गुरिंदर आज़ाद (Gurinder Azad)
एक बार कांशी राम साहेब कार में अपने सहयोगियों के साथ कहीं जा रहे थे. उनकी तबियत जरा नासाज़ थी. एक सहयोगी ने शायद साहेब को रिझाने के लिए कहा, ‘साहेब, कहिये, क्या चाहिए आपको? आप जो चाहोगे मैं वही पेश करूंगा आपके लिए.’ साहेब ने कहा, ‘क्या, सच में?’. ‘जी बिलकुल’, जोशीला जवाब आया. ‘तो मुझे कहीं से समय ला दो. मेरे पास समय नहीं है’, कांशी राम जी की आवाज़ अब के बहुत गहरी थी. इसके पश्चात् कोई कुछ नहीं बोल पाया. एक चुप्पी पसर गई. कार सड़क पर दौड़ती चली गई. कांशी राम जी किसी ख्याल में खो गए या शायद किसी फ़िक्र में डूब गए. उनकी आयु उस वक़्त लगभग 65 साल थी.
कांशी राम जी को समझना अगर मुश्किल नहीं तो आसान भी नहीं है. तसव्वुर कीजिये एक ऐसे इंसान का जिसने बाबा साहेब आंबेडकर के बारे में तब जाना जब वह 30 बरस के थे. विज्ञान में ग्रेजुएट होकर सरकारी पद पर आसीन थे. डी.आर.डी.ओ., जहाँ वो काम करते थे, वहां घटी एक घटना (जिसके बारे में सभी जानते ही हैं) और बाबा साहेब की एक किताब ने उनका जीवन बदल दिया. नौकरी-परिवार छोड़ वो समाज के हो लिए. हर वो काम किया जिससे बहुजन समाज मजबूत हो. सूखी रोटी पानी में डुबो कर खानी पड़ी हो, या भूखे रहना पड़ा हो. या फिर पचास साल की उम्र में साइकिल पर 4200 किलोमीटर का सफ़र केवल लोगों को जागृत करने के लिए करना पड़ा हो, वे सब कुछ करते गए, थमे नहीं. आज ब्राह्मण-साम्राज्यवाद में जहाँ इस मुल्क की तुलना पुष्यमित्र शुंग के काल से हो रही है, अपने दौर में कांशी राम जी अपने हाथ में नकेल रखकर ब्राह्मण-साम्राज्यवाद को चुनौती देते थे, और उसके पहरेदार भागते फिरते थे. बचने की जुगतें लगाते थे. लेकिन कांशी राम जी इस तरह के हीरो टाइप के भी नहीं थे. उनके ज़ेहन की परतों में फ़िक्र थी, दर्द था, आक्रोश था, बराबरी के सपने थे और उसका नखलिस्तान था.
आन्दोलन चलाने से पहले ही उनका निशाना तय था- सत्ता, और सत्ता के ज़रिये बराबरी के समाज की स्थापना. यहाँ तक कि उन्होंने इस उलझन भरे रास्ते को तय करने के लिए भी हिसाब-किताब लगा लिया था.
हालाँकि, पुणे में रहते ही उन्होंने समझ लिया था कि जितना कठिन ब्राह्मणवाद से लड़ना है उतना ही कठिन बहुजन समाज को बनाना है. उन्होंने सबसे बड़ी कमी जो बहुजन समाज में नज़र आई वह थी बहुजनों का एक दुसरे पर भरोसा न करना. इसीलिए उन्हें लगा कि अगर यह पैसे के पीछे एक दुसरे पर इतना संदेह कर सकते हैं तो यह ऊँगली मुझ पर भी उठ सकती है. इसलिए उन्होंने, कोई बेक अकाउंट नहीं रखने, शादी न करने, कोई घर-जायदाद न बनाने, अपने किसी रिश्तेदार को राजनीति में न लाने, कभी लौट कर अपने पुश्तैनी घर न जाने की सौगंध उठाई, और इन अहदों को मरते दम तक निभाया. यूँ उन्होंने भविष्य में उनके ऊपर ऊँगली उठने की सम्भावना को ही ख़त्म कर दिया.
लेकिन बहुजन समाज बनाने की शुरुआत कैसे हो? समाज जागरूक कैसे हो? न धन है और न ही लोग. उन्होंने कहा- मैं पढ़े-लिखे लोगों को तैयार करूंगा और उनके पैसे से हम गरीब बहुजनों तक पहुंचेंगे. 1973 में यूं अनऔपचारिक रूप से बामसेफ का गठन हुआ. पांच वर्ष में वह हर जगह गए. लोगों को मिशन से जोड़ा. जब आन्दोलन चलाने लायक लोग और धन इकठ्ठा हो गया तो 1978 में बामसेफ की औपचारिक घोषणा की. लेकिन तब तक कांग्रेस उनके पीछे लग चुकी थी. उनके गुंडे बामसेफ के कार्यकर्ताओं को काम नहीं करने देते थे. इसका जवाब उन्हें उसी भाषा में देने के लिए एक रेडिकल ग्रुप की ज़रुरत पड़ी. साथियों के साथ सलाह-मशवरा हुआ तो 6 दिसम्बर 1981 को डी.एस.4 का गठन हुआ. इस ग्रुप में कोई भी सरकारी कर्मचारी शामिल नहीं था बल्कि अधिकतर उनके रिश्तेदार थे.
कांशी राम जी एक स्वस्थ दिमाग वाले बहुजन के प्रतीक हैं. महाराष्ट्र से मायूस होने के बाद जब उन्होंने उत्तर प्रदेश को अपनी कर्मभूमि बनाया तब वह अपने समाज को जागृत करने के लिए तीन तस्वीरें लेकर जाते थे- एक बाबा साहेब की, दूसरी जोतिबा फुले की और तीसरी शाहू जी महाराज की. लोगों में चर्चा होती थी कि- कोई बाबू आया है महाराष्ट्र से, तीन बाबाओं को लेकर, और वह पेन के उदहारण से समाज का हाल बताता है.
वह हर जगह स्वीकृत हुए. उनके साथी कार्यकर्ताओं की हर एक प्रदेश में संख्या बढ़ती गई. अलग अलग बहुजन दृष्टिकोण से तैयार होने लगे. सभाएं होने लगीं. रैलियों में भीड़ें जुटने लगीं. एक मजदूर भी अपनी हुकूमत का ख्वाब देखने लगा. साहेब के एक इशारे पर मोर्चे लगने लगे. यह करना उतना ही कठिन था जितना आसान मेरे लिए ये सब लिखना है. उनके लगभग सभी काम/दांव-पेच एक दम नए थे. मंडल कमीशन को लागू करवाने के लिए उन्होंने वी.पी.सिंह को बाध्य किया. ये काम भी आसान नहीं था. बोट क्लब, दिल्ली में रोजाना मोर्चा लगता था और रोजाना ही पिछड़ी जातियों की गिनती के बराबर ही, यानि साढ़े तीन हज़ार से अधिक, गिरफ्तारियां दी जाती थीं. लेकिन यह गिरफ्तारियां पांच हज़ार से भी अधिक हो जाया करती थीं. समाज के पिछड़े वर्ग को जागरूक करने और आरक्षण के मूल की और आकर्षित करने के लिए साहेब ने नए फोर्मुले निकाले थे. वर्ना मोर्चा यूं भी लगना ही था.
चमचा टाइप सांसद या विधायक बनाने के विपरीत उन्होंने अपने तैयार किये हुए लोगों को जब उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़वाया तो उन्होंने कहा- आप इस टिकट से पार्लियामेंट में नहीं पहुँच पाएंगे. यह एक प्लेटफार्म टिकट है. (यानि पहली बार में आपकी ज़मानत भी जप्त हो जाएगी) अगली बार आप इस गाड़ी पर सवार होंगे और उसके बाद संसद में पहुंचेंगे. ठीक वैसा ही हुआ भी. 1993 बसपा की पहली सरकार बनी. यह सरकार भाजपा के साथ अलायन्स में बनी. छः महीने बसपा को राज करना था और छः महीने भाजपा को. भाजपा की बारी आई तो कांशी राम जी ने समर्थन वापिस ले लिया. उन्हें मौकापरस्त कहा गया. उन्होंने इसे यह कहते हुए स्वीकारा कि ‘जिस समाज को कभी मौका न मिला हो उसे मौकापरस्त होना ही चाहिए.’
लेकिन हकीक़त यह भी है कि इन छः महीनों में मायावती जी के मुख्यमंत्री रहते बसपा ने बहुत से काम किये जिससे भाजपा नाराज़ थी और अपनी बारी का इंतज़ार कर रही थी. कांशी राम साहेब ने इसी लिए समर्थन वापिस लिया था. इस बारे में अभी भी बहुजन समाज के कई लोगों में भ्रान्ति है कि साहेब ने भाजपा जैसी पार्टी के साथ गठबंधन क्यूँ किया. इसका जवाब उन्हें अटल बिहारी वाजपई के उस कथन में ढूंढना चाहिए जिसने कहा था कि बसपा के साथ गठबंधन हमारी सबसे बड़ी भूल थी.
साहेब का दिमाग जमा-घटाव करके फिर किसी फैसले पर पहुँचता था. पहले वह किंग-मेकर बनना चाहते थे, यानि समाज के लोगों को संसद में भेजना चाहते थे. लेकिन फिर सवाल खड़ा हो गया कि कांशी राम खुद तो चुनाव लड़ते नहीं हैं. यह एक तंज था. कांशी राम जी को भी लगा, उनका चुनाव लड़ना ज़रूरी है वर्ना कार्यकर्ताओं का होंसला बुलंद नहीं होगा. तो उन्होंने चुनाव लड़ने का फैसला किया. 1988 में वे अलाहाबाद से पहला लोक सभा का चुनाव लड़े और वी.पी.सिंह के हाथों हारे. बाद में होशियारपुर (पंजाब) और इटावा (उत्तर प्रदेश) से लोक सभा का चुनाव जीते.
उनके रहते कार्यकर्ताओं का होंसला बुलंद रहता था. बिजनौर के चुनावों के वक़्त कांशी राम जी के तैयार किये हुए पेंटर दो मिनट में दीवारों पर रातों-रात हाथी बना दिया करते थे. ये काम चुपचाप होता था. सुबह जब लोग उठे तो पूरे इलाके की दीवारें नीले रंग से हाथी के निशान से सराबोर!! अखबारों ने लिखा- कांशी राम ने भूत पाल रखे हैं जो रात को पिशाचों की तरह दीवारें रंग कर चले जाते हैं. ऐसा नहीं था कि उनमें प्रोफेशनल आर्टिस्ट काम करते थे. ऊंचे पदों पर काम करने वालों ने भी पेंटिंग सीखकर यह काम किया. कांशी राम जी ने मिशन के असली अर्थ लोगों तक पहुंचाए और उन्हें तैयार किया था.
कांशी राम जी बहुजन समाज के फिक्रमंद नेता थे. उनमें अन्य बहुजन नेताओं को लेकर कोई मुकाबलेबाज़ी का एहसास नहीं था. चंडीगढ़ में हुए बामसेफ अधिवेशन में उन्होंने राम विलास पासवान से लेकर कर्पूरी ठाकुर को बुलाया. उन्हें किसी की राजनीतिक ज़मीन हथियाने या मुकाबला करने में कोई रुचि नहीं थी बल्कि वह एक स्वतन्त्र बहुजन मंच बनाना चाहते थे. दूसरी बात, वे जिस भी राज्य में गए वहां उन्होंने ब्राह्मणवाद के खिलाफ लड़ने वाले आदर्श लोगों को पहले जाना और लोगों को उनकी सोच को दिमाग में बसाने, और उनके मिशन को आगे बढाने के लिए कहा. उन्होंने अलग-अलग राज्यों के नायकों/नायिकाओं को हर राज्य में लोगों की समझ का हिस्सा बनाने का काम किया.
इतिहास में यह पहली बार हुआ कि पंजाब में बसपा रैलियों की स्टेज के बेक-ड्राप में फुले, शाहू और आंबेडकर एक साथ नज़र आये. लोगों को इस बात के लिए जागरूक करना कि भारत के अन्य राज्यों में भी ब्राह्मणवाद के सताए लोग हैं जिनका उससे लड़ने का इतिहास रहा है, साहेब के इलावा कोई नहीं कर पाया. जहाँ उत्तर-भारत में वह बाबा साहेब को लेकर आये वहीँ उन्होंने उत्तर प्रदेश में ‘पेरियार मेला’ कारवाया. वहीँ पंजाब के बारे में उन्होंने कहा कि, पंजाब के बहुजनों का भला इस बात में है कि यहाँ सिखों की पंथक सरकार बने. उन्होंने संत जरनैल सिंह भिंडरांवाले से भी मुलाकातें की और उनके संघर्ष से सहमति जताई और कहा कि उनका संघर्ष भी ब्राह्मणवाद के खिलाफ है लेकिन उनमें कूवत है कि वह हथियार उठा सकें. मेरा समाज अभी इसके लिए तैयार नहीं है. मेरे समाज को तो दो वक़्त की रोटी भी नसीब नहीं होती.
कांशी राम जी के अनथक प्रयास्रों और संघर्षों के बरक्स बहुजन समाज में व्याप्त तंग-नज़र से वे परेशान होते रहते थे. बेशक बहुत से काबिल सहयोगी उनके साथ थे लेकिन फिर भी कांशी राम जी का मानना था कि पूरे समाज को पैरों पर खड़ा होना होगा. ऐसे में जब लोग आपस में ही उलझते थे तो कांशी राम जी कह देते थे, ‘मैं नालायक लोगों का लीडर हूँ’. कार्यकर्ताओं की टांग खींचने वाले अन्य कार्यकर्ताओं को वह इतनी बुरी तरह डांटते थे कि उनके आंसू रुकने का नाम नहीं लेते थे.
उनके भाषण तंज से भरे रहते थे. वह हंसकर कहते- साइकिल यात्रा पर हरियाणा से दिल्ली पहुँचने वाला केवल एक ही आदमी था, वह था- अमन कुमार नागरा. दरअसल हुआ यह था कि साइकिल कारवां में चलने वाले लोग चुपके से 5-10 किलोमीटर साइकिल चलाकर वापिस हो लिए थे. पंजाब में 9 सीटों पर जीते विधायकों पर तंज कसते हुए साहेब कहते थे कि ‘इन्होंने केवल तीन जातियों का बहुजन समाज बनाया है (9 विधायक तीन जातियों से ही थे) और अब ये चाहते हैं कि कांशी राम फिर से इन्हें टिकट दे दे.’ साहेब इंग्लैंड गए और वहाँ से दुखी हो कर लौटे और उन्होंने वहाँ के बहुजन लोगों पर तंज कसा- मुझे इंग्लैंड आकर लगा, जैसे कि मैं जालंधर के किसी चमारों के झुंड में आ बैठा हूँ.
कांशी राम दरअसल 1947 के बाद के भारत के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य के आईना थे. उन्हें समझने के लिए उन्हें इस रूप में देखने कि ज़रुरत है कि वह कैसे, कभी भी पीछे नहीं मुड़ते थे, न ही रुकते थे. 1986 में बामसेफ टूटी तो वहाँ से पैसे आने बंद हो गए. ये बड़ा घाटा था. साहेब ने अपने भाषण को ‘बेचना’ शुरू कर दिया. उन्होंने कहा, ‘मुझे भाषण के लिए बुलाना है तो मेरे वजन के मुताबिक़ धन देना होगा.’ उन्हें सिक्कों से तोला गया. बारह हज़ार मूल्य बना. यानि एक भाषण बारह हज़ार रुपये का. उन्होंने भाषणों से पैसा इकठ्ठा करके चुनावों पर खर्च किया.
पुणे से शुरू हुआ संघर्ष कभी रुका नहीं, बल्कि फैलता गया. जैसा कि साहेब कहते थे- बहुजनवाद के कीटाणु गिराते जाओ, पता नहीं किसे क्रांति की बिमारी लग जाए.’ वही हुआ भी.
दूसरी बात जो समझने की है, वह है, कांशी राम का ब्राह्मणवादी सरकारों को जवाब देने के लिए बाध्य करना. इस बिंदु को समझना ज़रूरी है. सरकारें जवाब देने से हमेशा बचती हैं. वह कभी कमंडल की राजनीति करती है कभी दंगों की राजनीति लेकिन लोग-कटघरे में आने से बचती हैं. साहेब ने उन्हें सीधे जवाब देने के लिए मजबूर किया. कांग्रेस उनसे समझौता करने के लिए लालायित रही जबकि वह मंचों पर उसे सांपनाथ, भाजपा को नागनाथ और वामपंथियों को हरे घास पर हरा सांप कहते रहे. उन्होंने जनता दल को भी घोड़े की पिछाड़ी कहा कि कब लात मार दे, कहा नहीं जा सकता.
हिन्दू-मुस्लिम बाइनरी पर वह साफ़-नज़र थे. उन्होंने कहा कि सवर्ण हिन्दुओं की तरह ही सवर्ण मुस्लिम हैं, जो कि पसमांदा मुस्लिम के साथ भेदभाव करते हैं. साहेब ने जब देखा कि सवर्ण मुस्लिम बसपा को हारने के लिए सवर्ण पार्टियों का साथ दे रहे हैं तो उन्होंने कहा- आगे से मैं पसमांदा मुस्लिम समाज के लोगों को ही तैयार करूंगा.
आजकल जहाँ बहुजन समाज के आन्दोलन को जानने वाले लोग ही जोश और रोमानियत में मौजूदा माहौल से आहत या उद्ध्वेलित होकर बाबा साहेब के नाम पर अपना अलग संगठन बना लेते हैं और दस-बीस लोग आपस में पदों का बंटवारा कर लेते हैं, उन्हें कांशी राम जी के आन्दोलन से सीखने की ज़रुरत है. भले ही उनकी नियत ठीक होती है लेकिन यह रास्ता सही नहीं होता. कोई भी संगठन बनाने से पहले ज़मीन पर काम करके लोगों में विश्वास पैदा करने की ज़रुरत होती है, उसे जीतने की ज़रुरत होती है. यह काम कठिन होता है लेकिन इसका कोई विकल्प नहीं है. जोतिबा फुले ने भी 1873 में सत्यशोधक समाज बनाने से पहले 25 साल तक बहुत से कार्यों को अंजाम देकर समाज में अपनी पहचान बनाई थी. बाबा साहेब ने भी 15 अगस्त 1936 को इंडियन लेबर पार्टी बनाने से पहले कई मोर्चों पर काम किया था. कांशी राम साहेब ने भी बहुजन समाज पार्टी का निर्माण, लोगों के बीच काम करने हेतु मंच बनाकर और जोखिम उठाकर काम करने के बाद किया था. इस काम को 19 साल लगे. जबकि कथित आज़ाद भारत में यह काम बहुत कठिन था.
उन्होंने बहुजन स्वायत्ता के पुराने बहुजनी संकल्प में जान डाली. बहुजन इतिहास ने कांशी राम जी के दौर में इसका चरम देखा है. उनके साथ काम करने वाले कहते हैं कि, पंजाब, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार में बसपा की सरकारों का बनना तय था, जिसका सीधा प्रभाव बाकि राज्यों पर पड़ता.
लोग उनसे खुद को जोड़कर देखने लगे थे. उनके नारों ने लोगों पर जादू कर दिया था. बहुजन स्वायत्ता के उनके संकल्प को उनके नारों से भी समझा जा सकता है जो कि दूसरी पार्टियों के कभी नहीं हो सकते थे. ‘जिसकी जितनी संख्या भारी उतनी उसकी हिस्सेदारी’ जैसे अनेकों नारे हैं जिनके बराबर के नारे ब्राह्मणवादी पार्टियों के नहीं हो सकते. ‘गरीबी हटाओ’ नारा जबकि कोई भी लगा सकता है.
साहेब अपनी वेशभूषा को लेकर बेपरवाह रहते थे. दो जोड़ी कपड़ों में वो लोगों के बीच जाते, देश घुमते. कई बार उनके मैले कपड़े देखकर कोई उनके कपड़े धो देता. लेकिन जबतक वह कपड़े सूखते, साहेब दूसरी जोड़ी पहन कर आगे बढ़ चुके होते. लोग उन्हें ढूँढते, जैसे-तैसे कपड़े पहुंचाते. वे जापान गए और वहां के प्रबंधकों ने उनके फटे जूते देखकर उन्हें जूते पेश किये, जो उन्हें फिट नहीं आये. दुकाने छान मारीं लेकिन उनके पैर के नंबर का जूता नहीं मिला. प्रबंधकों ने खासतौर पर जूते बनवाकर भेंट करने के लिए समय माँगा और वे मुस्कुराते हुए उन्हें शुक्रिया कहकर लौट आये. वे सेहत को लेकर भी लापरवाह थे. मधुमेह के रोग ने उन्हें घेरा हुआ था और वे मिठाई खाकर उसे धत्ता बताते.
साहेब के बहुत से आयाम हैं. उन्हें किस किस रूप में याद किया जाए? यकीनन उन्हें उनके समूचेपन के साथ याद करना होगा. उनके दृष्टिकोण में इतिहास का जो बोध था और वर्तमान को झकझोरने की कला थी, उससे अपने दिमाग को खुरचना होगा. हो सकता है हमें बहुत कुछ छोड़ना (de-learn) करना पड़े. हम आज उन्हें बाबा साहेब का विस्तार कहते हैं न कि बाबा साहेब द्वारा डाली हुई लकीर पर चलने वाला. इस फर्क को भी समझना होगा. हम अपने महापुरुषों को भले ही न गंवाते रहे हों लेकिन उनके मुकम्मलपन को भी हमने कभी अधिक तवज्जो नहीं दी है. हम उनके अहसासों की गहराई तक पहुँचते की ‘पीड़ा’ नहीं उठाते. यह एक कड़वा सच है. शायद चुभे भी. जब हम कांशी राम जी या उनके जैसे महानायकों को उनके समूचेपन से नहीं समझते तो वहां कहीं न कहीं बची-खुची जगह रह जाती है. शायद ब्राह्मणवाद का वायरस उसी जगह पर बैठा होता है, हमारी निर्णायक लड़ाई वाली सोच को अपने नेरेटिव (narrative- आख्यान) से कुंद करने के लिए.
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गुरिंदर आज़ाद, राउंड टेबल इंडिया (हिंदी) के एडिटर हैं.
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मान्य. कांशीराम साब को समझने के लिए, उनके त्याग और उनकी मेहनत को समझना पड़ेगा..!!
यही उस महापुरुष के लिए सच्चा अभिवादन होगा..!!
बहुत जरूरी लेख. शुक्रिया.
शुक्रिया अरविन्द शेष जी.
समाज सुधारक कांशी राम साहब ने जो अन्य राज्य में भी “बहुजन समाज ” के प्रति जो क्रांति लाई…वो सच मे अविस्मरणीय रहेगी । बोहोत कठिनाईया आनेपर भी वे रुके नही..वे अपने लोगोके हक केलिए आखरी सांस तक लढते रहे..
सच मे इंसान को inspiration मिले inner revolution हो ऐसा “मंजिल-ए-मकसूद”..कांशी राम की यात्रा के साथ साहब जी आपने भी याद कारक बना दिया।।
शुक्रिया 💐💐
शुक्रिया प्रतीक्षा जी, बेशक कांशी राम जी ने लगभग बे-रास्ता हो चुके बहुजनों में क्रांति ला दी, और यह कार्य बेहद कठिन था.
बहुत उमदा सर मा. कांशीराम साहब का जीवन आपने इस लेख मे बता दिया है
धन्यवाद् आकाश जी.