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बी. शारदा (B. Sharda)

अन्याय के प्रतिकार के लिए शायद ‘अन्याय’ ही रास्ता है, तभी एक न्याय व्यवस्था उभर कर आएगी। अन्याय क्या है, यह कौन बताएगा? अन्याय की समझ सबके भीतर अपने जीवन के कटु अनुभवों से आती है। खासतौर पर तब जब व्यक्ति उस बात की सजा पाता है जो अपराध उसने किया ही नहीं। मंदिर आन्दोलन भारतीय समाज में किस अन्याय के प्रतिकार का आन्दोलन था? आगे भी ऐसे आन्दोलनों की बात शुरू हो गई है। अगर इतिहास में हर व्यक्ति, हर नागरिक अपने प्रति किए गए अन्याय को चिह्नित करके अपने प्रति हुए अन्याय का बदला लेने की कार्रवाई शुरू कर दे तो?

भारतीय समाज में आदिवासी, दलित, महिलाएं ऐसे अन्यायों से जूझ रहे हैं। मंदिर आन्दोलन की तर्ज पर वे भी इतिहास में दर्ज अपने प्रति अन्याय और रोज़-ब-रोज़ होने वाले तमाम घृणित, क्रूर अन्यायों के प्रतिकार के लिए आन्दोलन शुरू कर दें तो?

20-25 सालों के लिए एक बड़े सामाजिक आन्दोलन के लिए दलित आन्दोलन को आगे आना होगा और तमाम आन्दोलन जो खुद को प्रगतिशील मानते हैं, और जाति-व्यवस्था से ऊपर उठकर बराबरी में यकीन करते हैं, इसमें सहभागी होना होगा। उन्हें अपनी साझेदारी व भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। मंदिर आन्दोलन ने छह हज़ार से ज़्यादा जातियों, उपजातियों में बंटे भारतीय समाज को एक मुद्दे पर संगठित कर लिया, जिसने आन्दोलन भी किया, हिंसक काम भी किए। एक मोची जाति का आदमी भी इस आन्दोलन में तलवार उठा कर खुद को क्षत्रिय समझने लगा। अब ये ही संभवत: “असामाजिक तत्त्व” घोषित हो गए, क्योंकि तथ्य यह है कि इनके अलावा वहां कारसेवक, संत, साधु लोग थे और नेता तो सबको नियंत्रित कर रहे थे, रोक रहे थे। ख़ैर इस बात पर अलग से चर्चा करने की ज़रूरत है कि कैसे “असामाजिक तत्व” दारू के अड्डे, अपराध के अड्डे छोड़ कर ऐसे पवित्र स्थल पर पहुंच गए!

चर्चा इस बात की है कि हाशिये पर पड़े लोगों को ऐतिहासिक अन्याय की चली आ रही परम्परा को ध्वस्त करने के लिए लम्बे सामाजिक आन्दोलन की ज़रूरत है। क़ानूनी न्याय किसी अपराधी को दी गयी सजा भर है (इसका प्रतिशत भी बहुत कम है), समाज की जड़ों में व्याप्त उस अपराध को ख़त्म करने की गारंटी नहीं। जो समाज अभी महाराणा प्रताप के महिमा गान में लीन है, उनकी अपने राज्य को बचाने की लड़ाई को स्वतंत्रता की लड़ाई के रूप में पेश करता है। उनके राज्य में दास, ग़ुलाम की स्थिति नहीं देख पाता। आज के समय में राजतंत्र में अपने वीरता के आधार ढूंढ़ता है। क्षत्रिय बौद्ध के मूल्य जीवनोपयोगी नहीं लगते। “ठाकुर का कुआं” अब अपनी करतूतों को छिपाने की जगह बन गया है, क्योंकि पानी तो वह अब आरओ का पीता है।

अब देखना होगा कि ठकुराइन अपनी बेटी को ठाकुरों से कैसे बचाती है? या फिर वह अब भी ठाकुर के कुकृत्यों पर पर्दा डालती रहेगी? फ़िल्म ‘प्रेमरोग’ का वह दृश्य याद करिए, जिसमें नायिका की मां रोते हुए अपने पति से कहती है कि “मैं ठाकुरों को श्राप देती हूं कि उनके घर कभी बेटी न पैदा हो”।

गांवों में अभी भी “जाति” है, “वर्ग” नहीं। जातियों का धर्म के नाम पर एकीकरण फिर जति/उपजाति के नाम विभेदीकरण, भारतीय समाज की इस “सुंदर व्यवस्था” को हमें ही समझना है। दलित जातियां हिंदू बने रहते हुए, दूसरे धर्म से नफ़रत करते हुए अपने इंसानी हक़ों के लिए कितना लड़ पाएंगी, कितना जीत पाएंगीं? वहीं सवर्ण महिलाएं दलित महिलाओं से दूर महिला आन्दोलन को कहां ले जाएंगीं? क्या अपने घर के मर्दों से मिली सुविधा के एवज़ में वे अपने मुंह बंद रखेंगी? हाथरस जैसी घटनाओं के बाद उन ठाकुरों के घर की मां, बहनों, बुआ, भाभी, मौसी, चाची, दादी, नानी की बाइट भी मीडिया सामने लाए। हाथरस के गांव (कमोबेश भारत के हर गांव) में “मध्यम वर्ग” का उदय नहीं हुआ है। न ही कोई नागरिक समूह वहां हैं, जिसमें पढ़े-लिखे लोग हों, बुद्धिजीवी, कलाकार, लेखक, समूह हो जो अन्याय के लिए तख्ती लेकर बैठे। कोई दबाव समूह नहीं दिखता जो प्रशासन और वर्चस्व वाली जातियों को कठघरे में खड़ा करे।

कमोबेश दुनिया के हर समाज में “बलात्कार संस्कृति” सामाजिक वर्चस्व की राजनीति का एक यंत्र है। हाशिये पर रह रहे लोगों द्वारा आधुनिक, वैज्ञानिक लोकतांत्रिक समय में अपने हक़ की आवाज़ उठाने पर पहले से उच्च, सशक्त, स्थापित और स्वीकृत जाति समूह उन्हें उनकी पारम्परिक स्थिति में ‘औक़ात’ बताने के लिए उनकी औरतों पर यौनिक हिंसा का सबसे सरल और कारागर रास्ता चुनता है। इसके बाद हाशिये पर पड़ा समूह लम्बे समय के लिए अपने दुख, पीड़ा, अपमान में बहुत कुछ खो देता है। उसमें से आत्मशक्ति और आत्मसम्मान सबसे पहले है। आर्थिक, सामाजिक रूप से कमजोर समूह लम्बी और मंहगी क़ानूनी लड़ाई पड़ोस में ही बसे वर्चस्व वाले दबंग जाति समूहों की धमकियों के बीच अंजाम तक नहीं पहुंचा पाते।

मीडिया या जागरूक नागरिक समाज के दबाव में कानून कुछ काम करता भी है तो भी गांव में कमजोर पड़े परिवार की आगे की ज़िंदगी दूभर हो जाती है। उन्हीं सामंती शक्तियों पर उनकी आर्थिक निर्भरता, सामाजिक सांस्कृतिक पूंजी का घोर अभाव हाशिये पर पड़े समूहों के जीवन को छीछालेदर कर देती है। सामाजिक विभेद और विभाजन की गहरी खाई उनके जीवन को किसी बेहतर भविष्य की ओर नहीं ले जा पाती। रोज़गार के पारम्परिक क्षेत्र ही उनके लिए बचते हैं। प्रशासन या सरकारी नौकरियों के उच्च या बेहतर पदों तक उनकी पहुंच असंभव ही होती है। बेहतर शिक्षा के अवसर उन तक पहुंचे ही नहीं।

हाल ही में हाथरस में जो घटना हुई, उसमें पीड़िता अनपढ़ थी। वह “रेप” जैसे प्रचलित शब्द का अर्थ भी नहीं समझ पा रही थी, जिससे वह पुलिस की बात समझ पाती। ग्रामीण समाज में इतना पर्दा, संकोच है कि औरतें अपने ऊपर हुए शारीरिक हिंसा को ही खुल कर नहीं बता पातीं। यौन हिंसा को क़ानूनी शब्दावली में बता पाना तो असम्भव ही है। बलात्कार की क़ानूनी परिभाषा को समझना और उसे बता पाना कितना मुश्किल है, वह भी किसी पुरुष के सामने!

गांव की अनपढ़ और नाबालिग़ लड़की के लिए अपने ऊपर आपबीती को बता पाना बेहद कठिन है। ये सामाजिक अन्याय सामाजिक संस्थाओं की उपज हैं। जिस समाज का गठन ही अतार्किक, अनैतिक, अमानवीय, अवैज्ञानिक तरीक़े पर हुआ है, वहां सुधार, नयी संस्थाओं का निर्माण कई पीढ़ियों का काम है। जबकि दिशा भटकने, स्वार्थ में फंसने के कई लालच सामने हों तो ये काम और भी कठिन हो जाता है।

हाथरस में बलात्कार की घटना और उसके राजनीतिक-सामाजिक पहलू को देखें तो क्या ये सवाल उठाए जा सकते हैं कि इस घटना और इससे पहले की कुछ और घटनाओं ने यह दिखाया है कि अनुसूचित जाति के भीतर उपजातियों में कितनी दूरी, कितनी एकता है? चमार को वाल्मीकि से, वाल्मीकि को मुसहर से मुसहर को पासवान से, पासवान को पासी से… (इस लम्बी शृंखला में) कितना सरोकार है? क्या दलित आन्दोलन ने अपने बड़े दायरे में मौजूद विभिन्न दलित जातियों की अस्मिता को सही व समुचित स्थान नहीं दिया? दलित कोई एक जाति नहीं, बल्कि ये देश भर में हज़ारों जातियों का एक समूह है जो कि सिर्फ एक “अनुसूचित जाति” की सूची में एक साथ सूचीबद्ध है। वास्तव में इनमें कोई एका नहीं हैं। ये आपस में भी दूरी पर ही हैं। दलित आन्दोलन के पुराने क़द्दावर नेताओं की कोई सार्थक, प्रभावी उपस्थिति या टिप्पणी कहीं नहीं दिखती। लगता है, अब उन्होंने अपनी धार खो दी है। उनकी राजनीतिक यात्रा अपनी परिणति को प्राप्त हो चुकी है।

अब नयी पीढ़ी के नौजवान नेतृत्व को आगे आकर बागडोर संभालनी होगी। सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन, राजनीतिक परिवर्तन से ज़्यादा कठिन है, लेकिन असली अन्याय की ज़मीन वहीं है। उसे तोड़ना होगा।

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बी. शारदा एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं.

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