लेनिन मौदूदी (Lenin Maududi)
आप को लगता होगा कि मुस्लिम समाज मे लोग तक़लीद (अंधभक्ति) सिर्फ अपने मसलक (रास्ता) के उलेमा की करते हैं. अगर आप उनके मसलक के उलेमाओं के जातिवादी सोच के बारे में कुछ बोलेंगे तो वह आप के पीछे डंडे ले कर पड़ जाएंगे. पर मेरा अपना अनुभव है कि देवबंदी, बरेलवी, अहले-हदीस आदि मसलक के उलेमाओं के जातिवादी सोच के ख़िलाफ़ लिखने पर मुझे उतना विरोध झेलना नहीं पड़ा जितना कि सर सैयद की जातिवादी सोच के ख़िलाफ़ लिखने पर झेलना पड़ा है. अलीगढ़ के पढ़े-लिखे छात्र किसी भी तर्क को सुनने को तैयार नही होते. वह हर विरोधी स्वर को शांत करने के लिए 3 काम करते नज़र आए. सबसे पहले बोलेंगे कि ये सारी बातें झूठ है. जब आप reference (हवाला) दे देंगे तो reference को गलत साबित करेंगे. फिर वह मुस्लिम एकता, अल्लाह-रसूल के नाम पर आपको रोकना चाहेंगे. अगर आप नहीं मानते हैं तो फिर यह अलीगढ़ विश्वविद्यालय के पढ़ें-लिखे लोग आप का चरित्रहनन करने की कोशिश शुरू करेंगे, और आप पर भाजपा का एजेंट, यहूदी की साजिश के साझीदार होने आदि जैसे आरोप लगाएंगे. कई बार आप को माँ-बहन की गालियाँ भी सुनने को मिलेंगी. अगर अब भी नहीं रुके तो आप को डराया-धमकाया जाएगा. FIR तक करा देने की धमकी दी जाएगी. लेकिन ये लोग कभी भी कोई संजीदा जवाब देते नज़र नही आते. मैंने तो यहां तक कहा था कि आप के पास इरफानहबीब जैसा इतिहासकार है. आप उनसे ही सर सैयद के ऊपर लगे सारे आरोप का खण्डन करवा दें. उनकी scholarship को देखते हुए विरोध बन्द हो जाएगा. पर ऐसा नहीं होता.
आप अलीगढ़ के किसी पसमांदा छात्र से भी तर्क करने की कोशिश करेंगे तो वह वही तर्क और तथ्य आप के सामने रखेगा जो दशकों से अशराफ बुद्धिजीवी रखते आ रहे हैं. उनके सारे तर्क एक अशराफ़ (सवर्ण) मुस्लिम द्वारा गढ़े गए तर्क होते हैं जो संदर्भ से कटे तथा भ्रामक होते हैं. स्टीव बाइको ने कहा सच ही कहा था कि, “शोषकों के हाथ में सब से कारगर हथियार शोषितों का दिमाग होता है.” (The most potent weapon in the hands of the oppressor is the mind of the oppressed) पसमांदा मुसलमानों के दिमाग़ को इसी तरह से क़ाबू में कर लिया गया है कि वह अपने शोषक से ही मोहब्बत करने लगे हैं. यह बस यूँ ही नहीं हुआ बल्कि इसे बड़े ही सुनियोजित तरीक़े से अंजाम दिया गया है. सर सैयद के मामले में यह काम ‘अलीगढ़ ओल्ड बॉयज़ एसोसिएशन’ के अशराफ़ लड़कों ने किया. सर सैयद की महानता को स्थापित करने मे ‘सर सैयद डे’ को एक टूल की तरह इस्तेमाल किया गया. इसमें शक नहीं कि भारत में मुसलमानों की पहली पढ़ी-लिखी पीढ़ी इन्हीं अशराफ़ लड़कों की रही है. यह जहां भी गए वहां सर सैयद की महात्मा वाली छवि बनाई.
सर सैयद के आस-पास एक आभा मंडल गढ़ा गया. झूठे-सच्चे क़िस्से गढ़े गए और उनके पक्ष में, उनकी महानता बताते हुए किताबें लिखी गईं. उन की शान में गाने-कविताएं-ग़ज़लें लिखी गईं, (मौजूदा दौर में) सोशल मिडिया पर पेज बनाए गए उनकी डीपी (डिस्प्ले प्रोफाइल) लगाई गई. अक़ीदत की एक पूरी संस्कृति विकसित की गई ताकि हर विरोधी स्वर को दबा दिया जाए और सर सैयद का कोई भी विरोध ईशनिंदा ही समझा जाए. सिर्फ़ सर सैयद ही नहीं बल्कि किसी भी व्यक्ति को महत्मा बनाने का यही तरीक़ा होता है. लगभग हर धर्म, सम्प्रदाय, तथा विचारधारा अपने-अपने महात्माओं को गढ़ती है जिस से वह अपनी विचारधारा को एक मूर्त रूप दे सकें. ईसा (अ.स.), मोहमद (स.अ.व.), मार्क्स, लेनिन, माओ, सावरकर, गोडसे, मनु या सर सैयद अपनी विचारधारा के ही मूर्त रूप हैं. महात्मा बनाने के क्रम में यह भी ज़रूरी होता है कि अपने विरोधी विचारधारा के महात्माओं की कमियां बताई जाएं. ‘गाँधी’ का महात्मा बनना कांग्रेस के सत्ता में रहने के कारण सम्भव हुआ. आज जिस विचारधारा की सत्ता है वह अपने ‘महात्मा’ बना रहे हैं. गाँधी और नेहरू आज वैसे महात्मा नहीं रहे जैसे कांग्रेस के वक़्त में थे क्योंकि महात्मा बनाने वाला तंत्र अभी इन की विचारधारा के मानने वालों के पास नहीं है. यही वजह है कि जो वर्ग सत्ता के केंद्र (राजनितिक, सामाजिक-सांस्कृतिक अथवा आर्थिक सत्ता) में होता है उस के महत्मा की आलोचना करना उतना ही मुश्किल होता है, वजह यह कि उसके महात्मा के लिए गढ़े गए झूठे तर्क-तथ्य एवं कहानियां लोगों के विश्वास-तंत्र का हिस्सा बन जाती हैं, यह विश्वास-तंत्र ही उन को अंधभक्त बना देता है.
सर सैयद को लेकर कई झूठ गढ़े गए हैं. जैसे- सर सैयद की वजह से मुसलामनों में आधुनिक शिक्षा आई. सब से पहले उन्होंने अंग्रेजी भाषा पढ़ाने की बात की. अंग्रेज़ी पढ़ाने की वजह से उन पर कुफ़्र का फ़तवा आया. यह सच है कि हम को आज तक यही पढ़ाया गया है कि सर सैयद ने मुसलामनों के अंदर आधुनिक शिक्षा का प्रसार किया जिस की वजह से मुसलमान सरकारी नौकरी में आ सके, पर यह पूरा सच्चा नहीं है. सर सैयद की नज़र में ‘क़ौम’ की जो संकल्पना या धारणा थी उस में पसमांदा (पिछड़े) मुसलमान शामिल नहीं थे और न ही वह आधुनिक शिक्षा का लाभ पसमांदा समाज को देना चाहते थे. और यह कहानी भी पूरी तरह सच नहीं है कि सर सैयद वह पहले इंसान हैं जिन की वजह से मुस्लिम (वास्तव में संभ्रांत वर्ग) के बीच अंग्रेज़ी भाषा फैली है.
पाकिस्तानी इतिहासकार मुबारक अली अपनी किताब अलमिया-ए-तारीख़ में लिखते हैं कि, “सर सैयद ने समझौते, तआवुन और वफ़ादारी की जो तालीम दी उस के ज़रिये वह मुसलमानों के एक ख़ास तबक़े को फ़ायदा पहुँचाना चाहते थे और यह तबक़ा उमरा और सामन्तों का था. जब वह लफ़्ज़ ‘मुसलमान’ का इस्तेमाल करते हैं तो उन का तात्पर्य मुसलमानों के इसी विशेष वर्ग से है, सभी मुसलमानों के लिए नहीं क्योंकि अंग्रेज़ों के शासन के स्थायित्व तथा 1857 की घटना ने मुस्लिम जागीरदार और ज़मींदार तबक़े को बुरी तरह प्रभावित किया था. सर सैयद ने इस संभ्रांत वर्ग का प्रतिनिधित्व किया और उन के नेतृत्व में इस तबक़े का झुंड का झुंड शामिल होता चला गया. जहां तक देश की हिंदुस्तानी जनता (यहां अर्थ भारत के मूलनिवासी मुसलमान यानि पसमांदा से है) का समबन्ध था तो वह शोषक वर्ग के हमेशा शिकार रहे थे. इस लिए देश का शासन परिवर्तन उन के लिए बहुत महत्वपूर्ण बात नहीं थी. सर सैयद का संबंध मुग़ल उमरा के ख़ानदान से था और उन्होंने जिस घराने और जिस माहौल में तालीम-ओ-तरबियत पाई वह भी (अशराफ़) संभ्रांत वर्ग तक सीमित था. इसी वजह से उन की सोच, उन का नज़रिया, उन की मानसिकता इसी (अशराफ़) संभ्रांत वर्ग की मानसिकता की अक्कासी होती है. सर सैयद एक विशेष (अशराफ़) सामंती मानसिकता रखते थे और उस से हट कर न तो वह सोच सकते थे और न ही देख सकते थे. (अलमिया-ए-तारीख़ ,पेज नंबर 151)” सर सैयद को उम्मीद थी कि वह अंग्रेज़ी शिक्षा के ज़रिए एक ऐसी नस्ल तैयार कर सकते हैं जो अंग्रेज़ी हुकूमत की बेहतर नागरिक बन सके. सर ऑकलैंड ने सर सैयद की कोशिशों की प्रशंसा करते हुए कहा कि अलीगढ़ के विद्यार्थी भारत के उस वर्ग का नमूना हैं जो अंग्रेज़ों की ख़्वाहिशों की बख़ूबी दाद देने के वास्ते कोशिश करता है (हयात-ए-जावेद, पेज नम्बर 456) सर सैयद को हर जगह वैज्ञानिक सोच का हामी बताया जाता है जब कि हक़ीक़त यह है कि सर सैयद ख़ुद विज्ञान की पढ़ाई के पक्ष में नहीं थे. मुबारक़ अली अपनी किताब ‘अलमिया-ए-तारीख़’ में आगे लिखते हैं कि, “शिक्षा के सम्बन्ध में सर सैयद सिर्फ उसी शिक्षा के समर्थक थे जिससे (अशराफ़) छात्र उच्च सरकारी पदों को प्राप्त कर सकें. उन की नज़र में शिक्षा का इस से ज़्यादा कोई मक़सद नहीं था. इसलिए उन्होंने विज्ञान की पढ़ाई का विरोध किया क्योंकि इस से उच्च (सामंती) व्यवहार और नज़ाकत पैदा होती. (मक़ालात-ए-सर सैयद, भाग दो, पेज नम्बर 6)
सर सैयद खुल कर अपनी सामंती सोच का इज़हार करते हैं. 28 सितम्बर, 1887 में लखनऊ के अन्दर ‘मोहम्मडन एजुकेशनल कॉन्फ्रेंस’ की दूसरी सभा में उन्होंने कहा-
“जो निचली जाति के लोग हैं वो देश या सरकार के लिए लाभदायक नहीं हैं. जब कि ऊंचे परिवार के लोग रईसों का सम्मान करते हैं, साथ ही साथ अंग्रेज़ी समाज का सम्मान तथा अंग्रेज़ी सरकार के न्याय की छाप लोगों के दिलों पर जमाते हैं. इसलिए वह देश और सरकार के लिए लाभदायक हैं. क्या तुमने देखा नहीं कि ग़दर (विद्रोह) में कैसी परिस्थितियां थीं? बहुत कठिन समय था. उन की सेना बिगड़ गयी थी. कुछ बदमाश साथ हो गए थे और अंग्रेज़ भ्रम में थे. उन्होंने समझ लिया था कि जनता विद्रोही है…ऐ भाइयों! मेरे जिगर के टुकड़ों! यह हाल सरकार का और तुम्हारा है, तुम को सीधे ढंग से रहना चाहिए न कि इस प्रकार के कोलाहल से जैसे कौवे एकत्र हो गए हों! ऐ भाइयों! मैंने सरकार को ऐसे कड़े शब्दों में आरोप लगाया है किन्तु कभी समय आयेगा कि हमारे भाई पठान, सादात, हाशमी और क़ुरैशी जिन के रक्त में इब्राहीम अ. (अब्राहम) के रक्त की गंध आती है वह कभी न कभी चमकीली वर्दियां पहने हुए, कर्नल और मेजर बने हुए सेना में होंगे किन्तु उस समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए. सरकार अवश्य संज्ञान लेगी (लेकिन) शर्त यह है कि तुम उस को संदेह मत होने दो… न्याय करो कि अंग्रेजों को शासन करते हुए कितने दिन हुए हैं? ग़दर के कितने दिन हुए? और वो दुःख जो अंग्रेज़ों को पहुंचा, यद्यपि गंवारों से था, अमीरों से न था. इस को बतलाइए कि कितने दिन हुए? मैं सत्य कहता हूं कि जो कार्य तुम को ऊंचे स्तर पर पहुंचाने वाला है, वह ऊंची शिक्षा है. जब तक हमारे समाज में ऐसे लोग जन्म न लेंगे तब तक हमारा अनादर होता रहेगा. हम दूसरों से पिछड़े रहेंगे और उस सम्मान को नहीं पहुंचेंगे जहां हमारा दिल पहुंचना चाहता है. यह कुछ कड़वी नसीहतें हैं जो मैंने तुम को की हैं. मुझे इस की चिंता नहीं कि कोई मुझे पागल कहे या कुछ और!”
इस तरह हम देखते हैं कि सर सैयद अपने जातिय वर्गीय हितों के लिए काम कर रहे थे.
इस सवाल का जवाब देते हुए इतिहासकार मुबारक़ अली अपनी किताब ‘अलमिया-ए-तारीख़’ में लिखते हैं कि, “सर सैयद से बहुत पहले ही मुस्लिम (अशराफ़) वर्ग में अंग्रेज़ी शिक्षा ग्रहण करने वाला वर्ग पैदा हो चुका था और मुस्लिम छात्र सरकार (अंग्रेज़ों) द्वारा बनाए गए स्कूलों में अंग्रेज़ी शिक्षा हासिल कर रहे थे. इस लिए सर सैयद द्वारा बनाया गया मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज अपने शुरुआती दिनों में मुसलामनों (अशराफ़) की शिक्षा पर कोई ख़ास प्रभाव नहीं डाल सका. उदाहरण के लिए 1882 से 1902 तक एम. ए. ओ. कॉलेज से 220 मुसलमान स्नातक निकले वहीं इलाहाबाद विश्वविद्यालय से इसी दौरान 420 मुसलमान स्नातक निकले. इस लिए यह कहना कि सर सैयद का विरोध उन के अंग्रेज़ी पढ़ाने की वजह से हुआ, सरासर झूठ है. बल्कि यह विरोध तो उनके धार्मिक नज़रिये की वजह से था. मुस्लिम सामंत और संभ्रांत वर्ग अंग्रेज़ी शिक्षा हासिल कर ही रहा था और कम्पनी के शुरुआती दौर से ही मुसलमान उलेमा तक अंग्रेज़ी नौकरियों में आ चुके थे.” (अलमिया-ए-तारीख़ पेज नम्बर 147)” {Paul R. Brass, Languge Religion and Politics in North India, Cambridge 1974, Page no. 165-166} मुबारक़ अली आगे लिखते हैं कि उस वक़्त मुसलामनों के शैक्षणिक पिछड़ेपन का नज़रिया William W. Hunter की किताब “The Indian Muslims” ने दिया था. इस किताब में सिर्फ़ बंगाल के मुसलमानों के पिछड़ेपन और अशिक्षा का ज़िक्र है लेकिन बाद में इस को उत्तर प्रदेश के मुसलामनों पर भी लागू कर दिया गया. जबकि उत्तर प्रदेश के मुसलमान पूरे हिन्दुस्तान में सब से ज़्यादा शिक्षित और सामाजिक तौर पर ख़ुशहाल थे. शिक्षा के क्षेत्र में तो यह हिन्दुओं से भी आगे थे और यही हाल सरकारी नौकरियों में भी था. उस में भी मुसलमानों की संख्या हिन्दुओं से अधिक थी. एस. एम. जैन के हुकूमत के रिकॉर्डों ने यह साबित कर दिया है कि 1871 से 1884 तक मुसलामनों ने हिन्दुओं से अधिक शिक्षा का लाभ उठाया और इन की संख्या प्राइवेट सेकेंडरी में भी अधिक थी. (अलमिया-ए-तारीख़, पेज नम्बर 146)” {S.M. Jain , The Aligrah Movement: Its Origin and Development 1858-1906}
मुबारक़ अली ‘अलमिया-ए-तारीख़’ में आगे लिखते हैं कि सर सैयद का अंग्रेज़ी भाषा और पश्चिमी शिक्षा देने का मक़सद यही था कि सामंती (अशराफ़) वर्ग इस के ज़रिये सरकारी उच्च पदों को हासिल कर सके और अपना रुतबा और शक्ति बढ़ सके. सर सैयद और उन के लड़के सैयद महमूद ने शिक्षा का जो ढांचा बनाया उसे चार भागों में बांटा जा सकता है :-
1- (अशराफ़) उमरा एवं सामंतों के लड़कों के लिए ऑक्स्फ़ोर्ड और कैम्ब्रिज के तर्ज़ पर कॉलेज बनाया जाए, जहां वह पश्चिमी शिक्षा हासिल कर सकें.
2 – हर शहर और क़स्बे में मदारिस खोले जाएं जहां कॉलेज के लिए छात्रों को तैयार किया जा सके. [यहाँ यह ज्ञात रहे कि 1894 में सर सैयद और मोहसिन-उल-मुल्क ने ‘मुस्लिस एजुकेशनल कॉन्फ्रेंस’ में यह प्रस्ताव पास किया कि छोटे स्कूल न खोले जाएं क्योंकि अगर जगह-जगह छोटे स्कूल खोले गए तो अलीगढ़ (मदरसतुल उलूम) को चंदा नहीं मिल पाएगा क्योंकि लोग अपने इलाक़े के स्कूलों को ही पैसा देंगे. बक़ौल मौलवी तुफ़ैल अहमद मंगलौरी के, इस से मुसलामनों में जगह-जगह स्कूल खोलने का जो जज़्बा पैदा हुआ था वह ख़त्म हो गया.]
3 – हर गांव में मकतब खोले जाएं और उस में धार्मिक शिक्षा दी जाए. साथ ही थोड़ी बहुत फ़ारसी और अंग्रेज़ी भी पढ़ाई जाए.
4 – क़ुरआन को हिफ़्ज़ करने के लिए मक़तब खोले जाएं (मौलवी तुफ़ैल अहमद मंगलौरी, मुसलमानों का रौशन मुस्तक़बिल, 4th एडिशन, दिल्ली-1947, पेज नम्बर 203)
मुबारक़ अली लिखते हैं कि सर सैयद की शिक्षा की यह पूरी स्कीम वर्गों पर आधारित थी. उच्च पश्चिमी शिक्षा को सर सैयद सिर्फ़ अशराफ़ लड़कों के लिए ही ज़रूरी समझते थे. जब कि (पसमांदा) जनता को सिर्फ धार्मिक शिक्षा में उलझाए रखना चाहते थे. (‘अलमिया-ए-तारीख़’ ,पेज 156) अपनी इस सोच का प्रदर्शन वह बार-बार खुल कर करते हैं. ऐसा ही एक मौक़ा उस वक़्त आया जब बरेली के ‘मदरसा अंजुमन-ए-इस्लामिया’ के भवन की नींव रखने के लिए सर सय्यद साहब को बुलाया गया था जहां मुसलामानों की ‘नीच’ कही जाने वाली जाति के बच्चे पढ़ते थे. इस अवसर पर जो पता उन को दिया गया था उस पते पर उत्तर देते हुए उन्होंने कहा था कि-
“आप ने अपने एड्रेस में कहा है कि हमें दूसरी क़ौमों (समुदाय) के ज्ञान एवं शिक्षा को पढ़ाने में कोई झिझक नहीं है. संभवतः इस वाक्य से अंग्रेज़ी पढ़ने की ओर संकेत अपेक्षित है. किन्तु मैं कहता हूँ ऐसे मदरसे में जैसा कि आप का है, अंग्रेज़ी पढ़ाने का विचार एक बहुत बड़ी ग़लती है. इस में कुछ संदेह नहीं कि हमारे समुदाय में अंग्रेज़ी भाषा एवं अंग्रेज़ी शिक्षा की नितांत आवश्यकता है. हमारे समुदाय के सरदारों एवं ‘शरीफ़ों’ का कर्तव्य है कि अपने बच्चों को अंग्रेज़ी ज्ञान की ऊंची शिक्षा दिलवाएं. कोई व्यक्ति ऐसा नहीं होगा जो मुझ से अधिक मुसलमानों में अंग्रेज़ी शिक्षा तथा ज्ञान को बढ़ावा देने का इच्छुक एवं समर्थक हो परन्तु प्रत्येक कार्य के लिए समय एवं परिस्थितियों को देखना भी आवश्यक है. उस समय मैंने देखा कि आप की मस्जिद के प्रांगण में, जिस के निकट आप मदरसा बनाना चाहते हैं, 75 बच्चे पढ़ रहे हैं. जिस वर्ग एवं जिस स्तर के यह बच्चे हैं उनको अंग्रेज़ी पढ़ाने से कोई लाभ नहीं होने वाला. उनको उसी प्राचीन शिक्षा प्रणाली में ही व्यस्त रखना उन के और देश के हित में अधिक लाभकारी है.”
[सर सय्यद अहमद ख़ान : व्याख्यान एवं भाषणों का संग्रह, संकलन : मुंशी सिराजुद्दीन, प्रकाशन : सिढौर-1892, ससंदर्भ अतीक़ सिद्दीक़ी : सर सय्यद अहमद खां एक सियासी मुताला, अध्याय : 8, तालीमी तहरीक और उस की मुखालिफ़त, शीर्षक : ग़ुरबा को अंग्रेज़ी तालीम देने का ख़याल बड़ी ग़लती है, पृष्ठ : 144]
प्रोफ़ेसर मौलाना मसऊद आलम फ़लाही अपनी किताब ‘हिंदुस्तान में ज़ात-पात और मुसलमान’ में लिखते हैं कि श्री अशफ़ाक़ हुसैन अंसारी पूर्व सांसद (सातवीं), पूर्व सदस्य राजकीय पिछड़ा वर्ग आयोग (पहला) का दैनिक राष्ट्रीय सहारा उर्दू, नयी दिल्ली 19 दिसम्बर 2001 के अंक में एक लेख ‘आंकल के मैदान में दोज़ख़ी के खाने से’ प्रकाशित हुआ था. उस में उन्होंने कहा था कि कांग्रेस की लीडरशिप में किसी स्तर पर पसमांदा मुसलमान दिखाई नहीं देते. प्रत्येक स्थान पर सवर्ण मुसलमानों का प्रभुत्व है. उन के इस लेख पर प्रसिद्ध बुद्धिजीवी, राजनीतिज्ञ, पूर्व सांसद, पूर्व प्रोफ़ेसर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी श्री डॉ. सैयद मोहम्मद हाशिम क़िदवई ने एक आलोचनात्मक पत्र 30 दिसम्बर 2001 के अंक में लिखा. इस में उन्होंने मुसलमानों के अंतर्गत पायी जाने वाली ऊंच-नींच की अवधारणा को इस्लामी दृष्टिकोण से अनुचित बताया और इस को समाप्त करने पर ज़ोर दिया. उन्होंने लिखा कि मुसलमानों को परस्पर एकता की अत्यंत आवश्यकता है परन्तु ’दुर्भाग्य से इस लेख से मुसलमानों के आपसी मतभेद दूर नहीं हुए.’ ( रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा (उर्दू), नई दिल्ली, 30 दिसम्बर 2001, कॉलम : मुरासिलात (चिट्ठियां), पृष्ठ : 3)
वह अपने पत्र को समाप्त करते हुए लिखते हैं-
“दुर्भाग्यवश, सवर्ण बनाम अवर्ण का फ़ितना (अचानक होनेवाला उपद्रव) गत शताब्दी से प्रारंभ हुआ और अफ़सोस कि सर सय्यद अहमद खां साहब ने भी इस को रोकने के लिए कुछ नहीं किया बल्कि अपने मैदान में उन्होंने इस के विरुद्ध हथियार डाल दिए. उन्होंने अंग्रेज़ी और पश्चिमी शिक्षा को केवल सवर्ण मुसलमानों तक ही सीमित करने के लिए कहा. यह अन्यत्र है कि अब वह जाति पर आधारित पत्रों एवं लेखों की भरपूर प्रशंसा करने लगे हैं.”
अभी तक यह स्पष्ट हो चुका होगा कि सर सैयद का शिक्षा में किया गया योगदान सिर्फ़ अशराफ़ वर्ग तक ही सीमित था. पर जैसे ही आप यह बात साबित करते हैं फ़ौरन आप को बताया जाता है कि आज तो वहां हज़ारों पसमांदा पढ़ रहे हैं. आज विरोध क्यों कर रहे हो? जब अशराफ़ यह कह रहे होते हैं कि आज अलीगढ़ से पसमांदा मुसलमानों को फ़ायदा हो रहा है, ठीक उसी वक़्त वह यह बात छुपा रहे होते हैं कि आज़ादी से पहले इसी अलीगढ़ से पसमांदा मुसलमानों को ज़बरदस्त नुक़सान भी हुआ है. जब पसमांदा मुसलामनों की शैक्षिक स्थिति दयनीय थी, जिस वक़्त सरकारी रोज़गार अंग्रेज़ी माध्यम में थे. उस वक़्त सर सैयद ने अपने विश्विद्यालय में पसमांदा छात्रों को घुसने नहीं दिया. आज जो पसमांदा समाज की दयनीय स्थिति है उसका एक कारण यह भी है. आज अगर अलीगढ़ में पसमांदा मुसलमान पढ़ रहे हैं तो यह भारतीय संविधान की देन है, सर सैयद की नहीं. [RTI द्वारा प्राप्त किये गए आकड़ें यह दिखाते हैं कि आज भी अलीगढ़ में SC/ST/OBC की संख्या बहुत कम है]
चलिए एक पल को उन्हीं का तर्क मान लेते हैं कि सर सैयद के बनाए अलीगढ़ में आज पसमांदा पढ़ रहे हैं इस लिए सर सैयद की तारीफ़ की जाए तो क्या इस बिना (आधार) पर हम अंग्रेज़ों को भी तौल सकते हैं? जैसे कि- रेलवे अंग्रेज़ों ने इस लिए बनाई थी कि पूरे देश का कच्चा माल वो अपने देश में ले जाएं पर आज इसी रेलवे से करोड़ों भारतीय लाभ उठा रहे हैं. मैकाले अंग्रेज़ी को भारतीय शिक्षा व्यवस्था में इस लिए लाया ताकि वह अच्छे क्लर्क पैदा कर सके जो चमड़ी से भले ही भारतीय हों पर सोच से अंग्रेज़. पर आज इसी अंग्रेज़ी की वजह से लाखों-करोड़ों लोगों को नौकरी मिली हुई है तो क्या इस आधार पर हम “मैकाले डे” मनाते हैं? भारत में अधिकतर व्यवस्था और संस्था अंग्रेज़ों ने ही बनाई है जिस का आज हम लाभ उठा रहे हैं. तो क्या अंग्रेज़ी हुकूमत का गुणगान किया जाता है? रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फ़रमाते हैं कि, “आमाल का दारो-मदार नियत पर है!” यहीं पर पसमांदा और बहुजन छात्र सवाल उठाते हैं कि सर सैयद की नियत क्या थी? पसमांदा मुसलमानों और लड़कियों को अलीगढ़ में पढ़ाने की? जवाब है, ‘नहीं’! जो उन के उपरोक्त कथनों से बहुत अच्छी तरह स्पष्ट हो चुका है.
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संदर्भ:
१- मुबारक अली, ‘अलमिया-ए-तारीख़, तारिख पब्लिकेशन, लाहौर, पाकिस्तान, संस्करण १९९४
२- मसऊद आलम फलाही, ‘हिन्दुस्तान में ज़ात-पात और मुसलमान’ आइडियल फाउंडेशन, मुंबई, संस्करण २००९
३- अली अनवर, ‘मसावात की जंग’ वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण २००१
४- SPEECH OF SIR SYED AHMED AT LUCKNOW [1887] [http://www.columbia.edu/itc/mealac/pritchett/00islamlinks/txt_sir_sayyid_lucknow_1887.html]
५- डॉक्टर इरशाद अहमद ‘सर सैयद के सामाजिक नज़रियात’, राज श्री आफसेट, पटना , प्रथम संस्करण २०११
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लेनिन मौदूदी लेखक हैं एवं DEMOcracy विडियो चैनल के संचालक हैं, लेखक हैं और पसमांदा नज़रिये से समाज को देखते-समझते-परखते हैं.
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साफ है लिखने वाले के मन मे सर सयैद के लिए द्वेष है। होना भी चाहिये। उन्होंने हज़ारो साल से निर्विरोध विचरण कर रहे धर्म माफिया पर उंगली उठाई थी।
यह कोई छोटी घटना नही थी। यह अंग्रेज़ी शिक्षा अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी या उनके सर्वन जाती प्रेम से कही बड़ी घटना थी।
इसी के कारण उनपर कुफ्र का फतवा भी लगा।
हालांकि मोलवी मुल्ला जैसा कोई पद इस्लाम मे है ही नही क़ुरान की आयतों के बदले छोटी सी कीमत हासिल करना भी हराम है।
बुतपरस्ती केवल पत्थर के बुतों की नही होती।
सबसे विशाल और विकट बुत झूठ और पाखंड के होते हैं जिनको आज इस्लाम की पेकिंग में आम लोगो को पूजवाया जा रहा है।
सर सयैद ने जो किया वह उस समय वह अपने समय में इडियोलॉजिकल बुतों पर प्रहार करने जैसा है।
सर सयैद के जैसे लोग कभी नही मरते। वह उस चक्र से मुक्त होते है।
आसमान पर थूकने से कुछ नही होगा।