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लेनिन मौदूदी (Lenin Maududi)

“धर्म संकट में है। गंगाजली उठाकर प्रतिज्ञा करो कि भारत की पवित्र भूमि को मुसलमानों के खून से धोना है…” स्वामीजी जोश में आ चुके थे। “देखो, कलकत्ता और लाहौर और नवाखाली में इन मलेच्छ तर्कों ने हमारी माताओं का कैसा अपमान किया है… ।”

“बोलो बजरंगबली की…” एक अकेली आवाज उठी।

“जय!” सारा गाँव गूँज उठा।

“…अउरी अब ऊ सब जात बाड़न हमनी का घर फूँके। कहत बाड़न की तूं जा पाकिस्तान हम कहलीं की ना जाइब हम बस, बिगड़ गइलन लोग।

यह बात सुबह होते-होते अड़ोस-पड़ोस के सारे देहातों में फैल गई। सीधे-सादे किसानों की समझ में नहीं आई। कई स्वामियों के दौरा करने के बाद भी यह बात उनकी समझ में नहीं आई कि अगर गुनाह कलकत्ता के मुसलमानों ने किया है तो बारिखपुर के बफाती, अलावलपुर के घरऊ, हँडरही के घसीटा को, यानी अपने मुसलमानों को सजा क्यों दी जाए? जिन मुसलमान बच्चियों ने छुटपन में उनकी गोद में पेशाब किया है, उनके साथ जिना (व्यभिचार) क्यों और कैसे की जाए? उनकी समझ में यह भी नहीं आ रहा था कि जिन मुसलमानों के साथ वह सदियों से रहते चले आ रहे हैं, उनके मकानों में आग क्यों और कैसे लगा दी जाए? उन मुल्लाजी को कोई कैसे मारे जो नमाज पढ़कर मस्जिद से निकलते हैं तो हिंदू-मुसलमान सभी बच्चों को फूँकते हैं? किसानों की समझ में यह आता था कि झगड़े की जमीन की फसल काट ली जाए। जमीन के मामले में एकाध कत्ल-खून हो जाए तो कोई बात नहीं। लेकिन यूँ ही, सिर्फ इस जुर्म पर किसी को कत्ल कर देना या किसी का घर फूँक देना कि कोई मुसलमान है, उनकी समझ में नहीं आ रहा था।”

प्रस्तुत उद्धरण राही मासूम रज़ा के लोकप्रिय उपन्यास ‘आधा गाँव’ से लिया गया है। ‘आधा गाँव’ मासूम रज़ा की सर्वाधिक लोकप्रिय रचना है जिसे लेखक ने ग़ाज़ीपुर के अपने गाँव गंगौली के सामाजिक एवं राजनीतिक परिवेश को आधार बनाकर लिखा है। पूरा उपन्यास अशराफ़ समाज विशेषत: शिया सैयद परिवार के ऊपर है और इसी वजह से यह कहानी मुहर्रम और ताज़िये के इर्द-गिर्द घूमती है जैसा कि राही मासूम रज़ा लिखते हैं “सच तो यह है कि उन दिनों सारा साल मोहर्रम के इंतज़ार ही में कट जाता था। ईद की ख़ुशी अपनी जगह, मगर मोहर्रम की ख़ुशी भी कम नहीं हुआ करती। बकरीद के बाद ही मोहर्रम की तैयारी शुरू हो जाती।” राही मासूम रज़ा अपने उपन्यास की भूमिका में लिखते है- “यह कहानी न कुछ लोगों की है, न कुछ परिवारों की। यह उस गाँव की कहानी भी नहीं है जिसमें इस कहानी के बुरे-भले पात्र अपने-आपको पूर्ण बनाने का प्रयत्न कर रहे हैं। यह कहानी न धार्मिक है, न राजनीतिक क्योंकि समय न धार्मिक होता है, न राजनीतिक। और यह कहानी समय की है। यह गंगौली में गुजरने वाले समय की कहानी है।” इसलिए पाठक देखते हैं कि कहानी के पात्रों पर समय का कैसा असर दिखता है, समय के साथ साथ कहानी के पात्र में भी बदलाव आता है। इस वजह से उपन्यास के पात्रों में बनावटीपन नहीं है। यह उपन्यास ‘सांझी संस्कृति सांझी विरासत’ की संकल्पना पर लिखी गई है जो यह समझाने का प्रयास करती है कि गंगौली जैसे छोटे से गाँव के आम मुसलामनों को ‘पकिस्तान’ विभाजन साम्प्रदायिकता का उतना बोध नहीं था पर जैसे भारत का रजनीतिक परिदृश्य बदला वैसे ही ‘गंगौली पर भी इसका प्रभाव लक्षित होने लगा। जबकि हम यह देखते हैं कि भारत में अशराफ़ संस्कृति और पसमांदा संस्कृति दो अलग संस्कृतियाँ हैं। पसमांदा समाज के ज्यादातर रिवाज़ को तो अशराफ़ हिंदुवाना रिवाज़ कह कर खारिज कर देते हैं। ऐसे में सांझी संस्कृति हिंदू-मुस्लिम एकता दरअसल सवर्ण-अशराफ़ एकता ही बनी रहती है। मेरी इस समीक्षा में हम पसमांदा नज़रिये से इस उपन्यास को देखेंगे और आज़ादी के पहले और बाद में इस ‘आधा गाँव’ के हाशिए पर खड़े पुरे पसमांदा समाज के हालात को समझने की कोशिश करेंगे।

‘आधा गाँव’ के प्रमुख पात्र मुस्लिम ज़मींदार हैं जो ऊँची जाति से आते हैं बाकि पसमांदा जातियां उनकी प्रजा की तरह है जो इस कहानी में अशराफ़ पात्रों की तुलना में हाशिए पर खड़े हैं। ‘मियां लोग’ चैप्टर में यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाएगी कि पसमांदा जातियों को ‘मियां’ शब्द से नहीं पुकारा जाता था। कुछ ख़ास शब्द कुछ ख़ास जातियों के लिए होते थे। आज भी ठेठ गाँव में मियां का घर पूछेंगे तो गाँव के आम आदमी किसी सैयद, मिर्ज़ा, पठान का ही घर दिखा देंगे। किसी जुलाहे कुंजड़ा धुनिया के घर को मियां का घर नहीं बोला जाता है। जैसे ऊँची जाति की महिलाओं के लिए ‘बीबी’ शब्द का प्रयोग होता था न कि किसी जुलाहन, भटियारिन, धुनियारन आदि के लिए। पसमांदा जाति की औरतों को तो इस तरह सम्बोधित किया जाता था ‘बौ कुंजड़न, लतीफ़ मनिहारन, मदारन बौ, जुलाहीन बौ आदि। जब मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी अपनी व्यथा बयां करते हुए कहते हैं ‘बेपर्दा नज़र आईं जो कल चन्द बीबियाँ/अकबर ज़मीं में ग़ैरत-ए-क़ौमी से गड़ गया/पूछा जो आप का पर्दा वह क्या हुआ/कहने लगीं के अक़्ल पे मर्दों के पड़ गया’ यहाँ अकबर पर्दे की फ़िक्र सिर्फ अपनी जाति यानी अशराफ़ औरतों के लिए कर रहे हैं। राही मासूम रज़ा भी लिखते हैं, “सैयदानियाँ तो डोली के बिना घर से निकल ही नहीं सकती थीं। ये तो गाँव की राकिनें, जुलाहिने, अहिरनें और चमाईनें होती थीं (जो ताज़िया देखने बेपर्दा निकलती थी)[1] हिंदी उपन्यास जगत में शायद पहली बार मुस्लिम जन-जीवन की भीतर-बाहरी सच्चाईयाँ/ मुस्लिम जाति व्यवस्था के बारे में/मुस्लिम समाज में मौजूद छुआछूत के बारे में इतना सजीव/यथार्थ चित्रण हुआ है जितना राही मासूम रज़ा ने अपने उपन्यास ‘आधा गाँव’ में किया है हालाँकि फिर मैं कह रहा हूँ कि उनकी चिंता उनकी जातिगत चिंता थी इसके बावजूद भी उन्होंने बहुत ईमानदारी से अशराफ़ घरों में जातिगत शिक्षा को दर्शाया है। जैसे वह लिखते हैं कि ‘हकीम साहब हौज़ के किनारे बैठकर उस हाथ को साफ़ करने लगे जिस हाथ से उन्होंने एक काफ़िर- और वह भी नीची ज़ात के एक काफ़िर का हाथ छुआ था’[2]। अब छुआछूत का दूसरा मामला देखें “झंगटिया-बो ने अपना हाथ फैला दिया और सकीना ने फैले हुए हाथ पर तह किया हुआ पान का बीड़ा ऊपर से छोड़ दिया जो उसकी हथेली पर गिरकर खुल गया। झंगटिया-बो ने सलाम कर के वह पान खा लिया”[3]

मुसलमानों के बीच प्रचलित जाति का भेद ‘आधा गाँव’ में कई जगह देखने को मिलता है जैसे एक जगह जुलाहों के लड़के मीर साहब के लड़के के साथ कबड्डी खेलते है तब गया अहीर ने उन लड़कों को इधर-उधर फेंकते हुए कहा– “अब तुँह लोगन अइसन लाड साहेब होगइल बाडा की मीर साहेब के लइकन से कबड्डी खेलबा?” (इस घटना से नाराज़ होकर) फुन्नन दादा जुलाहों के घर तक लपक गए और लाठी बजा-बजाकर उन्हें गाली देने लगे [4] मुस्लिम समाज में मौजूद कुफ़ू (शादी बियाह में जातियों की बराबरी की कौन सी जाति आपस में बराबर हैं और कौन सी नहीं, कौन किससे शादी कर सकता है और कौन नहीं) के बारे में भी यह उपन्यास बहुत साफ़ लहजे में बात करता है कि शादी के लिए हड्डी मिलाना कितना ज़रूरी होता था और है। अगर पसमांदा जाति की किसी औरत से अगर शादी हो भी गई तो अशराफ़ समाज उसे स्वीकार नहीं करता था, जैसे राही लिखते हैं ‘नईमा दादी बहरहाल जुलाहन थी और सैदानियों के साथ नहीं रह सकती थी। पुराने ज़माने के लोग इस बात का बड़ा ख्याल रखते थे कि कौन कहाँ बैठ सकता है और कहाँ नहीं’[5] आज़ादी के बाद जब अशरफों की ज़मींदारियाँ छिन जाती है और पसमांदा जातियों को भी अलीगढ़ जैसे अशराफ़ संस्था में जगह मिल जाती है [सर सैयद पसमांदा जातियों को आधुनिक शिक्षा देने के पक्ष में नहीं थे। इस विषय में मेरा यह लेख पढ़ें] तब एक सैयदों की लड़की कमीला और रहमत जुलाहे के लड़के बरकतुवा उर्फ़ मोहम्मद बरकतुल्लाह अंसारी में इश्क़ परवान चढ़ने लगता है। राही लिखते हैं कि बरकतुवा अलीगढ़ में अपने दोस्तों को अपने और कामिला के इश्क़ के बारे में बड़ी-बड़ी बातें बताई थीं पर उसका ज़्यादा ज़ोर इस पर था कि उसकी माशूका खरी सैदानी है। पर उनके इश्क़ की खबर फुन्नन मियां को लग जाती है। बरकतुवा के बाप को गाली बकते हैं उस पर बरकतुवा अपने बाप को अब्बू बोल देता है। यह सुन कर फुन्नन मियां आग बबूला हो जाते हैं और कहते हैं ‘तूहूँ अपने बाप को अब्बा कहे लगिहो तो शरीफ लोगन के लड़के अपने बाप को का कहके पुकरीहें!” फुन्नन मियां बरकतुवा और कमीला की बात कमीला के बाप अली मियां तक पहुँचा देते हैं। अली मियां अपनी बिरादरी में लड़का खोजना चाहते हैं जो खरा सैयद हो इसलिए वह फिददू से शादी के पक्ष में नहीं हैं जो दागी सैयद है अर्थात उसके खून में दूसरी जाति की मिलावट है। इस पर फुन्नन मियां कहते हैं कि ‘बिगड़ काहे रहे हो? फिददू से कामिला का बियाह हरगिज़ मत करिहो। बाकि उ बरकतवा के साथ खुदा न ख़ास्ता भाग जाए, तब कह दियो गाँव भर से कि रहमतवा (बरकतवा का बाप) तो खरा सैयद है।’ [6]

हम इस उपन्यास में पसमांदा और अशराफ़ संस्कृतियों के बीच फर्क भी देखते हैं। अभी तक हम जिसे मुस्लिम पहचान के रूप में जानते हैं वह दरसल अशराफ़ मुसलमानों की पहचान है। मास-मिडिया के सबसे बड़े माध्यम फिल्मों में तो इस अशराफ़ पहचान और उनकी संस्कृति को ही पाला पोसा जाता है। मुग़ले आज़म, महबूब की मेंहदी, पाकीज़ा, उमराव जान, डेढ़ इश्क़िया जैसी फिल्में इस श्रेणी में रख सकते हैं जिसका ज़्यादातर मुसलमानों यानी पसमांदा मुसलमानों से कोई तआल्लुक़ नहीं है। इसमें अशराफ़ जातियों के तौर-तरीके और भाषा को ‘मुस्लिम संस्कृति’ के रूप में दिखाया गया हैं। इन फ़िल्मों में जिस भाषा और शान-ओ-शौकत को दिखाया गया है वह असल में 85% मुस्लिम (पसमांदा) समाज के लिए एलियन थे। तवायफ के कोठे पर जाना, घर में रखैल (रखनी) रखना क्या पसमांदा संस्कृति का कभी हिस्सा रहा है? राही मासूम रज़ा अपने उपन्यास ‘आधा गाँव’ में इस बात को तो इंगित करते हैं कि गंगौली की आम बोली (उर्दू भोजपुरी) में वहाँ के अशराफ़ और पसमांदा दोनों बात करते हैं। (अलीगढ़ की वजह से अशरफों में उर्दू बोलने का चलन बढ़ता है) पर अशराफ़ के घर और पसमांदा के घर की संस्कृति में अंतर् भी है जिसे वह साफ़ तौर पर स्पष्ट तो नहीं करते पर हम उसे उनके उपन्यास में देख सकते हैं। जैसे वह लिखते हैं ‘गंगौली की औरतों को गुज्जन मियां से यह शिकायत नहीं थी कि उन्होंने कोई रंडी डाल ली है। रंडी डाल लेने में कोई बुराई नहीं है।…..दूसरा ब्याह कर लेना या किसी ऐरी-गैरी औरत को घर में डाल लेना बुरा नहीं समझा जाता था, शायद ही मियां लोगों का कोई ऐसा खानदान हो, जिसमें लड़के और लड़कियाँ न हों। जिनके घर में खाने को भी न हो वह भी किसी-न-किसी तरह कलमी आमों और कलमी परिवार का शौक पूरा कर लेते हैं, [7]… मशहूर था कि सलीमपुर के ज़मींदार अशरफ़ुल्लाह खान अशरफ अपने दादा के कलमी दीवान की तरह उस लौंडे को भी रक्खे हुए थे! और फुरसत में इन दोनों ही के पन्ने उल्टा-पुल्टा करते थे। उन्होंने तो उस लौंडे का नाचना भी बंद करवा दिया था।[8] एक और घटना देखिये एक सैयद घर का लड़का मिगदाद हसब-नस्ब तोड़ते हुए सैफुनिया से बियाह कर लेता है। इस पर हम्म्दा के पूरे घर वाले उसका बॉयकाट करते हैं। बशीर मियां दुबारा रिश्ता सुधारने की कोशिश करते हैं। कहते हैं, लड़का है गलती हो गई। वह मिगदाद से कहते हैं कि चल, माफ़ी मांग बाप से। इस पर मिगदादा कहता है ‘माफ़ी काहें की, साहब! हम ओ से बियाह किया है। कउनो हरमकारी ना कर रही’ इस पर फुन्नन मियां कहते हैं ‘केको ना मालूम ई बात की सैफुनियाँ सैयद हम्माद हुसैन ज़ैदी (तोरे बाप) की बेटी है?”[9] इस तरह हम देखते हैं कि एक भाषा बोलने वाले सवर्ण और दलित, अशराफ़ और पसमांदा में सांस्कृतिक भिन्नता पाई जाती है जो शोषक और शोषित की भिन्नता है।

बटवारे का पूरा इतिहास एक जटिल इतिहास है। हम यहाँ बटवारे के कारणों की बारीकियों में नही जा रहे हैं पर यहाँ यह कहना ज़रूरी है कि कैसे अलीगढ़ आंदोलन बाद के कालों में पाकिस्तान आंदोलन में बदल गया। इसकी शुरुआत सर सैयद ने खुद ही कर दी थी जैसा कि अनुराग भारद्वाज satyagrah.scroll.in पर लिखते हैं कि “सैयद अहमद खान ने एक मर्तबा कहा था कि जब हिंदुस्तान से अंग्रेज़ मय साज़ो-सामान रुख़सत हो जायेंगे तब यह मान लेना कि सिंहासन पर हिंदू और मुसलमान एक साथ काबिज़ होंगे, महज़ लफ्फाज़ी है. उन्होंने यह भी कहा था कि दोनों का संघर्ष तब तक ख़त्म नहीं होगा, जब तक कोई एक दूसरे पर जीत न पा ले. शायद यहीं द्वि-राष्ट्र सिद्धांत की बात हो जाती है. पर वहीं खुशवंत सिंह जैसे भी लोग थे जो यह मानते थे कि भारत के बटवारे की नींव लाला लाजपत राय और बाल गंगाधर तिलक जैसे राष्ट्रवादी नेताओं ने रखी थी.”[10] इसी सोच का नतीजा था कि अलीगढ़ विश्वविद्यालय के पढ़े-लिखे स्टाफ लड़के यह मानने लगे थे आज़ाद भारत में उनको नौकरियां नहीं मिल पाएंगी वह कांग्रेस को एक हिंदू पार्टी के तरीके से देखते थे और अपने वर्गीय हित के प्रति भी सचेत थे। यह भी ज्ञात रहे कि अलीगढ़ विश्वविद्यालय अशराफ़ के लिए बनाया गया था और वहाँ ज़मींदारों के लड़के ही पढ़ते थे। मसूद आलम फलाही साहब अपनी किताब ‘हिंदुस्तान में ज़ात पात और मुसलमान’ में सर सैयद द्वारा कही बातें दर्ज़ करते हैं कि “मुझ से अधिक कोई व्यक्ति ऐसा नहीं होगा जो मुसलमानों में अंग्रेज़ी शिक्षा तथा ज्ञान को बढ़ावा देने का इच्छुक एवं समर्थक हो। परन्तु प्रत्येक कार्य के लिए समय एवं परिस्थितियों को देखना भी आवश्यक है. उस समय मैंने देखा कि आपकी मस्जिद के प्रांगण में, जिसके निकट आप मदरसा बनाना चाहते हैं, 75 बच्चे पढ़ रहे हैं। जिस वर्ग (पसमांदा जाति) एवं जिस स्तर के यह बच्चे हैं उनको अंग्रेज़ी पढ़ाने से कोई लाभ नहीं होने वाला। उनको उसी प्राचीन शिक्षा प्रणाली में ही व्यस्त रखना उनके और देश के हित में अधिक लाभकारी है।”[11] सर सैयद की मौत के बाद वहाँ बाद के कालों में वहाँ अंसारी और राकी जाति के एक दो बच्चे पढ़ने लगे पर वह भी अशराफ़ की सांप्रदायिक मानसिकता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। जौन एलिया का एक फिकरा मशहूर है कि ‘पाकिस्तान अलीगढ़ के लड़कों की शरारत थी’ यह लड़के गाँव-गाँव घूम कर लोगों को यह समझा रहे थे कि अगर पाकिस्तान नहीं बनेगा तो ‘हिंदुस्तान के 18 करोड़ मुसलमान अछूत बन कर रह जाएंगे’[12] ‘ये लोग हमारी मस्जिदों मे गाय बाधेंगे’ पर गंगौली के आम लोगों को यह बात समझ में नहीं आ रही है। “हिंदुस्तान (India) के दस करोड़ मुसलमान कायदे-आज़म के पसीने पर अपना खून बहा देंगे… ये बातें न गफूरन की समझ में आती न सितारों की। अशिक्षित आम-मुस्लिम पुरूष और स्त्रियाँ बस इतनी ही कहती; अब मियाँ आप पढ़े-लिखे हैं ठीक ही कहते होंगे।[13] “गंगौली के लोगों के समझ में नहीं आ रहा था कि मुसलमानों को अलग वतन की जरूरत क्यों आन पड़ी है। पाकिस्तान का निर्माण तथा ‘मुस्लिम लीग’ उनके समझ के बाहर की चीज़ थी। ‘पाकिस्तान’ चले जाने से उनका विकास किस तरह से होने लगेगा? यह उनके लिए अबूझ पहेली थी। फुन्नन मियां पाकिस्तान का पुरजोर विरोध करते हुए कहता है- “कही इस्लामु है कि हुकूमत बन जैयहें! ऐ भाई, बाप-दादा की क़बूर हियाँ है, चौक इमामबाड़ा हियाँ है, खेत-बाड़ी हियाँ है। हम कोनो बुरबक है कि तोरे पाकिस्तान जिंदाबाद में फँस जायँ।”[14] लोगो को समझ नहीं आ रहा था कि ‘हिंदुस्तान के आज़ाद होवे के बाद ई गायवा अहीर, इ लखना चमार या इ हरिया बदई हमारे दुश्मन काहे क हो जाईयें’[15] कुलदीप नैयर, अपनी आत्मकथा ‘एक ज़िंदगी काफी नहीं’ में लिखते हैं कि “मुझे याद है, बँटवारे से पहले एक यात्रा के दौरान जब अबुल कलाम आज़ाद की ट्रेन अलीगढ़ रेलवे स्टेशन पर रुकी थी तो अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के कुछ छात्रों ने उनके मुँह पर थूक दिया था। क्या यह उसी नफ़रत की सूचना थी जो आज़ाद को पाकिस्तान के रूप में जन्म लेती दिखाई दे रही थी?”

यहाँ इस बात को भी रेखांकित करना ज़रूरी है कि अलीगढ़ के पाकिस्तान आंदोलन के खिलाफ पसमांदा समाज का मुस्लिम लीग विरोधी पाकिस्तान विरोधी आंदोलन भी चल रहा था इतिहास में इसे मोमिन तहरीक/आंदोलन के नाम से जाना जाता है जिसे मौलाना असीम आली बिहारी और अब्दुल कयुम अंसारी लीड कर रहे थे। राही मासूम रज़ा इस ओर इशारा करते हुये लिखते हैं कि अलीगढ़ के लड़के मुस्लिम लीग और पाकिस्तान का प्रचार गंगौली मे कर रहे थे पर जुलाहों को वह नहीं समझा पा रहे थे। हाजी मियां का सवाल था कि ‘का पाकिस्तान मे मियां लोग जोलहन से रिस्ता-नाता करे लगिहेन’[16] अलीगढ़ के ये लड़के कहते हैं कि ‘मैं जुलाहों और बिहारियों से बात नहीं कर सकता। दोनों साले मादरज़ात चूतिये होते हैं’ यह नफरत पसमांदा के लिए शुरू से इनके दिल मे रही है क्यूंकि पाकिस्तान का सबसे बड़ा विरोध इन्हीं पसमांदा जतियों ने किया है। जैसा कि हाजी साहब कहते हैं, ‘हम लोग जमीयतुल अंसार वाले हैं। हम लोग उसलीम लीग मुस्लिम लीग को ओट ना दे सकते हैं।’ राही मासूम रज़ा अपने उपन्यास में जब दो राष्ट्र सिद्धांत और मुस्लिम लीग के पक्ष मे काली शिरवानी के मुँह से समर्थन करा रहे होते हैं तो उसमे एक पसमांदा लड़के को भी समर्थन करते हुए दिखाते हैं पर जैसा कि हमने ऊपर देखा पसमांदा समाज तो अलीगढ़ में न के बराबर था।

इस विषय पर पसमांदा बुद्धिजीवी खालिद अनीस अंसारी साहब अपने लेख ‘हाँ, मुसलमानो का तुष्टिकरण हुआ है, लेकिन अशराफ़ मुसलमानों का‘ में लिखते हैं- आज़ादी से पहले मुसलमानों के अन्दर दो तरह के [महत्वपूर्ण] संगठन थे. एक ‘मुस्लिम लीग’ जो कि सवर्ण या अशराफ़ मुसलमानों का संगठन था जो ‘दो राष्ट्रों के सिद्धांत’ को मान रहा था, टू नेशन थ्योरी [two nation theory] का समर्थन कर रहा था. दूसरी तरफ ‘मोमिन कांफ्रेंस’ थी जो पसमांदा मुसलमानों का संगठन था और वह ‘टू नेशन थ्योरी’ का विरोध कर रही थी. जब 1946 का इलेक्शन आता है जिसे कन्सेंसस ऑन पाकिस्तान [consensus on Pakistan] कहा जाता है…और उस वक़्त अगर आप जानते हैं तो भारत में यूनिवर्सल एडल्ट फ्रैंचाइज़ [universal adult franchise] नहीं था, सब लोगों को वोट देने का अधिकार नहीं था। एक रिस्ट्रिक्टेड इलेक्टोरेट [restricted electorate] था भारत में। वही लोग वोट दे पाया करते थे जो साहिब-ए-हैसियत हुआ करते थे, जिनके पास संपत्ति हुआ करती थी या कुछ ख़ास डिग्री बी.ए…ये सब कर रखा होता था। तो अगर आप मुसलमानों को देखें तो इस तरह के लोग जिनको वोट देने का अधिकार था उनकी आबादी सिर्फ 12 से 15 प्रतिशत थी और ये [ज़्यादातर] लोग सवर्ण या अशराफ़ मुसलमान थे। 1946 का इलेक्शन जिसमे मुस्लिम लीग ने बहुत मज़बूती से जीत हासिल की और पाकिस्तान का रास्ता साफ़ हुआ, उसमें अगर किसी की जिम्मेदारी [बनती] है तो ये अशराफ़ 12-13 प्रतिशत वर्ग की ज़िम्मेदारी है। अशराफ़ एज़-ए-क्लास [as a class] ने पकिस्तान को वोट दिया। ये अलग बात है कि हर वर्ग में बग़ावती तेवर के लोग होते हैं। कुछ लोग ऐसे ज़रूर थे जिन्होंने टू नेशन थ्योरी का विरोध किया जैसे [मौलाना] अबुल कलाम आजाद साहब…और भी कई लोग थे इस तरह के। लेकिन वह महज़ व्यक्ति हैं, बुद्धिजीवी हैं, वो अपने वर्ग की नुमाइंदगी नहीं करते थे। अगर 1946 का इलेक्शन कन्सेंसस ऑन पाकिस्तान है, अगर 1946 के इलेक्शन में मुस्लिम लीग भारी मतों से जीत कर आती है तो उसमें सारे मुसलमानों की ज़िम्मेदारी नहीं थी क्योंकि 85% मुसलमानों का वोट टेस्ट [test] ही नहीं हुआ था।[17]

पाकिस्तान निर्माण के पक्ष में गंगौली के मुसलमान भले ही नहीं थे लेकिन पाकिस्तान बनने के पश्चात इसका असर ‘गंगौली’ पर भी पड़ा। कुछ लोगों को न चाहते हुए भी ‘पाकिस्तान’ जाना पड़ा। जमींदारों की जमींदारी खत्म होने के पश्चात उन्हें ‘हिंदुस्तान’ और ‘पाकिस्तान’ में कोई अंतर नहीं लगा। बटवारे के बाद जो अशराफ़ यहाँ रह गए उनका गुस्सा इन शब्दों में फूटकर बाहर आया- “इनके जिन्ना साहब तो हाथ झाड़ के चले गए कि हियां के मुसलमान जाएं, खुदा न करें जहन्नुम में। ई अच्छी रही। पाकिस्तान बने के वास्ते वोट दें हियां के मुसलमान अऊर जब पाकिस्तान बने त जिन्नावा कहे कि हियां के मुसलमान जायं चूल्हे भाड़ में। और तोहरा अलीगढ़ त हियन रह गवा मर्दे”[18] राही मासूम रज़ा यह भी बता रहे हैं कि पुराने मुस्लिम लीगी जो बटवारे की पूरी राजनीती में लगे हुए थे, अचानक उन्होंने कांग्रेसी टोपी पहनी और जा के कांग्रेस से जुड़ गए और तब से भारत में जिसे हम मुस्लिम राजनीति बोलते हैं, उस पे उनका पूरी तरह से इन अशराफ़ जातियों का ही वर्चस्व है और ये वर्चस्व आज तक जारी है!”

इस तरह हम देखते हैं कि राही मासूम रज़ा ने जितनी हिम्मत के साथ मुस्लिम समाज का यथार्थ चित्रण किया है। ऐसा चित्रण हमें दूसरे अशराफ़ लेखकों के लेखन में देखने को नहीं मिलता है। यह अशराफ़ लेखक खुदा से बगावत करते ज़रूर नज़र आ जाएंगे पर ये लोग सैयदवाद/अशराफ़वाद के खिलाफ एक शब्द नहीं लिखते हैं। इनकी प्रगतिशीलता बिस्तर से शुरू हो कर बिस्तर पर खत्म होती नज़र आती है। ऐसे में राही मासूम रज़ा का ‘आधा गाँव’ मील का पत्थर साबित होता है।

उन्हीं की कही बात पर खत्म करता हूँ कि-

काली रात के मुँह से टपके जाने वाली सुबह का जूनून
सच तो यही है, लेकिन यारों, यह कड़वा सच बोले कौन
हमने दिल का सागर मथ कर काढ़ा तो कुछ अमृत
लेकिन आई, ज़हर के प्यालों में यह अमृत घोले कौन

~

संदर्भ:

1:-रज़ा, राही मासूम, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-71
2:-रज़ा, राही मासूम, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-96
3:-रज़ा, राही मासूम, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-112
4:-रज़ा, राही मासूम, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-35
5:- रज़ा, राही मासूम, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-16
6:- रज़ा, राही मासूम, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-333
7:- रज़ा, राही मासूम, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-17
8:- रज़ा, राही मासूम, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-87
9:- रज़ा, राही मासूम, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-278
10:- अनुराग भारद्वाज ,Satyagrah.Scroll.In,सैयद अहमद खान : भारत के सबसे बड़े मुस्लिम समाज सुधारक जिन पर बटवारे का दाग भी लगता है,17 अक्टूबर 2020
11:- फलाही, मसऊद आलम, https://hindi.roundtableindia.co.in,' सर सय्यद अहमद खां – शेरवानी के अन्दर जनेऊ’
12:- रज़ा, राही मासूम, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-239
13:- रज़ा, राही मासूम, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-60
14:- रज़ा, राही मासूम, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-155
15:-रज़ा, राही मासूम, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-240
16:-रज़ा, राही मासूम, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-243
17:- अंसारी,प्रोफेसर खालिद अनीस https://hindi.roundtableindia.co.in,'हाँ, मुसलमानो का तुष्टिकरण हुआ है, लेकिन अशराफ़ मुसलमानों का,
18:-रज़ा, राही मासूम, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-284
19:-रज़ा, राही मासूम, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-243

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लेनिन मौदूदी लेखक हैं एवं  DEMOcracy विडियो चैनल के संचालक हैं और अपने पसमांदा नज़रिये से समाज को देखते-समझते-परखते हैं.

तस्वीरें साभार इन्टरनेट दुनिया

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