत्री अब्दुलरहमान नश्तर ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कुबूल किया कि मामूली झगड़े में पुलिस ने लाशें बिछा दीं और कॉंग्रेस ने अब्दुलरहमान को तुरंत मंत्री पद से बर्खास्त कर दिया था. प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं कि एक ट्रक भर कर खून से सने जूती चप्पलों को ईदगाह से उठाया गया था .
इसकी तुलना जलियाँवाला बाग से करें तो वहाँ भी सैंकड़ों लोग बैसाखी के दिन एकत्रित हुए थे. जनरल डायर की कमान में सेना ने लोगों पर फायरिंग कर दी, जिससे लगभग 400 लोग मारे गए. समानताएँ यहाँ समाप्त नहीं होती हैं, दोनों ही मामलों में, पीड़ितों के पास बाहर निकलने का सिर्फ एक ही दरवाज़ा था.
भाजपा नेता और विदेश मंत्री एम.जे. अकबर, जो उस समय एक युवा पत्रकार थे, ने मुरादाबाद से रिपोर्ट की. उन्होंने अपनी पुस्तक “राएट्स आफ्टर राएट्स” में लिखा है कि “प्रांतीय सशस्त्र कांस्टेबुलरी ने लगभग 50,000 मुसलमानों पर फायरिंग करदी उस वक़्त जब वे ईद की नमाज़ अदा कर रहे थे. कोई नहीं जानता कि कितने लोग मारे गए. यह ज्ञात है कि मुरादाबाद में हुई घटना हिंदू-मुस्लिम दंगा नहीं थी, बल्कि सुनियोजित ढंग से पुलिस बल द्वारा किया गया मुसलमानों का नरसंहार था जिसे हिंदू-मुस्लिम दंगा नामक टॉपिक से कवर करने की कोशिश की गई.” उस वक़्त के सांसद सैयद शहाबुद्दीन ने मुरादाबाद को स्वतंत्र भारत का जलियाँवाला बाग़ कहा था.
यूपी पुलिस योगी शासन में ही मुस्लिम-विरोधी नहीं बनी, बल्कि धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस का अतीत भी रक्तरंजित रहा है. आज जैसा आदित्यनाथ कर रहे हैं, तब इंदिरा गांधी ने भी पुलिस बल को प्रोत्साहन देकर तरफदारी की थी. आरोपों को खारिज करते हुए गांधी का जवाब था, ‘पुलिस के आयुक्त और महानिरीक्षक को इस आरोप का कोई सबूत नहीं दिखा कि आमतौर पर पुलिस बेकाबू हो चुकी थी.’ मुरादाबाद में 1980 की भयावह पुलिस ज़्यादतियों को दरकिनार करते हुए उन्होंने उसे ‘सरकार को कमजोर करने की साजिश’करार दिया था. इंदिरा गांधी ने आगे 1983 के मेरठ दंगों में मुस्लिम-विरोधी के रूप में कुख्यात यूपी पीएसी का बचाव करते हुए उस पर लगाए गए विस्तृत आरोपों को लेकर खेद जताया था.
उत्तरप्रदेश में हुए 29 दंगों में से 13 में यूपी पीएसी पर मुसलमानों के नरसंहार का आरोप लगा था, जैसा कि लेखक और कार्यकर्ता असगर अली इंजीनियर ने लिखा था– ‘यूपी के सारे दंगों में पीएसी मुस्लिम विरोधी भूमिका निभाती है.’ यूपी पुलिस 1970 और 1980 के दशकों में पूरे राज्य में भयावह हिंसा में लिप्त पाई गई थी जिनमें फिरोज़ाबाद (1972), मुज़फ्फरनगर (1975), सुल्तानपुर (1976), संभल (1978), अलीगढ़ (1978 और 1980), मुरादाबाद (1980), मेरठ (1982, 1986 और 1987), बहराइच (1983), मऊ (1983), पीलीभीत (1986), बाराबंकी (1986) और इलाहाबाद (1986) की घटनाएं शामिल हैं.
इसके बावजूद, पीएसी में सुधार और उसे मुस्लिम-विरोधी मानसिकता से मुक्त करने के कोई प्रयास नहीं किए गए, उलटे क्रमिक सरकारों ने ‘गड़बड़ी’ से निपटने के मुख्य साधन के तौर पर उसका इस्तेमाल किया.
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मोहम्मद जावेद अलिग एक शौधार्थी व् सवतंत्र पत्रकार हैं.
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