संदर्भः फिल्मों में पीड़ित पात्रों के खिलाफ क्रूरता का दृश्यांकन
अरविंद शेष (Arvind Shesh)
अगर कोई इंसान या तबका लगातार अपने आसपास अपने लोगों पर जुल्म ढाए जाते हुए देखे, चरम यातना का शिकार होते देखे तो उस पर क्या असर होगा?
प्राकृतिक या कुदरती तौर पर इंसान निडर ही पैदा होता है, लेकिन कुदरत उसे खुद को बचाने के लिए लड़ने या बचने के लिए कुछ भी करने की सलाहियत देती है। कायदे से कहें तो उसे पहले खुद को बचाने का हक देती है। इसी नाते इंसान अपने खिलाफ किसी हालात से लड़ता है और खुद को बचाने के बाद सुरक्षित भी करता है। लेकिन अगर सुरक्षित घेरे पर कब्जा जमाए लोग अपनी कब्जाई गई सामाजिक हैसियत, सत्ता, तंत्र और ताकत के बूते उसके सामने नए सामाजिक हालात पैदा कर देते हैं, जिसमें वह न सिर्फ खुद को असुरक्षित पाता है, बल्कि उसके सामने खुद को बचाने तक की मुश्किल आ खड़ी होती है, तब वह एक डर से घिर जाता है। इसके बाद जीने के बजाय केवल सर्वाइवल यानी किसी तरह खुद को बचाना ही उसके जीने का मकसद हो जाता है और उसकी बाकी जिंदगी खुद को बचाते-बचाते ही कट जाती है।
खुद को बचाने के हालात में जीते-जीते किसी इंसान या समूह का सोचना-समझना या उसका मनोविज्ञान भी डर से अनुकूलित हो जाता है और वह खुद पर शासन करने वाले व्यक्ति या समूह को खुद से मजबूत और अपने आपको कमज़ोर मान लेता है। यानी वह लड़ाई के मैदान में जाने के पहले ही हार मान लेता है। कह सकते हैं कि उसका हार जाना व्यवस्थागत प्रक्रिया से तैयार मनोविज्ञान का नतीजा होता है। और उसे इस हार की हालत या मनोस्थिति में बनाए रखने के लिए जरूरी है कि सत्तातंत्र या वर्चस्वशाली तबके शासित व्यक्ति या उसके तबके का मनोविज्ञान और सोचने-समझने के तरीके पर काबू रखे, उसके मनोबल को दमित-अवस्था में बनाए रखे।
शासित या दमित तबके के व्यक्ति या उसके तबके के खिलाफ जुल्म या यातना को एक व्यवस्था के तौर पर जारी रखने का मकसद यही होता है। इसका तरीका अलग-अलग हो सकता है। शासित तबके के व्यक्ति या समूचे तबके के खिलाफ यातना या जुल्म की सीधी कार्रवाई या फिर ऐसे मनोवैज्ञानिक हालात का निर्माण या प्रदर्शन, जो खौफ और दमित-मानस को बनाए रखे। खौफ से भरा हुआ और दमित-मानस में जीता शख्स अपने दुश्मन, शासक और सत्ता के खिलाफ खड़ा होना तो दूर, उसकी धूर्तताओं और चालों की पहचान तक कर पाने में नाकाम होता है। यही वजह है कि यातना और जुल्म की सीधी कार्रवाई से पहले ही वह खौफ से भरा रहता है और वह बस किसी तरह जिंदा रहने को ही सत्ता, शासक और अपने दुश्मन तक की अपने ऊपर मेहरबानी मानता है।
शासित तबकों के बीच यह मनोविज्ञान एक व्यवस्था की शक्ल में काम करता है और यही वजह है कि ज्यादातर समाजों में शासक और सत्ता तंत्र को बिना ज्यादा जद्दोजहद के शासित तबकों पर अपना क्रूर शासन कायम रखने में कामयाबी मिलती है।
मौजूदा दौर में इस व्यवस्था को बनाए रखने के लिए अलग-अलग स्तर पर लगातार काम किया जाता है। इस काम में भौतिक ऊर्जा के तौर पर अब बल-प्रयोग की जगह छवि-युद्ध का सहारा लिया जाता है। यानी शासित तबकों के खिलाफ क्रूरता और जुल्म की सीधी कार्रवाई के बजाय उसकी छवियों के जरिए वैसा ही असर पैदा करने की कोशिश की जाती है। इस संदर्भ में राजनीतिक और सामाजिक योजनाओं का विस्तार बहुत ज्यादा है, लेकिन जहां तक फिल्मों का सवाल है, उसमें सरोकार के नाम पर आमतौर पर शासित तबकों के खिलाफ दमन-उत्पीड़न और चरम यातना के दृश्यों को तो खूब विस्तार से दिखाया जाता है, लेकिन उसके प्रतिकार और हल के लिए ऐसे हवाई तौर-तरीके पेश किए जाते हैं, जो या तो व्यवस्था के दायरे में रह कर व्यवस्था को पुष्ट करने वाले होते हैं या फिर उनमे करिश्माई नायकवाद का सहारा होता है, जो यथार्थ में असंभव होता है। फिल्मों के ऐसे दृश्यों या कहानी से दिल का गुबार तो कुछ पल के लिए निकल सकता है, लेकिन किसी दमन-उत्पीड़न की व्यवस्था से आज़ादी नहीं दिला सकता।
दरअसल, जब तक कोई व्यक्ति मनोवैज्ञानिक और चेतनागत तौर पर सशक्त नहीं हो जाता, तब तक वह न तो अपने इंसानी हकों की पहचान कर सकेगा, न उसे हासिल करने की लड़ाई लड़ सकेगा। तो समाज के वर्चस्वशाली तबकों और सत्ता के तंत्र पर काबिज हर क्षेत्र के लोग शासित व्यक्ति या तबकों के दमित-मानस को बनाए रखने के लिए अलग-अलग तरीकों से लगातार काम करते रहते हैं। वक्त के साथ शासक तबकों को अपनी सत्ता की बर्बरताओं पर पर्दा डालने की जरूरत पड़ी है, इसलिए उन्होंने हिंसा, जुल्म और यातना की सीधी कार्रवाई के बजाय मनोवैज्ञानिक संजाल खड़ा करना और उसका इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है।
इस संजाल के तहत एक ओर शासक या सत्ता-तंत्र खुद को लोगों का उद्धारक और जान बचाने वाले के रूप में पेश करता है, दूसरी ओर, इसके बौद्धिक हरकारे दमन-उत्पीड़न के शिकार तबकों के लिए फिक्र जताते हुए कहानी-कविता लिखते हैं, फिल्में बनाते हैं और साथ-साथ नेताओं-बाबाओं की शक्ल में उपदेशक समाज के बाज़ार में छोड़े जाते हैं। ये लोग दमित तबकों के खिलाफ दमन-उत्पीड़न की घटनाओं का ‘अत्यधिक सजीव चित्रण’ करके उनके दुखों के प्रति अपना सरोकार जताते हैं। वहीं शासित या दमित तबके सांस्कृतिक रूप से अपने दुश्मन और पीड़ा की पहचान कर पाने की आदत या इसका अभ्यास नहीं होने की वजह से शासक तबकों के इन कथित उद्धारकों और उनके काम को अपने लिए सहानुभूति के तौर पर देख लेते हैं।
जबकि इस तरह की छवियों की प्रस्तुति का समांतर असर यह होता है कि शासित तबके अपने खिलाफ व्यवस्था और दुश्मन की पहचान करने की सलाहियत को न केवल खो देते हैं, बल्कि उन त्रासद छवियों के जरिए उनके भीतर खौफ का मनोविज्ञान और गहरा हो जाता है और इसका गहरा और प्रतिकूल असर उनके मनोबल पर इस हद तक पड़ सकता है कि वे अपने हक की पहचान और उसके लिए लड़ने का हौसला और सलाहियत खो दें। यहीं शासक तबकों को सबसे बड़ी कामयाबी मिल जाती है।
सच यह है कि गुलामी, जुल्म, यातना, उत्पीड़न की व्यवस्था और उसके मनोवैज्ञानिक संजाल से आज़ादी के लिए सबसे पहले अपने अधिकारों की पहचान और लड़ाई जरूरी है। और लड़ने के लिए मजबूत हौसले की जरूरत होती है। हौसला या मनोबल कहां से और कैसे आएगा? किसी व्यक्ति या तबके या समुदाय को उसकी अपनी ताकत का एहसास कराए बिना उसके भीतर यह हौसला पैदा कर पाना मुमकिन नहीं है। चेतना और चेतना पर आधारित सशक्तिकरण की अहमियत यहीं स्थापित होती है और इस बात की पहचान जरूरी हो जाती है कि समाज, व्यवस्था, बाज़ार और धर्म की कौन-सी प्रस्तुति चेतना और चेतना पर आधारित सशक्तिकरण को बाधित करती है और आखिरकार वर्चस्वशाली तबकों के तंत्र को मजबूत करती है। मनोबल और हौसले को तोड़ने वाली हर गतिविधि, छवि और उसकी प्रस्तुति हाशिये के तबकों के चेतनागत सशक्तिकरण में बाधक तत्त्व है और इसके असली सूत्रों की पहचान जरूरी है। वरना रहजनों को रहबर मानते रहने का हासिल आखिरकार एक लुटा-पिटा कारवां होता है।
तो अपने हक के लिए भौतिक संसाधनों को हासिल करना उसमें हिस्सेदारी दूसरे चरण की लड़ाई है, उससे पहले हौसला या मनोबल पैदा करने के लिए अनुकूल विचार-प्रक्रिया और छवियों की प्रस्तुति जरूरी है। कमज़ोर या बिना हौसले के किसी सहारे के जरिए हासिल भौतिक संसाधन आखिर तौर पर सत्ता और शासितों के हथियार की शक्ल में तब्दील हो जाते हैं, जबकि हौसले के साथ हासिल किए गए संसाधन आज़ादी और इंसाफ की बुनियाद तैयार करते हैं। हौसला और ताकत का एहसास किसी व्यक्ति और समुदाय के भीतर ऐसा मनोविज्ञान तैयार करता है, जिससे वह अपनी लड़ाई खुद लड़ने का विवेक और उसकी हिम्मत हासिल करता है।
जाहिर है, इस हौसले के लिए कहानी-कविता या फिल्मों के पर्दे पर दमित-वंचित तबकों के उत्पीड़न और यातना की जीवंत तस्वीरों की जितनी जरूरत है, उससे ज्यादा जरूरी है उसका उसी कसौटी पर प्रतिकार। थर्ड डिग्री टॉर्चर या चरम यातना के दृश्य किसी शख्स को बेहद दुखी कर सकते हैं, उसके भीतर सहानुभूति या फिर खुद से संबंधित होने पर गुस्सा भर सकते हैं, लेकिन अगर उसके प्रतिकार की कसौटी का तरीका भी वही नहीं होगा, तो पीड़ित शख्स और तबके के भीतर लड़ने का हौसला पैदा नहीं हो सकता। जिस व्यवस्था की घोषित-अघोषित रिवायतों, नियम-कायदों के तहत ही उसे शिकार बनाया गया, उसका दमन-उत्पीड़न किया गया, उसी व्यवस्था के दायरे में तय या खोजे गए हल ज़ुल्म, बर्बरताएं, यातना और उत्पीड़न से उपजे दुख पर तात्कालिक मरहम-पट्टी तो साबित हो सकते हैं, लेकिन जुल्म, बर्बरताओं, यातना और उत्पीड़न का ठोस और स्थायी इलाज नहीं हो सकते।
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अरविंद शेष वरिष्ठ व् जाने-माने पत्रकार हैं साथ ही में वे लेखक भी हैं और कहानीकार भी. उनसे arvindshesh@gmail.com संपर्क किया जा सकता है.
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