प्रोफेसर विवेक कुमार (Professor Vivek Kumar)
जब से ‘जय भीम’ फिल्म रिलीज हुई है उस पर लोग काफी ज्ञान बांट रहे हैं. लोग यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि इस फिल्म में यह देखिए, इसमें वह देखिए; इसका, मतलब यह होता है उसका मतलब वह होता है. यहां तक कि लोग ‘जय भीम’ का अर्थ क्या होता है यह भी समझाने का प्रयास कर रहे हैं. अगर कोई न्यायालय का सीन चल रहा है तो लोग उसका भी मतलब बता रहे हैं, अगर कोई छोटी बच्ची अखबार लेकर बैठ गई है तो उसका मतलब भी.
मैं उन महानुभावों को केवल इतना बताना चाहता हूं कि फिल्म क्रिटिक/ या आलोचक की भूमिका यह नहीं होती कि वह आम जनता को बताएं कि इस फिल्म में इस चीज को ऐसे देखा जाए या उस चीज को वैसे देखा जाए. अगर कोई फिल्म आलोचक या दूरदर्शन पर टीवी का एंकर यह बताने का प्रयास कर रहा है तो वह आम दर्शक की बुद्धि का अनादर कर रहा है. विशेषकर दलित एवं बहुजन समाज के दर्शकों की बुद्धि का वह मज़ाक उड़ा रहा है. वह यह बताने का प्रयास कर रहा है कि आम जनता के पास इतनी भी बुद्धि नहीं है कि वह किसी फिल्म को अपने मतानुसार देखें. वह सब किसी भी चीज को उसी एंगल (कोण) से देखें जिस एंगल से मैं बता रहा हूं. यह नितांत गलत है.
किसी भी फिल्म क्रिटिक/ या आलोचक की भूमिका बस इतनी होती है कि वह फिल्म में वास्तविकता के आधार पर क्या चित्रित किया गया है, कौन-कौन से प्रतीकों का प्रयोग किया गया है, फिल्म के कथानक एवं उसके शीर्षक में कोई रिश्ता है या नहीं, या फिर हीरो की क्या अस्मिता है, वह सब कुछ क्यों कर रहा है आदि तथ्यों की पड़ताल कर दर्शकों को बताएं. कई फिल्म आलोचक कुछ अधिक स्वतंत्रता ले सकते हैं और वे उस फिल्म की तुलना दूसरी फिल्मों से भी कर सकते है और यह भी बता सकते हैं फिल्म में क्या क्या नहीं दिखाया गया है. उसके बाद दर्शकों पर छोड़ देना चाहिए कि फिल्म का आंकलन करें और उसे अच्छा कहें या बुरा. हाँ, जब वैचारिक धरातल पर कोई फिल्म बनती है तब उसकी विचारधारा का आंकलन भी फिल्म आलोचक कर सकता है और उसको करना भी चाहिए.
मैं फिल्म क्रिटिक/ या आलोचक की भूमिका में ‘जय भीम’ फिल्म के नाम एवं उसके कथानक के रिश्ते पर प्रश्न उठाना चाहता हूं. मेरा मानना यह है कि फिल्म के नाम और उसके कथानक मे कोई भी रिश्ता नहीं है. सीधा सीधा या प्रत्यक्ष रूप से कोई रिश्ता नहीं है. हाँ, अगर हम/आप अंबेडकरवाद से सराबोर हैं तो हम इस पूरी फिल्म के या फिल्म के हर सीन से अंबेडकरवाद के छुपे तत्वों का अर्थ लगा सकते हैं. शायद वही लोग कर भी रहे हैं जो करने के लिए वह स्वतंत्र हैं. अगर उनकी सोच उनकी समझ इस बात के लिए प्रेरित करती है तो यह उनका अधिकार है. लेकिन मेरी सोच क्या बताती है, सीन के अर्थ क्या है, फिल्म का अर्थ क्या है यह मेरा अपना आंकलन है.
जय भीम फिल्म के विषय में मैं दूसरा तथ्य यह बताना चाहता हूं कि, फिल्म के नाम एवं फिल्म में प्रयोग किए गए प्रतीकों में कोई भी तालमेल नहीं है. तीसरी बात, फिल्म के नाम एवं फिल्म के हीरो की अस्मिता मे भी कोई रिश्ता नहीं है- ना तो वह दलित समाज से आता हुआ दिखाई दिया है जैसे कि अंबेडकर में अंबेडकर स्वयं दलित समाज से आते हैं, या फिर आक्रोश में अजय देवगन भी दलित समाज से आते हुए दिखाए जाते हैं, और आरक्षण में सैफ अली खान भी दलित जाति की अस्मिता से दिखाई जाते हैं. परंतु इसमें आर्टिकल-15 की तरह ‘जय भीम’ का हीरो भी सवर्ण समाज से आता है लेकिन वह लड़ाई जो है दलितों की/ आदिवासियों की लड़ता है. इसलिए यह और भी प्रमाणिक तौर पर कहा जा सकता है कि ‘जय भीम’ जो बाबासाहेब आंबेडकर के आंदोलन का प्रतीक बन गया है और बहुजनों द्वारा ही प्रयोग में लाया जाता है उसे सवर्ण समाज के हीरो से जोड़कर कैसे देखा जा सकता है, जबकि फिल्म मे वह एक बार भी ‘जय भीम’ का उच्चारण नहीं करता है.
फिल्म आदिवासी भाइयों पर है जो कि हमारे अपने बहुजन भाई हैं, और उनके अधिकारों को कोई भी उठाता है तो इसका हमें इस्तकबाल करना चाहिए, इसका वेलकम (स्वागत) करना चाहिए. उनके साथ जिस प्रकार का पुलिस उत्पीड़न हुआ है वह वास्तविकता के काफी करीब है और उसका फिल्मांकन भी सराहनीय है. उनकी अस्मिता के आधार पर आदिवासियों के साथ भेदभाव भी वास्तविक रूप में दिखाया गया है. लेकिन अगर हीरो भी कोई आदिवासी दिखाया जाता, या आदिवासियों में से ही कोई महिला या पुरुष पढ़ लिख कर के सक्षम होकर अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ती/लड़ता तो और भी अच्छा होता. परंतु फिल्म मे हीरो की अस्मिता आदिवासी नहीं, वह तो अनुकंपा-वश उनकी लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हो गया.
फिल्म में हीरो ‘कॉमरेड’ शब्द का प्रयोग करता है, उसके कमरे में मार्क्स का चित्र दीवार पर लगा हुआ है. उसके ड्राइंग रूम की छोटी-सी टेबल पर लेनिन की छोटी सी मूर्ति रखी है. पूरी फिल्म में मार्क्सवादी झंडे जिन पर हथौड़ी और हसिया का निशान बना हुआ है दिखाए गए हैं. मार्क्सवादियों द्वारा बकायदा जुलूस,झंडे और बैनर के साथ निकाला जा रहा है. यहां तक कि डीजीपी कामराज नगर, गांधी, बाबासाहेब आंबेडकर, आदि के साथ-साथ मार्क्स की फोटो भी लगी है. जो आमतौर पर किसी भी फिल्म में नहीं देखा गया है.
केवल एक सेंटेंस (वाक्य) हीरो कहता है कि यहां सब नेता दिखाई दे रहे हैं बस बाबा साहब नहीं है. लोग यह भी बता रहे हैं कि हर ऑफिस में बाबासाहेब की तस्वीर तो लगी है इससे ज्यादा ‘जय भीम’ में और क्या क्या चाहिए? अरे भाई आजकल बाबासाहेब की तस्वीर हर फिल्म के अंदर यहां तक कि टीवी सीरियल के अंदर भी ऑफिस इसमें दिख जाती है. यहां तक कि लोग किसान आंदोलन या शाहीन बाग तक के आंदोलन में बाबासाहेब की तस्वीर लेकर पहुंच गए थे. तो क्या वे सब के सब अंबेडकरवाद में विश्वास करते हैं?
इसलिए मैं यह प्रश्न उठाना चाहता हूं कि मुख्यधारा के पत्रकारों, यूट्यूब चैनलों, एवं कॉर्पोरेट घराने के टीवी चैनलों ने अभी तक यह प्रश्न क्यों नहीं उठाया कि आखिर इस फिल्म का नाम ‘जय भीम’ ही क्यों रखा गया? क्या फिल्म का नाम जय भीम रखना अंबेडकरवादियों के साथ केवल एक भावनात्मक खिलवाड़ है?
फिल्म खत्म होने के बाद, जिसे हम फिल्म का हिस्सा नहीं कह सकते, कास्टिंग में निर्माता लिखता है कि हीरो ने बाबासाहेब आंबेडकर की राइटिंग एंड स्पीकर के वॉल्यूम से केसेस को समझने में बहुत मदद मिली. इस संदर्भ में मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि आखिर उन्हें बाबासाहब के कौन-कौन से वॉल्यूमस से मदद मिली. क्योंकि मैंने लगभग-लगभग बाबासाहेब के सभी 21 वॉल्यूम का बहुत वर्षों तक अध्ययन किया है. लेकिन उसमें मुझे कहीं भी ऐसा कोई पाठ नहीं मिला जिसमें बाबासाहब ने आदिवासियों पर हो रहे अत्याचारों को समझाया है. अतः यह केवल और केवल जनता को गुमराह करने का इश्तेहार भर लगता है.
कुछ अन्य लोग यह बताने का भी प्रयास कर रहे हैं कि यह फिल्म एक सच्ची घटना पर आधारित है और इसलिए इसके पात्र भी सच्चे हैं. हो सकता है इसके पात्र सच्चे हैं और इसलिए इसके सींस भी उस समय की ही सच्चाई को दिखाने का प्रयास करते हैं. मैं इसका भी स्वागत करता हूं लेकिन इन सब तथ्यों से फिल्म का नाम ‘जय भीम’ रखा जा सकता है इसको जस्टिफाई या उचित सिद्ध नहीं किया जा सकता.
कुछ लोग यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि यह एक आरंभ है इसलिए हमें इसकी सराहना करनी चाहिए. उनको मैं बताना चाहता हूं कि दलित समाज से जुड़ी हुई कहानी पर पहली फिल्म 1936 में अछूत कन्या बनी थी, उसके बाद 1959 में सुजाता बनी, 1974 में अंकुर बनी, 1981 में सत्यजीत रे जैसे महान निर्देशक ने सद्गति जैसी फिल्म बनाई. ‘बैंडिट क्वीन’ बनी, ‘शूद्र द राइजिंग’ 2012 में बनी, और 2000 में तो जब्बार पटेल ने बाबा साहेब के नाम से ही फिल्म बना दी. कमर्शियल फिल्मों की जहां तक बात करें तो उसमें ‘लगान’ में ‘कचरा’ जैसा किरदार अछूत ही था. आक्रोश, आरक्षण, राजनीति, लज्जा, आर्टिकल-15, फंड्री, न्यूटन, आदि दलित किरदार को लेकर एक लंबी फेहरिस्त है. लेकिन किसी ने भी बाबासाहेब या अंबेडकरवाद, जय भीम को भुनाने की कोशिश नहीं की. ना ही उन्होंने उसको इस प्रकार प्रचारित किया कि वह फिल्म दलितों के प्रतीकों से जुड़ी हुई है. इसलिए ‘जय भीम‘ को अंबेडकरवाद से जोड़कर देखना और दिखाना दोनों ही अंबेडकरवाद का बाज़ारीकरण है. जिससे हमें बचना चाहिए.
इसके अतिरिक्त हमें अंबेडकरवाद को ‘जय भीम’ तक सीमित करने से भी बचना चाहिए. बहुत से लोग अंबेडकरवाद को सरलीकृत कर उसे जय भीम की ही संज्ञा दिए दे रहे हैं. वह कह रहे हैं कि जयभीम मतलब अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाना, कानूनी लड़ाई लड़ना, आदि आदि. अगर यह सब जय भीम है तो फिर अंबेडकर वाद क्या है? आर्टिकल बड़ा हो जाएगा इसलिए दूसरी कड़ी में मैं अंबेडकरवाद और जयभीम का अर्थ भी बताने का प्रयास करूंगा.
~~~
प्रोफेसर विवेक कुमार जे.एन.यू. में प्रोफेसर हैं व् अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर व् जर्मनी की हम्बोल्ड यूनिवर्सिटी में विसिटिंग प्रोफेसर हैं. उनसे vivekambedkar@yahoo.com ईमेल पर संपर्क किया जा सकता है.
तस्वीर साभार- इन्टरनेट दुनिया
Magbo Marketplace New Invite System
- Discover the new invite system for Magbo Marketplace with advanced functionality and section access.
- Get your hands on the latest invitation codes including (8ZKX3KTXLK), (XZPZJWVYY0), and (4DO9PEC66T)
- Explore the newly opened “SEO-links” section and purchase a backlink for just $0.1.
- Enjoy the benefits of the updated and reusable invitation codes for Magbo Marketplace.
- magbo Invite codes: 8ZKX3KTXLK
Padh kar achchha laga ek naye dimension ko touch karna aur dekhna
बहुज ही सटीक विश्लेषण सर जी
शानदार दमदार
क्रान्तिकारी जय भीम
अगर हम हिन्दू हैं तो तिवारी, दूबे, मिश्रा, सिंह, पटेल, गुप्ता, कुशवाहा, मौर्या, राम, निषाद लिखने की क्या जरुरत है………
सब का टाईटल हटा कर केवल हिन्दू कर दो और सब का आपस में रोटी-बेटी का संम्बन्ध स्थापित करो!
केवल शुद्र में 6743 जातियां क्यों हैं…!!
चुनाव के समय
हिन्दू-मुसलमान के बीच लड़ाई के समय हम हिन्दू और बाकी समय रे चमरा, रे दुसधवा, रे अहिरा, रे कोईरिया क्यों…?
अपने आपको पहचानिये…
1. संविधान के अनुच्छेद-340 के अनुसार समस्त ओबीसी हिन्दू नहीं हैं।
2. संविधान के अनुच्छेद- 341 के अनुसार समस्त एससी हिन्दू नहीं हैं।
3. संविधान के अनुच्छेद-342 के अनुसार समस्त एसटी हिन्दू नहीं हैं।
4. तो फिर ओबीसी, एससी और एसटी क्या हैं?
– ये इस भारत देश के मूलनिवासी हैं।
5. फिर हिन्दू हैं कौन?
सवर्ण भी अपने को हिन्दू नहीं मानते आखिर क्यों?
-क्योंकि वर्तमान में जो सवर्ण हैं उन्होंने विदेशी आक्रांताओं, मुस्लिमों,मुगलों आदि से रोटी-बेटी का रिश्ता कायम किया है। उन्होंने मुगलों को जजिया कर नहीं दिया था, क्योंकि वे भी यूरेशियाई विदेशी हैं,ये मैं नहीं भारत की सेलुलर एन्ड मॉलिक्युलर बायोलॉजी की प्रयोगशाला हैदराबाद कह रही है।
6. फिर हिन्दू है क्या:- हिन्दू फारसी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ गुलाम, चोर, धोखेबाज, काला कलूटा होता है।
ये मैं नहीं गूगल पर ‘हिन्दू’ शब्द सर्च करके उसका अर्थ ढूँढ़िये। ईरान, इराक, अफगानिस्तान, अरब, यूरोप, अमेरिका आदि देशों के निवासी भारत में रहने वाले सभी नागरिकों /मूलनिवासियों को हिन्दू कहते हैं चाहे वह मुस्लिम या सिक्ख या जैन आदि ही क्यों न हो।
‘हिन्दू’शब्द सबसेपहलेलिखित तौर गीता प्रेस गोरखपुर,हिन्दू महासभा आदि ने 1923 में प्रयोग किया है।
किसलिये :- ओबीसी, एससी, एसटी को लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित करने के लिये।
7. आप (ओबीसी, एससी और एसटी)संविधान के अनुसार हिन्दू नहीं हैं।तो फिर किस मुँह से आप कह रहे हैं कि गर्व से कहो कि हम हिन्दू हैं।
8. ओबोसी, एससी और एसटी द्वारा स्वयं को हिन्दू कहने से किसको लाभ हो रहा है और किसको हानि?
1947 से 2019 तक 72 वर्षों में ओबीसी जिसकी आबादी 52% है उसकी आनुपातिक भागीदारी मीडिया, शिक्षा और उच्च शिक्षा से लगभग शून्य हो गयी। कार्यपालिका में उच्चपदों पर केवल 1% सहित अन्य पदों पर केवल 4% रह गयी। विधायिका में ओबोसी के लोग अपने अधिकारों के लिये लड़ने की बजायकेवलअपना परिवार पाल रहे हैं और दलाली कर रहे हैं।
एससी और एसटी कीआबादी 25%होने परभीकुल मिलाकर उन्हें कार्यपालिका, न्यायपालिका, मीडिया आदि में 10% भी प्रतिनिधित्व उन्हें नहीं मिल पाया है।
9. निष्कर्ष ये है कि इन 72 वर्षों में 77% मूलनिवासी (ओबीसी, एससी और एसटी) लोकतन्त्र के चारों संस्थाओं से या तो बाहर हो चुके हैं या ये लोग अपने समाज के लोगों के लिये नकारा साबित हो चुके हैं।
उदाहरण: संविधान विरुद्ध होने पर भी क्या कोई मूलनिवासी सांसद या विधायक क्रीमीलेयर के विरोध में खड़ा हुआ है?
एक तरह से 50.5% पद सवर्णों के लिये आरक्षित किये जा चुके हैं। संविधान विरुद्ध होने पर भी क्या कोई मूलनिवासी सांसद या विधायक इसका विरोध कर रहा है?
आर्थिक आधार जनरल कैटेगरी को 10% आरक्षण संविधान विरुद्ध है, कोई मूलनिवासी सांसद या विधायक क्या इसका विरोध कर रहा है?
10. अतः जब तक 85% मूलनिवासी अपने को हिन्दू कहे जाने का एक साथ विरोध नहीं करेंगे तब तक उनके विरुद्ध सामाजिक, आर्थिक, शारीरिक, धार्मिक, शैक्षणिक अपराध और अनैतिक कार्य होते रहेंगे।
क्योंकि उनके संवैधानिक अधिकारों का रखवाला कोई नहीं है और जो वहाँ हैं भी वे केवल अपना या अपने परिवार का पेट पाल रहे हैं उनको बहुजनों (ओबोसी, एससी और एसटी) से कोई सरोकार नहीं रह गया है।कुछ लोग आपके अधिकारों के रक्षक होने का नाटक कर रहे हैं, उनसे भी होशियार हो जाने की ज़रूरत हैं।गर्व से कहो कि हम भारत के मूलनिवासी हैं।
जय भारत! जय मूलनिवासी! जय संविधान!
फिर भी निर्माता ने रिस्क तो लिया ही है, जिस नारे ‘जय भीम’ को अभी भी सवर्ण घृणा करते है उस नारे को लेके फ़िल्म बनाया।
बहुत ही उत्कृष्ट लेखन महोदय प्रणाम, जय भीम