Vruttant Manwatkar1
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वृत्तान्त मानवतकर (Dr. Vruttant Manwatkar)

‘जय भीम’ फिल्म  के रिलीज होते ही उसके ऊपर वर्चुअल चर्चाओं का एक सैलाब सा आ गया है. कोतुहल और रोमांच से भरे लोग इस पिक्चर पर अपने विचार साझा करने के लिए उत्साहित हैं. ऐसा हो भी क्यों न! इस पिक्चर का नाम ही जो ‘जय भीम’ है. ‘जय भीम’ शब्द नए भारत की सबसे प्रख्यात हस्ती और संविधान के निर्माता, डॉक्टर भीमराव आंबेडकर के विचारों और काम का द्योतक है. खासकर उन बहुजन (ज्यादा से ज्यादा) लोगों के लिए जिनके जीवन में समानता, न्याय, अधिकार, सम्मान इत्यादि डॉ. आंबडेकर की सम्यक कर्मठता से मिल पाया. शायद ये वही लोग है जो इस अवसर पर ज्ञान की चर्चाओं में हिस्सा ले रहे हैं और अपने विचारों को ज़ाहिर करने की कोशिश कर रहे है. यह निश्चित ही ख़ुशी की बात है.

इस पुरे प्रसंग पर हमारे जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में CSSS विभाग में कार्यरत प्रोफेसर विवेक कुमार ने उनके विचार प्रकट किये जिसमें उन्होंने ‘जय भीम’ फिल्म पर कुछ प्रश्न उपस्थित किये है. ये प्रश्न बहुत वाजिब हैं और जरुरी भी. इन प्रश्नों को जनता में लाने के लिए मैं प्रोफ़ेसर विवेक सर का और राउंड टेबल इंडिया का साधुवाद करता हूँ. विवेक सर ने अपने विचारों को द प्रिंट के माध्यम से भी जाहिर किया है जहां पर उन्हें और स्पष्टता से समझा जा सकता है.

मुझे ऐसा लगता है कि इन प्रश्नों की चर्चा से जो विवेक सर ने निष्कर्ष निकाले है वो सही नहीं हैं. आंबेडकरवाद की संकल्पना को सही तरीके से समझने के लिए इनके ऊपर चर्चा ज़रूरी है. इसलिए मैं भी कुछ सवालों, चर्चाओं और निष्कर्षों के माध्यम से, ‘जय भीम’ से जुड़ी उलझनों को सुलझाने की कोशिश करना चाहता हूँ.

विवेक सर ने मुख्यतः ‘जय भीम’ शीर्षक की तर्कसंगतता और उपयुक्तता पर प्रश्न करते हुए यह आलोचना की है कि “फिल्म के नाम और उसके कथानक में कोई भी रिश्ता नहीं है.” उनका यह भी मानना है कि “फिल्म के नाम एवं फिल्म में प्रयोग किए गए प्रतीकों में कोई भी तालमेल नहीं है.” और “जयभीम को आम्बेडकरवाद से जोड़ना उसे एक छोटे दायरे में लाना है”. वो कहते है कि, “‘जय भीम’ जो बाबासाहेब आंबेडकर के आंदोलन का प्रतीक बन गया है और बहुजनों द्वारा ही प्रयोग में लाया जाता है उसे सवर्ण समाज के हीरो से जोड़कर कैसे देखा जा सकता है, जबकि फिल्म मे वह एक बार भी ‘जय भीम’ का उच्चारण नहीं करता है.”

शीर्षक का खंडन करते हुए उन्होंने पहचान की अस्मिता, जय भीम और आंबेडकरवाद का बाज़ारीकरण एवं प्रतीकों के मुद्दों पर भी आलोचना की है.

मेरी असहमति स्पष्ट करते हुए सबसे पहले मैं ‘जय भीम’ और पहचान की अस्मिता पर प्रकाश डालना चाहता हूँ. यह, बात पूर्णतः सच है कि तथाकथिक ऊँची जाति के लोग (सवर्ण) श्रेश्ठता की भावना से पीड़ित होते है. इसीलिए अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्ग के लोगों को हमेशा से हीनता की ही भावना से देखते है. पर इस तथ्य के साथ पूरी कट्टरता से मान लिया जाये तो कोई सवर्ण अपने पेशे का परिवहन करते हुए किसी तथाकथित नीची जाति के लोगों को न्याय दिलाने की कोशिश ही नहीं कर सकता. यह न्याय पालिका और उसके पेशे में निराशावाद का द्योतक है. ‘जय भीम’ फिल्म एक सच्ची घटना पर आधारित है जहाँ पर एक सवर्ण व्यक्ति ने कमज़ोर लोगों को न्याय दिलाने में मदद की है. मानवी संवेदनशीलता की संभावना को अस्वीकार करते हुए ऐसी सत्य घटना को बस एक श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए किया गया उपकार या केवल अनुकम्पा मान लेना सही नहीं होगा. अगर यह कहानी काल्पनिक होती तो बात अलग होती. प्रगति की प्रक्रिया में निश्चित ही आने वाले समय में स्क्रीन पर कमज़ोर तबकों के हीरो की भी बढौतरी होगी.

अस्मिता को स्थापित करने हेतु अगर ‘आंबेडकरवाद’ को जबरदस्ती तथाकथित “दलित”, तथाकथित “बहुजन” या किसी अन्य जातिविशेष से जोड़ा या सीमित किया जाये तो यह निश्चित ही एक जातिवादी दृष्टिकोण कहलाया जायेगा. अगर कोई सवर्ण न्याय के लिए लड़ना चाहे, ‘जय भीम’ को समझने की कोशिश करे और आम्बेडकरवाद को स्वीकार करने के लिए कदम बढ़ाये तो उसका स्वागत होना चाहिए. आंबेडकरवाद कोई ब्राह्मणी सम्प्रदाय नहीं है, जो एक जाति विशेष के लिए बना हुआ है. यह एक समतावादी दर्शन है जिसका अनुसरण कोई भी स्वयं और समाज के उद्धार के लिए कर सकता है.

आंबेडकरवाद का दायरा हमारी सोच से काफी बड़ा है. समता, मेत्ता और न्याय आंबेडकरवाद के सबसे महत्वपूर्ण मूल्य है. और “जय भीम” आंबेडकरवाद का एक प्रमुख चिन्ह है. यह ध्यान में रखकर अगर सोचा जाये तो इन मूल्यों को धारण करनेवाले शीलवान और ईमानदार सवर्ण से निश्चित ही “जय भीम” को बड़ी ही सहजता से जोड़ा जा सकता है.

बाजारीकरण के बारे में अगर कहा जाये तो “जय भीम” का बाज़ारीकरण गलत नहीं है. मेरा मानना है कि बाज़ारीकरण गलत नहीं होता है, गलत वस्तुओं का व्यापार बाज़ारीकरण को गलत ठहराता है. बाज़ारीकरण अगर अत्याचार और ऊंच-नीच को बढ़ावा देता है तो वो भी गलत है. इस समय जब दुनिया में बाज़ार और गलत बाज़ारीकरण का बोल-बाला है, अगर आम्बेडकरवाद के मूल्य बहुजनों (ज्यादा से ज्यादा लोगो में) पहुंचते हैं तो इससे मंगल होने के मौके बढ़ते ही हैं. परन्तु हां, उस अनैतिक बाज़ारीकरण से बचने की अत्यंत ज़रुरत है जिसकी वजह से ‘आंबेडकरवाद’ के नाम पर या दलितवाद या ऐसा ही कुछ परोसा जाता है. यह विक्टीमाईजेशन का बाज़ार है जो जातिवाद का पोषक है. दलित-खाना, दलित-पानी, दलित-प्यार इत्यादि इस बाज़ार में धड़ल्ले से बिक रहा है. असली ज़रुरत है इस प्रकार के बाज़ारीकरण से बचने की. 

अगर हम “जय भीम” फिल्म के प्रतीकों की बात करें तो हमें ज्यादा से ज्यादा मार्क्सवादी प्रतीक ही दिखेंगे. विवेक सर ने इसका उल्लेख सही से किया है. परन्तु यह इस फिल्म के प्लाट की वस्तुस्तिथि है. इन प्रतीकों से यह स्पष्ट होता है कि निर्माताओं की ओर से सत्य को छिपाने की कोशिश नहीं की गयी और न ही उन्होंने व्यर्थ के आम्बेडकरवादी प्रतीकों को दिखाकर ‘जय भीम’ शीर्षक को जस्टिफाई करने के झूठी कोशिश की. सच मायने में, यह पारदर्शिता कायम रखने के लिए उनका स्वागत करना होगा. पर जिस प्रकार बताया गया कि हीरो ने डॉ. आम्बेडकर को पढ़कर प्रेरणा ली है, यह स्थापित करने के लिए डॉ. आम्बेडकर की तस्वीर, बुद्ध और नाग की मुर्तियां भी उपयोग में लायी गईं. यहाँ तक कि पहली बार किसी फिल्म में डॉ. आम्बेडकर की आवाज़ का उपयोग किया गया. यह सारे प्रतीक उस प्रेरणा से मेल रखते है जिसकी ताकत से हीरो यह केस लड़ने में कामयाब होता है. यह प्रतीक यह दर्शाते हैं कि अगर आंबेडकरी आंदोलन का स्थानिक और राजनीतिक दायरा बढ़ाया जाए तो हीरो जैसे लोग जिन्हें आम्बेडकरी नीति और तरीके में रूचि है, आंबेडकरवाद को पूरी तरह स्वीकार कर सकते है. अगर ऐसा यथार्थ में हुआ तो यह आंबेडकरवाद के दार्शनिक विजय का अगला कदम माना जायेगा. “जय भीम” आंबेडकरी आंदोलन का एक सबसे बड़ा प्रतीक है.

‘जय भीम’ फिल्म में ‘जय भीम’ का उच्चारण नहीं होना उसके शीर्षक के खंडन का कारण नहीं हो सकता. अगर ‘जय भीम’ प्रतीक को भारत के सबसे कमजोर वर्ग – अनुसूचित जनजाति – की न्यायिक विजय की कहानी का शीर्षक बनाया जाता है तो तमाम मुश्किलों के बावजूद यह आंबेडकरवादी आंदोलन की नैतिक सफलता का प्रतीक है. वैसे ही, फिल्म का ‘जय भीम’ शीर्षक रखना आंबेडकरवादियों के साथ एक भावनात्मक खिलवाड़ बिलकुल नहीं है. यह शीर्षक इस फिल्म की कहानी के साथ गहराई से जुड़ा हुआ एक क्रांति का निशान है. यह क्रांति रक्तपात से बदलाव की नहीं पर राजनीति और न्यायनीति के लोकतान्त्रिक माध्यम से बदलाव की है. इस उपरोक्त शीर्षक के साथ यह फिल्म आने वाली पीढ़ियों को आंबेडकरवाद से पोषित लोकतान्त्रिक माध्यम में विश्वास और विजय की प्रेरणा देती है. आशा है यह प्रेरणा से आम्बेडकरवादी जन लोकतांत्रिक तरीकों को मजबूत करने में सफल होंगे.

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वृत्तान्त मानवतकर के.सी. कॉलेज, मुंबई में असिस्टेंट प्रोफेसर पद पर हैं व् राजनीति पढ़ाते हैं. वे  एंव बौधकरो मिशन के को-फाउंडर हैं.

ये लेखक के अपने निजी विचार हैं. 

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