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डॉ. जस सिमरन कहल  (Dr. Jas Simran Kehal)

साहित्य के माध्यम से पूना-पैक्ट पर फिर से विचार करते हुए, मैं सोच रहा था कि इस संधि पर हस्ताक्षर करने से पहले डॉ अम्बेडकर का दिमाग कैसे काम कर रहा होगा। दलित वर्गों के हितों की रक्षा करते हुए उस तरह की कठिन सौदेबाजी को अकेले ही प्रबंधित करने के लिए इस्पात से बनी हुई नसों की आवश्यकता होती है। दलित मुख्यमंत्री की ताजपोशी और उसके बाद हमारे ऑनलाइन समुदाय की प्रतिक्रिया  जो पहले-पहल तो उत्साहपूर्ण और बाद में जिज्ञासु थी, ने मेरी उदास मनोदशा पर ज़रा विराम लगाया।

जब प्रश्नों का सिलसिला चलता ही रहा, तो मैंने पूना पैक्ट से अपने ध्यान को हटाकर कांशीराम की “चमचा युग” पर आ ठहरा. जैसा कि स्पेनिश लेखक मिगुएल डे सर्वेंटिस ने ठीक ही कहा है कि “कलम मन की जीभ है”; मैंने ऐतिहासिक पूना पैक्ट दिवस की पूर्व संध्या पर अपनी कलम को अपने मन की जीभ करने का फैसला किया। एक दलित मुख्यमंत्री के मुद्दे पर इस पूरे हंगामे को खत्म करने और हमारी जनता के बीच अंतर्दृष्टि बहाल करने के लिए, मैंने तीन वाक्यांश गढ़े हैं जो समान दिखाई देते हैं लेकिन हैं अलग-अलग:

  1. एक नेता, जो दलित है।
  2. एक दलित नेता
  3. एक अम्बेडकरवादी नेता।

हालाँकि हम में से अधिकांश लोग तीनों के बीच के अंतर को व्याकरणिक रूप से समझने में सक्षम होंगे, लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि कौन सा वाक्यांश हमारे नेता के लिए सबसे उपयुक्त है। मैं उन सभी लोगों से दिल से माफी मांगता हूं, जो पंजाब के नए बने एक दलित मुख्यमंत्री के बनने पर उत्साहित हैं, लेकिन मेरी राय में ये नए मुख्यमंत्री ‘वाक्यांश 1’ पर फिट बैठते हैं. क्या किसी आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र से विधायक बनने से कोई स्वतः ही दलित समुदाय का प्रतिनिधि बन जाता है? निश्चित रूप से नहीं। अगर ऐसा होता, तो एससी निर्वाचन क्षेत्र से चुने गए एक और मंत्री साधु सिंह धर्मसोत करोड़ों रुपये के पोस्ट-मैट्रिक छात्रवृत्ति घोटाले में नहीं फंसते। इस घोटाले ने विश्वविद्यालयों के हज़ारों दलित छात्रों की डिग्री रोक दी। उस समय इस मुद्दे पर चुप रहना और दलित छात्रों के लिए धन की लूट की अनुमति देना, वर्तमान दलित सीएम को अपराध में भागीदार बनाता है। विडंबना यह है कि पिछले चुनाव से पहले ‘एससी लीडर्स’ कॉन्क्लेव के दौरान उन्हें (चरणजीत सिंह चन्नी) पार्टी के दलित चेहरे के रूप में पेश किया गया था और उन्होंने घोषणा की थी कि हमारे बच्चे अमीरों के बच्चों के साथ पढ़ेंगे।

एक आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र का एक विधायक जिसका टिकट उच्च जाति आलाकमान द्वारा तय किया जाता है और जिसका चुनाव उच्च जाति के मतदाताओं द्वारा भी तय किया जाता है, दलित-नेता के रूप में कार्य कैसे कर सकता है? यह हमें पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर करने से पहले बाबासाहेब की चिंताओं की याद दिलाता है। 1919 में 27 साल की छोटी उम्र से ही साउथबरो कमेटी के सामने गवाही देते समय, डॉ अम्बेडकर का एक स्पष्ट विचार था: दलितों का सही प्रतिनिधित्व केवल अलग निर्वाचक मंडलों के माध्यम से ही संभव हो सकता है। लगभग एक सदी के बाद, उनका सबसे बुरा डर सच हो गया है, जिससे ‘चमचों’ का युग शुरू हो गया है – जैसा कि कांशी राम ने ‘चमचा युग’ में वर्णित किया है।

पंजाब में लगभग 37% आबादी दलितों के रूप में है, जिनके पास राज्य में केवल लगभग 3.5% भूमि है। पंजाब में 1952 और 1972 में दो भूमि सुधार कानून लाए गए। ज़मीन का एक बड़ा हिस्सा ऊंची जातियों के पास चला गया जो अभी भी छोटे किसानों से ज़मीन खरीद रहे हैं। भूमिहीन होना दलितों को भेदभाव और गरीबी की ओर धकेलता है। क्या वर्तमान दलित वर्ग से आने वाले मुख्यमंत्री सहित किसी दलित विधायक ने कभी भूमि पुनर्वितरण की बात की है? भूमि सीलिंग अधिनियम को लागू करके, ये नेता जो खुद को दलित कहते हैं, वे आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों से अपने चुनाव को सही ठहरा सकते थे।

दूसरे वाक्यांश पर आते हैं- एक दलित-नेता: एक ऐसा नेता जो दलित समुदाय का सच्चा प्रतिनिधि है। मेरी राय में, आज के राजनीतिक परिदृश्य में दलित-नेता बनने के लिए राजनीतिक समीकरणों को संतुलित करना मुश्किल है। यदि ब्रिटिश प्रधान मंत्री रामसे मैकडोनाल्ड द्वारा दिया गया कम्युनल अवार्ड श्री गांधी के आमरण अनशन की वजह से दम न तोड़ गया होता तो वास्तविक दलित राजनीतिक प्रतिनिधित्व अब तक जाति-बाधाओं को मिटा देता। फिर भी, भले ही जनता को ‘एक नेता जो दलित वर्ग से है’ और ‘दलित-नेता’ के बीच के अंतर से अवगत कराया जाना चाहिए तो एक दिन आएगा जब भेड़ के कपड़ों में छिपे भेड़ियों का पर्दाफाश हो जाएगा।  

एक अम्बेडकरवादी नेता समय की मांग है। मुझे व्यक्तिगत रूप से बहुत उम्मीद है कि अम्बेडकरवादी नेतृत्व के दिन आने वाले हैं। यह इस प्रकार का नेतृत्व है जो एक क्रांति का मंचन करेगा और तालिकाओं को बदल देगा। डॉ अम्बेडकर ने एक वास्तविक दलित-नेतृत्व के लिए संघर्ष किया और वर्तमान पीढ़ी एक अम्बेडकरवादी-नेतृत्व के लिए प्रयास कर रही है। अम्बेडकरवादियों की सामाजिक सक्रियता देर-सबेर राजनीतिक ताकत में तब्दील होना तय है। यह पूना पैक्ट के दौरान बाबासाहेब के साथ किए गए अन्याय का रुख वापिस मोड़ देगा।

एक अम्बेडकरवादी नेता ही समतावादी, प्रबुद्ध, समान और वर्गहीन समाज के सपने को पूरा कर सकता है।

एक अम्बेडकरवादी नेता जाति को मिटाने, रुपये की समस्या से निपटने, राज्य और अल्पसंख्यकों के लिए काम करने, हिंदू धर्म में पहेलियों को समझने और पाकिस्तान पर एक स्पष्ट दृष्टि और नीति रखने के लिए एक मूक नायक की तरह काम करेगा।

वह अंबेडकर के विचारों के अनुसार शासन करने के लिए गांधी, रानाडे, जिन्ना, बुद्ध, कार्ल मार्क्स और मनु के बारे में अपने हासिल किये ज्ञान का उपयोग करेगा।  

इस प्रकार के नेतृत्व का यह परोक्ष प्रभाव है कि दलित आबादी के उच्चतम प्रतिशत वाले राज्य को दलित-मुख्यमंत्री चुनने के लिए मजबूर किया गया है। हालाँकि, यह कांग्रेस द्वारा एक प्रतीकात्मक इशारा प्रतीत होता है क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है कि उसने चुनावों से पहले अपने स्वयं के राजनीतिक संकट से निपटने के लिए एक रात को पहरा देने वाला चौकीदार नियुक्त किया है, लेकिन यह अभी भी दलित राजनीति के विकास की आशा की एक किरण देता है। पंजाब के ‘दलित’ मुख्यमंत्री दलित जाति से आने वाले एक नेता हैं। ऐसे ही भाजपा के 77 आरक्षित सांसद हैं जिनमें वर्तमान में अधिकतम एससी/एसटी सांसद हैं। वे सभी अपने निजी हितों को आगे बढ़ाने के लिए अम्बेडकर का आह्वान करते हैं। पंजाब के सीएम ने मुख्यमंत्री के रूप में अपनी पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में ऐसा ही किया, उन्होंने कहा कि वह एक बार छत रहित घर में रहते थे और आगे भी दलितों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते थे। संयोग से, आधिकारिक रिकॉर्ड के अनुसार उनके पास करोड़ों की संपत्ति है। वास्तव में यह झूठा प्रतिनिधित्व है और श्री गांधी का भी दरअसल यही सपना था. उनका ये सपना सच हुआ जब उन्होंने एक अलग निर्वाचक मंडल (separate electorate) के माध्यम से 71 सीटों के बदले, जिसका गाँधी ने वादा किया था, इसके बदले एक आम मतदाता (common electorate) के माध्यम से 148 सीटों का आवंटन किया. गांधी द्वारा निर्मित और कांशीराम द्वारा वर्णित ये कठपुतलियाँ दरअसल लोकतंत्र के लिए निश्चित खतरे हैं जिसने आज तक प्रचलित सामाजिक और आर्थिक असमानता को बनाए रखने में भी अपनी भूमिका निभाई है।

एक सफल लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए एक दलित-नेता भी ना-काफी यानि अप्रयाप्त है। ऐसा इसलिए है क्योंकि एक बार सत्ता मिलने के बाद, उनसे समाज के केवल एक विशेष वर्ग के हितों पर ध्यान केंद्रित करने की उम्मीद की जाती है।

केवल एक अम्बेडकरवादी राजनीतिक नेतृत्व ही राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र सुनिश्चित कर सकता है। अम्बेडकर की विचारधारा और दर्शन का सच्चा समर्थक ही एक साथ सभी के हितों की पूर्ति कर सकता है। बाबासाहेब की विचारधारा का कार्यान्वयन, जैसा कि उनकी पुस्तक ‘स्टेट्स एंड माइनॉरिटीज’ में उल्लिखित है, समाजवादी-राज्य की और लक्षित है और आर्थिक लोकतंत्र केवल ऐसे नेताओं द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।  

जब मैं डॉ अंबेडकर के हमें वास्तविक राजनीतिक शक्ति देने के अथक प्रयासों के बारे में सोचकर फिर से उदास हो चला हूँ, तो हम सभी को आत्मनिरीक्षण करने की आवश्यकता है। अभी जिस स्थान पर हमें राजनीतिक रूप से रखा गया है, उसमें दलित राजनीति के लिए एक राजनीतिक शून्य (political vacuum) शामिल है। यदि हमारे बीच से कोई छद्म प्रतिनिधि भी इस स्थान पर कब्जा कर लेता है तो हम रोमांचित होने लगते हैं. पूना पैक्ट के दिन, आइए 90 साल पुराने ब्लैकमेल को वापिस लौटा दें और सच्चे अम्बेडकरवादी नेताओं को हम पर शासन करने के लिए चुनें।

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जस सिमरन सिंह कहल, एमएस (ORTHO), एक हड्डी रोग सर्जन हैं। उन्होंने पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला से पत्रकारिता और जनसंचार में मास्टर्स डिग्री भी हासिल की है। उनसे केहल ट्रॉमा सेंटर, नंगल डैम, पंजाब में संपर्क किया जा सकता है।

यह अंग्रेजी में यह आलेख राउंड टेबल इंडिया पर यहाँ प्रकाशित हुआ था. अंग्रेजी से हिंदी भाषा में इसे गुरिंदर आज़ाद ने अनुदित किया है।

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