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डॉ. सूर्या बाली ‘सूरज धुर्वे’ (Dr. Suraj Bali ‘Suraj Dhurve’)

करम पर्व प्रकृति को संरक्षित और समृद्ध करने के साथ साथ कोइतूर जीवन को गति देने वाला त्योहार है.  यह कोया पुनेमी1 पाबुन2 भादों उजियारी पाख की एकादशी और उसके आसपास मनाया जाता है. चूंकि यह उजियारी पाख का पर्व है इसलिए इसे पाबुन कहते हैं. करम पर्व यानि कर्मा त्यौहार या करम पूजा, एक प्रकृति पर्व है. कर्म पर आधारित इस त्यौहार को भाई-बहन के निश्च्छल प्यार के रूप में भी देखा जाता है. यह त्योहार भादों शुक्ल पक्ष के एकादशी से 15 दिनों तक मनाया जाता है(कुमार, 2016)3.

यह हरियाली का प्राकृतिक पर्व है इस पर्व में कोइतूर4 लोग वृक्षों और फसलों की पूजा करते हैं. यह उरांव कोइतूरों की सदियों पुरानी परंपरा है. भादों एकादशी के दिन झारखण्ड के उरांव कोइतूर बड़े धूम धाम से इस करम पर्व को मानते है. करम पूजा यानी प्रकृति पर्व हमारी संस्कृति की महत्त्वपूर्ण और अनमोल धरोहर है. यह प्रकृति के साथ सामाजिक एकता, सहभागिता, सामूहिकता और भाईचारे का भी परिचायक है. प्रकृति के प्रति कोइतूर लोगों का अगाध प्रेम और समर्पण इस त्यौहार को और भी आकर्षक बना देता है जिसका प्रदर्शन हम अपने पारम्परिक गीत, नृत्य और संगीत में करते हैं.

वैसे तो यह पर्व बिहार, पूर्वी मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखण्ड आदि प्रदेशों में मनाया जाता है लेकिन यह प्रकृति पूजा यानि कर्मा पाबुन झारखंड की विशेष पहचान और उसकी प्राचीन संस्कृति का आधार है. इस देश का कोइतूर हमेशा से प्रकृति का संरक्षक रहा है और आज भी उसी परंपरा का निर्वहन इस पाबुन के माध्यम से करता है. करमा पर्व के तीन महत्त्वपूर्ण भाग होते हैं -पहला करम पूजा, दूसरा करमा नृत्य और तीसरा करमा गीत(Bhagvat, 1968)5.  

इस पर्व से जुड़ी हुई बहुत सारी मिथकीय कथाएँ और कहानियाँ हैं जिनमें समय के साथ-साथ ब्राह्मणवाद की मिलावट साफ साफ देखी जा सकती है. बड़ी चालाकी और कुटिलता से कर्मा गीतों और संस्कारों में ब्राह्मणवादी व्यवस्थाओं और उनके देवी-देवताओं के नामों को प्रतिस्थापित कर दिया गया है. भोले-भाले उरांव, मुंडा और अन्य कोइतूर अपने इन्हीं खूबसूरत फसल के प्राकृतिक पर्वों में ब्राह्मणवाद को ढो रहे हैं.  

इस पर्व की पूरी जानकारी होते ही आप इस पावन पर्व के सन्दर्भ और मायने आसानी से समझ सकेंगे. आइये इस पर्व के वैज्ञानिक और कोया पुनेमी पहलुओं को इन रस्मों के द्वारा समझते हैं.

1. बालू या मिट्टी उठाने की रस्म

कोया पुनेमी परंपरा के मुताबिक मानव देह (कोया मेंदोल) जिन पांच तत्वों से बना होता है उसमें मिट्टी बहुत अहम् होती है और जीवन की शुरुवात करने के लिए मिट्टी की ही पूजा (माटी गोंगों) सर्वप्रथम होती है. करम पर्व में अविवाहित युवतियाँ अपने आस पास के नदी, नाले, तालाब से बालू/मिट्टी लेने जाती हैं. यह रस्म भादों माह की उजियारी तृतीया के दिन शुरू होती है. जिसे तीजा पर्व या हरितालिका तीज भी कहते हैं. इस तीज से लेकर करम पर्व तक (9 दिन) रोज कुँवारी लड़कियों को गर्भावस्था के हर महीने के बारे में जानकारी देने के लिए यह रस्म निभाई जाती है.  

पहले दिन तीज का व्रत रखने के बाद कुँवारी लड़कियां नदी से बालू/मिट्टी लाने की रस्म पूरी करती हैं. सभी कुँवारी लड़कियां बांस की बनी हुई डलिया, डोल्ची, डाली,  टोकरी आदि लेकर समूह में नाचते गाते हुए नदी की तरफ जाती हैं. नदी में स्नान और पूजा करके नदी से मिट्टी/बालू लेने की अनुमति लेती हैं और अपनी दउरी/दउरा6 में नदी की पावन मिट्टी/ बालू लेकर घर को वापस आती हैं.

बालू भरी डाली के साथ युवतियां

बालू भरी डाली के साथ युवतियां

मिट्टी से भरी डाली को लाकर एक सुरक्षित और साफ स्थान पर रखती हैं और फिर इस मिट्टी/बालू में सात तरह के आनाज बोती हैं जो जीवा7 का प्रतीक होता है इन अनाजों में प्रमुख रूप से  घान, गेंहूँ, मकई, जौ, उरद, चना और कुल्थी प्रमुख होते हैं. चूंकि मानव जीवन के लिए ये प्रमुख आहार हैं इसलिए इनके द्वारा ही जीवन चक्र को समझाने की कोशिश की जाती है और एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी में फसलों और आनाजों के महत्त्व को सिखाया जाता है. इसी बहाने नई पीढ़ी अपने पूर्वजों के सदियों पुराने पारंपरिक ज्ञान और अनुभव को अपने जीवन में आत्मसात करते हैं. मिट्टी में बीज डालने के बहाने से बुजुर्ग महिलाएं कुँवारी लड़कियों को गर्भाधान की प्रक्रिया की शिक्षा देती हैं.

2. लोटे में नदी से जल लाने की रस्म

जीवन का दूसरा महत्त्वपूर्ण तत्व जल होता है. जीवन दायनी नदी से युवतियां समूह में पानी लेने जाती हैं और वहाँ पर नदी पूजा करती हैं यानि नदी से विनती करके पानी ले आने की अनुमति मांगती हैं. लोटे या घड़े में नदी या तालाब के जल को सिर पर रख कर समूह में गाती-नाचती हुई युवतियां घर पर पानी लेकर आती हैं. जब रंग-बिरंगे वस्त्रों और आभूषणों से सजी हुई युवतियां अपने सिर पर पानी के भरे कलश लेकर चलती हैं तो यह घटना बहुत ही मनमोहक होती है. आगे-आगे मादर (एक वाद्य) पर थाप देते नाचते-गाते युवक इन युवतियों का उत्साहवर्धन करते हैं.

नदी से पानी ले आती हुई युवतियां और मादर बजाते युवक

कोइतूर संस्कृति में मातृशक्ति और पितृशक्ति की समान भागीदारी और एक दूसरे के प्रति सम्मान इस त्यौहार में साफ़-साफ़ दिखता है. पूरे त्यौहार में स्त्री और पुरुष साथ-साथ मिलकर रहते हैं और प्रत्येक रस्म को मिलकर पूरा करते हैं. बीज के अंकुरण यानि गर्भ में जीवन आने के लिए पानी की जरूरत को इंगित किया जाता है.

3. आग तत्व के उपयोग जावा जगाने की रस्म

अपने  बालू/ मिट्टी में बीजारोपण के बाद नव युवतियां अपने बोये गए बीजों को हल्दी पानी से सींचती हैं. अपने बोये गए बीज में जीवन अंकुरित होने के लिए तीसरे महत्त्वपूर्ण अवयव आग की जरूरत होती है इसलिए उस डलिया के पास दीप जला कर युवतियां पूजा करती हैं और इस तरह बीज में एक नए जीवन को देने की शुरुवात होती है. इस दौरान बुजुर्ग महिलाएं कुंवारी युवतियों को कोख में पल रहे गर्भ के लिए ऊर्जा और पोषण की जरूरतों के बारे में बताती हैं. चूँकि इन युवातियों को भी अपने जीवन में नए जीव का जन्म देना होगा और उसकी देखभाल और पालन पोषण करके बड़ा करना होगा, इसलिए उन्हें इस रस्म के द्वारा सांकेतिक प्रशिक्षण दिया जाता है.

जावा डाली के साथ कुंवारी युवतियाँ

जावा डाली के साथ कुंवारी युवतियाँ

4. कर्मा नृत्य द्वारा हवा और आकाशीय तत्व समाहित करने की रस्म

नृत्य कोइतूर जीवन में रची बसी एक प्राचीन परंपरा है. इस अवसर पर विशेष नृत्य द्वारा प्रकृति को प्रसन्न करने का प्रयास किया जाता है जिससे खेतों की फसल सुरक्षित और भरपूर हो ताकि आगे का जीवन आसानी से बीत सके.

जीवन में वायु का अन्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य होता है बिना इसके जीवन संभव नहीं है. वैसे तो यह दिखाई  नहीं देती है लेकिन नृत्य करते हुए, बालू में रखे बीज को डाली के चारों और घूमते हुए, वायु के झोंके दिए जाए हैं और जावा8 जगाये जाने की रस्म पूरी की जाती है. कर्मा नृत्य एक लोक नृत्य है जो पूर्वी मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड में बड़े उत्साह और ऊर्जा से किया जाता है.

इस तरह से 9 दिन तक लगातार जावा जगाने की प्रक्रिया संपन्न की जाती है. युवतियां कर्मा गीत नृत्य द्वारा इन डालियों के चारों और घूम घूम कर नृत्य करती हैं और अपने द्वारा बोये गए बीजों के अंकुरित होने की प्रार्थना करती हैं. भादों शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन घर के आँगन को लीप पोत कर शुद्ध किया जाता है और वहाँ पर अंकुरित जावा की डालियों को करम की टहनी के पास रखा जाता है. इस तरह से नाचते-गाते हुए नौ दिन में गर्भावस्था के नौ महीने के दर्शन समझाये जाते हैं. और नौवे दिन करम पर्व मनाया जाता है और करम राजा पर दूध डालकर शिशु जन्म और उसके बाद दुग्धपान की रस्म को पूर्ण किया जाता है.

करम महोत्सव

करम महोत्सव

करम पर्व यानि नौवें दिन, कुँवारी युवतियां लालपाड़ या लाल बोर्डर वाली सफ़ेद नई साड़ी और लाल ब्लाउज़ पहनती हैं और पैर में लाल महावर (आलता) लगाती है और सज धज कर तैयार होती हैं. युवतियां अपनी अपनी करमा दउरा(निगम, 2018) या पूजा की थाली में महुआ, चना, खीरा, दूध, फल फूल, अरवा चावल, नारियल, घी तेल, दिया, नई  तौलिया और स्त्री-श्रृंगार के अन्य जरूरी सामानों को रखती हैं और अपनी अपनी करम डाली को रंग-बिरंगे फूलों से सजाती हैं. इस तरह पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ  करमवृक्ष या उसके शाखा के पास अपनी करम डाली को रख कर करम देव को पूजती हैं.  

5. करम वृक्ष

कोइतूर परंपरा में करम या करमा वृक्ष समृद्धि और सौभाग्य का प्रतीक है. पूरे पर्व का ताना बना इस करम वृक्ष के आसपास बुना जाता है.  साजा के पेड़ की तरह ही करम वृक्ष को भी कोइतूर सस्कृति में बहुत पवित्र और भाग्यशाली माना जाता है.  इसका बानस्पतिक नाम नौक्लिया कार्डीफोलिया है(Roy, 2019)9. अखरा में इसकी टहनियों को गाड़कर चारों और घूम घूम कर नृत्य किया जाता है और कर्मा नृत्य करते समय भी इस पेड़ की टहनियों को दोनों हाथों में लेकर नर्तक नृत्य करते हैं. करम वृक्ष को करम राजा या करम देवता के रूप में पूजा जाता है.

6. करम वृक्ष की डालियाँ काटने की रस्म

गाँव के अविवाहित युवक और युवतियां एक साथ जंगल से करम की तीन डाली लाने जाते है. करम के पेड़ से सबसे सीधी और साफ सुथरी शाखा, जिसके पत्ते बिलकुल अच्छे हों और जिसे कीट-पतंगे न खाये हों, को करम त्योहार के लिए काटा जाता है(Roy, 2019). कोई युवा करम के पेड़ पर चढ़कर तीन डालियाँ काटता है और नीचे अन्य युवा-युवतियां नाचते गाते हुए करम देवता से विनती करती हैं, शाखा काटने की अनुमति मांगते हैं. इन युवकों और युवतियों के साथ कभी कभी पहान या पुजार भी कुल्हाड़ी लेकर जंगल में करम की डाली लाने जाते हैं. डालियाँ काटते समय यह ध्यान रखा  जाता है कि करम की चिन्हित डाल कुल्हाड़ी के एक ही वार में कटे और जमीं पर न गिरने पाए. तीन अविवाहित युवक एक दूसरे का हाथ पकड़कर काटी गयी डालियों को गाँव के अखरा तक लाते हैं. डाल काटने के बाद रस्ते भर लोग समूह में एक दूसरे का हाथ पकड़ नृत्य करते हुए लौटते हैं. युवा मस्त होकर मादर बजाते हुए अन्य युवाओं और युवतियों का साथ देते हैं.

करम की डाली के साथ अविवाहित युवतियाँ

यह सामूहिक क्रिया-कलाप कोइतूर जीवन में सामूहिकता और एकता का प्रतीक है जहाँ पर सभी मिलजुल कर रहने की सीख दी जाती है और स्त्रियों को बराबरी और सम्मान की नज़र से देखा जाता है. अविवाहित किशोरियाँ समूह में नाचती-गाती हुई जंगल से “पखना फूल”10 चुनने जाती हैं जिसे वे अपनी करमा डाली या करम दउरा में सजाती हैं(Roy, 2019).

7. करम पेड़ की तीन डालियों को अखरा में गाड़ने की रस्म

अविवाहित युवक करम डाली को नाचते गाते अखरा11 (वह स्थान जहाँ कर्मा नृत्य और गीत संपन्न होता है) तक लाते हैं और गाय के गोबर से लीप पोत कर तैयार किये गए चौक (चोको भुई) में स्थापित करते हैं. इस स्थापना के बाद आगे का कार्यक्रम पाहन द्वारा सम्पन्न किया जाता है. अखरा  में करम पेड़ के चारों तरफ  युवतियां अपनी सजी हुई करम डाली(करम दउरी) को रख कर करम देवता की पूजा करती हैं और अपने भाईयों की कुशलता की कामना करती हैं. वैसे तो करम अविवाहित लड़कियों का पर्व होता है लेकिन इस त्योहार पर विवाहित लडकियाँ और औरतें भी अपने मायके करम पर्व मनाने आती हैं(Roy, 2019).

8. पाहन द्वारा पूजा संपन्न करने और करम कथा सुनाने की रस्म

इस दिन कोटवार द्वारा समाज के सभी लोगों को करम कथा सुनने के लिए आमंत्रित किया जाता है(निगम, 2018)12. अखरा में उरांव पुजारी या पुरोहित, जिसे पाहन कहते हैं, के द्वारा करम देव की विधिवत पूजा संपन्न की जाती है और मुर्गे की बलि देकर करम देवता को प्रसन्न किया जाता है. पाहन द्वारा पूजा संपन्न हो जाने के बाद सभी लोग एक घेरे में बैठ जाते हैं और पाहन करम देव की कथा/ गाथा सुनाता है. जिसमें से करम देव और उनके अन्य 6 भाईयों की कहानी बहुत प्रमुख हैं. उनके बारे में ढेर सारी कथाएँ है जिनमें से एक कथा बहुत प्रचलित है.

रांची विश्व विद्यालय के जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष तिरुमाल गिरधारी राम गोंझू के मुताबिक एक गाँव में नन्हकी नन्हकी नाम का एक विवाहित जोड़ा रहता था. उनके पास कोई संतान नहीं थी. करम देव की कृपा से कई सालों बाद उनके घर में सात बेटे हुए, जिनका नाम कर्मा, धर्मा, धनवा, रीझा, मंगरा, भंवरा और लीटा था. जब वे बड़े हुए तो उनका विवाह ऐसे घर में हुआ जहाँ सात बहनें थीं. सात भाईयों का विवाह उन्ही सात बहनों से हुआ. एक बार अचानक अकाल पड़ता है और खाने के लाले पड़ जाते हैं. धर्मा को घर छोड़कर बाकी सभी भाई पैसा कमाने सुदूर देश चले जाते हैं. सात साल बाद जब वे पैसा कमाकर लौटते हैं तो गाँव की सीमा के पास यह सोच कर रुक जाते हैं कि उनके परिवार का कोई उनका परछन करके स्वागत करे. इसलिए सबसे छोटे भाई लीटा को घर से किसी को बुलाने के लिए भेजते हैं लेकिन घर पर सभी लोग करम पूजा में व्यस्त थे और करम नृत्य कर रहे थे. लीटा भी वहाँ जाकर मादर बजाने में और नृत्य करने में व्यस्त हो गया और वापस नहीं गया. फिर छठवें भाई को घर भेजा गया वो भी व्यस्त हो गया. इस तरह पांचवें, चौथे  और तीसरे भाई भी घर भेजे गए लेकिन सभी करम नृत्य में इस तरह डूब गए कि उन्हे वापस जाने का याद भी नहीं रहा. इस बात पर कर्मा को बहुत गुस्सा आया वो भी सारा कमाया हुआ धन गाँव की सीमा पर छोड़ कर घर आ गया. जब वो घर पहुंचा तो देखा कि घर के सभी परिवार एक करम की डाली के चारों तरफ नृत्य कर रहे हैं और गा रहे हैं. कर्मा ने गुस्से में करम वृक्ष की तीनों डालियों को उखाड़ कर नदी में फेंक दिया और करम राजा को चढ़ाने के लिए रखे गए गरम दूध के पतीले को गिरा दिया. अपने भाईयों, भाभियों और अपनी बीवी से नाराज़ होकर फकीर का रूप धारण करके घर से बाहर चला गया(Roy, 2019). इस तरह कर्मा के बुरे दिन आ जाते हैं और शेष छः भाई समृद्धि पा जाते हैं. एक दिन नदी किनारे बैठ कर कर्मा सोचता है कि उसकी दुर्गति क्यूँ हो रही है? तभी वहाँ एक बुढ़िया आती है और बातचीत के दौरान कर्मा को बताती  है कि तुमने करम देव को अपमानित किया था इसलिए तुम्हारे बुरे दिन चल रहे हैं. तुम्हें फिर से अपने अखरा में करम देव को स्थापित करके पूजना होगी तभी तुम सम्पन्न और सुखी हो पाओगे. तब कर्मा वापस अपने घर आकर अपने भाई और भाभियों के साथ कर्मा को स्थापित करता है और इस तरह उन सभी के जीवन में फिर से खुशियाँ और समृद्धि आ जाती है(प्रभात खबर, 2020)13.  

9. कर्मा नृत्य और गीत के कार्यक्रम की रस्म

पाहन द्वारा करम पूजा संपन्न करने के बाद रात भर गीत, नृत्य और संगीत का कार्यक्रम चलता है. सभी लोग मादर और नगाड़े की धुन पर एक दूसरे की कमर में हाथ डाले धूम झूम कर नृत्य करते हैं. ऐसे मनमोहक स्वरलहरियों के साथ नृत्य करते हुए देख कर किसी के भी पाँव थिरकने पर मजबूर हो जाते है और बरबस ही कर्मा समूह नृत्य का हिस्सा बन जाते हैं. कोइतूर परंपरा का यह पर्व मानव के जीवन में अपार खुशियाँ और उन्मुक्तता लेकर आता है. पूरी रात गायन, वादन और नृत्य के बाद सुबह लोग करम डाली के विसर्जन की तैयारी में जुट जाते हैं.

करम नृत्य करते हुए युवा और युवतियां

कर्मा वर्षा ऋतु के स्वागत (करम त्योहार)का लोक नृत्य है जिसमें महिला और पुरुष दोनों भाग लेते हैं. आकाश में बादलों को आकर्षित करने और आकाश से वर्षा  द्वारा जल देने की प्रार्थना इन कर्मा गीतों द्वारा की जाती है ताकि खेतों में अच्छी फ़सल हो. इसमें नर्तक एक-दूसरे की कमर पकड़ कर मादर और टिमकी की ताल पर करम वृक्ष के चारों ओर घूमते हुए नाचते गाते हैं. कर्मा नृत्य की 5 शैलियाँ हैं. जो नृत्य झूम-झूम कर किया उसे ‘झूमर नृत्य’, जो एक पैर झुका कर किया जाए उसे ‘लंगड़ा नृत्य’, जो लहराते हुए किया जाए उसे ‘लहकी नृत्य’ जो खड़े खड़े किया जाए उसे ‘ठाढ़ा नृत्य’ और जो आगे पीछे पैर रखकर, कमर लचकाकर किया जाता है उसे ‘खेमटा’ नृत्य कहते है(छत्तीसगढ़ ज्ञान, 2018)14.

10. करम दउरी और करम वृक्ष की डाली के विसर्जन की रस्म

सुबह युवतियां अपनी अपनी करम दउरी को कच्चे धागे में पिरोये गए रंग-बिरंगे फूलों से सजाती है और समूह में नदी की तरफ विसर्जन करने के लिए जाती है. पूरे गाजे बाजे के साथ आसपास के नदी या तालाब में इन दउरियों (डालियों) का विसर्जन किया जाता है और अंतिम पूजा संपन्न की जाती है. विसर्जन के बाद सभी वापस अपने अपने घरों को लौट आते हैं. करम की डालियों को पूजा के बाद खेतों में गाड़ दिया जाता है जो खेतों में धान की फसल को कीट-पतंगों से सुरक्षा करती है(कुमार, 2016) लेकिन शरत चन्द्र रॉय अपनी पुस्तल उरांव (ORAON) में लिखते हैं कि करम पर्व की अगली सुबह पुरुषों द्वारा करम की डालियों को किसी नदी या पानी के स्रोत में बहा दिया जाता है(Roy, 2019).

यह पर्व प्रकृति के साथ मानवीय संबंधो और उसके अपने रिश्ते नातों की डोर को मजबूती प्रदान करता है. इस पर्व की आड़ में बड़ी आसानी से एक पीढ़ी द्वारा दूसरी पीढ़ी को गर्भावस्था और शिशु जन्म से संबन्धित जरूरी ज्ञान को सामान्य रस्मों द्वारा समझा दिया जाता है. करम पर्व आपसी भाईचारे और प्रेम को भी बढ़ाता है और प्रकृति संरक्षण के प्रति पूरी मानवता को सजग करता है. यह मानव और प्रकृति के अनमोल रिश्ते को मजबूत बनाता है. इस अवसर पर आप सभी को इस कोया पुनेमी पाबुन यानी करम पर्व की गाढ़ा-गाढ़ा बधाईयाँ और शुभकामनाएं !

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संदर्भ सूची

  1. कोया पुनेमी – कोइतूरों के प्राकृतिक जीवन पद्धति यानि सत्य मार्ग को मानने वाले, (कोया= प्राचीन भारत की धरती पर पैदा हुए प्रथम मानव , पुनेम- सत्य का मार्ग)
  2. पाबुन- कोइतूरों में उजियारी पक्ष में मनाए जाने वाले त्योहारों को पाबुन और अंधियारी पक्ष में मनाए जाने वाले त्योहारों को पंडुम कहते हैं.
  3. निगम,अश्विनी कुमार. (2018, September 19). प्रकृति महापर्व करम के रंग में रंग गया झारखंड [न्यूज़ पोर्टल]. पंचायत टाइम्स.https://www.panchayattimes.com/nature-mahaparav-karam-will-be-celebrated-on-thursday-in-jharkhand/
  4. कोइतूर- भारत के देशज लोग (इंडीजेनस पीपल्स)
  5. Bhagvat, D. (1968). Tribal Gods and Festivals in Central India. Asian Folklore Studies27(2), 27. https://doi.org/10.2307/1177671
  6. दउरी/दउरा- बांस की बनी हुई डोली
  7. जीवा – नया जीव
  8. जावा-जवारा यानि अंकुरित हुए नए पौधे
  9. Roy, S. C. (2019). Religous Feasts and Festivals- The Karam Festival. In ORAON: Religion and Customs(First, Vol. 1, pp. 240–247). Gyan Publishing House, 5 Ansari Road, Daryaganj, New Delhi-110002. gyanbook.com
  10. पखना फूल -एक तरह का सफ़ेद रंग का जंगली फूल जो करम राजा को चढ़ाया जाता है
  11. अखरा- आँगन या गाँव का वह स्थान जहां करम की टहनी को स्थापित करके नृत्य किया जाता है
  12. कुमार,राजन. (2016, January 12). प्रकृति के सम्मान का पर्व करम. फॉरवर्ड प्रेस.https://www.forwardpress.in/2016/01/karam-celebrating-nature-hindi/
  13. प्रभात खबर. (2020, August 28). करमा पर्व पर जानें करम देव की कहानी [न्यूज़ पोर्टल]. प्रभात खबर- डिजिटल न्यूज़.https://www.prabhatkhabar.com/video/the-story-behind-the-celebration-of-karma-festival-in-jharkhand
  14. छत्तीसगढ़ ज्ञान. (2018). करमा नृत्य [कला संस्कृति]. छत्तीसगढ़ ज्ञान.https://www.chhattisgarhgyan.in/2016/11/karamaa-nritya.html

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  1.  

डॉ सूर्या बाली “सूरज धूर्वे” अंतर्राष्ट्रीय कोया पुनेमी चिंतक और कोइतूर विचारक हैं. पेशे से वे एक डॉक्टर हैं. उनसे drsuryabali@gmail.com ईमेल पर संपर्क किया जा सकता है.

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