0 0
Read Time:34 Minute, 56 Second

विनय डी दामोदर (Vinay D Damodar)

परिचय

पूरे भारत में, जातीय कारक दलगत राजनीतिक कार्यों को अच्छा ख़ासा प्रभावित करते हैं। यहाँ तक कि वामपंथी दल (केरल गवाह है) भी मौजूदा सामाजिक-राजनीतिक माहौल से नहीं बच पाए हैं। कर्नाटक में, कई अन्य राज्यों की तरह, राजनीतिक सत्ता के लिए संघर्ष इसी तर्ज पर विकसित हुआ है। कर्नाटक विधानसभा चुनाव अगले एक-दो महीने में होने हैं। राजनीतिक दलों ने राज्य में जाति-धर्म की गतिशीलता को संचालित करना शुरू कर दिया है। जबकि इस राज्य में वोक्कालिगा समुदाय के पास एक बड़ा वोट शेयर है और लिंगायत समुदाय भी चुनाव के दौरान ‘टैप’ करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण समुदाय है।

कुछ समय पहले, बीदर में, लिंगायत समुदाय के लगभग 50,000 लोग अपने अलग धर्म की माँग को लेकर सामने आए थे। तब से, इस बात का समर्थन करने वाले लोगों की संख्या में वृद्धि हुई है। पार्टी लाइन के लोग इस माँग का समर्थन कर रहे हैं।

इस आलेख में, हम कर्नाटक में लिंगायत समुदाय द्वारा एक अलग धार्मिक अल्पसंख्यक दर्जे की माँग के आंदोलन को देखने जा रहे हैं। मुख्य फोकस लिंगायत समुदाय द्वारा एक अलग धार्मिक अल्पसंख्यक स्थिति के लिए आंदोलन के जाति और राजनीतिक कारकों के आसपास बहस को समझना है। आलेख को कुछ भागों में बाँटा गया है: पहला भाग इस पर केन्द्रित है कि लिंगायत कौन हैं; दूसरा इस बात पर आधारित है कि लिंगायतवाद हिंदू धर्म से कैसे अलग है, लिंगायत समुदाय की क्या माँग है, कर्नाटक में लिंगायत एक प्रमुख समुदाय के रूप में, लिंगायत आंदोलन और कर्नाटक चुनावों में जाति की राजनीति क्या है? और अंत में, सभी पहलुओं को समेटती टिप्पणी रहेगी।

लिंगायत कौन हैं?

12वीं सदी के समाज सुधारक, कवि, राजनेता और दार्शनिक बसवेश्वर को लिंगायतवाद का जनक माना जाता है, क्योंकि उन्होंने लिंगायतवाद की नींव रखी थी। हालांकि इस बात पर बहस चल रही है कि क्या बसवेश्वर ने संप्रदाय की स्थापना की या उन्होंने केवल एक मौजूदा व्यवस्था में सुधार किया। इसमें कोई संदेह नहीं है कि उनकी रहनुमाई में समुदाय ने एक सुव्यवस्थित, संरचित जन-आंदोलन का रूप ले लिया था। संप्रदाय के अनुयायी उन्हें अपने धर्म के संस्थापक और प्रमुख दार्शनिक के रूप में सम्मान देते हैं। ऐसे दावे हैं कि बसवेश्वर, जिन्हें बसवा के नाम से भी जाना जाता है, का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था, जब कलचुरी वंश के राजा बिज्जल प्रथम ने कर्नाटक में शासन किया था। बसवेश्वर ने मंदिरों में जाने और मूर्ति पूजा जैसे पारंपरिक अनुष्ठानों के बजाय भक्ति प्रथाओं की वकालत की। उन्होंने ‘इष्ट लिंग’ के विचार पर अधिक जोर दिया, जिसका अर्थ है कि एक छोटे अकार के लिंगा जैसे प्रतीकों को पहनकर व्यक्तिगत रूप से शिव की पूजा करना।

लिंगायत धर्म का पालन करने वाले व्यक्ति को बसवेश्वर के वचनों का पालन करना चाहिए। ऐसा माना जाता है कि 12वीं शताब्दी में लिंगायतवाद ने लैंगिक और सामाजिक समानता जैसे सबसे प्रगतिशील और समतावादी मूल्यों की वकालत की थी। बसवेश्वर ने ब्राह्मणों द्वारा पवित्र धागा पहनने की भेदभावपूर्ण प्रथा का भी विरोध किया और इसके बजाय हर व्यक्ति द्वारा अपने जन्म की परवाह किए बिना इष्टलिंग हार (Necklace) पहनने की प्रथा की वकालत की, जो शिव की भक्ति की निरंतर याद दिलाता है।

सामाजिक व्यवस्था को लेकर बसवन्ना की दृष्टि मानव स्वतंत्रता, समानता, तर्कसंगतता और भाईचारे पर आधारित थी। उन्होंने और उनके अनुयायियों ने अपने विचारों को वचनों (गद्य-गीत) के माध्यम से फैलाया और उनका मुख्य लक्ष्य जाति पदानुक्रम था जिसे उन्होंने पूरी ताकत से खारिज कर दिया। अपने एक वचन में, बसवन्ना ने जोर देकर कहा कि ” जन्महीनों में कोई जाति-भेद नहीं होता है, कोई अनुष्ठान प्रदूषण नहीं होता है।” उन्होंने ब्राह्मणवादी कर्मकांडों और वेदों जैसे पवित्र ग्रंथों के पालन को खारिज कर दिया।

कर्नाटक में कुछ प्रसिद्ध हस्तियां जो लिंगायत परंपरा की अनुयायी भी हैं, उनमें पूर्व मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा, पत्रकार गौरी लंकेश और विद्वान एम.एम. कलबुर्गी शामिल हैं।

लिंगायतवाद हिंदू धर्म से कैसे अलग है?

लिंगायत समुदाय के कुछ सदस्यों का तर्क है कि यह हिंदू धर्म से अलग है, इसका प्रमुख कारण समानता का लिंग तटस्थ (यानि लिंग के आधार पर भेदभाव न होना) और जाति-तटस्थ व्यवहार (यानि जाति के आधार पर भेदभाव वाला व्यवहार न होना) है। बसवन्ना के सुधारवादी भक्ति आंदोलन ने जाति व्यवस्था को खारिज कर दिया, जिसे हिंदू धर्म की अभिन्न प्रथाओं में से एक माना जाता है। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, बसवन्ना का दावा है कि “जन्महीनों में कोई जाति-भेद नहीं होता है, कोई अनुष्ठान प्रदूषण नहीं होता है।”

जबकि हिंदू धर्म ने व्यवसायों को जातियों में बदल दिया, बसवा ने इसे उलट दिया और जातियों को फिर से व्यवसायों में बदल दिया। हिंदू समाज ने लोगों को जन्म के आधार पर विभेदित किया जबकि बसवा ने सभी को एक समान दर्जा दिया।

जो लोग लिंगायतवाद के पक्ष में एक अलग धर्म के रूप में तर्क देते हैं, वे इसे एक एकेश्वरवादी प्रथा के रूप में मानते हैं जो ईश्वर के रूपों में विश्वास नहीं करता है बल्कि केवल सर्वज्ञ भगवान की पूजा करता है। यह होम, यज्ञ और बलिदान जैसी प्रथाओं को भी खारिज करता है और किसी भी स्थान या किसी नदी को पवित्र नहीं मानता है।

इंडियन एक्सप्रेस में 14 दिसंबर 2017 के एक लेख के अनुसार, लिंगायतों का मुद्दा इस तथ्य के चलते और जटिल है कि यह एक अलग धर्म की सामाजिक-सांस्कृतिक माँग है जिसके पीछे वोटों का एक ज्वलंत राजनीतिक संघर्ष है। पिछले कुछ दशकों में लिंगायत आंदोलन के क्रमिक राजनीतिकरण के बारे में इतिहासकार मनु देवदेवन कहते हैं, “यह आंदोलन बीसवीं सदी की शुरुआत में शुरू हुआ था। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जब पहली जनगणना हुई, भारत में अधिकांश समुदायों ने खुद को समरूप समूहों के रूप में पहचानना शुरू कर दिया। तो काफी हद तक, यह तब एक सांस्कृतिक आंदोलन था। आपको वहाँ कुछ भी स्पष्ट रूप से राजनीतिक नहीं लगता। ऐसा 1980 के दशक के बाद ही होता है।”

हालाँकि, यह पूरा आंदोलन एक ही मूल प्रश्न के इर्द-गिर्द घूमता है: लिंगायत कौन हैं और उनकी धार्मिक पहचान क्या है?

उन्हें हिंदू धर्म से अलग कैसे माना जाता है?

विरोध या असंतोष आंदोलनों की व्यापक प्रवृत्ति के दायरे में लिंगायत संप्रदाय के उभार को रख कर देख सकते हैं, जिसे ‘भक्ति आंदोलनों’ के रूप में गलत तरीके से वर्गीकृत किया गया है, जो कि 8वीं शताब्दी से पूरे दक्षिण भारत में फैल गया था।

भक्ति परंपरा एक सामाजिक सुधार आंदोलन था जो हिंदू देवी-देवताओं के इर्द-गिर्द विकसित हुआ, लेकिन जाति और पंथ की परवाह किए बिना आध्यात्मिकता के मार्ग की पेशकश करके हिंदू धर्म से अलग हो गया। एक तरह से, ये ऐसे आंदोलन थे जिन्होंने हिंदू धर्म के भीतर जन्म लिया, लेकिन अनुयायियों ने परंपरा के भीतर अन्यायपूर्ण प्रथाओं के रूप में जो देखा, उसे सुधारने का प्रयास किया। इस अर्थ में, भक्ति आंदोलनों में से कोई भी एक अलग धर्म का दर्जा हासिल नहीं कर सका क्योंकि उन्होंने उस धर्म को सुधारने का प्रयास किया जिसमें वे पैदा हुए थे।

हालांकि, लिंगायतों का मामला अलग था। जबकि वे हिंदू धर्म के भीतर एक सामाजिक सुधार आंदोलन की श्रेणी में भी आ गए, उन्होंने पारंपरिक भक्ति वाले प्रतिमान से अपना पूरी कट्टरता के साथ पलायन किया। “जबकि पारंपरिक भक्ति आंदोलन मौजूदा ब्राह्मणवादी हिंदू प्रणाली के मामूली, अस्पष्ट और भावनात्मक रूप से आलोचनात्मक थे, लिंगायतवाद ने उसे उसकी जड़ों तक चुनौती दी, और एक उच्च संरचित (structured) आंदोलन बनकर और भक्ति आंदोलनों पर आधारित समानता और सामान मूल्यों वाली विचारधारा के अनुसार आन्दोलन का संस्थागतकरण (institutionalization ) करने का प्रयास करके अपनी चुनौती को जानदार बनाया।”

“कर्नाटक में लिंगायत भक्ति आंदोलन अपने आप में एक पंथ का रूप धारण कर लेता है। प्राचीन काल से ही लिंगायत का दर्जा वंशानुगत प्रकृति का था। यह कुछ ऐसा है जो दक्षिण भारत में और कहीं किसी भक्ति आंदोलन में नहीं हुआ, इसलिए वे एक अलग धार्मिक स्टेटस की माँग कर रहे हैं,” देवदेवन कहते हैं। इसलिए, बसवन्ना के आंदोलन ने न केवल हिंदू सांस्कृतिक प्रथाओं को उखाड़ फेंका, बल्कि अपने लिए एक संस्थागत व्यवस्था बनाकर अन्य भक्ति आंदोलनों से भी अलग हो गए।

उन्हें हिंदू खेमे का हिस्सा कैसे माना जाता है?

हालाँकि, जो समस्या जटिल है, वह यह है कि जहाँ लिंगायतवाद महत्वपूर्ण रूप से बड़े हिंदू ताने-बाने से अलग हो जाता है, वहीं यह इसके बड़े हिस्से को आत्मसात भी कर लेता है, जिससे उनकी पहचान को परिभाषित करना मुश्किल हो जाता है। एक पहलू जो हिंदू धर्म के साथ उसके जुड़ाव को मजबूत करता है, वह है उस संबंध का जो लिंगायत आस्था वीरशैववाद के साथ साझा करता है।

यह लोकप्रिय रूप से माना जाता है कि लिंगायतवाद और वीरशैववाद एक ही हैं, जबकि ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि ऐसा नहीं है।

बसवन्ना ने एक वैकल्पिक मॉडल पेश किया। वीरशैव शिवलिंगम से अपनी पौराणिक उत्पत्ति का दावा करते हैं, जो देखा जाए तो ब्राह्मणवाद के मूल सिद्धांतों के समान है। इसके विपरीत, बसवन्ना ने सभी ब्राह्मणवादी जड़ों का विरोध किया। हालांकि, बसवन्ना ने लिंगायत संप्रदाय की स्थापना की या केवल पहले से मौजूद वीरशैव संप्रदाय को संशोधित करने का काम किया, इस बारे में बहस से यह समझना मुश्किल हो जाता है कि उन्हें हिंदू पारंपरिक ढाँचे से किस हद तक अलग माना जा सकता है।

जटिलताएं इस तथ्य से भी उत्पन्न होती हैं कि लिंगायतवाद, हिंदू पारंपरिक प्रथाओं के बड़े हिस्से को खारिज करते हुए, इसके कुछ पहलुओं को आत्मसात भी कर लेता है, जैसे कि यह जैन धर्म और वैष्णववाद जैसी अन्य समकालीन धार्मिक परंपराओं के पहलुओं को अवशोषित करता है। “ये (लिंगायतवाद) उपनिषदों, जैन और वैष्णव परंपराओं से प्रभावित हैं। ये उन्होंने वैदिक परंपराओं से लिया है, ”देवदेवन कहते हैं। लिंगायत अनुयायियों का हिंदू धर्म के साथ सामाजिक और ऐतिहासिक रूप से जो घनिष्ठ संबंध है, वह हिंदू होने या न होने का एक जटिल मामला है।

क्या है लिंगायत समुदाय की माँग?

मार्च 2018 में, लिंगायत संतों के एक समूह ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया से मुलाकात की और उनसे एक आधिकारिक समिति की रिपोर्ट को लागू करने का आग्रह किया। इस रिपोर्ट में उनके समुदाय को एक अलग धार्मिक और अल्पसंख्यक का दर्जा देने की सिफारिश की थी। गडग (कर्नाटक का एक जिला) स्थित तोंतादार्या मठ के सिद्धलिंग स्वामी के नेतृत्व में संतों ने सिद्धारमैया से उनके आधिकारिक आवास पर मुलाकात की। वो चाहते थे कि सिद्धारमैया नागमोहन दास समिति की रिपोर्ट पर विचार करें और उसे लागू करें, जिसमें कहा गया है कि “कर्नाटक में लिंगायतों को धार्मिक अल्पसंख्यक माना जा सकता है”।

तोंतादार्या मठ स्वामी के अनुसार, उनकी लड़ाई कोई नई नहीं है, यह 900 साल पुरानी लड़ाई है और अब यह एक रूप ले चुकी है। इसलिए मुख्यमंत्री को रिपोर्ट को लागू कर लिंगायत समुदाय को अलग दर्जा देना चाहिए।

वीरशैव/लिंगायत धर्मों के लिए एक अलग धार्मिक पहचान की माँग जिन समुदायों से सामने आई है वह संख्यात्मक रूप से मजबूत और राजनीतिक रूप से प्रभावशाली हैं, हालाँकि दोनों समुदायों को समान रूप से पेश करने पर दोनों समुदायों में भीतर से नाराजगी बनी हुई थी।

एक वर्ग का नेतृत्व अखिल भारत वीरशैव महासभा कर रही है, जिसने वीरशैव और लिंगायत एक ही होने का दावा करते हुए एक अलग धार्मिक स्थिति की माँग की है। दूसरा केवल लिंगायतों के लिए एक दर्जा/स्टेटस चाहता है क्योंकि यह मानता है कि वीरशैव शैव धर्म के सात संप्रदायों में से एक है, जो हिंदू धर्म का हिस्सा है।

लिंगायत नेता माटे महादेवी, जिन्होंने अपनी बात भी रखी, ने विश्वास व्यक्त किया कि सिद्धारमैया उनकी माँग को पूरा करेंगे और केंद्र से उनके समुदाय को एक अलग धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा देने की सिफारिश करेंगे। लिंगायत संतों की माँग वीरशैव संतों द्वारा रिपोर्ट पर अपनी नाराज़गी व्यक्त करने के तुरंत बाद आई क्योंकि इसमें वीरशैवों को शामिल नहीं किया गया था।

संक्षेप में, लिंगायत समुदाय एक धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा माँग रहा है और यदि वीरशैवों को शामिल करना है, तो उन्हें हिंदू धर्म छोड़कर लिंगायतवाद का पालन करना चाहिए।

कर्नाटक चुनाव में लिंगायत आंदोलन और जाति की राजनीति

कर्नाटक चुनावों के पर्यवेक्षक इस बात से परिचित हैं कि जाति आधारित राजनीतिक गतिशीलता राज्य में गहरी जड़ें जमा चुकी है। लिंगायत आंदोलन धार्मिक और सामाजिक निर्माण से बहुत आगे जाता है। किसी को यह बहुत नासमझी भरा लग सकता है कि एक अलग धर्म की माँग केवल एक धार्मिक पहचान के लिए मान्यता प्राप्त करने को लेकर है।

जेम्स मैनर (1997) के अनुसार, कर्नाटक में राजनीति लंबे समय से दो प्रमुख समुदायों – लिंगायतों और वोक्कालिगाओं के बीच होने वाले एक उतार-चढ़ाव लिए हुए संघर्ष की तरह रही है। हालाँकि, चीजें बदल रही हैं, और परिवर्तन देवराज उर्स के शासन के दौरान सबसे अधिक उजागर हुए हैं। उर्स शासन द्वारा कुछ जानबूझकर (और कभी-कभार कठोर) अपनाए गए उपाए इन पारंपरिक शक्ति केंद्रों की भूमिका को कम करने में सहायक रहे हैं। इसका परिणाम ये हुआ कि एक ऐसा राजनीतिक समूह उभरा जो वोक्कालिगा और लिंगायत दोनों द्वारा किये उत्पीड़न से पीड़ित था।

कर्नाटक दशकों से स्थिर, कांग्रेस पार्टी के प्रभुत्व का एक उत्कृष्ट उदाहरण पेश करता है। कांग्रेस 1932 के आम चुनावों में लड़ी और 145 लोकसभा सीटों में से 129 पर जीत हासिल की और यह कभी भी उपचुनाव नहीं हारी है। कांग्रेस के विभाजन के समय एक संक्षिप्त ब्रेक के अलावा, पार्टी ने हमेशा बहुत ही आरामदायक बहुमत के साथ राज्य की विधानसभा को नियंत्रित किया है। कांग्रेस का नगरपालिका और स्थानीय बोर्ड की राजनीति में भी इसी तरह से दबदबा रहा है। कर्नाटक में राजनीतिक प्रतिस्पर्धा दरअसल कांग्रेस और अन्य दलों के बीच न होकर कांग्रेस के भीतर अधिक रही है।

सभी स्तरों पर कांग्रेस प्रणाली के लिए काम करने वाले और लाभान्वित होने वाले लोग मुख्य रूप से राज्य की दो तथाकथित प्रमुख ‘जातियों’, वोक्कालिगा और लिंगायतों से लाए गए थे।

हालांकि उन्हें अक्सर ‘बहुसंख्यक समुदायों’ के रूप में संदर्भित किया जाता है, कुछ दावों के अनुसार, लिंगायत और वोक्कालिगा मिलकर राज्य की आबादी का केवल एक तिहाई हिस्सा बनाते हैं। इन समूहों के वर्चस्व वाली कांग्रेस फिर भी बड़े चुनावी बहुमत के लिए सुनिश्चित करने के लिए अन्य समूहों के वोटों की पर्याप्त संख्या पर भरोसा कर सकती है। पार्टी उस उत्तोलन पर भरोसा करती थी जो वोक्कालिगा और लिंगायत भूमि नियंत्रण और गांवों में प्रमुख पदों से प्राप्त करते थे। इसने समाज के इन बहिष्कृत और वर्चस्व वाले वर्गों की शिकायतों को नियंत्रित करने में सक्षम होने के लिए अन्य सामाजिक समूहों के चुनिंदा नेताओं के साथ सावधानीपूर्वक संबंध बनाए।

जब वोटिंग शेयरों की बात आती है, तो अकेले कर्नाटक में, लिंगायत प्रमुख समुदायों में से एक है। अलग धार्मिक दर्जे की माँग केवल अल्पसंख्यक दर्जे के साथ मिलने वाले लाभों से प्रेरित है। आरक्षण उनमें से एक है।

कर्नाटक में बीजेपी के पास लिंगायत नेता बी. एस. येदियुरप्पा हैं, जो पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं। वे पार्टी के सीएम फेस भी हैं। हालांकि, पार्टी की मुख्य विचारधारा हिंदुत्व है, इसने कभी भी आंदोलन का समर्थन नहीं किया है या कभी करेगा भी नहीं।

यहाँ तक कि खुद येदियुरप्पा ने भी इस आंदोलन से दूरी बना ली थी।

दूसरी ओर, कांग्रेस ने लिंगायत समुदाय को अलग धर्म का दर्जा देने की माँग का समर्थन करने का जोखिम उठाने का फैसला किया है। परंपरागत रूप से, लिंगायतों ने कांग्रेस से दूरी बना रखी है; इसलिए ऐसा लग सकता है कि माँग का समर्थन करने से वोट बैंक आकर्षित हो सकता है।

कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने समुदाय से यहाँ तक कहा कि कांग्रेस केंद्र सरकार के सामने उनके मुद्दों को रखने के लिए तैयार है।

अब देखना होगा कि लिंगायत समुदाय का वोट कांग्रेस के पक्ष में जाता है या बीजेपी को हिंदू वोटों को और मजबूत करने में मदद करता है.

लिंगायत समुदाय

भारतीय राज्य की राजनीति की गतिशीलता को प्रभावशाली जातियों/समुदायों के अध्ययन के बिना नहीं समझा जा सकता है क्योंकि वे संख्यात्मक, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और राजनीतिक रूप से प्रभावशाली हैं। कर्नाटक राज्य की राजनीति में लिंगायत और वोक्कालिगा दो ऐसे प्रमुख समुदाय/जातियां हैं।

प्रो. एम. एन. श्रीनिवास, समाजशास्त्री, ने अपनी पुस्तक, द डोमिनेंट कास्ट एंड अदर एसेज में, एक प्रमुख जाति की विशेषताओं का वर्णन इस तरह से किया है:

“एक जाति को तब प्रभावी कहा जा सकता है जब वह अन्य जातियों पर संख्यात्मक रूप से प्रबल होती है और जब वह प्रमुख आर्थिक और राजनीतिक शक्ति का प्रयोग करती है”। उन्होंने आगे सामाजिक स्थिति और व्यवसाय को प्रभुत्व के घटकों में जोड़ा। उनका मत है कि एक प्रमुख जाति का गुणक प्रभाव होता है और इस प्रकार कहते हैं: “जब एक जाति एक प्रकार के प्रभुत्व का आनंद लेती है, तो वह समय के साथ-साथ अन्य रूपों को भी प्राप्त करने में सक्षम होती है”।

वह अंततः एक प्रभावशाली जाति/समुदाय के छह घटकों/तत्वों की पहचान करते हैं। ये हैं (i) संख्यात्मक ताकत, (ii) आर्थिक शक्ति, (iii) उच्च सामाजिक स्थिति, (iv) बेहतर शिक्षा, (v) व्यवसाय की स्थिति, और (vi) राजनीतिक शक्ति। लुई ड्यूमॉन्ट भी कमोबेश एक प्रमुख जाति के समान गुणों की बात करते हैं जब वे केरल में नायर जाति का उल्लेख करते हैं।

लिंगायत समुदाय व्यावसायिक रूप से पाँच समूहों में विभाजित है – पुजारी, व्यापार/ वाणिज्यिक, कृषि, और कारीगर और विविध। एक विशाल बहुमत कृषि में लगा हुआ है; उनका दूसरा प्रमुख व्यवसाय बिज़नस है और शेष विविध कार्य में लगे हुए हैं। सभी लिंगायत बहुल गांवों, कस्बों और शहरों में पुजारी वर्ग के मठ हैं। कर्नाटक के सभी मठों में लिंगायत मठों की संख्या सबसे बड़ी है। उनमें से कई गरीब लिंगायत छात्रों के लिए मुफ्त बोर्डिंग चलाते हैं, कई शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना की है और वीरशैव/ लिंगायत साहित्य प्रकाशित कर रहे हैं।

हालांकि लिंगायत आम तौर पर भूमि और व्यवसाय के स्वामित्व के मामले में अच्छी स्थिति में हैं, लेकिन उनमें गरीब लोगों की एक बड़ी संख्या है।

लिंगायत कर्नाटक में संख्यात्मक रूप से प्रमुख समुदायों में से एक हैं और तेलंगाना, महाराष्ट्र, आंध्र, तमिलनाडु और केरल जैसे अन्य दक्षिणी राज्यों में कम संख्या में हैं।

आधुनिकीकरण के एजेंटों जैसे रैपिड-ट्रांसपोर्ट और संचार, पश्चिमी उदार (लिबरल) शिक्षा, प्रिंटिंग प्रेस, समाचार पत्र, औद्योगीकरण, शहरीकरण, आदि, और भारत में 19वीं शताब्दी में लोकतांत्रिक विचारों और साहित्य के प्रसार और लोकतांत्रिक संस्थानों की स्थापना जैसी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की शुरुआत हुई जिससे भारतीयों सहित लिंगायतों में नई जागरूकता आई। लिंगायतों ने अपने समुदाय को आधुनिक आधार पर विकसित करने के लिए आधुनिकीकरण और लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रसार के के स्रोतों का लाभ उठाया। वे इस संबंध में ब्राह्मणों के साथ प्रतिस्पर्धा करना चाहते थे और यह साबित करना चाहते थे कि वे किसी से पीछे नहीं हैं।

लिंगायत समुदाय, जो पारंपरिक समाज में भी प्रमुख है, ने आधुनिकीकरण और लोकतांत्रिक संस्थाओं के वाहकों/एजेंटों का उपयोग किया है, और बदली हुई परिस्थितियों में अपने सापेक्ष प्रभुत्व को बनाए रखा है। जैसा कि प्रो. श्रीनिवास ने बताया है, एक क्षेत्र में प्रभुत्व के गुणक प्रभाव से दूसरे क्षेत्र में फैलने के परिणामस्वरूप, लिंगायत समुदाय को राजनीति सहित विभिन्न क्षेत्रों में प्रभुत्व का लाभ मिला है। अन्य प्रतिस्पर्धियों की अनुपस्थिति में, लिंगायत-वोक्कालिगा अनौपचारिक गठबंधन 1956 और 1972 के बीच कर्नाटक की राज्य की राजनीति में निर्विवाद प्रभुत्व स्थापित करने में सक्षम था। 1972 और 1983 के बीच कांग्रेस द्वारा कमजोर वर्गों के सशक्तिकरण पर जोर देने के साथ, कांग्रेस कर्नाटक की राज्य की राजनीति में लिंगायत-वोक्कालिगा गठबंधन के प्रभुत्व को कम करने में सक्षम थी। राजनीतिक रूप से, सामाजिक रूप से जागृत और आर्थिक रूप से सशक्त कमजोर वर्ग राज्य की राजनीति में मुखर हो गए, लिंगायत-वोक्कालिगा अनौपचारिक गठबंधन अब केवल एक वैकल्पिक प्रतियोगी बन गया है, न कि कर्नाटक राज्य की राजनीति में एक विशेष खिलाड़ी।

निष्कर्ष

कर्नाटक में लिंगायत समुदाय धार्मिक अल्पसंख्यक दर्जे की माँग कर रहा है व् खुद को हिंदू धर्म से अलग पाता है। कर्नाटक राज्य मंत्रिमंडल ने नागमोहन दास पैनल की रिपोर्ट की सिफारिश को अपनी मंजूरी दे दी, जिसमें कहा गया है कि लिंगायतों को धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा मिलना चाहिए। अब केंद्र को ही इसकी मंजूरी देनी चाहिए। मुझे लगता है कि एक अलग धार्मिक अल्पसंख्यक दर्जे के लिए लिंगायत समुदाय का यह आंदोलन एक तरह से महाराष्ट्र में मराठा समुदाय द्वारा समुदाय के लिए आरक्षण की माँग के आंदोलन के समान है। मराठा महाराष्ट्र में एक प्रमुख जाति और राजनीतिक रूप से प्रमुख हैं। राज्य की राजनीति में मराठा समुदाय का अच्छा प्रतिनिधित्व है, जिसकी सभी पार्टियों में मजबूत उपस्थिति है। और कुछ साल पहले, कांग्रेस ने कर्नाटक में लिंगायत की माँग के समान आरक्षण की उनकी माँग को मंजूरी दे दी, जब वे सत्ता में थे और विधानसभा चुनाव होने वाले थे। लेकिन इस माँग को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया।

अब यहाँ कर्नाटक में भी यही हाल है: कांग्रेस ने चुनाव से पहले राज्य विधानसभा में लिंगायत की माँग को मंजूरी दे दी. लेकिन इसे कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है, क्योंकि वीरशैव और बीजेपी के कुछ लोग इसका विरोध कर रहे हैं और दावा कर रहे हैं कि यह समुदाय को बाँट रहा है. अंतर केवल इतना है कि लिंगायतवाद अलग है और जो इसे विशिष्ट बनाता है वह यह है कि वे लोग हैं जिन्होंने बसवन्ना के दर्शन का पालन किया था, जो जाति पदानुक्रम और हिंदू धर्म को खारिज करता है। और इस वजह से इसे धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जा सकता है। अंत में, अगर इसे धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा मिलता है तो भारत में जाति की राजनीति और शासन पर इसका बहुत प्रभाव पड़ेगा।

~

References

Manor, J. (1977). Structural changes in Karnataka politics. Economic and Political Weekly, 1865-1869.

Patil, S. H. (2007). Impact of modernisation and democratisation on a dominant community: A case study of the Lingayat community in Karnataka. The Indian Journal of Political Science, 665-684.

Ray, A., & Kumpatla, J. (1987). Zilla Parishad Presidents in Karnataka: Their Social Background and Implications for Development. Economic and Political Weekly, 1825-1830.

https://www.thenewsminute.com/karnatakas/564

https://www.news18.com/news/india/lingayat-veerashaiva-split-wide-open-top-congress-leader-son-may-join-bjp-1695619.html

http://www.firstpost.com/politics/lingayat-seers-meet-siddaramiah-to-press-for-implementation-of-nagmohan-das-panel-report-minority-status-4395451.html

http://velivada.com/2018/03/19/the-battle-between-caste-and-anti-caste-lingayats-revolt

~~~

विनय दामोदर एक आंबेडकरवादी शोध छात्र हैं, जो वर्तमान में ‘सेंटर फॉर स्टडी ऑफ़ सोशल जस्टिस‘, टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज (मुंबई) से ‘समावेशी विकास और सामाजिक न्याय’ विषय में पीएचडी कर रहे हैं। उनकी रुचि जाति, जाति-विरोधी आंदोलन, आंबेडकरवादी समूहों की राजनीति, डॉ आंबेडकर के विचारों और दृष्टि आदि में निहित है। वह भीम नगर, अकोला, महाराष्ट्र से हैं।

अनुवाद (अंग्रेजी से हिंदी में ) : गुरिंदर आज़ाद (Gurinder Azad)

इस आलेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।

Magbo Marketplace New Invite System

  • Discover the new invite system for Magbo Marketplace with advanced functionality and section access.
  • Get your hands on the latest invitation codes including (8ZKX3KTXLK), (XZPZJWVYY0), and (4DO9PEC66T)
  • Explore the newly opened “SEO-links” section and purchase a backlink for just $0.1.
  • Enjoy the benefits of the updated and reusable invitation codes for Magbo Marketplace.
  • magbo Invite codes: 8ZKX3KTXLK
Happy
Happy
0 %
Sad
Sad
0 %
Excited
Excited
0 %
Sleepy
Sleepy
0 %
Angry
Angry
0 %
Surprise
Surprise
0 %

Average Rating

5 Star
0%
4 Star
0%
3 Star
0%
2 Star
0%
1 Star
0%

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *