लेनिन मौदूदी (Lenin Maududi)
“जब मैं अनाथालय में पहुंची तो उससे पहले ही हुतू समुदाय के दंगाई वहाँ पहुंच चुके थे। वह दोनों बहनें बच्चियां थीं। उसकी छोटी बहन को वह लोग पहले ही मार चुके थे। बड़ी बहन दौड़ कर मेरे पास आई और मुझ से लिपट गयी। उसे लगा कि मैं उसे बचा लूंगी। वह ज़ोर-ज़ोर से कहने लगी कि मुझे बचा लो मैं वादा करती हूं, अब से मैं तुत्सी नही रहूंगी। लेकिन उन्होंने मेरे सामने उसे भी मार दिया और मुझे यह सब देखने को मजबूर किया।” इस सच्ची घटना का दृश्य Terry George की 2004 में आई फ़िल्म Hotel Rwanda (होटल रवांडा) की है। रवांडा अफ्रीका महाद्वीप का एक देश है जिसकी राजधानी किगाली है। यह फ़िल्म 6 अप्रेल 1994 में लगातार 100 दिनों तक चले तुत्सी समुदाय के जन-संहार पर आधारित है। इस जन-संहार में 8,00,000 तुत्सी मारे गए थे। इस फ़िल्म में इस वाकये को रेड क्रॉस की एक महिला सुना रही होती हैं। ‘होटल रवांडा’ फ़िल्म एक रेडियों की आवाज़ से शुरू होती है। ‘रेडियो रवांडा’ से रेडियों रवांडा हुतू समुदाय की भावनाओं को भड़काने के लिए झूठा प्रोपोगेंडा चलाते हैं। उनसे कहा जाता है कि तुत्सी राजतन्त्र कायम करने की कोशिश कर रहे हैं जैसे मुसलमान इस्लामी राज्य लाने की कोशिश कर रहे हैं, जिसमें हुतू लोगों को गुलाम बनाकर रखा जाएगा जैसे भारत मे डराया जाता है कि मुसलमान अपनी आबादी बढ़ाकर और लव जिहाद कर के हिन्दू समाज पर कब्ज़ा करने की कोशिश कर रहे हैं। इन रेडियों स्टेशनों ने हुतू और तुत्सी समुदाय के बीच किसी भी बातचीत या शांति समझौते का खुलकर विरोध किया, शांति के प्रयासों के खिलाफ अभियान चलाया, हुतू मिलिशिया समूहों का समर्थन किया। जैसे भारत मे तथाकथित किसी हिन्दू सेना का समर्थन करती मीडिया नज़र आ जाती है।
इस सन्दर्भ में एलिन थॉम्पसन द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘द मीडिया एंड रवांडा जेनोसाइड’ एक उपयोगी दस्तावेज़ है। इसमे बताया गया है कि कैसे धीरे-धीरे बहुसंख्यकों (हुतू) के दिल में अल्पसंख्यक (तुत्सीयों) के लिए नफ़रत भरी गई। यह एक दिन में नहीं हुआ। मीडिया ने बहुसंख्यकों के पूर्वाग्रहों को बल दिया जो तुत्सीयों के ख़िलाफ़ था। इतिहास में इन दोनों समुदायों के बीच पहले भी संघर्ष हुए थे। उन संघर्षो को आधार बनाया गया। जन-संहार से पहले ही सैकड़ो तुत्सीयों को लिंच (Lynch) कर दिया गया था। मीडिया ने इन लिंच (Lynch) करने वालों को हीरो बना दिया था। तुत्सीयों को शैतान बताया गया। तुत्सी औरतों को हुतू मर्दों को प्रेम जाल में फंसाने वाली औरतों के रूप में प्रचारित किया गया। उसके बाद जो हुतू तुत्सीयों के पक्ष में थे उनके ख़िलाफ़ भी इसी तरह का प्रोपोगेंडा चलाया गया। उनको गद्दार, देशद्रोही बोला गया। कोशिश की गई कि कैसे भी इन सेक्यूलर हुतुओं की बातों का असर हुतू समाज पर न पड़े। अंत मे इस प्रोपोगेंडा का असर हुआ। हूतू समुदाय से जुड़े लोगों ने अपने तुत्सी समुदाय के पड़ोसियों और रिश्तेदारों को मार डाला।यही नहीं, कुछ हूतू युवाओं ने अपनी पत्नियों को सिर्फ़ इसलिए मार डाला क्योंकि अगर वो ऐसा न करते तो उन्हें जान से मार दिया जाता। उन्होंने तुत्सीयों की औरतों को सेक्स स्लेव बना दिया। तुत्सी महिलाओं को मारने से पहले उनके साथ सामुहिक बलात्कार किए गए। मीडिया ने देखते ही देखते पूरे हुतू समुदाय को हत्यारा-बलात्कारी बना दिया। रेडियों से लगातार तुत्सी लोगों को मारने की लिस्ट जारी की जाती और फिर हुतू उन्हें मार देते। अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने पहले इसे आंतरिक मामला बताया फिर नस्लीय संघर्ष बोला। जब मामला हाथ से निकल गया तब जा कर अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने इसे जन-संहार की उपमा दी।
जनसंहार का कारण
सबसे पहले यह समझते हैं कि इस जनसंहार का तात्कालिक कारण क्या था? बी.बी.सी. हिंदी अपनी रिपोर्ट ‘रवांडा का वो नरसंहार जब 100 दिनों में हुआ था 8 लाख लोगों का क़त्लेआम’ में नरसंहार शुरू होने के कारणों के बारे में लिखती है।
“इस नरसंहार में हूतू जनजाति से जुड़े चरमपंथियों ने अल्पसंख्यक तुत्सी समुदाय के लोगों और अपने राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाया। रवांडा की कुल आबादी में हूतू समुदाय का हिस्सा 85 प्रतिशत है लेकिन लंबे समय से तुत्सी अल्पसंख्यकों का देश पर दबदबा रहा था। साल 1959 में हूतू ने तुत्सी राजतंत्र को उखाड़ फेंका। इसके बाद हज़ारों तुत्सी लोग अपनी जान बचाकर युगांडा समेत दूसरे पड़ोसी मुल्कों में पलायन कर गए। इसके बाद एक निष्कासित तुत्सी समूह ने विद्रोही संगठन रवांडा पैट्रिएक फ्रंट (आरपीएफ़) बनाया। यह संगठन 1990 के दशक में रवांडा आया और संघर्ष शुरू हुआ। यह लड़ाई 1993 में शांति समझौते के साथ ख़त्म हुई। लेकिन छह अप्रैल 1994 की रात तत्कालीन राष्ट्रपति जुवेनल हाबयारिमाना और बुरुंडी के राष्ट्रपति केपरियल नतारयामिरा को ले जा रहे विमान को किगाली (रवांडा) में मार गिराया गया था। इसमें सवार सभी लोग मारे गए। किसने यह जहाज़ गिराया था, इसका फ़ैसला अब तक नहीं हो पाया है! कुछ लोग इसके लिए हूतू चरमपंथियों को ही ज़िम्मेदार मानते हैं जबकि कुछ लोग रवांडा पैट्रिएक फ्रंट (आरपीएफ़) को। चूंकि ये दोनों नेता हूतू जनजाति से आते थे और इसलिए इनकी हत्या के लिए हूतू चरमपंथियों ने आरपीएफ़ को ज़िम्मेदार ठहराया। इसके तुरंत बाद हत्याओं का दौर शुरू हो गया।आरपीएफ़ ने आरोप लगाया कि विमान को हूतू चरमपंथियों ने ही मार गिराया ताकि नरसंहार का बहाना मिल सके। हम यह देखते हैं कि जहां जहां बड़े नरसंहार हुए हैं वहां-वहां ऐसे ही बड़े बहाने को गढ़ा गया है। इस बात को ऐसे समझें कल्पना करें भारत के किसी प्रसिद्ध नेता को उसी के धर्म का कोई व्यक्ति मार देता है तो हेडिंग बनेगी “अमुक व्यक्ति ने जनवादी नेता जी की हत्या कर दी” अब मारने वाला अलग धर्म का हुआ तो? अब व्यक्ति नहीं समुदाय आरोपी बनेगा। 1984 में क्या यही नही हुआ था? रोहिंग्या के साथ म्यांमार में क्या यही नही हुआ? गुजरात क्या इसका उदाहरण नही है? श्रीलंका में तमिल लोगों के साथ क्या ऐसा ही नही घटित हुआ?
हिंसक मानसिकता का निर्माण
रवांडा नरसंहार में मासूम बच्चों को यह कह कर मारा जा रहा था कि –‘हम तुत्सीयों की नस्ल खत्म करना चाहते हैं।’ सोचिए, इतनी नफ़रत उनके अंदर कहाँ से आई कि एक मासूम बच्ची भी उन्हें सिर्फ़ तुत्सी नज़र आई? कैसे आपकी एक पहचान इतनी प्रभावशाली हो जाती है कि उसकी वजह से आप इतने हिंसक और क्रूर हो जाते हैं कि एक मासूम का क़त्ल करने से भी नहीं झिझकते? अमर्त्य सेन अपनी किताब ‘आइडेंटिटी एंड वायलेंस (Identity and Violence) में लिखते हैं –“सामान्य लोगों पर विशेष पहचान थोप दी जाती है ताकि दोस्त को दुश्मन बनाया जा सके। 1940 में हिन्दू और मुसलमान भारतीय नहीं रहे। उनकी भारतीय पहचान, हिन्दू-मुसलमान की पहचान से छोटी हो गयी।” अमर्त्य सेन आगे लिखते हैं कि –पहले मनुष्य के विचार हिंसक होते हैं फिर हिंसा व्यवहार में आती है।
आप को हत्यारा बनाने के लिए आपकी कौन सी पहचान को ज़्यादा महत्व देना है, इसका निर्धारण आप नही करते! यह धार्मिक, राजनीति, सामाजिक सत्ता में बैठे हुए लोग तय करते हैं। उदाहरण के रूप में समझें, हिन्दू-मुसलमान के संघर्ष में मैं मुसलमान बन जाता हूं फिर मुसलमानों के अंदर सुन्नी जो शिया से अलग हैं, फिर सुन्नी के अंदर हनफ़ी जो अहले हदीस (वहाबियों) से अलग हैं, फिर हनफ़ी के अंदर अहले सुन्नत वल जमात (बरेलवी) जो देवबंदियों से अलग हैं। इन श्रेणियों का निर्माण संघर्ष से पहले होता है। आपको किसी ख़ास सांचे में डाल दिया जाता है और बताया जाता है कि आप ही सही हैं दूसरा पूरी तरह गलत। जैसाकि ज्यां पाल सात्रे लिखते हैं –“यहूदी आदमी होता है जिसे दूसरे लोग यहूदी के रूप में देखते हैं। यहूदी विरोधी लोग यहूदियों की पहचान आम मनुष्यों से अलग बनाते हैं।” इसी तरह हम तुत्सी, रोहिंग्या, वीगर (चीनी मुसलमान) आदि के बारे में भी कह सकते हैं।
रोहिंग्या मुस्लमान पलायन करते हुए
इस श्रेणीक्रम के निर्माण के बाद यह ज़रूरी हो जाता है कि व्यक्ति को उस के लिए तय की गई श्रेणी में रहने को मजबूर किया जाए। समुदायों की लेबलिंग की जाती है। उनको अमानवीय घोषित किया जाता है। अमानवीय घोषित करना अगर ज़रूरी कदम होता है ताकि उस समुदाय के ख़िलाफ़ की जा रही हिंसा को न्यायोचित ठहराया जा सके। धीरे-धीरे ऐसे समुदाय को हाशिए पर ढकेलने की कोशिश होती है। एक वक्त ऐसा भी आता है जब अपने बारे में दूसरों की राय के अनुसार ही धारणा बना लेते हैं। हम यह मानने लगते हैं कि दलित,मुसलमान, स्त्री तो होती ही ऐसी हैं। यही से मानसिक रूप से आप उनकी धारणा के गुलाम हो जाते हैं। अमर्त्य सेन लिखते हैं –”हम अपने आपको किस रूप में देखें! अपनी व्यक्तिगत पहचानों को व्यक्त करने की हमारी स्वतंत्रता कई दफ़ा इसी तथ्य पर निर्भर करती है कि दूसरे हमें किस रूप में देखते हैं। कई दफ़ा तो हम यह भी नही जान पाते कि दूसरे हमें किस रूप में देखते हैं और वह अपने बारे में हमारे स्वयं के दृष्टिकोण से कितना भिन्न है।”
भारतीय मीडिया का जातीय चरित्र
क्या यह संभव है कि मीडिया की ऐसी आंतरिक सामाजिक संरचना उसके विचारों, पक्षधरताओं को प्रभावित न करे? दलितों के प्रति मीडिया का रवैया हम सदियों से देखते हैं कि कैसे वह दलित पहचान से जुड़े मुद्दे को दबाना चाहता है या उसे आत्मसात कर के सामान्य घटना बताना चाहता है। एक ब्राह्मण की हत्या और एक दलित की हत्या की ख़बर अंतर होता है। दलित वर्ग सदियों से उपेक्षित वर्ग है। उस पर आज जो भी अत्याचार होता आया है वह उसकी दलित पहचान की वजह से हुआ है। यही कारण है कि भारत में धर्म बदलने के बाद भी दलित वर्ग पर अत्याचार कम नही हुआ। एक भंगी/मेहतर जब इस्लाम धर्म स्वीकार कर हलालखोर हो जाता तो क्या उसकी सामाजिक स्थिति बदल जाती है ? नही वह मुस्लिम समाज में भी दलित ही रहता है। यह तक कि एक दलित धर्म और ईश्वर पर अपने विश्वास को छोड़ भी दे तब भी उसकी सामाजिक स्थिति नही बदलेगी, उसके ऊपर होने वाले अत्याचार नहीं रुकेंगे। भारत सरकार हर दो साल पर जो नेशनल क्राइम रिपोर्ट जारी करती है उसमें दलित और महिला वर्ग के ऊपर हुए अत्याचार को अलग दिखाया जाता है। अलग दिखाने का अर्थ यही बताना होता है कि दो हत्या एक जैसी नही हुआ करती हैं। पर भारतीय मीडिया हर बार यह कोशिश करती है कि अगर दलित समाज के अत्याचार को दिखाया जाए तो एक सामान्य घटना की तरह ही दिखाया जाए।
2006 के CSDS नई दिल्ली के सर्वे ने जो तथ्य सामने लाए हालांकि वह राष्ट्रीय पटल के हैं लेकिन कमोबेश वही हाल स्थानीय समाचार जगत का है। जहां दलित-पिछडे़ खोजने से न मिलेंगे। आज़ादी के वर्षों बाद भी मीडिया में दलित-पिछड़े हाशिए पर हैं। मीडिया के अलावा कई क्षेत्र हैं जहां अब भी सामाजिक स्वरूप के तहत प्रतिनिधित्व करते हुए दलित-पिछड़ों को नहीं देखा जा सकता है, खासकर दलितों को।
आंकड़े बताते हैं कि देश की कुल जनसंख्या में मात्र आठ प्रतिशत होने के बावजूद उंची जातियों का मीडिया हाउसों में 79 प्रतिशत शीर्ष पदों पर जहां निर्णय लिए जाते हैं वहां कब्जा बना हुआ है। ये सर्वे 37 हिंदी और अंग्रेजी प्रकाशनों और टीवी चैनलों के बड़े फैसले लेने वाले 315 अधिकारियों पर किया गया था। इन 315 मे से एक भी दलित या आदिवासी नहीं था, केवल 4% उन जातियों के थे जिन्हें शुद्र कहा जाता है और 3% मुस्लिम थे।
भारत में अखबारों को चलाने वालों की सामाजिक लोकेशन के बात करें तो सबसे महत्वपूर्ण चार राष्ट्रिय अँग्रेज़ी दैनिक अखबारों में से तीन के मालिक बनिया यानि वैश्य है और एक का मालिक ब्राह्मण है. ‘द टाइम्स समूह’ (बेनेट कोलमन कम्पनी लिमिटेड) भारत की सबसे बड़ी मीडिया कंपनी जिसकी संपति में टाइम्स ऑफ इंडिया और टाइम्स नाउ आते हैं, उनका मालिक एक जैन, जो कि बनिया जाति से है। इसी तरह ‘द हिंदुस्तान टाइम्स’ का मालिक एक मारवाड़ी बनिया हैं. गोयनका जोकि मारवाड़ी (एक बनिया जाति) ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ के मालिक हैं. ‘द हिन्दू’ का मालिक एक ब्राह्मण परिवार है. दैनिक भास्कर का मालिक एक अग्रवाल (बनिया) परिवार है तो ‘दैनिक जागरण’ का मालिक एक गुप्ता (बनिया) परिवार है। गोरतलब है कि गुजराती बनिया मुकेश अम्बानी के पास 27 बड़े राष्ट्रीय और क्षेत्रीय चैनलों का शेयर है। ‘ज़ी नेटवर्क’ का मालिक सुभाष चंद्रा है वह भी एक बनिया है। जहाँ ये अख़बार अलग अलग हिन्दू लीडरों या राजनीतिक पार्टियों के हितकारी रहे वहीँ साझे तौर पर सवर्ण तबके की राजनीति को बिना शर्त मजबूत करते रहे.
क्या यह संभव है कि मीडिया की ऐसी आंतरिक सामाजिक संरचना उसके विचारों, पक्षधरताओं को प्रभावित न करे? सुरेखा भोतमांगे (खेरलांजी प्रकरण) के सामूहिक बलात्कार की घटना भारतीय मीडिया के जातीय चरित्र को उजागर करता एक क्लासिकल उदाहरण हैं। यह मीडिया निर्भया के बलात्कार पर रोती है मलाला के लिए इंसाफ की मांग करते हुए तालिबान की आड़ में पूरे अफगानिस्तान को बर्बाद किए जाने तक साम्रज्यवाद शक्तियों के साथ खड़ी हो जाती है पर एक दलित औरत सुरेखा भोतमांगे के आरोपियों को बचाने में अपना जी जान लगा देती है।
मीडिया की भूमिका
हम सोशल मीडिया पर नफ़रत फैलाने वाली पोस्ट को मिलने वाले लाइक देख कर अंदाज़ा लगा सकते हैं कि किसी का घर जलाने या किसी को Lynch करने के लिए भीड़ कहाँ से इकट्ठा होती है। बच्चा चोरी और गौहत्या के मामले में भीड़ द्वारा दर्जनों हत्याओं के ज़िम्मेदार कौन है ? हम यह जानते हैं कि पसमांदा समाज हाशिये पर होता है इसलिए इन हत्याओं का सबसे बड़ा विक्टिम वही है। पर भारतीय मीडिया इन अपराधियों, हत्यारों को रक्षक और हीरो की तरह पेश कर हत्यारों की फ़ौज नही बना रही है ? हर हत्या पर किन्तु-परन्तु कर के इन हत्यारों को शह नही दिया गया है ? अभी हाल में ही किसानों को अपनी जीप से रौदने वाले मंत्री जी के बेटे के पक्ष में किस तरह मीडिया ने अपना तर्क गढ़ा क्या हम यह देख नही पा रहे हैं? भारतीय मीडिया 273 न्यूज चैनलों और 82000 अखबारों के साथ तकरीबन 70-80 हजार करोड़ का उद्योग है। लेकिन विश्व रैंकिंग में इसका स्थान 140 के ऊपर है तो सवाल उठता है कि उसकी ऐसी दुर्दशा क्यों है? जब आप गौर से भारतीय मीडिया की पड़ताल करेंगे तो पाएंगे कि वह अब ख़ुद बाज़ार है। वह उन वर्चस्व की शक्तियों के साथ खड़ा है या यूँ कहें, उन का ही हिस्सा है, जिन के ख़िलाफ़ इस चौथे खंबे को खड़ा होना था। भारतीय मीडिया ने अपना पक्ष चुन लिया है। न्यूज़ चैनल खोलने के लिए जो मापदंड हैं उनके अनुसार भारत में आपको 24 घंटे में सिर्फ दो घंटे न्यूज चलाना जरूरी है बाकि आप ग़लाज़त परोसते रहिए, कोई रोकने वाला नहीं। भारतीय मीडिया लगातार बहुसंख्यकों के दिल में नफ़रत भर रहा है।
भारत मे घटित किसी भी समस्या में ‘मुसलमान’ एंगल खोजना इनकी विशेषता बन चुकी है। गोहत्या-लव जेहाद-मंदिर/मस्जिद जैसे मामलों में अफवाहों पर आधारित रिपोर्टिंग की जाती है। जहां हर बार मुसलमान एक ‘विलेन’ होता है। अभी बहुत दिन नहीं बीते जब मीडिया ‘कासगंज’ को कश्मीर बता कर बहुसंख्यकों को उत्तेजित कर रही थी। बताया जा रहा था कि कासगंज में ‘इस्लामी हुकूमत’ (तालिबानी हुकूमत) लाने का प्लान है जैसे कश्मीर से ब्राह्मण निकाले गए वैसे ही यहाँ से हिन्दू निकाले जा रहे हैं। अयोध्या का निर्णय आने से पहले ही मंदिर निर्माण के ऊपर कार्यक्रम चल रहे थे। जिसमें हेडिंग थी –‘जन्मभूमि हमारी, राम हमारे, मस्जिद वाले कहाँ से पधारे?’ सरकार के विरुद्ध हर विरोध प्रदर्शन को ‘देशद्रोही’ करार दे दिया जाता है ताकि बहुसंख्यक हिंदुओं को यह समझाया जा सके कि जो विरोध हो रहा है वह विदेशी पैसों से हो रहा है। लोगों को विरोध के मूल कारणों तक पहुंचने नहीं दिया जाता है। उससे पहले ही पूरे विरोध को हिन्दू-मुसलमान बना दिया जाता है। अभी हाल में तब्लीग़ी जमात के मरकज़ में कोरोना संक्रमित के मिलने के बाद मीडिया लगातार इस बात को प्रचारित कर रही है कि ‘भारत के मुसलमान तो जानबूझकर कोरोनो वायरस फैला रहे हैं’.
इसका परिणाम भी दिख रहा है, मुस्लिम रेहड़ी वालों के पिटाई के वीडियो सामने आ रही हैं। जगह-जगह तनाव बढ़ रहा है। दफ्तर कार्यालयों में मुस्लिम पहचान निशाने पर रहती है। मौजूदा वक्त मुसलमानों के प्रति अविश्वास अपने चरम पर है इस इस्लामोफोबिया के सबसे बड़े शिकार पसमांदा मुसलमान है। लिंच (Lynch) किये जा रहे मुसलमानों की जातियां देखने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है। टी.वी. डिबेट में कोई मुस्लिम पहचान का व्यक्ति बैठा होता है जिसे एंकर पूरे मुस्लिम समाज का प्रतिनिधि के रूप में पेश करता है। फिर एंकर उसपर चिल्लाता है, गर्जता है। जिसे देख कर दर्शकों की कुंठाएं शांत होती है और एंकर की TRP बढ़ती है। दर्शक फिर ऐसे ही मुस्लिम अपने अड़ोस-पड़ोस में खोजने लगते हैं जिनपर चिल्ला कर, जिनको गाली दे कर या मार कर वह अपनी कुंठा शांत कर सकें।
यह एक तरीका है ताकि बहुसंख्यक नौकरी, मंहगाई, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि पर अपना गुस्सा सरकार को न दिखा सकें। भारतीय मीडिया उनके गुस्से के लिए एक पंचिंग बैग देती है। अभी वह पंचिंग बैग मुसलमान हैं। मीडिया मालिक पेड न्यूज़ और फेक न्यूज़ को बंद नहीं करना चाहते क्योंकि यह उनके लिए आमदनी का ज़रिया है। जिस टीआरपी का हवाला दिया जाता है, यह बताने के लिए कि जनता यही देखना चाहती है, उसका संबंध दर्शक से नहीं, बाज़ार से है और जो टीआरपी है वह 70 फीसद शहरों पर आधारित है क्योंकि ‘बीएआरसी’ ने रेटिंग मशीनें अधिकतर शहरों में ही लगाई हैं जबकि भारत गांव का देश है और यहां 65-70 फीसद आबादी गांवों में रहती है। इसलिए आप देखते होंगे कि कोई बीमारी या संकट जब तक शहर के कुलीन वर्गों को नहीं छूता तब तक वह संकट ही नहीं होता। जब तक शहरों को पानी की कमी नहीं हुई तब तक मीडिया के लिए सूखा नहीं होता। अब बात TRP से आगे निकल चुकी है। एंकरों ने अपना पक्ष चुन लिया है। उन्हें पता है उन्हें क्या करना है। अगर कोई पत्रकार हिम्मत भी करना चाहता है तो नहीं कर पता क्योंकि पत्रकार ख़ुद हाशिये पर हैं, उनकी नौकरी में कोई स्थायित्व नहीं। अ है पत्रकार जो मुख्यधारा की नफ़रत फैलाने वाली लाइन से अलग हट कर बात करते हैं, उन्हें बाक़ी के दरबारी पत्रकार ही देशद्रोही घोषित कर देते हैं ताकि इन पत्रकारों द्वारा उठाए गए प्रश्न निष्प्रभावी हो जाएं।
होटेल रवांड़ा होटल रवांडा (Mille Collines) एक ऐसा होटल था जो विशेषत: विदेशी सैलानियों के लिए बना था। इस होटल के मैनेजर का नाम पॉल रूसेसाबगीना था। फ़िल्म में पॉल रूसेसाबगीना यह मानने को तैयार ही नही होता है कि मीडिया द्वारा फैलाई जा रही हिंसा कभी इतनी भयानक होगी। जब उसके दोस्त और ड्राइवर उससे पूछता है कि ‘क्या उन्हें रवांडा छोड़ देना चाहिए ?’ तो पॉल रूसेसाबगीना जवाब देता है कि –“मैं मानता हूं कि तुत्सीयों पर अत्याचार हो रहा है पर हालात इतने भी खराब नही हैं” उसे लगता है कि वह बड़े-बड़े लोगों से मिल रहा है। अगर कोई मुसीबत आती है तो वे लोग उसे बचा लेंगे। पर जब जन-संहार शुरू होता है तब वह अपने को असहाय महसूस करता है। अमेरिकी राष्ट्रपति बिलकलिंटन अपने 257 नागरिकों को निकालने के लिए सेना भेजते हैं। उन नागरिकों के साथ आए कुत्तों को भी बचा लिया जाता है पर रवांडा के तुत्सीयों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है। यूनाइटेड नेशन (UN) ने अपने सैनिकों को गोली न चलाने के आदेश दिए थे । बेल्जियम की सेना भी मूक दर्शक बनी खड़ी रही। फ़िल्म में यूनाइटेड नेशन शांति सेना के जनरल डलायर पॉल रूसेसाबगीना से कहते हैं कि –”तुम लोग इन गोरों के लिए कुछ नहीं हो, एक वोट भी नहीं। तुम्हारी जान की परवाह वह सब क्यों करें? तुम उनके लिए बस एक गन्दे काले इंसान हो!”
इस जनसंहार के बाद दुनियां की आंख खुली और दोषियों को सज़ा देने के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने तंज़ानिया में एक इंटरनेशनल क्रिमिलन ट्रिब्यूनल बनाया। कुल 93 लोगों को दोषी ठहराया गया और पूर्व सरकारों के दर्जनों हूतू अधिकारियों को भी सज़ा दी गई। मीडिया पर भी जन-संहार का आरोप लगा उन्हें भी आजीवन कैद की सज़ा सुनाई गई। पर क्या तुत्सी हत्यारों को सज़ा मिली ? हुतू नरसंहार के लिए आरोपी थे तो क्या तुत्सीयों पर भी उसी तरह हूतुओं की हत्याओं का आरोप नहीं लगना चाहिए? मीडिया के अंतरराष्ट्रीय मानक का अनुपालन कराने के लिए क्या क़दम उठाया जा रहा है? मीडिया की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के उपाय कहाँ तक कारगर हो रहे हैं? क्रॉस मीडिया स्वामित्व के सवाल को कैसे हल किया जाएगा ? न्याय के अभाव में आक्रोश पैदा होता है। जिसका अंत एक बड़ी त्रासदी के रूप में सामने आता है। हमें समाज मे न्याय और मानवाधिकार को सुनिश्चित करना ज़रूरी है। “मनुष्य” के रूप में हमारी सबसे बड़ी पहचान ही हिंसा को रोक सकती है। अमर्त्य सेन अपनी किताब ‘आइडेंटिटी एंड वायलेंस (Identity and Voilance) में लिखते हैं कि – ”किसी हुतू मज़दूर पर यह दबाव बनाकर कि वह केवल हुतू है, तुत्सीयों की हत्या के लिए रवाना किया जा सकता है परन्तु सच्चाई यह होगी कि वह केवल हुतू नहीं है। वह किगाली भी है, रवांडा भी है, अफ्रीकी भी है, मज़दूर भी है और मनुष्य भी है। इस प्रकार मनुष्य की अनेक पहचानों को स्वीकार किया जाना आवश्यक है। साथ ही यह भी बहुत आवश्यक है कि वह अपनी इन विविध पहचानों में से सही पहचान के चुनाव की योग्यता तथा क्षमता हासिल करें।”
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लेनिन मौदूदी लेखक हैं एवं DEMOcracy विडियो चैनल के संचालक हैं, लेखक हैं और अपने पसमांदा नज़रिये से समाज को देखते-समझते-परखते हैं.
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Excellent article , caste based participation in media houses shows our democratic condition.
Only 8 % high class people captured the media houses.”Abhi Delhi dur ha”
Very relevant articles for present Indian main streem media.